डेली न्यूज़ (21 Aug, 2018)



डब्ल्यूटीओ के घेराव हेतु पूंजीगत सामानों का शुल्क मुक्त आयात

चर्चा में क्यों?

घरेलू उद्योगों द्वारा उत्पादित पूंजीगत वस्तुओं का शुल्क मुक्त आयात सुनिश्चित करने के लिये सरकार एक योजना पर काम कर रही है, जिससे न केवल घरेलू उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा बल्कि इससे रोज़गार उत्पादन में भी वृद्धि होने की संभावना है।

इसकी आवश्यकता क्यों ?

  • जहाँ एक ओर यह पहल कुछ निर्यात प्रोत्साहन योजनाओं का विकल्प साबित हो सकती है वहीं दूसरी ओर, वैश्विक व्यापार नियमों के साथ असंगतता के कारण चरणबद्ध आयात-निर्यात में उत्पन्न हो रही बाधाओं को दूर करने में सहायक साबित हो सकती है।
  • वर्तमान समय में निर्यातक, निर्यात संवर्द्धन पूंजीगत वस्तुओं (Export Promotion Capital Goods - EPCG) की योजना के तहत पूंजीगत सामान का शुल्क मुक्त आयात कर सकते हैं और निर्यात उन्मुख इकाइयों (Export Oriented Units-EOUs) तथा विशेष आर्थिक क्षेत्र (Special Economic Zone-SEZ) की इकाइयों के संदर्भ में भी आवश्यक पहल कर सकते हैं।
  • परंतु इसमें समस्या यह है कि अब ये योजनाएँ विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के मानदंडों के अनुकूल नहीं हैं। ऐसे में या तो इन्हें चरणबद्ध तरीके से परिवर्तित करना होगा अथवा इन्हें पूरी तरह से समाप्त करना होगा।
  • इस संदर्भ में यह नई योजना डब्ल्यूटीओ मानदंडों के अनुरूप तैयार की गई है। साथ ही इसके अंतर्गत निर्माताओं हेतु समान लाभ की व्यवस्था करने का भी प्रयास किया जा रहा है।

नई योजना 

  • विदेश व्यापार निदेशालय (Directorate-General of Foreign Trade - (DGFT) के नेतृत्व में व्यापार विशेषज्ञों और उद्योग प्रतिनिधियों की एक टीम तैयार की गई है जिसका कार्य इस योजना को अंतिम रूप प्रदान करना है, जिसे अंततः घरेलू उद्योग और निर्यातकों के लिये वैकल्पिक प्रोत्साहन योजनाओं पर कैबिनेट नोट में शामिल किया जाएगा।

वर्तमान स्थिति

  • वर्तमान समय में भारत कई निर्यात संबंधी कई विषम परिस्थितियों से घिरा हुआ है, इस साल की शुरुआत में अमेरिका द्वारा भारत पर भारतीय निर्यात सब्सिडी के रूप में अमेरिकी कंपनियों को नुकसान पहुँचाने संबंधी मामला सामने आया था। यह मामला इतना अधिक बढ़ गया था कि अमेरिका ने भारत को डब्ल्यूटीओ के विवाद निपटान निकाय के समक्ष ला खड़ा किया। 
  • इस मामले में पाँच लोकप्रिय निर्यात संवर्द्धन योजनाओं को चिन्हित किया गया, जिनमें एमईआईएस (Merchandise Export from India Scheme -MEIS), ईपीसीजी योजना और ईओयू एवं एसईजेड इकाइयों को उपलब्ध कराए जाने वाले कुछ प्रोत्साहन शामिल हैं, इन सभी पर सब्सिडी तथा  काउंटरवेलिंग उपायों पर डब्ल्यूटीओ समझौते का उल्लंघन करने का आरोप लगाया गया।

भारत की योजना क्या है?

  • उक्त मामलों को ध्यान में रखते हुए नीति निर्माताओं द्वारा उन योजनाओं को प्रतिस्थापित करने पर विचार किया जा रहा  है जो सीधे तौर पर निर्यात से जुड़ी हुई नहीं हैं। ये योजनाएँ सभी घरेलू उत्पादकों के लिये उपलब्ध होंगी और निर्यात के अलावा अन्य मानदंडों जैसे- रोज़गार से भी संबद्ध होंगी।
  • वर्तमान में पूंजीगत वस्तुओं पर आयात शुल्क का औसत स्तर लगभग 7.5 प्रतिशत है। घरेलू उद्योगों के लिये इसे शून्य करने से जहाँ एक ओर रोज़गार उत्पादन जैसे महत्त्वपूर्ण मानदंडों को पूरा किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर, निर्माताओं को भी राहत प्रदान करने का अवसर प्रदान किया जा सकता है।

चुनौतियाँ

  • हालाँकि, इस योजना के निष्पादन में कुछ चुनौतियाँ भी सामने आ रही हैं। पूंजीगत वस्तुओं के आयात को प्रोत्साहित करने की योजना से घरेलू पूंजीगत वस्तुओं के उद्योग के हितों को नुकसान पहुँचने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
  • इसमें कोई दोराय नहीं है कि सरकार का अंतिम उद्देश्य 'मेक इन इंडिया' के लक्ष्यों को पूरा करना है। हालाँकि  घरेलू उद्योगों को कुछ अतिरिक्त लाभ देकर भी इन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिये भारत को सख्त मज़दूरी नीति लागू करने की ज़रुरत : आईएलओ

चर्चा में क्यों?

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organization- ILO) द्वारा प्रकाशित इंडिया वेज रिपोर्ट : वेज पॉलिसीज़ फॉर डिसेंट वर्क एंड इंक्लूसिव ग्रोथ में कहा गया है कि भारत में पिछले दो दशकों में सालाना 7% की औसत जीडीपी दर होने के बावज़ूद वेतन में कमी और असमानता की स्थिति बनी हुई है। 

वेतन वृद्धि के बावज़ूद असमानता

  • NSSO के अनुमानों से भी यह संकेत मिलता है कि 1993-94 और 2011-12 के बीच वास्तविक औसत दैनिक मज़दूरी दोगुनी हो गई है।
  • सबसे कमज़ोर श्रेणी जिसमें ग्रामीण मज़दूर, अनौपचारिक रोज़गार, अनौपचारिक मज़दूर, महिला कर्मचारी और निम्न आय वाले कारोबारी शामिल हैं, के वेतन में तेज़ी से वृद्धि हुई है। इसके बावजूद भी वेतन में काफी असमानताएँ बनी हुई हैं।
  • राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) के रोज़गार और बेरोज़गारी सर्वेक्षण (Employment and Unemployment Survey- EUS) के अनुसार, 2011-12 में भारत में औसत मज़दूरी लगभग 247 रुपए प्रतिदिन और आकस्मिक श्रमिकों की औसत मज़दूरी अनुमानतः 143 रुपए प्रतिदिन थी।
  • केवल शहरी क्षेत्र के सीमित नियमित/वेतनभोगी कर्मचारियों और उच्च कौशल वाले पेशेवरों ने औसत से अधिक वेतन प्राप्त किया।

रोज़गार के पैटर्न में मामूली बदलाव

  • भारत की आर्थिक वृद्धि के परिणामस्वरूप गरीबी में गिरावट आई है,  सेवा तथा उद्योग क्षेत्र में श्रमिकों के बढ़ते अनुपात के साथ रोज़गार पैटर्न में मामूली बदलाव आया है।
  • श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा (47%) कृषि क्षेत्र में नियोजित होने के बावजूद अर्थव्यवस्था अभी भी अनौपचारिकता और विभाजन का सामना कर रहा है।
  • 2011-12 के आँकड़ों के अनुसार, भारत में नियोजित कुल 51% से अधिक लोग, स्व-रोज़गार में नियोजित थे और 62% मज़दूरों को अनौपचारिक श्रमिकों के रूप में नियुक्त किया गया था।
  • यद्यपि संगठित क्षेत्र के रोज़गार में वृद्धि देखी गई है लेकिन इस क्षेत्र में भी कई नौकरियाँ अनियमित या अनौपचारिक प्रकृति की ही रही हैं।

मज़दूरी में असमानता की उच्च दर 

  • 2004-05 के बाद से भारत में कुल मज़दूरी असमानता में कुछ हद तक कमी आने के बावजूद यह दर उच्च बनी हुई है।
  • कुल मज़दूरी असमानता में यह गिरावट काफी हद तक 1993-94 और 2011-12 के बीच अनियमित श्रमिकों की मज़दूरी दोगुनी होने की वज़ह से हुई है।
  • फिर भी, 1993-94 और 2004-05 के बीच नियमित श्रमिकों की मज़दूरी असमानता में होने वाली तेज़ वृद्धि 2011-12 में स्थिर हो गई।

लैंगिक आधार पर वेतन में भेदभाव

  • 1993-94 में लैंगिक आधार पर वेतन में अंतर 48% था जो 2011-12 में घटकर 34% पर पहुँच गया लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार, मज़दूरी में लैंगिक आधार पर किया जाने वाला अंतर अभी भी बना हुआ है।
  • मज़दूरी में यह असमानता नियमित, अनियमित, शहरी और ग्रामीण सभी प्रकार के श्रमिकों के बीच है।
  • ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अनियमित श्रमिकों के रूप में कार्यरत महिलाओं की मज़दूरी सबसे कम (शहरी नियमित पुरुष श्रमिकों की कमाई का 22%) है।
  • हालाँकि, औसत श्रम उत्पादकता (जिसकी गणना प्रति कर्मचारी GDP के आधार पर की जाती है) 1981 के 38.5% से घटकर 2013 में 35.4% हो गई।

समावेशी विकास के लिये सख्त मज़दूरी नियमों को लागू करने की आवश्यकता

  • हालाँकि भारत 1948 में न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम के माध्यम से पहली बार न्यूनतम मज़दूरी तय करने वाले देशों में से एक था फिर भी सभी श्रमिकों के लिये व्यापक न्यूनतम मज़दूरी तय करने के मामले में चुनौतियाँ अभी भी मौजूद हैं क्योंकि भारत में न्यूनतम मज़दूरी निर्धारित करने की प्रणाली काफी जटिल है।
  • कर्मचारियों के लिये राज्य सरकारों द्वारा न्यूनतम मज़दूरी निर्धारित की जाती है और इसने देश भर में 1709 विभिन्न दरों का नेतृत्व किया है। चूँकि कवरेज पूरा नहीं हुआ है, इसलिये ये दरें लगभग 66% दैनिक श्रमिकों पर लागू होती हैं।
  • 1990 के दशक में एक राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी स्तर पेश किया गया था जो 2017 में बढ़कर 176 रुपए प्रतिदिन के स्तर पर पहुँच गया लेकिन 1970 के दशक से अब तक कई दौर की चर्चाओं के बावज़ूद यह न्यूनतम मज़दूरी स्तर कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है। 
  • 2009-10 में लगभग 15% वेतनभोगी श्रमिकों और 41% अनियमित श्रमिकों ने इस संकेतक ‘राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी’ से कम मज़दूरी प्राप्त की। 
  • पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के लिये कम वेतन की दर के अलावा लगभग 62 मिलियन श्रमिक ऐसे हैं जिन्हें राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी से कम भुगतान किया जाता है। 

न्यूनतम मज़दूरी प्रणाली में सुधार की सिफारिशें
रिपोर्ट में न्यूनतम मज़दूरी प्रणाली में सुधार के लिये कई सिफारिशें की गई हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार हैं- 

  • रोज़गार के संबंध में सभी श्रमिकों को कानूनी कवरेज प्रदान करना। 
  • न्यूनतम मज़दूरी प्रणालियों पर सामाजिक भागीदारों के साथ पूर्ण परामर्श सुनिश्चित करना।
  • नियमित साक्ष्य-आधारित समायोजन करना।
  • न्यूनतम मज़दूरी संरचनाओं को क्रमिक रूप से समेकित करना और सरल बनाना।
  • अधिक सुनिश्चितता के लिये न्यूनतम मज़दूरी कानून को प्रभावी रूप से लागू करना। 
  • यह समय-समय पर और नियमित आधार पर सांख्यिकीय डेटा संग्रह करने की भी मांग करता है। 

समुचित कार्य और समावेशी विकास के लिये सिफारिशें 
यह रिपोर्ट समुचित कार्य और समावेशी विकास को प्राप्त करने के लिये कई अन्य पूरक कार्यों की भी सिफारिश करती है। जो इस प्रकार हैं-

  • श्रम उत्पादकता को बढ़ावा देने और टिकाऊ उद्यमों के विकास के लिये कौशल विकास को बढ़ावा देना। 
  • समान कार्य के लिये बराबर वेतन को बढ़ावा देना।
  • अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाना। 
  • श्रमिकों के लिये सामाजिक सुरक्षा को मज़बूत करना शामिल है।

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन
(International Labour Organization - ILO)

  • यह ‘संयुक्त राष्ट्र’ की एक विशिष्ट एजेंसी है, जो श्रम-संबंधी समस्याओं/मामलों, मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानक, सामाजिक संरक्षा तथा सभी के लिये कार्य अवसर जैसे मामलों को देखती है। 
  • यह संयुक्त राष्ट्र की अन्य एजेंसियों से इतर एक त्रिपक्षीय एजेंसी है, अर्थात् इसके पास एक ‘त्रिपक्षीय शासी संरचना’ (Tripartite Governing Structure) है, जो सरकारों, नियोक्ताओं तथा कर्मचारियों का (सामान्यतः 2:1:1 के अनुपात में) इस अंतर्राष्ट्रीय मंच पर प्रतिनिधित्व करती है।
  • यह संस्था अंतर्राष्ट्रीय श्रम कानूनों का उल्लंघन करने वाली संस्थाओं के खिलाफ शिकायतों को पंजीकृत तो कर सकती है, किंतु यह सरकारों पर प्रतिबंध आरोपित नहीं कर सकती है।
  • इस संगठन की स्थापना प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् ‘लीग ऑफ नेशन्स’ (League of Nations) की एक एजेंसी के रूप में सन् 1919 में की गई थी। भारत इस संगठन का एक संस्थापक सदस्य रहा है। 
  • इस संगठन का मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड के जेनेवा में स्थित है। 
  • वर्तमान में 187 देश इस संगठन के सदस्य हैं, जिनमें से 186 देश संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से हैं तथा एक अन्य दक्षिणी प्रशांत महासागर में अवस्थित ‘कुक्स द्वीप’ (Cook's Island) है। 
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 1969 में इसे प्रतिष्ठित ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ प्रदान किया गया था।

ग्रीस यूरोज़ोन के बेलआउट से बाहर निकला

चर्चा में क्यों?

ग्रीस नौ साल तक उधारदाता के आदेशों को मानने की बाध्यता और यूरोपीय संस्थानों के नियमों का पालन करते हुए हाल ही में आर्थिक इतिहास के सबसे बड़े बेलआउट से बाहर निकल गया। 

प्रमुख बिंदु

  • ग्रीस की यह निकासी एक सफलता के तौर पर देखी जा सकती है लेकिन ग्रीकवासियों के लिये यह अत्यंत हर्षदायक नहीं कही जा सकती है क्योंकि ग्रीस के आर्थिक संकट का असर देश पर लंबे समय तक रहेगा।
  • इस निकासी को ग्रीस के लिये मील का पत्थर कहा जा सकता है हालाँकि कर्ज के बोझ तले दबे यूरोज़ोन के इस सदस्य को अब वित्तीय जीवन रेखा की आवश्यकता नहीं होगी। 
  • यह वित्तीय जीवन रेखा पिछले एक दशक में उधारदाताओं द्वारा तीन बेहद अहम मौकों पर पेश की गई थी और इससे उबरते हुए देश को अब खुद का समर्थन करने की आवश्यकता होगी। 

संकट से बाहर निकलना

  • ग्रीस अब अपने कर्ज़ को पुनर्वित्त प्रदान करने के लिये आधिकारिक तौर पर एक बड़े संकट को पीछे छोड़कर बॉण्ड बाज़ारों का सहारा ले सकेगा। इस संकट ने ग्रीस की अर्थव्यवस्था को एक-चौथाई तक कम कर दिया और कई लोगों को गरीबी की ओर धकेल दिया।
  • 2010 की शुरुआत से ग्रीस अपने यूरोज़ोन भागीदारों और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा दिये गए 260 बिलियन यूरो (300 बिलियन डॉलर) से अधिक के ऋण पर निर्भर रहा है।
  • यूरोज़ोन के बेलाउट फंड, यूरोपीय स्थिरता तंत्र (ईएसएम) ने विश्वास व्यक्त किया कि ग्रीस अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सुरक्षा जाल के बिना वित्तीय प्रबंधन कर सकता है।

बिम्सटेक देशों के राजदूतों के लिये वार्ता का प्रमुख बिंदु: एफटीए

चर्चा में क्यों?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 30-31 अगस्त को काठमांडू में बिम्सटेक (bimstec) देशों के नेताओं के साथ शिखर सम्मेलन में शामिल होंगे और उनमें से अधिकांश के साथ द्विपक्षीय वार्ता भी करेंगे। साथ ही, यह उम्मीद जताई जा रही है कि बिम्सटेक देशों के लिये एफटीए वार्ता का प्रमुख बिंदु होगा।

प्रमुख बिंदु 

  • सात सदस्य देशों के दूतावासों ने कहा है कि बिम्सटेक क्षेत्र अभी "दूरदर्शिता की कमी" (“lack of visibility”) से पीड़ित है।
  • यह वास्तव में निराशाजनक है कि अभी तक एफटीए को अंतिम रूप नहीं दिया गया है, जबकि इसके विषय में वर्ष 2004 में बातचीत शुरू हो गई थी।

बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिये बंगाल की खाड़ी पहल
Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation (BIMSTEC)

  • एक उपक्षेत्रीय आर्थिक सहयोग समूह के रूप में बिम्सटेक (बांग्लादेश, भारत, म्याँमार, श्रीलंका और थाईलैंड तकनीकी और आर्थिक सहयोग) का गठन जून, 1997 में बैंकाक में किया गया था।
  • वर्तमान में इसमें सात सदस्य हैं जिनमें दक्षिण एशिया से पाँच देश बांग्लादेश, भूटान, भारत, नेपाल, श्रीलंका तथा दक्षिण पूर्व एशिया से दो देश म्याँमार और थाईलैंड शामिल हैं।
  • प्रथम बिम्सटेक सम्मेलन का आयोजन थाइलैंड द्वारा 30 जुलाई, 2004 को बैंकाक में किया गया था, जो बिम्सटेक के उप क्षेत्रीय समूह को नई दिशा देने वाली घटना थी।
  • इस सम्मेलन में बिम्सटेक (बांग्लादेश, भारत, म्याँमार, श्रीलंका और थाईलैंड तकनीकी और आर्थिक सहयोग) का नाम बदलकर बिम्सटेक (बहुक्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिये बंगाल की खाड़ी पहल) रखा गया।
  • इस संगठन की तात्कालिक प्राथमिकता अपने कार्यकलापों को समेकित करना तथा आर्थिक सहयोग के लिये इसे आकर्षक बनाना है।
  • इसी संदर्भ में बांग्लादेश के उच्चायुक्त सैयद मुजेम अली ने कहा, "हमें अपने अंतर-क्षेत्रीय व्यापार को मौजूदा स्तर 7% से 21% तक बढ़ाने के लिये बिम्सटेक में एफटीए को शीघ्रता से लागू करने की ज़रूरत है।" 
  • साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि “हमें बिम्सटेक में दूरदर्शिता की कमी को दूर करने के लिये इसे उन क्षेत्रों में बढ़ाना चाहिये जहाँ एशियान, सार्क, एसएएसईसी जैसे कुछ अन्य क्षेत्रीय सहयोग समूह पहले से ही मौजूद हैं।"
  • हालाँकि, भारत और श्रीलंका मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) की दिशा में पहले से ही सक्रिय हैं, लेकिन सभी सात देशों के लिये यह शायद इतना आसान नहीं है।
  • किंतु हमें ध्यान रखना चाहिये कि वर्ष 2018 के अंत तक पूरी होने वाली 16 राष्ट्रों की क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) की वार्ता भी प्राथमिकता ले रही है।
  • अतः आगामी शिखर सम्मेलन में इस क्षेत्र के "आतंकवाद और हिंसक अतिवाद" जैसे सुरक्षा मुद्दों सहित एफटीए वार्त्ता को बढ़ावा देने वाले आवश्यक मुद्दों पर बात किये जाने की भी उम्मीद है।

भारत का पक्ष

  • सीमापार आतंकवाद और उग्रवाद से मुकाबला करने के लिये भारत को ऐसे क्षेत्रीय संगठन की आवश्यकता है जिसके सदस्य देश आतंकवाद के मुद्दे पर वैचारिक रूप से एकमत हों।
  • बिम्सटेक के माध्यम से भारत पड़ोसी देशों के साथ संपर्क बढ़ाकर अपने व्यापार को बढ़ा सकता है।
  • इसके माध्यम से ब्लू-इकॉनमी को बढ़ावा दिया जा सकता है।
  • इसके अलावा, नेपाल और भूटान जैसे स्थल-आबद्ध देशों के लिये बिम्सटेक के माध्यम से क्षेत्रीय संपर्क बढ़ाने के पर्याप्त अवसर हैं।

मोबाइल बैंकिंग को अपनाने में दक्षिण भारत शेष भारत से आगे : रिपोर्ट

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अमेरिकी बहुराष्ट्रीय प्रबंधन परामर्श फर्म बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (Boston Consulting Group -BCG) द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई है जिसके अनुसार, बचत खातों में मोबाइल बैंकिंग को अपनाने के मामले में भारत के दक्षिणी राज्य शेष भारत से आगे निकल रहे हैं।

प्रमुख बिंदु

मोबाइल बैंकिंग और इंटरनेट बैंकिंग के बारे में

  • रिपोर्ट के अनुसार, वित्त वर्ष 2018 के पिछले छह महीनों में मोबाइल बैंकिंग के माध्यम से कम-से-कम एक बार वित्तीय लेन-देन करने वाले खातों के संदर्भ में कुल सक्रिय बचत बैंक खातों का योगदान तेलंगाना में 10%, आंध्र प्रदेश में 6.30%, कर्नाटक में 5.50%, पुद्दुचेरी में 5.80%, तमिलनाडु में 5% और केरल में 4.70% है। उल्लेखनीय है कि पूरे भारत के लिये यह औसत 3.40% है।
  • रिपोर्ट में 2,600 से अधिक उत्तरदाताओं के नमूने को शामिल किया गया था और BCG ने 34 बैंकों को चार खंडों में विभाजित कर रिपोर्ट तैयार की।
  • इस रिपोर्ट के अनुसार, निजी बैंकों के लिये मोबाइल बैंकिंग सक्रियता 21% और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये 3% है।
  • वित्त वर्ष 2018 के आखिरी छह महीनों में इंटरनेट बैंकिंग के माध्यम से कम-से-कम एक बार वित्तीय लेन-देन करने वाले खातों के संदर्भ में, कुल सक्रिय बचत बैंक खातों के योगदान के रूप में तेलंगाना, मणिपुर और मिजोरम का औसत, राष्ट्रीय औसत 11.30% की तुलना में 20% से अधिक था।
  • अन्य दक्षिण भारतीय राज्यों में भी मोबाइल बैंकिंग को अपनाने वालों का औसत राष्ट्रीय औसत से अधिक है।

MSMEs के बारे में 

  • वर्तमान में भारत में लगभग 100 लाख करोड़ रुपए के कुल औपचारिक ऋण में से केवल 25% MSMEs को उपलब्ध कराया गया है।
  • वस्तु एवं सेवा कर (GST) की शुरुआत से प्रेरित छोटे व्यवसायों को तेज़ी से तथा औपचारिक रूप से डिजिटलीकृत किया जा रहा है।
  • इस रिपोर्ट में कहा गया है कि GST के लागू होने के बाद डिजिटल चैनलों का उपयोग करने वाले MSMEs की संख्या कुल MSMEs का 47% हो गई है जो कि GST लागू होने से पहले 41% थी।
  • BCG के अनुसार, अर्थव्यवस्था में, MSMEs को दिया जाने वाला उधार एक अंतरंग बिंदु पर है और यह क्रेडिट वृद्धि में सहायक हो सकता है।
  • वर्तमान में डिजिटल ऋण MSMEs को दिये जाने वाले ऋण का केवल 4% है। हालाँकि, अगले पाँच वर्षों में इसके 21 प्रतिशत तक बढ़ने की उम्मीद है।

सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग क्या है?

सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग (Micro, Small and Medium Enterprises- MSMEs) वे उद्योग हैं जिनमें काम करने वालों की संख्या एक सीमा से कम होती है तथा उनका वार्षिक उत्पादन (turnover) भी एक सीमा के अंदर रहता है। किसी भी देश के विकास में इनका महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।

रिपोर्ट के बारे में

  • BCG द्वारा यह रिपोर्ट भारतीय वाणिज्य और उद्योग संघ फिक्की (Federation of Indian Chambers of Commerce and Industry- FICCI) और भारतीय बैंक संघ (Indian Bank Association- IBA) के सहयोग से तैयार की गई है।
  • इस रिपोर्ट का विषय ‘’प्रोवाइडिंग फाइनेंसियल सर्विसेज़ टू एसएमइज़ इन एन इनक्रीजिंगली डिजिटल सिस्टम” (Providing financial services to SMEs in an increasingly digital ecosystem) है।

फिक्की

  • भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ, फिक्की (Federation of Indian Chambers of Commerce and Industry- FICCI) भारत के व्यापारिक संगठनों का संघ है। 
  • इसकी स्थापना 1927 में महात्मा गांधी की सलाह पर घनश्याम दास बिड़ला एवं पुरुषोत्तम ठक्कर द्वारा की गई थी। 
  • इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है।

कैंसर के जोखिम को कम करने के तरीके

चर्चा में क्यों?

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने वैश्विक स्तर पर मौत के दूसरे प्रमुख कारण के रूप में उभरने वाले कैंसर के जोखिम को कम करने के तरीकों की एक सूची बनाई है।

    प्रमुख मुद्दे

    निम्नलिखित तरीकों को शामिल किया गया है :

    ♦ किसी भी प्रकार के तंबाकू का उपभोग न करें तथा स्वस्थ आहार का सेवन करें।
    ♦ हेपेटाइटिस बी और एचपीवी (HPV) के खिलाफ बच्चों का टीकाकरण और सूर्य के हानिकारक विकिरणों से सुरक्षात्मक उपायों का उपयोग करें।
    ♦ शारीरिक रूप से सक्रिय रहें तथा शराब का सेवन सीमित करने और संगठित स्क्रीनिंग कार्यक्रमों में भाग लें। 
    ♦ इसके अलावा स्तनपान को स्तन कैंसर के जोखिम को कम करने वाला माना गया है।
  • डब्ल्यूएचओ का कहना है कि तंबाकू, शराब, अस्वास्थ्यकर आहार और शारीरिक निष्क्रियता आदि प्रमुख कारक हैं जो दुनिया भर में कैंसर के खतरे को बढ़ाते हैं और अन्य गैर-संक्रमणीय बीमारियों के लिये  भी ये चार कारक ही साझा रूप से जोखिम का कारण बनते हैं।
  • वर्ष 2012 में पाए गए कैंसर के लगभग 15% मामलों में कैंसरजन्य संक्रमण के लिये हेलीकॉबैक्टर पिलोरी, ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (HPV), हेपेटाइटिस बी वायरस, हेपेटाइटिस सी वायरस और एपस्टीन-बार जैसे वायरस ज़िम्मेदार थे।
  • हेपेटाइटिस बी एवं सी वायरस और कुछ एचपीवी क्रमशः यकृत और गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर के लिये  जोखिम को बढ़ाते हैं।
  • इसके अलावा एचआईवी (HIV) के साथ संक्रमण से गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर का खतरा और बढ़ जाता है।

कैंसर (CANCER) क्या है?

  • कैंसर से अभिप्राय शरीर के भीतर कुछ कोशिकाओं का अनियंत्रित होकर बढ़ना है।
  • अनुपचारित कैंसर आसपास के सामान्य ऊतकों या शरीर के अन्य हिस्सों में फैल सकता है तथा इसके कारण बहुत से गंभीर रोग, विकलांगता यहाँ तक की मृत्यु भी हो सकती है।
  • मूलतः कैंसर को प्राथमिक ट्यूमर कहा जाता है।
  • शरीर के दूसरे हिस्से में फैले कैंसर को मेटास्टैटिक या माध्यमिक कैंसर कहा जाता है।
  • मेटास्टैटिक कैंसर में प्राथमिक कैंसर के समान ही कैंसर कोशिकाएँ पाई जाती हैं।
  • आमतौर पर मेटास्टैटिक कैंसर शब्द का प्रयोग ठोस ट्यूमर का वर्णन करने के लिये किया जाता है जो शरीर के दूसरे हिस्सों में फैलता है।

भारत की स्थिति

  • बीते कुछ वर्षों में भारत में कैंसर के नए मामलों में वृद्धि देखी गई है 
  • इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च अनुसार भारत में कैंसर के मौजूद 25 से 30 लाख मामलों के साथ प्रतिवर्ष लगभग 12 से 13 लाख नए कैंसर के मामलों का भी निदान किया जा रहा है।

केंद्र ने केरल की बाढ़ को ‘गंभीर प्रकृति की आपदा' घोषित किया

चर्चा में क्यों?

केरल में बाढ़ की भयावह स्थिति को देखते हुए भारत सरकार ने इसे ‘गंभीर प्रकृति की आपदा’ घोषित किया है जिससे विभिन्न रूपों में राष्ट्रीय सहायता का मार्ग प्रशस्त हो गया है।

प्रमुख बिंदु 

  • गृह मंत्रालय ने कहा है कि वर्ष 2018 में केरल में आई बाढ़/भूस्खलन की तीव्रता और परिमाण को ध्यान में रखते हुए यह सभी दृष्टिकोण से 'गंभीर प्रकृति की आपदा ‘है।
  • उल्लेखनीय है कि यह वर्गीकरण राज्य को केंद्र से अधिक मौद्रिक और अन्य सहायता प्राप्त करने में सक्षम बनाएगा।
  • केरल में आई बाढ़ की विभीषिका को देखें तो 8 अगस्त से 223 लोगों ने अपनी जान गँवा दी है।
  • इसके अलावा 2.12 लाख महिलाओं और 12 साल से कम उम्र के एक लाख बच्चों सहित 10.78 लाख विस्थापित लोगों को 3,200 राहत शिविरों में आश्रय दिया गया है।
  • प्रारंभिक अनुमानों के अनुसार, राज्य को अब तक लगभग 20,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। हालाँकि, केंद्र सरकार ने अब तक राज्य को हर संभव सहायता प्रदान की है।
  • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD), केंद्रीय जल आयोग (CWC), राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) और राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (NDRF) समूह के प्रतिनिधियों द्वारा कम समय में राहत और बचाव सामग्री की सुविधाएँ सुनिश्चित की जाएंगी।
  • एनडीएमए के अधिकारियों ने कहा कि केंद्र और आसपास के राज्यों की सहायता से मेडिकल टीमों को केरल भेज दिया गया है, जो किसी भी महामारी को रोकने में मदद करेंगी।

‘गंभीर प्रकृति’ की आपदा घोषित करने के लाभ

  • जब एक आपदा "दुर्लभ गंभीरता"/"गंभीर प्रकृति" के रूप में घोषित की जाती है, तो राज्य सरकार को राष्ट्रीय स्तर का समर्थन प्रदान किया जाता है।
  • इसके अतिरिक्त केंद्र एनडीआरएफ (NDRF) सहायता भी प्रदान कर सकता है।
  • आपदा राहत निधि (CRF) को स्थापित किया जा सकता है, यह कोष केंद्र और राज्य के बीच 3:1 के साझा योगदान पर आधारित होता है।
  • इसके अलावा सीआरएफ में संसाधनों के अपर्याप्त होने की अवस्था में राष्ट्रीय आपदा आकस्मिक निधि (NCCF) से अतिरिक्त सहायता दिये जाने पर भी विचार किया जाता है, जो केंद्र द्वारा 100% वित्तपोषित होती है।
  • गौरतलब है कि संसद सदस्‍य स्‍थानीय क्षेत्र विकास योजना (MPLADS) के दिशा-निर्देशों के पैराग्राफ 2.8 में कहा गया है- ‘देश के किसी भाग में गंभीर आपदा की स्थिति में सांसद सदस्‍य प्रभावित ज़िले के लिये अधिकतम एक करोड़ रुपए तक के कार्यों की सिफारिश कर सकते हैं।’
  • दिशा-निर्देशों में यह भी कहा गया है कि जिस दिन से संसद सदस्‍य इस प्रकार का योगदान करेंगे, उसी दिन से संबंधित अधिकारी को एक महीने के अंदर राहत कार्यों को चिन्हित करना होगा और इस पर आठ महीने के अंदर अमल करना होगा।