डेली न्यूज़ (26 Sep, 2020)



राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग

प्रिलिम्स के लिये

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग, भारतीय चिकित्सा परिषद

मेन्स के लिये

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग और इसकी आवश्यकता, आयोग से संबंधित अन्य मुद्दे

चर्चा में क्यों?

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, देश में चिकित्सा शिक्षा और व्यवसाय के शीर्ष नियामक के तौर पर राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (National Medical Commission- NMC) अस्तित्त्व में आ गया है। 

प्रमुख बिंदु

  • इस प्रकार देश में चिकित्सा शिक्षा का विनियमन अब राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) द्वारा किया जाएगा, जिसने दशकों पुरानी संस्था भारतीय चिकित्सा परिषद (MCI) का स्थान लिया है। 
  • इसके साथ ही भारतीय चिकित्सा परिषद अधिनियम, 1956 को निरस्त कर दिया गया है और अब राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम, 2019 लागू हो गया है।
  • राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) के तहत चार बोर्ड्स का भी गठन किया गया है, जो राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग को उसके दिन प्रतिदिन के काम काज में मदद करेंगे।
  • दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) के ENT (Ear Nose Throat) विभाग के पूर्व प्रमुख डॉ. सुरेश चंद्र शर्मा को तीन वर्ष के लिये आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है।

महत्त्व

  • विशेषज्ञों के अनुसार, इस ऐतिहासिक सुधार के चलते भारतीय चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में पारदर्शिता आएगी और गुणवत्तापूर्ण तथा उत्तरदायी व्यवस्था बनाने में मदद मिलेगी।
  • सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब से नियामक नियंत्रक का चयन योग्यता के आधार पर किया जाएगा ना कि चुने गए नियामक नियंत्रक द्वारा। 

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC)

  • उद्देश्य: राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) की स्थापना मुख्यतः चिकित्सा शिक्षा क्षेत्र में सुधार लाने के लिये एक सरकारी कदम के रूप में की गई है। ध्यातव्य है कि इससे पूर्व सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण भारतीय चिकित्सा परिषद (MCI) को समाप्त करने का निर्णय लिया था।
  • संरचना: राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग में कुल 33 सदस्य होंगे, जिनकी नियुक्ति एक विशेष समिति की सिफारिशों पर केंद्र सरकार द्वारा की  जाएगी।
    • इन सदस्यों में एक अध्यक्ष और अलावा 10 पदेन सदस्य और 22 अंशकालिक शामिल होंगे।
    • आयोग में अंशकालिक सदस्य के तौर पर प्रबंधन, कानून, चिकित्सा नैतिकता आदि क्षेत्रों और राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा नामांकित विशेषज्ञों को शामिल किया जाएगा।
  • कार्य: राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) का मुख्य कार्य चिकित्सा क्षेत्र की नियामक व्यवस्था को सुव्यवस्थित करना, संस्थाओं का मूल्यांकन और शोध पर अधिक ध्यान देना है।
    • इसके अलावा राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग MBBS के उपरांत होने वाली फाइनल ईयर परीक्षा (राष्ट्रीय एग्जिट टेस्ट-NEXT) के तौर-तरीकों पर, निजी चिकित्सा विद्यालयों के शुल्क ढाँचे का नियमन करने और सामुदायिक स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल उपलब्ध कराने के बारे में मानक तय करने से संबंधित कार्य भी करेगा। 
  • राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) में चार अलग स्वायत्त बोर्ड शामिल होंगे-
    • स्नातक चिकित्सा शिक्षा बोर्ड (UGMEB): यह निकाय स्नातक स्तर पर चिकित्सा योग्यता, पाठ्यक्रम, चिकित्सा शिक्षा के लिये दिशा-निर्देश तैयार करने और चिकित्सा योग्यता को मान्यता देने का कार्य करेगा।
    • स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा बोर्ड (PGMEB): यह निकाय स्नातकोत्तर स्तर पर चिकित्सा योग्यता, पाठ्यक्रम, चिकित्सा शिक्षा के लिये दिशा-निर्देश तैयार करने और चिकित्सा योग्यता को मान्यता देने का कार्य करेगा।
    • चिकित्सा मूल्यांकन एवं रेटिंग बोर्ड: इस बोर्ड को उन संस्थानों पर मौद्रिक दंड लगाने की शक्ति होगी जो UGMEB और PGMEB द्वारा निर्धारित न्यूनतम मानकों को बनाए रखने में विफल रहेंगे। यह बोर्ड नए मेडिकल कॉलेजों की स्थापना, स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम शुरू करने और मेडिकल कॉलेज में सीटों की संख्या बढ़ाने की भी अनुमति देगा।
    • एथिक्स और मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड: यह बोर्ड देश में सभी लाइसेंस प्राप्त चिकित्सकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर बनाएगा और चिकित्सकों के पेशेवर आचरण को भी विनियमित करेगा। यह बोर्ड देश में सभी लाइसेंस प्राप्त सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाताओं के एक रजिस्टर का भी निर्माण करेगा।

पृष्ठभूमि

  • राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) की स्थापना से पूर्व देश में मेडिकल शिक्षा और व्यवसाय का विनियमन भारतीय चिकित्सा परिषद (MCI) द्वारा किया जा रहा था। 
    • हालाँकि इसके गठन से अब तक भारतीय चिकित्सा परिषद (MCI) पर उत्तरदायित्त्व, भ्रष्टाचार और इसके संगठन तथा विनियमन में इसकी भूमिका को लेकर कई मुद्दे सामने आते रहे हैं।
  • वर्ष 2018 में सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भारतीय चिकित्सा परिषद (MCI) को भंग कर दिया और इसे बोर्ड ऑफ गवर्नर्स (BoG) के साथ बदल दिया गया, जिसकी अध्यक्षता नीति आयोग (NITI Aayog) के एक सदस्य द्वारा की गई।
  • इसके पश्चात् वर्ष 2019 में लोकसभा द्वारा राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग विधेयक, 2019 पारित किया गया और इस प्रकार राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) अस्तित्त्व में आया।

आगे की राह

  • भारत लंबे समय से कुशल चिकित्सकों की कमी की समस्या से जूझ रहा है। भारत में ऐसे कुछ ही चिकित्सा संस्थान है जो उच्च कोटि के चिकित्सकों का निर्माण करते हैं।
  • ऐसे में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (NMC) की स्थापना देश में चिकित्सा शिक्षा और व्यवसाय क्षेत्र के बुनियादी ढाँचे के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है, साथ ही यह देश में उच्च कोटि के चिकित्सा संस्थानों के निर्माण में भी सहायक होगा।

स्रोत: द हिंदू


पूर्वव्यापी कराधान व्यवस्था और वोडाफोन कर विवाद

प्रिलिम्स के लिये

विथहोल्डिंग कर, वित्त विधेयक, आयकर अधिनियम 

मेन्स के लिये

पूर्वव्यापी कराधान व्यवस्था और वोडाफोन कर विवाद में निर्णय के निहितार्थ

चर्चा में क्यों?

दिग्गज ब्रिटिश टेलीकॉम कंपनी वोडाफोन ने हेग स्थित स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (Permanent Court of Arbitration) में भारत सरकार के विरुद्ध 22,100 करोड़ रूपए के कर विवाद में जीत हासिल की है।

प्रमुख बिंदु

  • एक महत्त्वपूर्ण मामले में स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (PCA) ने निर्णय दिया है कि वर्ष 2007 के सौदे के लिये ब्रिटिश टेलीकॉम पर पूंजीगत लाभ और विथहोल्डिंग कर’ (Withholding Tax) के रूप में 22,100 करोड़ रूपए की भारत सरकार की मांग ‘निष्पक्ष और न्यायसंगत वैधानिक उपचार की गारंटी का उल्लंघन करती है।

विथहोल्डिंग कर’ (Withholding Tax)

  • यह एक ऐसी राशि है जो नियोक्ता द्वारा कर्मचारी की आय से सीधे काटी जाती है और सरकार को व्यक्तिगत कर देयता के हिस्से के रूप में भुगतान की जाती है। 

निर्णय के निहितार्थ

  • स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (PCA) द्वारा वोडाफोन के पक्ष में दिया गया फैसला भारत की पूर्वव्यापी कराधान (Retrospective Taxation) नीतियों के लिये एक बड़ा झटका है।
  • इस फैसले के कारण यह संभावना भी बढ़ जाती है कि भारत सरकार को इसी तरह के अन्य मामलों में भी हार का सामना करना पड़ेगा।

वोडाफोन कर विवाद

  • दरअसल इस मामले की शुरुआत वर्ष 2007 में हुई थी जब मई माह में ब्रिटिश कंपनी वोडाफोन ने 11 बिलियन डॉलर की लागत से बहुराष्ट्रीय कंपनी हचिसन व्हेंपोआ (Hutchison Whampoa) के भारतीय दूरसंचार व्यवसाय का अधिग्रहण किया था।
  • इस सौदे के बाद सितंबर 2007 में भारत सरकार ने पहली पूंजीगत लाभ और विथहोल्डिंग कर’ (Withholding Tax) के रूप में यह कहते हुए 7,990 करोड़ रूपए की मांग की कि वोडाफोन को हचिसन व्हेंपोआ को भुगतान करने से पूर्व स्रोत पर कर (Tax at Source) की कटौती करनी चाहिये थी, जो कि नहीं की गई।
    • यह पूरा विवाद इस प्रश्न पर केंद्रित है कि क्या भारत में स्थित संपत्ति के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण पर आयकर अधिनियम की धारा 9 (1) (i) के तहत कर लागू किया जा सकता है अथवा नहीं।
    • आयकर अधिनियम की यह धारा पूंजीगत संपत्ति के एक कंपनी से दूसरी कंपनी में प्रत्यक्ष हस्तांतरण पर पूंजीगत लाभ कर लगाने का निर्देश देती है।
  • वोडाफोन ने सरकार की इस मांग को बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी, जिसने सरकार और आयकर विभाग के पक्ष में फैसला सुनाया।
  • इस निर्णय के पश्चात् वोडाफोन ने बॉम्बे उच्च न्यायालय के निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी, जिसमे वर्ष 2012 में निर्णय दिया कि वोडाफोन समूह की वर्ष 1961 के आयकर अधिनियम की व्याख्या पूर्णतः सही है और उसे हचिसन व्हेंपोआ कंपनी की हिस्सेदारी खरीदने के लिये किसी भी प्रकार का कर भुगतान नहीं करना पड़ेगा। 
  • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने वित्त अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव देकर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया। इस संशोधन के माध्यम से आयकर विभाग को इस प्रकार के सौदों पर पूर्वव्यापी कर (Retrospectively Tax) वसूलने की शक्ति प्रदान की।
  • संसद द्वारा पारित इस संशोधन के माध्यम से वोडाफोन एक बार फिर कर के दायरे में आ गई। 

पूर्वव्यापी कर और अधिनियम में संशोधन

  • वोडाफोन मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद सरकार ने आयकर अधिनियम की धारा 9 (1) (i) में संशोधन कर स्पष्ट कर दिया कि जब दो अनिवासी इकाइयों के बीच शेयर का लेनदेन होता है, जिसके परिणामस्वरूप भारत में स्थित संपत्ति का अप्रत्यक्ष हस्तांतरण होता है, तो ऐसी आय पर भारत में कर लगाया जाएगा।
  • हालाँकि वर्ष 2012 के आयकर अधिनियम में संशोधन की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इसे वर्ष 1962 से प्रभावी किया गया था यानी यह पूर्वव्यापी कराधान की व्यवस्था थी।
  • एक पूर्वव्यापी कर कानून वह है जो पारित होने वाली तारीख से पूर्व किसी अन्य तारीख से प्रभावी होता है। उदाहरण के लिये आयकर अधिनियम में अप्रत्यक्ष हस्तांतरण पर कर लगाने की व्यवस्था वर्ष 2012 में की गई थी, किंतु यह कर उन सभी लेन-देनों पर लागू हुआ था, जो वर्ष 1962 के बाद की गईं थीं। ध्यातव्य है कि वर्ष 1962 में ही आयकर अधिनियम लागू हुआ था।
  • सामान्यतः कर अधिरोपित करने वाले देशों द्वारा पूर्वव्यापी कराधान की व्यवस्था का उपयोग अपनी कराधान नीतियों में उन विसंगतियों को ठीक करने के लिये किया जाता है, जिनका प्रयोग पूर्व में कंपनियों द्वारा अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिये किया गया हो।
  • भारत के अलावा अमेरिका, ब्रिटेन, नीदरलैंड, कनाडा, बेल्जियम, ऑस्ट्रेलिया और इटली समेत कई देशों ने में पूर्वव्यापी कराधान व्यवस्था का प्रयोग किया है।

स्थायी मध्यस्थता न्यायालय में मामला 

  • वर्ष 2012 में जब संसद ने वित्त अधिनियम में संशोधन पारित किया तो वोडाफोन पर एक बार फिर कर के भुगतान का दायित्त्व आ गया।
  • सरकार द्वारा किये गए इस संशोधन की वैश्विक स्तर पर निवेशकों द्वारा काफी आलोचना की गई, और यह कहा गया कि यह ‘विकृत’ प्रकृति का संशोधन है।
  • चौतरफा अंतर्राष्ट्रीय आलोचना होते देख भारत ने वोडाफोन के साथ मामले को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने की कोशिश की, किंतु ऐसा संभव नहीं हो पाया।
  • वर्ष 2014 में जब वोडाफोन और वित्त मंत्रालय द्वारा इस मुद्दे को निपटाने के सभी प्रयास विफल हो गए तब वोडाफोन समूह ने वर्ष 1995 में भारत और नीदरलैंड के बीच द्विपक्षीय निवेश संधि (Bilateral Investment Treaty-BIT) के अनुच्छेद 9 को लागू कर दिया और यह मामला स्थायी मध्यस्थता न्यायालय के समक्ष पहुँच गया।
  • द्विपक्षीय निवेश संधि (BIT) के अनुच्छेद 9 के अनुसार, भारत और नीदरलैंड की इकाइयों के बीच निवेश के संबंध में होने वाले किसी भी विवाद को जहाँ तक संभव हो वार्ता के माध्यम से ही सौहार्दपूर्वक निपटाया जाना चाहिये।
  • अपने फैसले में स्थायी मध्यस्थता न्यायालय (PCA) ने कहा कि अब चूँकि यह स्थापित हो चुका था कि भारत ने नीदरलैंड के साथ किये गए द्विपक्षीय निवेश संधि की शर्तों का उल्लंघन किया है, इसलिये अब वह वोडाफोन से किसी भी प्रकार से कर की मांग नहीं कर सकता है।

द्विपक्षीय निवेश संधि (BIT)

  • 6 नवंबर, 1995 को भारत और नीदरलैंड ने एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में कंपनियों के निवेश को बढ़ावा देने और कंपनियों को संरक्षण प्रदान करने के लिये द्विपक्षीय निवेश संधि (BIT) पर हस्ताक्षर किये थे।
  • इस संधि के तहत यह तय किया गया कि दोनों देश दूसरे देश के निवेशकों के लिये अनुकूल परिस्थितियों को प्रोत्साहित करने और बढ़ावा देने का प्रयास करेंगे।
  • संधि के तहत यह तय किया गया कि दोनों देश यह सुनिश्चित करेंगे कि एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र में मौजूद कंपनियों को निष्पक्ष और न्यायसंगत वैधानिक उपचार की गारंटी मिलेगी।
  • भारत और नीदरलैंड के बीच द्विपक्षीय निवेश संधि 22 सितंबर, 2016 को समाप्त हो गई है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


सौर्यिक गतिविधि में कमी का भूमंडलीय तापन पर प्रभाव नहीं

प्रिलिम्स के लिये 

सौर कलंक, सौर चक्र, सोलर मिनिमम,  मॉर्डन ग्रैंड सोलर न्यूनतम

मेन्स के लिये 

सौर्यिक गतिवधि में कमी एवं शीतलन, पृथ्वी सतह का शीतलन: कारण, भूमंडलीय तापन के प्रभावों में कमी

चर्चा में क्यों? 

वैज्ञानिकों के अनुसार, 11 वर्ष का नया सौर चक्र अर्थात् 25वां सौर चक्र प्रारंभ हो गया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि सौर कलंकों की तीव्रता पिछले 100 वर्षों में वर्ष 2019 में सबसे कम रही है। इसे ‘सौर न्यूनतम’ ( Solar Minimum) के रूप में भी जाना जाता है। वर्ष 2020 में भी सौर कलंकों की तीव्रता कम देखी गई है।

सौर्यिक गतिवधि में कमी एवं शीतलन 

  • संयुक्त राज्य अमेरिका के ‘नेशनल ओशनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन’ (National Oceanic and Atmospheric Administration-NOAA) के स्पेस एनवायरनमेंट सेंटर (Space Environment Centre-SEC) के अनुसार, वर्ष 2020 में, 21 सितंबर तक, सूर्य के 71% भाग पर सौर कलंकों की अनुपस्थिति अवलोकित की गई है। इसी वर्ष मई माह में सौर कलंकों की अनुपस्थिति वाली सतह का हिस्सा 78% तक था। वैज्ञानिकों के अनुसार, इससे मिनी हिमयुग (Little Ice Age) की आशंकाओं को बल मिलता है।
  • वैज्ञानिकों के अनुसार, वर्ष 2020 से वर्ष 2053 तक सूर्य ‘मॉर्डन ग्रैंड सोलर मिनिमम’ (Modern Grand Solar Minimum) गतिविधि की लंबी अवधि से गुजर रहा है। पिछली बार इस तरह की घटना माउंडर मिनिमम (Mounder Minimum) के दौरान घटित हुई थी।
  • एक अध्ययन के अनुसार, मॉडर्न ग्रैंड सोलर मिनिमम के दौरान सौर्यिक चुंबकीय गतिविधि में 70% की कमी के कारण पृथ्वी की सतह का तापमान कम होने की संभावना है।
  • यूनाइटेड किंगडम के नॉर्थम्ब्रिया विश्वविद्यालय की वेलेंटीना ज़रखोवा ने 4 अगस्त, 2020 को ‘Temperature’ में प्रकाशित अपने लेख में सूर्य के आंतरिक भाग में जटिल चुंबकीय गतिविधि तथा सौर विकिरणों पर इसके प्रभावों का अध्ययन किया। 
  • सौर विकिरणों की मात्रा में भिन्नताएँ पृथ्वी के वायुमंडल की ऊपरी परत के तापमान और पृथ्वी की सतह की ओर सौर ऊर्जा के परिवहन को भी प्रभावित करती हैं। 
  • ज़रखोवा ने सौर पृष्ठभूमि के माध्यम से चुंबकीय गतिविधि के अध्ययन में पाया कि सौर कलंकों की तीव्रता 24वें तथा 25वें चक्रों में कम होती जा रही है। 26वें सौर चक्र में इसके लगभग शून्य हो जाने की आशंका है। 

पृथ्वी का शीतलन: कारण 

  • माउंडर मिनिमम के दौरान उत्तरी अटलांटिक दोलन (North Atlantic Oscillation-NAO) को नकारात्मक (Negative) स्थिति में देखा गया था। NAO ग्रीनलैंड के पास एक स्थायी रूप से कम दबाव और इसके दक्षिण में एक स्थायी उच्च दबाव प्रणाली के मध्य संतुलन की एक स्थिति है। इस नकारात्मक संतुलन की स्थिति के कारण यूरोप का तापमान सामान्य तापमान से काफी नीचे चला गया।
  • शीतलन का दूसरा कारण प्रत्यक्ष रूप से सूर्य के चुंबकीय क्षेत्र से संबंधित है। सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी को कॉस्मिक और आकाशगंगा संबंधी (Galactic) हानिकारक विकिरणों से बचाता है। ज़रखोवा के अनुसार, पृथ्वी पर पहुँचने वाली हानिकारक किरणों में कमी और वायुमंडल में उच्च बादलों के निर्माण के कारण पृथ्वी के शीतलन की प्रक्रिया में वृद्धि हुई है।
  • ज़रखोवा ने अनुमान लगाया है कि वर्तमान सोलर मिनिमम के दौरान पृथ्वी के सतह पर तापमान 1°C तक कम हो सकता है। तापमान में संभावित कमी के कारण वैज्ञानिकों का यह अनुमान है कि सोलर मिनिमम के दौरान पृथ्वी सतह का शीतलन हिमयुग का कारण बन सकता है। यह भूमंडलीय तापन (Global Warming) के कारण बढ़ते तापमान के प्रभावों को प्रतिसंतुलित कर सकता है। 

क्या भूमंडलीय तापन के प्रभावों में कमी आएगी?

  • इसी वर्ष 29 मई को नासा के एक अंतरिक्ष यान ने अक्तूबर 2017 के पश्चात् बड़ी संख्या में सौर कलंकों के एक समूह का पता लगाया। बड़ी संख्या में ये सौर कलंक कोरोनल मास इजेक्शन्स (Coronal Mass Ejection-CME) का कारण बन सकते हैं। कोरोनल मास इजेक्शन्स सूर्य के कोरोना से प्लाज़्मा एवं चुंबकीय क्षेत्र का विस्फोट है जिसमें अरबों टन कोरोनल सामग्री उत्सर्जित होती है तथा इससे पिंडों के चुंबकीय क्षेत्र में परिवर्तन हो सकता है।
  • नासा के अनुसार, मॉडर्न ग्रैंड सोलर मिनिमम के दौरान भी कार्बन डाइऑक्साइड के अधिक उत्सर्जन के कारण भूमंडलीय तापन का प्रभाव मॉडर्न ग्रैंड सोलर मिनिमम की वजह से होने वाले शीतलन से छह गुना अधिक होगा। इस अवधि के लंबे समय तक चलने के बावजूद पृथ्वी की सतह के तापमान में वृद्धि ही होगी।

सोलर मिनिमम क्या है? 

  • जब न्यूनतम सौर कलंक सक्रियता की अवधि दीर्घकाल तक रहती है तो इसे ‘माउंडर मिनिमम’ कहते हैं।
  • वर्ष 1645-1715 के बीच की अवधि में सौर कलंक परिघटना में विराम देखा गया जिसे ‘माउंडर मिनिमम’ कहा जाता है। यह अवधि तीव्र शीतकाल से युक्त रही, अत: सौर कलंक अवधारणा को जलवायु परिवर्तन के साथ जोड़ा जाता है।
  • माउंडर मिनिमम के अंतिम समय के दौरान सौर विकिरण में 0.22% की कमी अवलोकित की गई थी।

सौर कलंक

  • सौर-कलंक सूर्य की सतह का ऐसा क्षेत्र होता है जिसकी सतह आसपास के हिस्सों की तुलना अपेक्षाकृत काली (DARK) होती है तथा तापमान कम होता है। इनका व्यास लगभग 50,000 किमी. होता है।
  • ये सूर्य की बाहरी सतह अर्थात फोटोस्फीयर (Photosphere) के ऐसे क्षेत्र होते हैं जहाँ किसी तारे का चुंबकीय क्षेत्र सबसे अधिक होता है। यहाँ का चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी की तुलना में लगभग 2,500 गुना अधिक होता है।
  • सामान्यत: चुंबकीय क्षेत्र तथा तापमान में व्युत्क्रमनुपाती संबंध होता है , अर्थात तापमान बढ़ने पर चुंबकीय क्षेत्र घटता है। 

सौर चक्र

  • अधिकांश सौर-कलंक समूहों में दिखाई देते हैं तथा उनका अपना चुंबकीय क्षेत्र होता है, जिसकी ध्रुवीयता लगभग 11 वर्ष में बदलती है जिसे एक ‘सौर चक्र’ (Solar Cycle) कहा जाता है। 
  • सौर-कलंकों की संख्या में लगभग 11 वर्षों के चक्र के दौरान वृद्धि तथा कमी होती है जिन्हें क्रमशः सौर कलंक के विकास तथा ह्रास का चरण कहा जाता है, वर्तमान में इस चक्र की न्यूनतम संख्या या ह्रास का चरण चल रहा है।
  • वर्तमान सौर चक्र की शुरुआत वर्ष 2008 से मानी जाती है जो अपने ’सौर न्यूनतम’ (Solar Minimum) चरण में है। 
  • ’सौर न्यूनतम’ के दौरान सौर-कलंकों और सौर फ्लेयर्स (Solar Flares) की संख्या में  कमी देखी जाती है।

सौर चक्र के कारण प्रभावित होने वाली गतिविधियाँ

  • ऑरोरा
    • जब एक सौर तूफान पृथ्वी की ओर आता है तो ऊर्जा के कुछ कण पृथ्वी के वायुमंडल में उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर चुंबकीय रेखाओं तक पहुँच जाते हैं।
    • ऊर्जा के ये छोटे कण वायुमंडल में गैसों के साथ संपर्क करते हैं जिसके परिणामस्वरुप आकाश में आकर्षक प्रकाश दिखाई देता है। ऑक्सीजन हरे तथा लाल रंग में जबकि नाइट्रोजन नीले और बैगनी रंग में चमकती है। 
    • उत्तरी ध्रुव पर इसे ‘ऑरोरा बोरेलिस’ (Aurora Borealis) तथा दक्षिणी ध्रुव पर इसे ‘ऑरोरा ऑस्ट्रेलिस’ (Aurora Australis) कहते हैं।  
  • रेडियो संचार 
    • एक रेडियो तरंग विद्युत स्पेक्ट्रम का हिस्सा है जो चुंबकीय और विद्युत ऊर्जा दोनों तरंगों की एक शृंखला है। ये तरंगें भिन्न-भिन्न आवृत्तियों वाली होती हैं। 
    • ये आवृत्ति संदेश पृथ्वी के वायुमंडल में आयनमंडल से परावर्तित होते हैं।  
    • अधिकतम सौर्यिक प्रकाश और सौर तूफान के दौरान सूर्य से बड़ी मात्रा में उत्पन्न असामान्य रूप से सक्रिय कणों के प्रभाव में रेडियो तरंगें कम समय में अधिक दूरी तय करने लगती है।  
    • सौर न्यूनतम के दौरान आयनमंडल की सामान्य ऊर्जा में कमी के कारण रेडियो तरंगों  का पर्याप्त रूप में परावर्तन नहीं हो पाता है।  
  • जलवायु परिवर्तन 
    • पिछले तीन सौर चक्रों के दौरान सौर कलंकों की गतिविधि में एक कमज़ोर प्रवृत्ति दिखाई देती है। 
    • वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इसके कारण मिनी हिमयुग और ठंडी जलवायु का आविर्भाव हो सकता है।  
  • विद्युत पारेषण 
    • धात्विक संरचनाओं, जैसे- ट्रांसमिशन लाइंस और सूर्य से आने वाले कई ऊर्जावान आवेशित कणों की गति द्वारा निर्मित विद्युत चुंबकीय क्षेत्रों के मध्य संपर्क के कारण विद्युत प्रणालियों के बाधित होने का खतरा बना रहता है।  
    • यद्यपि इस तरह की घटनाएँ बहुत दुर्लभ हैं, लेकिन फिर भी ये काफी हानिकारक हो सकती हैं।   
  • उपग्रह 
    • सौर गतिविधि उपग्रह प्रक्षेपण को प्रभावित करने के साथ-साथ उनके जीवनकाल को भी सीमित कर सकती है। 
    • अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (Internation Space Station-ISS) के बाहर काम करने वाले अंतरिक्ष यात्रियों के लिये विकिरण का खतरा हो सकता है। 
    • यदि वैज्ञानिक सौर चक्र में सक्रिय समय की सटीक भविष्यवाणी करते हैं तो उपग्रहों को सुरक्षित मोड में रखा जा सकता है और अंतरिक्ष यात्री अपने स्पेसवॉक को रोक सकते हैं।  

आगे की राह

सूर्य की गतिविधि को अभी पूर्ण रूप से समझा नहीं जा सका है। अभी तक किये गए अवलोकनों के अनुसार, सूर्य की गतिविधि को समझने के लिये वैज्ञानिकों को 6 माह से एक वर्ष का और समय लग सकता है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


‘फ्राइडेज़ फॉर फ्यूचर’ द्वारा विरोध प्रदर्शन

प्रिलिम्स के लिये 

‘फ्राइडेज़ फॉर फ्यूचर’,  पर्यावरणीय प्रभाव आकलन मसौदा, 2020

मेन्स के लिये 

विरोध प्रदर्शन के कारण, EIA मसौदा- 2020 के विवादास्पद मुद्दे 

चर्चा में क्यों? 

‘जलवायु न्याय’ (Climate Justice) के उद्देश्य से चलाए जा रहे वैश्विक आंदोलन ‘फ्राइडेज़ फॉर फ्यूचर’ (Fridays For Future-FFF) के बैनर तले छात्रों और युवाओं ने केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बाहर विरोध-प्रदर्शन किया।

प्रमुख बिंदु:

फ्राइडेज़ फॉर फ्यूचर के बारे में   

  • फ्राइडेज़ फॉर फ्यूचर एक वैश्विक ‘जलवायु हड़ताल आंदोलन’ है जो अगस्त, 2018 में 15 वर्षीय ग्रेटा थुनबर्ग द्वारा स्वीडन में हड़ताल प्रारंभ करने के साथ ही शुरू हुआ था। 
  • ग्रेटा थुनबर्ग ने स्वीडिश चुनावों से तीन सप्ताह पहले स्वीडिश संसद के बाहर हड़ताल करना प्रारंभ किया था।
  • ग्रेटा थुनबर्ग की प्रमुख मांग जलवायु संकट पर तत्काल कार्रवाई करने को लेकर थी। यह आंदोलन आगे चलकर एक वैश्विक आंदोलन में परिवर्तित हो गया।
  • इस वैश्विक आंदोलन का मुख्य उद्देश्य नीति-निर्माताओं पर नैतिक दबाव डालना है, जिससे वे पर्यावरण वैज्ञानिकों द्वारा दी जा रही चेतावनियों पर ध्यान दें और ‘ग्लोबल वार्मिंग’ (Global Warming) को सीमित करने के लिये कार्रवाई करें।

विरोध प्रदर्शन के कारण

  • विरोध प्रदर्शनों में प्रदर्शनकारियों द्वारा की गई प्रमुख मांगों में अरावली को बचाना, यमुना के प्रदूषण को रोकने के लिये सीवेज प्रबंधन संयंत्रों में सुधार, नीति-निर्माण में सार्वजनिक भागीदारी और स्कूलों में बेहतर पर्यावरणीय शिक्षा को सम्मिलित करना आदि शामिल हैं।
  • एक प्रदर्शनकारी के अनुसार, ‘आज वैश्विक जलवायु हड़ताल है और इस वर्ष का विषय ‘जलवायु अन्याय से लड़ना’ (To Fight Climate Injustice) है। विरोध प्रदर्शन का मुख्य उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित लोगों, जैसे- शहरी गरीबों और आदिवासी समुदायों पर ध्यान केंद्रित कर उनकी समस्याओं को उजागर करना है।’ 
  • प्रदर्शनकारी के अनुसार, ‘अगले सप्ताह हम और अन्य युवा संगठन जलवायु संकट से लड़ने की रणनीति के बारे में एक विज़न डॉक्यूमेंट जारी करने की योजना बना रहे हैं।’
  • पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बाहर विरोध करने का मुख्य कारण सरकार द्वारा कई कानून और नियम पारित करने में सार्वजनिक परामर्शों को शामिल नहीं करना है। इसमें मुख्य रूप से पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन मसौदा- 2020 (Environmental Impact assessment Draft) का विरोध किया गया है।
  • एक अन्य युवा प्रदर्शनकारी के  अनुसार, ‘किसी समस्या को हल करने के लिये सबसे पहले उस समस्या को पहचानना आवश्यक होता है, लेकिन सरकार जलवायु संकट की समस्या को पहचानने में विफल रही है। चरम मौसम की घटनाओं की आवृत्ति तेज़ी से बढ़ रही है और सरकार द्वारा इसके लिये पर्याप्त कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।

पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA)

  • EIA प्रक्रिया किसी प्रस्तावित परियोजना के संभावित पर्यावरणीय प्रभाव के मूल्यांकन की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। यह एक परियोजना, जैसे- खान, सिंचाई, बांध, औद्योगिक इकाई या अपशिष्ट उपचार संयंत्र आदि के संभावित प्रभावों का वैज्ञानिक अनुमान लगाती है। 
  • EIA की प्रक्रिया में किसी भी विकास परियोजना या गतिविधि को अंतिम स्वीकृति देते समय सार्वजनिक परामर्श को ध्यान में रखा जाता है। मूल रूप से यह एक निर्णय लेने वाला उपकरण है जो यह तय करता है कि परियोजना को मंज़ूरी दी जानी चाहिये या नहीं।
  • पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए केंद्र सरकार द्वारा मसौदा अधिसूचना (Draft Notification) जारी की जाती है।
  • सरकार के अनुसार, ऑनलाइन प्रणाली के क्रियान्वयन, तार्किककरण और मानकीकरण द्वारा प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और समीचीन बनाने के लिये नई अधिसूचना लाई जा रही है। 

पृष्ठभूमि

  • पर्यावरण पर स्टॉकहोम घोषणा (1972) के एक हस्ताक्षरकर्ता के रूप में भारत ने जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये शीघ्र ही कानून बनाए। वर्ष 1984 में भोपाल गैस रिसाव आपदा के बाद देश में वर्ष 1986 में पर्यावरण संरक्षण के लिये एक अम्ब्रेला अधिनियम पारित किया गया।
  • पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत, भारत ने वर्ष 1994 में अपने पहले EIA मानदंडों को अधिसूचित किया, जो प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग, उपभोग और प्रदूषण को प्रभावित करने वाली गतिविधियों को विनियमित करने के लिये एक विधिक तंत्र स्थापित करता है। प्रत्येक विकास परियोजना को पहले पर्यावरणीय स्वीकृति प्राप्त करने के लिये EIA प्रक्रिया से गुजरना आवश्यक है।

EIA मसौदा- 2020 के विवादास्पद मुद्दे 

  • प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और समीचीन बनाने के उद्देश्य से नयी मसौदा अधिसूचना को जारी किया गया है, लेकिन वास्तव में यह मसौदा कई गतिविधियों को सार्वजनिक परामर्श के दायरे से हटाने का प्रस्ताव करता है।
  • मसौदे में लगभग 40 अलग-अलग परियोजनाओं, जैसे- मिट्टी और रेत का खनन, कुओं की खुदाई, इमारतों का निर्माण, सौर तापीय बिजली संयंत्र और सामान्य अपशिष्ट उपचार संयंत्रों आदि को EIA से छूट प्रदान की गई है।
  • कई परियोजनाओं, जैसे सभी बी-2 श्रेणी की परियोजनाएँ, सिंचाई परियोजनाएँ, हैलोजन्स का उत्पादन, रासायनिक उर्वरक, एसिड निर्माण, जैव चिकित्सा, अपशिष्ट उपचार सुविधाएँ, भवन निर्माण और क्षेत्र विकास, एलिवेटेड रोड और फ्लाई ओवर, राजमार्ग या एक्सप्रेस वे आदि को सार्वजनिक परामर्श से छूट दी गई है।
  • बी2 श्रेणी की गतिविधियों, विस्तार और आधुनिकीकरण परियोजनाओं को EIA और सार्वजनिक परामर्श से छूट देने का पर्यावरण पर संभावित गंभीर प्रभाव के कारण EIA मसौदा -2020 का अधिक विरोध किया जा रहा है।
  • जन सुनवाई के लिये नोटिस की अवधि 30 दिन से कम करके 20 दिन कर दी गई है। इससे EIA रिपोर्ट का अध्ययन करना मुश्किल हो जाएगा। यह समस्या तब और भी गंभीर हो सकती है, जब रिपोर्ट क्षेत्रीय भाषा में व्यापक रूप से उपलब्ध नहीं हो। 
  • EIA मसौदा- 2020 उल्लंघन और गैर-अनुपालन स्थिति में जनता द्वारा रिपोर्टिंग को EIA से बाहर रखती है। सरकार केवल उल्लंघनकर्ता-प्रवर्तक, सरकारी प्राधिकरण, मूल्यांकन समिति या नियामक प्राधिकरण से रिपोर्टों का संज्ञान लेगी। फिर ऐसी परियोजनाओं को शर्तों के साथ मंज़ूरी दी जा सकती है, जिसमें पारिस्थितिक क्षति के निवारण के लिये प्रावधान हो। हालाँकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board- CPCB) के दिशा-निर्देशों का पालन करना आवशयक होगा।

बी2 श्रेणी की परियोजनाएँ 

बी2 श्रेणी की परियोजनाओं के अंतर्गत अपतटीय एवं तटीय तेल, प्राकृतिक गैस और शैल गैस की खोज; 25 मेगावाट तक की जलविद्युत परियोजनाएँ; 2,000 से 10,000 हेक्टेयर के बीच की सिंचाई परियोजनाएँ; छोटी और मध्यम खनिज लाभकारी इकाइयाँ; रि-रोलिंग मिल्स की कुछ श्रेणियाँ; छोटे और मध्यम सीमेंट संयंत्र; क्लिंकर पीसने वाली छोटी इकाइयाँ; फॉस्फोरिक/अमोनिया/सल्फ्यूरिक अम्ल के अलावा अन्य अम्ल; थोक दवाएँ; सिंथेटिक रबर; मध्यम आकार की रंग-रोगन इकाइयाँ; सभी अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजनाएँ; परिभाषित मापदंडों के साथ 25 किमी से 100 किमी के बीच राजमार्गों का विस्तार; पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में हवाई रोपवे और निर्दिष्ट भवन निर्माण परियोजनाएँ आदि सम्मिलित है।

आगे की राह 

  • पर्यावरणीय मानदंडों में परिवर्तन या पर्यावरणीय नियम-कानून बनाते समय सार्वजनिक परामर्श अवश्य लिया जाना चाहिये।
  • किसी प्रतिकूल पर्यावरणीय परियोजना की स्थापना से स्थानीय वातावरण पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, साथ ही व्यक्ति की आजीविका को खतरा उत्पन्न हो सकता है, घाटी में बाढ़ आ सकती है और जैव-विविधता पर गंभीर प्रभाव पड़ सकते हैं। 
  • सरकार को पर्यावरणविदों के द्वारा रेखांकित की गई चिंताओं पर गंभीरता से विचार करना चाहिये। मानवीय जीवन के गरिमामयी विकास के लिये स्वच्छ पर्यावरण अति आवश्यक है।

स्रोत: द हिंदू