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डेली न्यूज़

  • 26 Sep, 2019
  • 48 min read
भारतीय इतिहास

भारत में आर्यों का प्रवासन

संदर्भ

मार्च 2018 में ‘द जीनोमिक फॉर्मेशन ऑफ साउथ एंड सेंट्रल एशिया’ (The Genomic Formation of South and Central Asia) शीर्षक से एक पेपर ऑनलाइन जारी हुआ था, इसने भारत में आर्यों के प्रवेश के संबंध में दुनिया भर में सनसनी फैला दी थी।

अध्ययन के प्रमुख बिंदु

  • इसने यह प्रतिपादित किया कि 2000 ई.पू. और 1000 ईसा पूर्व के बीच मध्य एशियाई स्टेपी (Central Asian Steppe) से प्रवासन हुआ, संभवतः इसके चलते ही इंडो-यूरोपीय भाषा (Indo-European language) का भारत में प्रवेश हुआ।
  • दूसरे शब्दों में, यह अध्य्यन भारत में आर्यों के प्रवेश का समर्थन करता है या इसे और अधिक सटीक रूप से कहा जाए तो इंडो-यूरोपीय भाषा बोलने वाले लोगों के भारत में प्रवासन का समर्थन करता है, जिन्होंने स्वयं को 'आर्य' कहकर संबोधित किया।

प्रथम भारतीय

  • दक्षिण-पूर्व एशिया के शिकारी समूहों का संबंध अंडमानी समूह से है, जिन्हें इस अध्ययन में AHG या अंडमानी शिकारी समूहों (Andamanese Hunter Gatherers) के रूप में संदर्भित किया गया है।
  • दक्षिण पूर्व एशिया के शिकारी समूह, AHG या प्रथम भारतीय- ये सभी अफ्रीका से प्रवास करने वाले समूहों के वंशज को संदर्भित करते हैं, जो लगभग 65,000 साल पहले भारत में पहुँचे थे।

भारतीयों का विकास

  • वर्तमान दक्षिण एशियाई लोग प्रथम भारतीय तथा ईरान के शिकारी समूहों का मिश्रण हैं।
  • इस मिश्रित आबादी ने उत्तर-पश्चिमी भारत में कृषि प्रणाली को जन्म दिया तथा हड़प्पा सभ्यता का विकास किया।
  • जब 2000 ईसा पूर्व के बाद हड़प्पा सभ्यता का पतन हुआ तब हड़प्पा सभ्यता के लोगों ने उत्तर-पश्चिम भारत से दक्षिण-पूर्व की ओर रुख किया और अन्य प्रथम भारतीयों के साथ घुल-मिल गए जिससे पैतृक दक्षिण भारतीय (Ancestral South Indians-ASI) वंशावली का विकास हुआ। इनके वंशज वर्तमान में दक्षिण भारत में रहते हैं।
  • लगभग इसी समय हड़प्पा सभ्यता के कुछ लोग स्टेपी घास के मैदानों में रहने वाले चरवाहा समूह के साथ भी घुल-मिल गए तथा दूसरी प्रमुख आबादी पैतृक उत्तर भारतीय (Ancestral North Indians-ANI) विकसित हुई।
  • कांस्य युग में दक्षिण एशिया तथा पूर्वी यूरोप दोनों की स्टेपी वंशावली यह दर्शाती है कि किस तरह से इन दो क्षेत्रों के बीच मध्य एशियाई लोगों की गतिविधियों के कारण इंडो-ईरानी तथा बल्टो-स्लाविक (Balto-Slavic) भाषाओँ के बीच समानता पाई जाती है।

Migration Path

विचारों पर असहमति:

  • पुणे के शोधकर्त्ताओं द्वारा किया गया अध्ययन आर्यों के प्रवासन के सिद्धांत का खंडन करता है। यह अध्ययन लगभग 4,600 साल पहले हड़प्पा सभ्यता के राखीगढ़ी नामक स्थान पर रहने वाली एक महिला के प्राचीन डी.एन.ए. के अध्ययन पर आधारित है।
  • भारत में स्टेपी चरवाहों का पलायन हड़प्पा सभ्यता के पतन के बाद हुआ। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हालाँकि हमेशा से यही समझा जाता रहा है कि स्टेपी क्षेत्रों से आर्यों का प्रवासन 2000 ईसा पूर्व के बाद हुआ था।
  • राखीगढ़ी से प्राप्त 2600 ईसा पूर्व के कंकाल में स्टेपी वंश की अनुपस्थिति से स्पष्ट रूप से इस बात की पुष्टि होती है कि आर्यों की उपस्थिति के संदर्भ में पूर्व का विचार/मत ही सही था जिसके अनुसार, हड़प्पा सभ्यता के दौरान आर्यों की मौजूदगी नहीं थी। दूसरे शब्दों में हड़प्पा सभ्यता आर्यों के उद्भव से पूर्व विद्यमान थी।

हड़प्पावासी और आर्य कौन थे?

  • हड़प्पावासी (Harappans), जिन्होंने पश्चिमोत्तर भारत में कृषि क्रांति को जन्म दिया और फिर हड़प्पा सभ्यता का निर्माण किया, वे सबसे पहले भारतीय और ईरानी लोगों का मिश्रित रूप थे जो आर्य से पूर्व की भाषा बोलते थे।
  • आर्य, मध्य एशियाई स्टेपी चरवाहे (Asian Steppe pastoralists) थे जो लगभग 2000 ईसा पूर्व और 1500 ईसा पूर्व के बीच भारत आए, इसके ज़रिये इंडो-यूरोपियन भाषाओं का इस उपमहाद्वीप में प्रवेश हुआ।

इस अध्ययन में नया क्या है?

  • दूसरी सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व के पूर्वार्द्ध में दक्षिण एशिया में इंडो-यूरोपियन भाषाओँ का प्रसार एक प्राकृतिक मार्ग से हुआ जो पूर्वी यूरोप से शुरू होकर मध्य एशिया से होकर गुजरता है। यह तथ्य कि दक्षिण एशिया के स्टेपी चरवाहों के पूर्वज कांस्य युग के पूर्वी यूरोप (लेकिन पश्चिमी यूरोप नहीं) के पूर्वजों के समान ही थे, इस सिद्धांत को अतिरिक्त साक्ष्य प्रदान करता है।
  • यह अध्ययन बल्टो-स्लाविक और इंडो-ईरानी भाषाओं की साझा विशिष्टताओं की व्याख्या और अधिक बेहतर तरीके से करता है।
  • नए अध्ययन में कहा गया है कि ईरानी लोग उस समय भारत में पहुँचे थे जब कृषि पद्धति अथवा दुनिया में किसी भी स्थान पर पशुपालन की शुरुआत नहीं हुई थी। दूसरे शब्दों में ये घुमंतू लोग संभवतः शिकारी प्रवृत्ति के रहे होंगे जिसका तात्पर्य यह है कि इन लोगों को कृषि के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

पार्टिकुलेट मैटर उत्सर्जन व्यापार द्वारा प्रदूषण पर नियंत्रण

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गुजरात सरकार ने वायु प्रदूषण को कम करने के लिये पार्टिकुलेट मैटर उत्सर्जन में व्यापार के लिये विश्व का पहला ट्रेडिंग प्लेटफ़ॉर्म लॉन्च किया है।

ट्रेडिंग प्लेटफ़ॉर्म की आवश्यकता क्यों?

  • हालाँकि प्रदूषण नियंत्रण हेतु दुनिया के कई हिस्सों में व्यापार तंत्र मौजूद हैं, लेकिन इनमें से कोई भी पार्टिकुलेट मैटर उत्सर्जन के लिये नहीं है।

P M effects

  • उदाहरण के लिये, क्योटो प्रोटोकॉल के तहत कार्बन विकास तंत्र (Carbon Development Mechanism-CDM) ’कार्बन क्रेडिट’ में व्यापार की अनुमति देता है।
  • यूरोपीय संघ की उत्सर्जन व्यापार प्रणाली ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिये है और भारत में ऊर्जा दक्षता ब्यूरो द्वारा संचालित एक योजना है जो ऊर्जा इकाइयों (Energy Units) में व्यापार करने में सक्षम है।

योजना की कार्यप्रणाली

  • सूरत में लॉन्च की गई उत्सर्जन व्यापार योजना (Emissions Trading Scheme-ETS) एक विनियामक उपकरण है जिसका उद्देश्य किसी क्षेत्र में प्रदूषण भार को कम करना है और साथ ही उद्योगों के अनुपालन की लागत को कम करना है।
  • ETS एक ऐसा बाज़ार है जिसमें पार्टिकुलेट मैटर उत्सर्जन का व्यापार होता है।
  • इस प्रणाली में विनियामक द्वारा सभी उद्योगों के कुल उत्सर्जन की अधिकतम सीमा (Cap) तय कर दी जाती है और प्रत्येक औद्योगिक इकाई के लिये परमिट सृजित किया जाता है।
  • विभिन्न उद्योग निर्धारित अधिकतम सीमा के अंदर परमिट (किलोग्राम में) के व्यापार द्वारा पार्टिकुलेट मैटर के उत्सर्जन की क्षमता को खरीद और बेच सकते हैं।
  • इस कारण से, ETS को ‘कैप-एंड-ट्रेड’ मार्केट भी कहा जाता है।
  • राष्ट्रीय कमोडिटी और डेरिवेटिव्स एक्सचेंज ई-मार्केट लिमिटेड (NeML) द्वारा संचालित ETS-PM ट्रेडिंग प्लेटफॉर्म पर इन परमिट्स की नीलामी की जाएगी।
  • सभी प्रतिभागियों को NeML के साथ एक ट्रेडिंग खाता पंजीकृत करना होगा।
  • अनुपालन अवधि के अंत में किसी ओद्योगिक इकाई द्वारा निर्धारित परमिट से अधिक उत्सर्जन की स्थिति में पर्यावरणीय क्षतिपूर्ति के रूप में 200 रुपए/किग्रा. का जुर्माना लगाया जाएगा।

क्या होते हैं पार्टिकुलेट मैटर?

पीएम-1.0:- इसका आकार एक माइक्रोमीटर से कम होता है। ये छोटे पार्टिकल बहुत खतरनाक होते हैं। इनके कण साँस के द्वारा शरीर के अंदर पहुँचकर रक्तकणिकाओं में मिल जाते हैं। इसे पार्टिकुलेट सैंपलर से मापा जाता है।

पीएम-2.5:- इसका आकार 2.5 माइक्रोमीटर से कम होता है। ये आसानी से साँस के साथ शरीर के अंदर प्रवेश कर गले में खराश, फेफड़ों को नुकसान, जकड़न पैदा करते हैं। इन्हें एम्बियंट फाइन डस्ट सैंपलर पीएम-2.5 से मापते हैं।

पीएम-10:- रिसपाइरेबल पार्टिकुलेट मैटर का आकार 10 माइक्रोमीटर से कम होता है। ये भी शरीर के अंदर पहुँचकर बहुत सारी बीमारियाँ फैलाते हैं।

ETS में कितनी औद्योगिक इकाइयाँ भाग ले रही हैं?

  • हाल ही में शुरू हुई लाइव ट्रेडिंग में ETS से जुड़ने वाले 155 में से 88 उद्योगों ने पहले दौर में भाग लिया जिसमें 2.78 लाख रुपए के उत्सर्जन परमिट का कारोबार किया गया।
  • ये इकाइयाँ कपड़ा, रसायन और चीनी उद्योग जैसे क्षेत्रों से हैं जो 50-30 वर्ग किमी. के क्षेत्र में फैले हुए हैं। प्रतिभागियों का चयन इकाईयों की चिमनियों के आकार (व्यास 24 इंच या उससे अधिक) के आधार पर किया गया, इसलिये अधिकांश प्रतिभागी बड़े उद्योग हैं।

सूरत को योजना के लिये क्यों चुना गया?

  • पिछले पाँच वर्षों में सूरत में हवा की गुणवत्ता अत्यधिक खराब हो गई और प्रदूषण का स्तर 120-220% के बीच बढ़ा है।
  • इसलिये सूरत के औद्योगिक संगठन इस पायलट योजना को चलाने के लिये सहमत थे।
  • इसके अलावा, सूरत में उद्योगों ने पहले ही कंटीन्यूअस एमिशन मॉनीटरिंग सिस्टम लगा रखा था, जिससे पार्टिकुलेट मैटर की उत्सर्जन मात्रा का पता लगाया जा सकता है।

ETS उत्सर्जन को कम करने में कैसे मदद करेगा?

  • इस क्षेत्र के उद्योग 362 टन प्रतिमाह के कैप से अधिक प्रदूषकों का उत्सर्जन कर रहे हैं। इस आंकडें को 280 टन तक लाने से प्र्दूषण में कमी आएगी।
  • ये परमिट उद्योगों को प्रदूषण फैलाने की अनुमति देने का तरीका नहीं हैं। परमिट का क्रय विक्रय केवल उन इकाइयों के लिये एक अंतरिम उपाय है, जो वायु प्रदूषण नियंत्रण उपायों को स्थापित करने के लिये वर्तमान में आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं।
  • इससे उद्योगों को उच्च लागत पर परमिट खरीदने के बजाय इस बात की प्रेरणा मिलेगी कि वायु प्रदूषण नियंत्रण उपायों को अपनाकर उत्सर्जन कम करना अधिक लाभकारी है।

स्रोत : द इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

IPCC की नई रिपोर्ट

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राज्य अमेरिका में हो रहे संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (United Nations Climate Summit) के दौरान अंतर-सरकारी जलवायु परिवर्तन पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) ने ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों पर आधारित एक विशेष रिपोर्ट जारी की है।

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल

(Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC):

  • IPCC की स्थापना संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व मौसम संगठन द्वारा वर्ष 1988 में की गई थी।
  • यह जलवायु परिवर्तन पर नियमित वैज्ञानिक आकलन, इसके निहितार्थ और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा शमन के विकल्प भी उपलब्ध कराता है।
  • इसका मुख्यालय ज़िनेवा में स्थित है।

1.5°C ग्लोबल वार्मिंग (1.5°C Global Warming):

  • मानव गतिविधियांँ, पूर्व-औद्योगिक स्तर से वर्तमान में 1.0°C ग्लोबल वार्मिंग बढ़ने का प्रमुख कारण रही हैं। अगर यह ग्लोबल वार्मिंग वर्तमान दर से लगातार बढ़ती रही तो वर्ष 2030 से वर्ष 2052 के बीच 1.5°C हो जाएगी।
  • मानवजनित कार्बन उत्सर्जन के कारण ग्लोबल वार्मिंग की लगातार बढ़ती दर के परिणामस्वरूप जलवायु प्रणाली में दीर्घकालिक परिवर्तन की संभावना बनी हुई है।

अनुमानित जलवायु परिवर्तन, संभावित प्रभाव और संबद्ध जोखिम:

  • 1.5°C से 2°C के बीच के बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग के स्तर के परिणामस्वरूप अधिकांश भूमि और महासागरों के औसत तापमान में वृद्धि होगी, सघन बसावट वाले क्षेत्रों के तापमान में तीव्र वृद्धि होगी, कई क्षेत्रों में भारी वर्षा तथा कुछ क्षेत्रों में सूखे जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने से समुद्री जल का स्तर बढ़ेगा जिससे छोटे द्वीपीय देशों, निचले तटीय क्षेत्र और डेल्टाई क्षेत्र में रहने वाले लोग विशेष रूप से प्रभावित होंगे।
  • बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग की वजह से भूमि और इसके पारितंत्र पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। इससे पृथ्वी पर जैव-विविधता को हानि होगी, साथ ही कई प्रजातियों के नष्ट होने की भी संभावना बढ़ जाएगी।
  • इससे समुद्र की अम्लता में वृद्धि होगी और महासागर के ऑक्सीजन के स्तर में कमी आएगी। इसके परिणामस्वरूप समुद्री जैव-विविधता, पारिस्थितिक तंत्र तथा मत्स्य पालन को हानि होगी। इसके अतिरिक्त आर्कटिक क्षेत्र की बर्फ तेज़ी से पिघल सकती है, साथ ही कोरल ब्लीचिंग की भी संभावना बढ़ गई है।
  • इससे मानव स्वास्थ्य, आजीविका, खाद्य सुरक्षा, जल आपूर्ति और आर्थिक विकास पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

1.5°C ग्लोबल वार्मिंग (1.5°C Global Warming) को कम करने हेतु प्रयास:

  • 1.5°C ग्लोबल वार्मिंग के स्तर को रोकने या कम करने के लिये मानवजनित कार्बन उत्सर्जन गतिविधियों में वर्ष 2030 तक वर्ष 2010 के स्तर से 45% की कटौती करनी होगी साथ ही वर्ष 2050 तक कटौती को 100% के स्तर तक ले जाना होगा।
  • ऊर्जा संरक्षण एवं उपयोग, भूमि उपयोग, शहरी बुनियादी ढांँचा (परिवहन और भवन सहित) तथा औद्योगिक प्रणालियों में व्यापक परिवर्तन लाना होगा।
  • वर्ष 2100 तक 1.5°C ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिये 100 से 1000 गीगाटन के बीच के कार्बन डाइऑक्साइड रिमूवल (Carbon Dioxide Removal- CDR) को हटाना होगा।

कार्बन डाइऑक्साइड रिमूवल (Carbon Dioxide Removal- CDR):

  • CDR तकनीकों के एक समूह को संदर्भित करता है जिसका उद्देश्य वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को बड़े पैमाने पर हटाना है।
  • इस तरह की तकनीकों में कार्बन कैप्चर और स्टोरेज के साथ जैव ऊर्जा (Bio-Energy), बायोचार (Biochar) और समुद्री निषेचन (Ocean Fertilization) आदि शामिल हैं।

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

भूमि पुनर्स्थापन और सतत् विकास लक्ष्य

चर्चा में क्यों?

2-13 सितंबर, 2019 को नई दिल्ली में आयोजित संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (United Nations Convention to Combat Desertification-UNCCD) के COP-14 के अवसर पर ‘सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये भूमि पुनर्स्थापन’ (Land Restoration for Achieving the Sustainable Development Goals) नामक रिपोर्ट जारी की गई थी।

पृष्ठभूमि

  • इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन मानव समुदाय की संधारणीयता को बनाए रखने हेतु भूमि की क्षमता को कम कर रहा है।
  • अंतर्राष्ट्रीय संसाधन पैनल (International Resource Panel-IRP) के एक नए अध्ययन के अनुसार, भूमि पुनर्स्थापन में जलवायु परिवर्तन को सीमित करने और सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता करने की काफी क्षमता है।
  • IRP ने भूमि पुनर्स्थापन के संभावित परिणामों की जाँच करने पर पाया है कि इससे सभी 17 सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी जिन पर संपूर्ण वैश्विक समुदाय ने सहमति जताई है।

IRP के अध्ययन के मुख्य बिंदु

  • भूमि पुनर्स्थापन और पुनर्वास सभी सतत् विकास लक्ष्यों के लिये महत्वपूर्ण सह-लाभ प्रदान करा सकते हैं।
  • भूमि पुनर्स्थापन के सह-लाभ, संभावित जोखिम और सामंजस्य की सीमा लक्ष्य और संबंधित उपलक्ष्यों के अनुसार व्यापक रूप से भिन्न हो सकते हैं।
  • भूमि पुनर्स्थापन प्रक्रिया के सह-लाभ अक्सर पुनर्स्थापित भूमि से बहुत भिन्न होते हैं और विभिन्न स्थानिक पैमानों पर परिणाम देते हैं।
  • एक एकीकृत भू-परिदृश्य दृष्टिकोण, जिसमें निवेश को लक्षित करना शामिल है, भूमि पुनर्स्थापन निवेश पर अधिकतम लाभ सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • IRP भूमि पुनर्स्थापना प्रक्रिया और सतत् विकास लक्ष्यों के बीच सकारात्मक सहसंबंधों और सामंजस्य को दर्शाने हेतु कई उदाहरण प्रस्तुत करता है और अनपेक्षित परिणामों से बचने के लिये किसी भी तरह के निवेश से पहले प्रणालीगत विश्लेषण की सिफारिश करता है।
  • उदाहरण के लिये, एकल कृषि (Monoculture) सतत् विकास लक्ष्य-15 (भूमि पर जीवन) के तहत उल्लिखित मृदा उत्पादकता की बहाली के उद्देश्य के साथ ही कार्बन अधिग्रहण (Carbon Sequestration) के माध्यम से क्लाइमेट एक्शन (लक्ष्य-13) के लिये भी कुछ लाभ प्रदान कर सकता है, लेकिन जैव विविधता संरक्षण (लक्ष्य-15) को संबोधित करने में विफल हो सकता है।

भूमि पुनर्स्थापन की आवश्यकता क्यों?

  • भू-परिदृश्य पुनर्स्थापन (Landscape Restoration) से जलवायु, जैव-विविधता और आजीविका के स्तर पर कई लाभ होंगे और प्रकृति के बुनियादी ढांचे में निवेश करने से पृथ्वी की संधारणीयता भी सुनिश्चित की जा सकेगी।
  • सुनियोजित भू-परिदृश्य पुनर्स्थापन से न केवल भूमि अवक्रमण (Land Degradation) में कमी आती है बल्कि कई अन्य सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त होते हैं।
  • IRP द्वारा मार्च 2019 में जारी वैश्विक संसाधन आउटलुक (Global Resources Outlook) रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि 90% तक जैव विविधता की हानि और जल तनाव के साथ ही विश्व के आधे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिये प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और प्रयोग के तरीकों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है।
  • अत: अधिक संसाधन दक्षता सुनिश्चित करने में भी भूमि पुनर्स्थापन की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

संयुक्‍त राष्‍ट्र मरुस्‍थलीकरण रोकथाम अभिसमय (UNCCD)

  • UNCCD मरुस्थलीकरण को रोकने के लिये एक कानूनी रूप से बाध्यकारी अंतर्राष्ट्रीय समझौता है।
  • इस समझौते को जून 1994 में पेरिस में अपनाया गया।
  • भारत वर्ष 1994 में इसका हस्ताक्षरकर्त्ता देश बन गया और उसने 1996 में इसकी पुष्टि की।
  • UNCCD एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो पर्यावरण एवं विकास के मुद्दों पर कानूनी रूप से बाध्यकारी है। मरुस्थलीकरण की चुनौती से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों के बारे में लोगों में जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 17 जून को ‘विश्व मरुस्थलीकरण और सूखा रोकथाम दिवस’ मनाया जाता है।
  • कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ (COP) UNCCD का सर्वोच्च निर्णय लेने वाला निकाय है। COP की बैठकें वर्ष 2001 से प्रत्येक 2 वर्ष में आयोजित की जाती हैं।

भारतीय संदर्भ

Land in trouble

  • भारत ‘बॉन चैलेंज’ (Bonn Challenge) नामक स्वैच्छिक पहल का भी सदस्य है जो कि 2020 तक विश्व की 150 मिलियन हेक्टेयर और 2030 तक 350 मिलियन हेक्टेयर अवक्रमित भूमि का पुनर्स्थापन सुनिश्चित करने हेतु एक वैश्विक प्रयास है।
  • इसी COP-14 में भारत ने 2030 तक अपने 21 मिलियन हेक्टेयर के भूमि पुनर्स्थापन लक्ष्य को बढ़ाकर 26 मिलियन हेक्टेयर करने का निर्णय लिया है।

भूमि अवक्रमण और पुनर्स्थापन

  • जलवायविक कारकों अथवा मानवीय हस्तक्षेप के कारण भूमि अथवा मृदा की उत्पादक क्षमता में कमी आना भूमि अवक्रमण कहलाता है।
  • वर्तमान में दुनिया की लगभग एक-चौथाई भूमि का अवक्रमण हो चुका है। इससे जैव विविधता और पारिस्थिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ूता है।
  • प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में अतिक्रमण किये बिना सीमांत भूमि या पहले से अवक्रमित भूमि को उत्पादक कार्यों में प्रयोग लाना और उत्पादक क्षेत्रफल का विस्तार करना भूमि पुनर्स्थापन कहलाता है।
  • 2021-2030 के दशक को पारितंत्र पुनर्स्थापन का दशक (United Nations Decade of Ecosystem Restoration) घोषित करने के संयुक्त राष्ट्र के निर्णय में यह माना गया है कि 2030 तक 350 मिलियन हेक्टेयर से अधिक अवक्रमित भूमि के पुनर्स्थापन के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु वैश्विक कार्रवाई की आवश्यकता होगी।
  • वर्तमान से 2030 के बीच 350 मिलियन हेक्टेयर के पुनर्स्थापन से 9 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर के बराबर मूल्य की पारितंत्र सेवाओं का सृजन हो सकता है और 13-26 गीगाटन अतिरिक्त ग्रीनहाउस गैसों को वायुमंडल से बाहर निकाला जा सकता हैं।

स्रोत : UNEP वेबसाइट, द हिंदू


सामाजिक न्याय

इंडिया टीबी रिपोर्ट 2019

चर्चा में क्यों?

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी इंडिया टीबी रिपोर्ट 2019 (India TB Report 2019) के अनुसार, वर्ष 2010 की तुलना में वर्ष 2018 में भारत में टीबी से संबंधित मौतों में 82% की गिरावट आई है।

प्रमुख बिंदु:

  • टीबी से संबंधित मौतों में आई गिरावट मुख्य रूप से नैदानिक ​​सेवाओं, सार्वजनिक-निजी भागीदारी और सरकार द्वारा मरीज़ों के उपचार की उपलब्धता हेतु बेहतर निवेश जैसे प्रयासों का परिणाम है।
  • निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं द्वारा वर्ष 2017 से 5.4 लाख मामले या कुल अधिसूचित मामलों में से लगभग 25% मामले दर्ज किये गए हैं। भारत का लक्ष्य वर्ष 2025 तक टीबी का उन्मूलन करना है।
  • वर्ष 2017 में, लगभग 18 लाख टीबी के मामले सामने आए थे जिसमें से 79% रोगियों ने अपना इलाज सफलतापूर्वक पूरा किया है।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य समूहों ने भी इस बीमारी को समाप्त करने की दिशा में सरकार की पहल की सराहना की है। टीबी उन्मूलन के प्रयासों के क्रम में मल्टीड्रग प्रतिरोधक टीबी (Multi Drug Resistance TB- MDR TB) जैसे संभावित खतरों के साथ ही टीबी की दवाओं के उच्च मूल्यों पर चिंता व्यक्त की जा रही है।

मल्टीड्रग प्रतिरोधक टीबी

(Multi Drug Resistance TB- MDR TB)

  • जब टीबी के लिये ज़िम्मेदार बैक्टीरिया इसकी एंटी-बायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं तो उसे मल्टीड्रग प्रतिरोधक टीबी (Multi Drug Resistance TB- MDR TB) कहा जाता है।
  • MDR TB आइसोनियाज़िड (Isoniazid) और रिफैम्पिसिन (Rifampicin) जैसी शक्तिशाली एंटी-बायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक विकसित कर लेते हैं।
  • मल्टीड्रग प्रतिरोध विकसित होने का मुख्य कारण उपचार और व्यक्ति-से-व्यक्ति संचरण के दौरान का कुप्रबंधन है।
  • एंटी-बायोटिक दवाओं का अनुचित या दवाओं के अप्रभावी योगों का उपयोग (जैसे एकल दवाओं का उपयोग, खराब गुणवत्ता वाली दवाएंँ या खराब भंडारण की स्थिति) और समय से पहले उपचार में रुकावट जैसी स्थितियाँ मल्टीड्रग प्रतिरोध का कारण बनती हैं।

टीबी उन्मूलन के अन्य प्रयास:

  • MDR TB) से संबंधित ओरल ड्रग्स (Oral Drugs) को बेडाक्युलिन या डेलमनीड (Bedaquiline or Delamanid) जैसी दवाओं से स्थांतरित किया जा रहा है।
  • टीबी रोगियों को पोषण संबंधी सहायता प्रदान करने के लिये अप्रैल 2018 में निक्षय पोषण योजना (Nikshay Poshan Yojana), एक प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण योजना की शुरुआत की गई है। इस योजना के तहत टीबी रोगियों को उपचार की पूरी अवधि के लिये प्रतिमाह 500 रुपए मिलते हैं।
  • इस योजना का क्रियान्वयन स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा किया जा रहा है।
  • अप्रैल 2018 से मार्च 2019 के दौरान 15 लाख से अधिक लाभार्थियों को इस योजना के तहत 240 करोड़ रुपए का लाभ प्रदान किया गया।

स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया


जैव विविधता और पर्यावरण

संसाधन कुशल भारत के लिये पुनर्चक्रण एवं पुनरुपयोग की नीति

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने राष्ट्रीय संसाधन दक्षता नीति का मसौदा तैयार किया है। इसका उद्देश्य अगले पाँच वर्षों में प्रमुख सामग्रियों की पुनर्चक्रण दर को 50% तक बढ़ाना और भारत को अवशिष्ट प्रबंधन में सक्षम बनाना है।

संदर्भ:

  • राष्ट्रीय संसाधन दक्षता नीति का मुख्य एजेंडा चक्रीय अर्थव्यवस्था विकसित करना है। यह दो उपायों द्वारा प्राप्त की जा सकती है- पहला सामग्री के पुनर्चक्रण द्वारा और दूसरा, संसाधनों के उपयोग की दक्षता में वृद्धि करके। पुनर्चक्रण का संबंध मुख्यतः उद्योगों से है, जबकि संसाधन दक्षता एक अवधारणा है जिसे सभी क्षेत्रों में पालन किये जाने की आवश्यकता है।
  • मसौदा नीति एक राष्ट्रीय संसाधन दक्षता प्राधिकरण स्थापित करने का प्रावधान करती है। यह प्राधिकरण विभिन्न क्षेत्रों के लिये संसाधन दक्षता रणनीतियों को विकसित करने और उन्हें तीन साल की कार्य-योजना में शामिल करने में मदद करेगी।
  • इसके अंतर्गत शुरुआत में सात प्रमुख क्षेत्रों की पहचान की गई है- ऑटोमोबाइल, प्लास्टिक पैकेजिंग, भवन और निर्माण क्षेत्र, विद्युत और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण क्षेत्र, सौर फोटो-वोल्टाइक (Solar Photo-Voltaic) क्षेत्र, इस्पात एवं एल्युमीनियम क्षेत्र।

Plan of action

राष्ट्रीय संसाधन दक्षता नीति की प्रासंगिकता:

  • मसौदा नीति में ज़ोर देकर कहा गया है कि भारत में वैश्विक औसत की तुलना में भौतिक उत्पादकता कम है और पुनर्चक्रण दर भी यूरोप जैसे क्षेत्रों में 70 प्रतिशत की दर के मुकाबले बहुत कम 20-25 प्रतिशत है। सामग्री उत्पादकता का अभिप्राय उपयोग किये गए इनपुट (संसाधनों) की तुलना में प्राप्त आउटपुट का अनुपात है। कम सामग्री उत्पादकता इंगित करती है कि संसाधनों का कुशलता से उपयोग नहीं किया जा रहा है।
  • इसी तरह भारत विश्व स्तर पर कृषि के लिये सबसे अधिक पानी का इस्तेमाल करता है एवं यहाँ की 30 प्रतिशत भूमि क्षरण की समस्या से ग्रसित है।
  • भारत में महत्त्वपूर्ण कच्चे माल की उच्च आयात निर्भरता है। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, जीवाश्म ईंधन, बायोमास, धातु अयस्कों और गैर-धातु अयस्कों की भारत में खपत वर्ष 1970 के 1.18 बिलियन टन से छह गुना से अधिक की वृद्धि के साथ वर्ष 2015 में 7 बिलियन टन हो गई तथा वर्ष 2030 तक इसके वर्ष 2015 के स्तर से दोगुना होने का अनुमान है।

ऑटोमोबाइल क्षेत्र

  • नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने बढ़ते प्रदूषण के कारण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में दस साल से अधिक पुराने डीज़ल वाहनों पर प्रतिबंध लगा दिया है। इस मसौदा नीति के तहत, सरकार की योजना है कि ऐसे वाहनों को एकत्रित कर उनका विपंजीकरण (Deregistration) करने वाले केंद्रों एवं उक्त वाहनों के कल-पुर्जों को अलग कर पुनर्चक्रण हेतु सामग्री को पृथक करने वाले केंद्रों की स्थापना की जाए।
  • उल्लेखनीय है कि ऑटोमोबाइल क्षेत्र गंभीर तनाव की स्थिति में है और बहुत सारी सामग्रियों के लिये आयात पर निर्भर है। ऐसे में भारत के लिये यह उपयुक्त समय है कि वह भविष्य की मांगों को ध्यान में रखते हुए आवश्यक सुधार करे।

प्लास्टिक पैकेजिंग क्षेत्र

  • प्लास्टिक कचरे का कुल ठोस कचरे में 8% योगदान है। मसौदे में वर्ष 2025 तक पॉलीथीन टेरेफ्थेलेट (Polyethylene Terephthalate-PET) प्लास्टिक के संदर्भ में 100% पुनर्चक्रण और पुनरुपयोग की दर तथा वर्ष 2030 तक अन्य प्लास्टिक पैकेजिंग सामग्री के मामले में 75 प्रतिशत पुनर्चक्रण और पुनःप्रयोग की दर प्राप्त करने का लक्ष्य है।

भवन और निर्माण क्षेत्र

  • एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2030 तक भारत की 40% से अधिक आबादी शहरी क्षेत्रों में निवास करेगी। वर्ष 2030 तक शहरों में आने वाली इस जनसंख्या को समायोजित करने के लिये करीब 70% नए इमारतों का निर्माण करने की आवश्यकता होगी जो कि रेत, मिट्टी, पत्थर और चूना पत्थर जैसे प्राकृतिक रूप से निकाले गए कच्चे माल एवं अन्य भवन निर्माण सामग्रियों की भविष्य में एक बड़ी मांग को सूचित करता है।
  • मसौदा नीति का उद्देश्य धीरे-धीरे नवीन सामग्रियों पर निर्भरता को कम करना और निर्माण एवं विध्वंस जैसी गतिविधियों से उत्पन्न कचरे के पुनरुपयोग को बढ़ावा देना है। इसी को ध्यान में रखकर योजना का लक्ष्य निर्धारित करते हुए यह उल्लेख किया गया है कि वर्ष 2025 तक सिविल क्षेत्र में निर्माण के लिये उपकरणों की कुल सामूहिक खरीद का 30 प्रतिशत पुनर्नवीकृत सामग्री से प्राप्त किया जाएगा।

विद्युत और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण क्षेत्र

  • भारत विद्युत और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली मोलिब्डेनम, तांबा और निकल जैसी महत्त्वपूर्ण सामग्रियों के लिये आयात पर निर्भर है। भारत के इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र के लिये, चाँदी जैसे कच्चे माल की आयात निर्भरता लगभग 75%, सोना लगभग 90%, प्लैटिनम लगभग 95% और तांबा 50- 60% है।
  • एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 में भारत लगभग 20 लाख मीट्रिक टन ई-कचरे के उत्पादन के साथ दुनिया में ई-कचरे का पांचवाँ सबसे बड़ा उत्पादक देश था।
  • इस मसौदा नीति के तहत विद्युत और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण क्षेत्र के लिये एक विस्तारित निर्माता जिम्मेदारी (EPR) के अनुपालन को मज़बूत करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है, ताकि पुनर्चक्रण एवं पुनरुपयोग को बढ़ावा दिया जा सके।

सौर फोटो-वोल्टाइक क्षेत्र

  • ध्यातव्य है कि सौर पैनल के निर्माण के लिये उपयोग की जाने वाली प्रमुख सामग्रियों में सिलिकॉन, काँच, चाँदी, एल्युमीनियम और तांबा आदि शामिल हैं और सरकार के सौर उर्जा के संदर्भ में मौजूदा लक्ष्यों (वर्ष 2022 तक 100 गीगावाट) की प्राप्ति के प्रयास से इस क्षेत्र में वृद्धि के साथ निर्माण सामग्रियों की मांग भी बढ़ेगी।
  • प्रस्तावित मसौदे में सौर ऊर्जा क्षेत्र से उत्पन्न कचरे को भी संबोधित किया गया है। इसके तहत निकट भविष्य में निपटाए जाने वाले सौर पैनलों की बड़ी मात्रा को प्रबंधित करने के लिये उचित सौर पैनल रीसाइक्लिंग बुनियादी ढाँचा स्थापित करने की योजना बनाई गई है। मसौदे में वर्ष 2025 तक चार प्रमुख अधिकृत निराकरण सुविधाएँ स्थापित करने का लक्ष्य रखा गया है जिन्हें वर्ष 2030 तक बढ़ाकर आठ किया जाना है।

इस्पात क्षेत्र

  • प्रस्तावित मसौदे में इस्पात क्षेत्र के लिये घरेलू स्क्रैप के उपयोग को बढ़ावा देने हेतु कुछ सीमाओं से परे स्क्रैप आयात पर आयात शुल्क लगाने का प्रस्ताव किया गया है। इसके तहत वर्ष 2030 तक पुनर्नवीनीकरणीय इस्पात उत्पादन के लिये स्टील स्क्रैप के आयात को शून्य करने का लक्ष्य प्रस्तावित है।

एल्युमीनियम क्षेत्र

  • एल्युमीनियम क्षेत्र में भी आयातित स्क्रैप पर भारी निर्भरता है और घरेलू स्क्रैप की उपलब्धता को बढ़ाने के लिये निर्यात करों, निर्यात कोटा, और यहां तक कि निर्यात प्रतिबंध या दंडात्मक कर की दर सहित विभिन्न आर्थिक साधनों का प्रयोग किया जा सकता है।
  • प्रस्तावित मसौदे में वर्ष 2030 तक एल्युमीनियम स्क्रैप की कुल आवश्यकता का 50 प्रतिशत घरेलू स्क्रैप द्वारा पूरा करने का प्रस्ताव रखा गया है। साथ ही वर्ष 2025 तक पुनर्चक्रण दर को 50 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया है जिसे वर्ष 2030 तक बढाकर 90 प्रतिशत किया जाना है।

स्रोत: लाइव मिंट


विविध

Rapid Fire करेंट अफेयर्स (26 September)

  • प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्‍यूयॉर्क में संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा के 74वें अधिवेशन से इतर प्रशांत द्वीप राष्‍ट्रों के साथ बैठक की। उन्होंने Pacific Small Island Developing States (PSIDS) में प्रभावशाली विकास परिेयाजनाओं के लिये एक करोड़ 20 लाख डॉलर के अनुदान की घोषणा की। इससे इस क्षेत्र के प्रत्‍येक देश को लगभग 10 लाख डॉलर मिलेंगे ताकि वह अपनी पसंद की परियोजना में निवेश कर सके। इसके अतिरिक्‍त प्रत्‍येक देश की ज़रूरत के लिये 15 करोड़ डॉलर की रियायती ऋण सुविधा की भी घोषणा की गई। इसका लाभ PSIDS राष्‍ट्र सौर और नवीकरणीय ऊर्जा तथा जलवायु परिवर्तन संबंधी परियोजनाओं में निवेश के लिये कर सकते हैं। यह पहला अवसर था जब प्रधानमंत्री ने इन देशों के नेताओं से एक साथ मुलाकात की। इस बैठक में फिजी, किरिबाती, मार्शल द्वीप समूह, माइक्रोनेशिया, नौरु, पलाउ, पापुआ न्‍यू गिनी, समोआ, सोलोमन द्वीप समूह, टोंगा, टुवालू और वनुआतू के राष्ट्राध्यक्षों ने हिस्‍सा लिया। बेहद छोटे ये सभी देश मिलकर प्रशांत द्वीप विकासशील देशों के समूह का गठन करते हैं।
  • रोहिंग्या शरणार्थियों के प्रत्यावर्तन की देखरेख के लिये बांग्लादेश, म्‍याँमार और चीन एक त्रिपक्षीय संयुक्‍त कार्य प्रणाली बनाने पर सहमत हो गए हैं। न्‍यूयॉर्क में संयुक्‍त राष्‍ट्र महासभा के अधिवेशन से इतर बांग्लादेश के विदेशमंत्री डॉ. ए.के. अब्‍दुल मोमिन ने चीन और म्‍याँमार के विदेश मंत्रियों के साथ बैठक के बाद यह घोषणा की। यह प्रस्‍ताव चीन ने रखा था, जिस पर म्‍याँमार और बांग्लादेश ने अपनी सहमति दी। इस त्रिपक्षीय समूह की पहली बैठक अगले महीने होगी। विदित हो कि बांग्लादेश और म्‍याँमार ने नवंबर 2017 में दो वर्ष के भीतर रोहिंग्या शरणार्थियों की वापसी को लेकर दो समझौतों पर हस्‍ताक्षर किये थे। लेकिन इन शरणा‍र्थियों के वापस नहीं जाने के कारण ये समझौते विफल हो गए। रोहिंग्याओं का कहना था कि वे म्‍याँमार में सुरक्षा और नागरिकता की गारंटी मिले बिना वहाँ नहीं जाएंगे। शरणार्थियों के लिये संयुक्‍त राष्‍ट्र उच्‍चायुक्‍त के अनुसार बांग्लादेश में 9 लाख से अधिक रोहिंग्या शरणार्थी हैं, जिनमें से साढ़े 7 शरणार्थी अगस्‍त 2017 में म्‍याँमार के रखाइन प्रांत में हिंसा और सैन्‍य कार्रवाई के कारण बांग्लादेश चले गए थे। दूसरी ओर बांग्लादेश ने अपने यहांँ 11 लाख रोहिंग्या शरणार्थियों के होने का दावा किया है। विदित हो कि रखाइन म्‍याँमार के उत्तर-पश्चिमी छोर पर बांग्लादेश की सीमा पर बसा एक प्रांत है, जो 36 हजार 762 वर्ग किलोमीटर में फैला है, सितवे इसकी राजधानी है। म्‍याँमार सरकार द्वारा वर्ष 2014 की जनगणना रिपोर्ट में राज्य की करीब 10 लाख की मुस्लिम आबादी को जनगणना में शामिल नहीं किया गया था।
  • भारत सरकार देश की एकता और अखंडता में योगदान देने के लिये सरदार वल्‍लभ भाई पटेल के नाम पर सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मान पुरस्‍कार की शुरुआत करने जा रही है। यह पुरस्कार राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बढ़ावा देने एवं उल्लेखनीय तथा प्रेरणादायक योगदान के लिये दिया जाएगा। 31 अक्तूबर को सरदार पटेल की जयंती राष्‍ट्रीय एकता दिवस के अवसर पर इस पुरस्‍कार की घोषणा की जाएगी। यह दिवस सरदार वल्लभ भाई पटेल के राष्ट्र के प्रति समर्पण को याद रखने के लिये मनाया जाता है। वर्ष 2014 में पहली बार राष्ट्रीय एकता दिवस मनाया गया था। भारत के राजनीतिक एकीकरण के लिये सरदार वल्लभ भाई पटेल के योगदान को चिरस्थायी बनाए रखने के उद्देश्य के साथ अलग-अलग समुदाय के लोगों के बीच एकता की भावना को बढ़ावा देना और सांस्कृतिक समानता लाना इस दिवस का उद्देश्य है।
  • सरकार ने प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का पुनर्गठन किया है। इस परिषद का कार्यकाल दो वर्ष का होगा और 26 सितंबर से प्रभावी होगा। डॉक्‍टर बिबेक देबराय प्रधानमंत्री की पुनर्गठित आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्‍यक्ष और रतन पी. वाटल सदस्‍य सचिव बने रहेंगे। इनके अलावा डॉक्‍टर आशिमा गोयल नवगठित समिति की अंशकालिक सदस्‍य बनी रहेंगी, जबकि डॉक्‍टर साजिद चिनॉय को दूसरा अंशकालिक सदस्‍य बनाया गया है। प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद भारत में प्रधानमंत्री को आर्थिक मामलों पर सलाह देने वाली समिति है। इसमें एक अध्यक्ष तथा चार सदस्य होते हैं।
  • अरुणाचल प्रदेश से भारतीय सेना में जाने वाली मेजर पोनुंग डोमिंग अपने प्रदेश से लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर पदोन्नत होने वाली पहली महिला सेना अधिकारी बन गई हैं। पोनुंग डोमिंग पूर्वी सियांग जिले के पासीघाट के जीटीसी की रहने वाली हैं। वर्ष 2014 में उन्होंने डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में यूनाइटेड नेशन पीस कीपिंग मिशन में भी हिस्सा लिया। विदित हो कि इसी वर्ष मार्च में रक्षा मंत्रालय ने महिला अधिकारियों को भारतीय सेना की उन सभी 10 शाखाओं में स्थायी कमीशन देने की बात कही थी, जहाँ उन्हें शॉर्ट सर्विस कमीशन (SSC) में शामिल किया जाता था। अभी भी सेना में महिला अफसरों को स्थायी कमीशन दिया जाता है, लेकिन वह कुछ गैर-युद्धक शाखाओं तक ही सीमित है।

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