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डेली न्यूज़

  • 19 Feb, 2020
  • 43 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

विदेश मंत्रालय का पुनर्गठन

प्रीलिम्स के लिये

सॉफ्ट पावर

मेन्स के लिये

पुनर्गठन की आवश्यकता और महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सरकार ने भारत के रणनीतिक लक्ष्यों के साथ साम्यता स्थापित करने के लिये स्वतंत्रता के बाद के सबसे बड़े प्रशासनिक सुधारों में से एक, विदेश मंत्रालय (Ministry of External Affairs-MEA) के पुनर्गठन का फैसला किया है।

प्रमुख बिंदु

  • सरकार ने संस्कृति, व्यापार और विकास जैसे विषयों के साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपने कार्यों को व्यवस्थित करने के लिये विदेश मंत्रालय के पुनर्गठन का निर्णय लिया है।
  • इस पुनर्गठन द्वारा सात अतिरिक्त सचिवों (Additional Secretaries) को सशक्त कर विभिन्न डिवीज़नों का कार्य विभाजन किया जाएगा।
  • इस पुनर्गठन का उद्देश्य दीर्घकालिक प्रभाव क्षेत्रों की पहचान कर अतिरिक्त सचिवों को एकीकृत कार्यों की निगरानी के लिये सशक्त बनाना है।
  • साथ ही व्यापार और अर्थशास्त्र जैसे क्षेत्रों में बाहरी विशेषज्ञता को शामिल करना तथा सांस्कृतिक शक्ति एवं विकास भागीदारी में समन्वय स्थापित करना आवश्यक है।

पुनर्गठन की आवश्यकता क्यों?

  • सचिव स्तर के अधिकारी दिन-प्रतिदिन के कर्त्तव्यों के साथ विभिन्न मंत्रालयों से समन्वय भी स्थापित करते हैं जिससे उन पर अत्यधिक कार्य दबाव और आवश्यक रणनीतिक कार्यों के लिये समय का अभाव था।
  • सांस्कृतिक विरासत, इतिहास, पर्यटन जैसे उद्देश्यों को बढ़ावा देने और प्रवासी भारतीयों के साथ समन्वय स्थापित करने के लिये सरकार के प्रयासों को मज़बूत करने की आवश्यकता थी।
  • यह भारत को सॉफ्ट पावर (Soft Power) के वाहक के रूप में स्थापित करने में सहायता करेगा।

महत्त्व

  • पुनर्गठन के बाद निर्मित संरचना, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में वार्ता के दौरान दूसरे पक्ष की वार्ता रणनीति तथा अंतिम चरण में होने वाले अपरिहार्य ट्रेड-ऑफ ( एक परिस्थितिजन्य निर्णय है जिसमें विशेष लाभ के लिये किसी अन्य लाभ की गुणवत्ता या मात्रा को कम करना या समाप्त करना शामिल है) के अग्रिम निहितार्थ का आकलन करने में सक्षम होगी।
  • इस पुनर्गठन से यूरोप, अफ्रीका और पश्चिम एशियाई क्षेत्रों में होने वाली गतिविधियों पर कार्यरत डिवीज़न तथा हिंद महासागर और भारत-प्रशांत क्षेत्र में कार्यरत डिवीज़न का एकीकरण कर दिया गया है।
  • एकीकरण के बाद गठित डिवीज़न वैश्विक स्थलीय सुरक्षा के साथ समुद्री सुरक्षा पर भी ध्यान केंद्रित करेगी।

सॉफ्ट पावर

  • इसके अंतर्गत कोई देश परोक्ष रूप से सांस्कृतिक अथवा वैचारिक साधनों के माध्यम से किसी अन्य देश के व्यवहार अथवा हितों को प्रभावित करता है।
  • इसमें आक्रामक नीतियों या मौद्रिक प्रभाव का उपयोग किये बिना अन्य देशों को प्रभावित करने का प्रयास किया जाता है।
  • सॉफ्ट पॉवर की अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग हार्वर्ड विश्वविद्यालय के जोसेफ न्ये (Juseph Nye) द्वारा किया गया था।

चिंताएँ

  • रणनीतिक लक्ष्यों पर अधिक ध्यान न दे पाना तथा वैश्विक मुद्दों पर समसामयिक जानकारी का अभाव होना।
  • वैश्विक भूमिका निभाने की हमारी क्षमता और प्रदर्शन के बीच विद्यमान अंतर को समाप्त करने के लिये सकारात्मक विज़न का अभाव।
  • प्रोद्योगिकी हस्तांतरण और रक्षा रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ाने हेतु सॉफ्ट पावर रणनीति का अत्यधिक प्रयोग।
  • सार्वजनिक नीति और अनुसंधान डिवीज़न की अस्पष्ट भूमिका।
  • भारत के रणनीतिक लक्ष्यों के साथ समरूपता का अभाव।

दीर्घकालिक सामरिक रणनीति

  • सामरिक रणनीति तब अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब संसाधनों की आपूर्ति कम हो, कोई भी राष्ट्र वैश्विक महत्त्वाकांक्षाओं का दावा तभी कर सकता है जब उसका सकल घरेलू उत्पाद अधिक हो।
  • भारत को सामरिक क्षेत्र में मुख्य अभिकर्त्ता के रूप में स्थापित होने के लिये दीर्घकालिक प्रतिक्रिया नीति की आवश्यकता है।
  • दीर्घकालिक सामरिक रणनीति के निर्माण में बेहतर आर्थिक विकास दर एक प्रमुख कारक है।

आगे की राह

  • बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में भारत को स्थापित करने के लिये भारतीय विदेश नीति का समय-समय पर मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
  • विदेश मंत्रालय के प्रत्येक डिवीज़न की स्पष्ट भूमिका का होना अति आवश्यक है। भूमिका के स्पष्ट विभाजन से आपसी समन्वय स्थापित करने में आसानी होती है।
  • सरकार को शीघ्रता से दीर्घकालिक सामरिक रणनीति के निर्माण की दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

ऑनलाइन अपराध संबंधी रिपोर्ट

प्रीलिम्स के लिये

साइबर बुलिंग

मेन्स के लिये

ऑनलाइन अपराध व उनसे बचाव

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘बाल अधिकार और आप’ (Child Rights and You-CRY) नामक एक गैर सरकारी संगठन द्वारा स्कूली छात्रों पर किये गए एक अध्ययन में पता चला है कि प्रत्येक तीन में से एक किशोर ऑनलाइन अपराध का शिकार है।

प्रमुख बिंदु

  • गैर सरकारी संगठन ‘बाल अधिकार और आप’ द्वारा ‘फोरम फाॅर लर्निंग एंड एक्शन विद इनोवेशन एंड रिगोर’ (Forum for Learning and Action with Innovation and Rigour-FLAIR) के सहयोग से इंटरनेट उपयोग और ऑनलाइन सुरक्षा के पैटर्न का आकलन करने हेतु दिल्ली-एनसीआर के 13 -18 आयु वर्ग के 630 स्कूली छात्रों पर एक सर्वेक्षण किया गया।
  • अध्ययन से पता चलता है कि 93% छात्रों के घरों में इंटरनेट उपयोग संबंधी सुविधाएँ उपलब्ध थी।
  • इंटरनेट उपकरणों तक व्यक्तिगत पहुँच के संदर्भ में पर्याप्त लैंगिक असमानता देखी जा सकती है, आँकड़ों से पता चलता है कि 60% बालकों की इंटरनेट उपकरणों तक व्यक्तिगत पहुँच के सापेक्ष केवल 40% बालिकाओं की इंटरनेट उपकरणों तक व्यक्तिगत पहुँच है।
  • अध्ययन से यह भी पता चला है कि इंटरनेट उपयोग के संदर्भ में 30% छात्रों का अनुभव नकारात्मक रहा।
  • इंटरनेट अपराध की विभिन्न श्रेणियों के आँकड़ो से पता चलता है कि लगभग 10% किशोर साइबर बुलिंग (Cyberbullying), अन्य 10% किशोर सोशल मीडिया अकाउंट और प्रोफाइल के दुरुपयोग तथा 23% किशोर फोटो व वीडियो में छेड़छाड़ को घटना से पीड़ित थे।

इंटरनेट उपयोग संबंधी आदत

  • NCERT द्वारा विकसित इंटरनेट सुरक्षा संबंधी दिशा-निर्देशों की जानकारी के संबंध में जागरुकता का अभाव है। केवल 30% छात्रों को इंटरनेट सुरक्षा संबंधी दिशा-निर्देशों की जानकारी थी।
  • इंटरनेट उपयोग संबंधी एक टेस्ट में लगभग 48% छात्र सामान्य रूप से इंटरनेट के उपयोग से ग्रस्त पाये गए वहीं 1% छात्र इंटरनेट के उपयोग से अत्यधिक ग्रस्त थे।
  • इंटरनेट तक पहुँच सभी के लिये हानिकारक नहीं है क्योंकि 40% छात्रों ने माना कि उन्होंने इसका प्रयोग अपने अध्ययन में मदद के लिये किया (जैसे कि शब्दों या सूचनाओं, ट्यूटोरियल और अपने स्कूल के ऑनलाइन शिक्षा कार्यक्रम तक ऑनलाइन खोज)।
  • लगभग 50% छात्रों ने पाठ्येतर गतिविधियों जैसे कि संगीत, पेंटिंग या खेल के लिये भी इंटरनेट का उपयोग किया।

कानूनी प्रावधान

  • भारत में ऑनलाइन अपराध के मामलों में सूचना प्रोद्योगिकी अधिनियम 2000 और सूचना प्रोद्योगिकी (संशोधन) अधिनियम 2008 लागू होते हैं।
  • भारत में बच्चों से संबंधित ऑनलाइन अपराध के मामले में कोई विशेष कानून नहीं है।
  • सूचना प्रोद्योगिकी कानून की धारा 66(a)(b) साइबर बुलिंग पर लागू होती है, जिसके तहत तीन साल तक की सज़ा तथा जुर्माना हो सकता है।

आगे की राह

  • इंटरनेट उपयोग संबंधी जागरूकता उत्पन्न करने के लिये स्कूलों में वर्कशॉप आयोजित किये जाने चाहिये।
  • किशोरों के खिलाफ साइबर अपराधों से निपटने के लिये बुनियादी ढाँचे के निर्माण हेतु केंद्र सरकार की बाल संरक्षण योजना को संशोधित करने की आवश्यकता है।
  • पारिवारिक स्तर पर अभिभावकों को अपने बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय व्यतीत करने का प्रयास करना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


शासन व्यवस्था

आंध्र सरकार में ST को 100% कोटा

प्रीलिम्स के लिये:

आरक्षण संबंधी संवैधानिक प्रावधान

मेन्स के लिये:

आरक्षण से जुड़े मुद्दों का क्रमवार अध्ययन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा 1988 में अनुसूचित क्षेत्रों (Scheduled Areas) में शिक्षक पदों के लिये अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes-ST) हेतु 100% आरक्षण दिये जाने के फैसले पर सवाल उठाया।

मुख्य बिंदु:

  • पाँच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ का गठन आंध्र प्रदेश राज्य के तत्कालीन राज्यपाल द्वारा 1988 में जारी की गई अधिसूचना को चुनौती देने वाली अपील पर सुनवाई करने के लिये किया गया था।

क्या है संवैधानिक पीठ?

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के अनुसार, संविधान की व्याख्या के रूप में यदि विधि का कोई सारवान प्रश्न निहित हो तो उसका विनिश्चय करने अथवा अनुच्छेद 143 के अधीन मामलों की सुनवाई के प्रयोजन के लिये संवैधानिक पीठ का गठन किया जाएगा जिसमें कम-से-कम पाँच न्यायाधीश होंगे।
  • हालाँकि इसमें पाँच से अधिक न्यायाधीश भी हो सकते हैं जैसे- केशवानंद भारती केस में गठित संवैधानिक पीठ में 13 न्यायाधीश थे।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूछे गए प्रश्न:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल पूछा है कि ऐसी आरक्षण प्रणाली अपनाने पर अनुसूचित जाति (Scheduled Castes- SCs) और अन्य पिछड़ा वर्ग (Other Backward Classes- OBCs) क्या करेंगे? ये वर्ग समाज में काफी पिछड़े हुए हैं और यह व्यवस्था इन समुदायों को आरक्षण के लाभ से वंचित करती है।
  • पीठ ने यह भी जानने की कोशिश की है कि क्या यह निर्णय उपलब्ध आँकड़ों के आधार पर लिया गया था या इसका आधार राजनीतिक विचारधारा को समर्थन प्रदान करना था?
  • ‘अधिसूचना’ (Notification) जारी करने का आधार यह था कि STs ही उस क्षेत्र में एकमात्र वंचित समूह हैं, जबकि क्या इस बात को प्रमाणित करने वाला कोई डेटा उपलब्ध है कि कोई अन्य समूह उस क्षेत्र में वंचित नहीं है?
  • पीठ ने यह भी जानना चाहा कि दो दशक से अधिक पुराने इस "प्रयोग" से क्या परिणाम प्राप्त हुए हैं?
  • पीठ ने ‘संविधान की 5वीं अनुसूची’ के तहत राज्यपाल की कार्यप्रणाली पर भी सवाल उठाए हैं।

आरक्षण प्रणाली के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या :

  • इस तरह के भेदकारी प्रावधानों को दो दशकों से सहन किया जा रहा है यदि अभी भी इसकी अनुमति दी गई तो इस समस्या का कोई अंत नहीं होगा और अन्य राज्य भी ऐसे प्रावधान ला सकते हैं।
  • यह प्रणाली योग्य उम्मीदवारों के लिये भी दरवाज़े बंद कर देती है, यहाँ तक कि यह उनको आवेदन करने की भी अनुमति नहीं देती है।
  • राज्यपाल का निर्णय कानून से ऊपर नहीं हो सकता, अत: असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये। (इंदिरा साहनी वाद का निर्णय)
  • जो आरक्षण दिया गया था वह व्यक्तिपरक (Subjective) था परंतु ऐसा करने के लिये पर्याप्त डेटा होना आवश्यक है।
  • अब हम एक ऐसी अवस्था में है कि संविधान को उसके वास्तविक अर्थों में संचालित करना बहुत कठिन है यहाँ तक ​​कि संविधान निर्माताओं ने भी ऐसी स्थिति की परिकल्पना नहीं की थी।
  • पीठ ने कहा कि दिये गए इस आरक्षण के साथ यह समस्या रही कि आरक्षण का लाभ उन लोगों को नहीं मिला जो वास्तव में इसके हक़दार थे।

स्रोत: पीआईबी


आंतरिक सुरक्षा

असम का बोडो समुदाय

प्रीलिम्स के लिये:

बोडो समुदाय, बोडो समझौता

मेन्स के लिये:

बोडो समझौते से संबंधित मुद्दे, असम में व्याप्त चुनौतियाँ, प्रभाव एवं समाधान, असम में व्याप्त संघर्ष से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में बोडो क्षेत्रीय परिषद् (Bodo Territorial Council- BTC) ने 27 जनवरी, 2020 को हुए बोडो समझौते का विरोध किया है।

  • साथ ही समझौते में निहित पहाड़ी क्षेत्र के बोडो समुदाय को जनजातीय दर्जा दिये जाने के प्रावधान का असम के कार्बी समुदाय ने भी विरोध किया है।

महत्त्वपूर्ण बिंदु

  • भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम में दशकों से चले आ रहे आतंरिक संघर्ष पर विराम लगाने के लिये 27 जनवरी, 2020 को केंद्रीय गृहमंत्री की उपस्थिति में राजधानी दिल्ली में भारत सरकार, असम राज्य सरकार एवं बोडो समुदाय के बीच एक महत्त्वपूर्ण त्रिपक्षीय समझौता हुआ।
  • विभिन्न गैर बोडो समुदायों ने हाल ही में हुए बोडो समझौते का विरोध किया है तथा इस समझौते को राजनीति से प्रेरित एवं अहितकर बताया है।

बोडो समझौते के विरोध के कारण

  • बोडो समझौते को मानने से इनकार करते हुए BTC चीफ ने तर्क दिया है कि यह समझौता केवल BTC का नाम परिवर्तित कर बोडोलैंड प्रादेशिक क्षेत्र (Bodoland Territorial Region- BTR) करता है।
  • समझौते के संदर्भ में कहा गया कि नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोरोलैंड (National Democratic Front of Boroland- NDFB) एवं ऑल बोडो स्टूडेंट्स यूनियन (All Bodo Students Union- ABSU) ने अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा के चलते यह समझौता किया है।
  • इस समझौते के विपक्ष में तर्क देते हुए कहा गया है कि यह समझौता नाम में बदलाव के अतिरिक्त और कोई लाभ प्रदान नहीं करता है। इसलिये हम इस समझौते को स्वीकार नहीं कर सकते तथा BTR नाम का उपयोग भी नहीं करेंगे।
  • इसके अतिरिक्त गैर-बोडो समुदाय ने इस समझौते को अशांति कारक एवं एकतरफा समझौता बताया। उनका कहना है कि इस समझौते में बोडोलैंड में रहने वाले केवल बोडो समुदाय के लिये अधिकारों एवं नीतियों का प्रावधान किया गया है, इसमें गैर बोडो समुदायों के लिये कोई प्रावधान नहीं है जिससे गैर-बोडो समुदायों के अधिकारों का हनन होगा।

प्रभाव:

  • इससे बोडो समुदाय एवं गैर-बोडो समुदायों के बीच संघर्ष में वृद्धि हो सकती है जिससे बोडोलैंड क्षेत्र में अस्थिरता उत्पन्न होगी तथा दोनों के हित प्रभावित हो सकते हैं।
  • हालिया बोडो समझौते से जहाँ समस्या खत्म होती नज़र आ रही थी, इन संघर्षों के कारण यह समस्या यथावत बनी रह सकती है।
  • आपसी संघर्षों के कारण क्षेत्रीय आर्थिक हित प्रभावित होंगे तथा विकास की प्रक्रिया में बाधा आएगी।

समाधान:

  • बोडोलैंड क्षेत्र में निवास करने वाले सभी समुदायों को विश्वास में लेना चाहिये तथा उन सभी के हितों को ध्यान में रखकर नीतियों का निर्माण एवं क्रियान्वयन किया जाना चाहिये।
  • आपसी संघर्ष के निवारण एवं क्षेत्रीय विकास के लिये राजनीतिक हितों से ऊपर उठकर कार्य किया जाना चाहिये।
  • किसी भी प्रकार के समझौते में सभी हितधारकों को शामिल कर व्यापक विचार-विमर्श के माध्यम से और सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए इस समस्या के निवारण का प्रयास किया जाना चाहिये।

पहाड़ी बोडो समुदाय को ST का दर्जा दिये जाने के विरोध का कारण

  • असम के पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करने वाले कार्बी समुदाय ने बोडो समझौते के तहत पहाड़ी बोडो समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने का विरोध किया है।
  • कार्बी समुदाय का मानना है कि पहाड़ी बोडो समुदाय को जनजातीय दर्जा दिये जाने से बोडो समुदाय के साथ पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले कार्बियों की पहचान का संकट उत्पन्न हो जाएगा।
  • ध्यातव्य है कि असम के मैदानी क्षेत्र में 14 और पहाड़ी क्षेत्र में 15 जनजाति समुदाय रहते हैं तथा असम में 16 अनुसूचित जाति समुदाय भी हैं।
  • कार्बी समुदाय का कहना है कि बोडो समुदाय की प्राथमिक मांग अलग राज्य की थी अतः उनको जनजातीय दर्जा दिये जाने का कोई औचित्य नहीं है।

प्रभाव:

  • यह विरोध असम के पहाड़ी क्षेत्रों में कार्बी-बोडो समुदायों के बीच नृजातीय संघर्ष का कारण बन सकता है।
  • इससे पृथक राज्य की मांग पुनः उठ सकती है जो क्षेत्रीय संप्रभुता के लिये एक बड़ा खतरा होगा।

समाधान:

  • नृजातीय संघर्ष को कम करने के लिये कार्बी एवं बोडो समुदायों के हितों को ध्यान में रखकर नीतियाँ बनाई जानी चाहिये।
  • बोडो समुदाय को जनजातीय दर्जा दिये जाने से संबंधित कार्बी समुदाय की चिंताओं का निराकरण किया जाना चाहिये ताकि दोनों समुदायों की पहचान एवं हित प्रभावित न हों।

आगे की राह

  • असम में व्याप्त विभिन्न प्रकार की क्षेत्रीय, नृजातीय, भाषायी चुनौतियों से निपटने के लिये राज्य एवं केंद्र दोनों स्तर पर व्यापक प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
  • उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में उनकी भाषा एवं संस्कृति को नुकसान पहुँचाए बिना विकासात्मक गतिविधियों के माध्यम से इन क्षेत्रों में व्याप्त संघर्ष को कम करने का प्रयास करना चाहिये।
  • इन क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों को मुख्यधारा में लाया जाना चाहिये तथा राष्ट्र के विकास से संबंधित मुद्दों पर इनकी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

उत्तरी यूरोप को घेरने वाले विशाल बाँध (NEED)

प्रीलिम्स के लिये:

दो विशाल बाँधों का निर्माण

मेन्स के लिये:

बहुउद्देशीय बाँध परियोजनाएँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक शोधपत्र में 637 किमी. की संयुक्त लंबाई के दो बांधों के निर्माण का प्रस्ताव दिया है ताकि बढ़ते सागरीय जल स्तर को रोका जा सके।

मुख्य बिंदु:

  • इस शोधपत्र को अमेरिकी मौसम विज्ञान सोसायटी (American Meteorological Society) के बुलेटिन में प्रकाशन के लिये स्वीकार किया गया है।
  • इस शोधपत्र में उल्लेख किया गया है कि उत्तरी सागर के चारों ओर उत्तरी यूरोप को घेरने वाले विशाल बाँध (Northern European Enclosure Dam-NEED) का निर्माण किया जाएगा।

बाँध निर्माण का प्रस्ताव:

NEED

वैज्ञानिकों ने 637 किमी. की संयुक्त लंबाई के दो बांधों के निर्माण का प्रस्ताव दिया है:

  • पहला बाँध उत्तरी स्कॉटलैंड और पश्चिमी नॉर्वे के बीच बनाया जाएगा जिसकी लंबाई 476 किमी और गहराई 121 मीटर (321 मीटर अधिकतम) होगी।
  • दूसरा बाँध फ्रांस और दक्षिण-पश्चिमी इंग्लैंड के बीच बनाया जाएगा जिसकी लंबाई 161 किमी और गहराई 85 मीटर (102 मीटर अधिकतम) होगी।

चयनित स्थान:

  • अटलांटिक महासागर को उत्तरी सागर एवं बाल्टिक सागर से अलग करना ही उत्तरी यूरोप के सागरीय जल स्तर में वृद्धि (Sea Level Rise-SLR) से रक्षा का सबसे व्यावहारिक विकल्प हो सकता है।
  • इन वैज्ञानिकों ने दुनिया के अन्य क्षेत्रों में भी ऐसे स्थानों की पहचान की है जहाँ ऐसे बाँध बनाए जा सकते हैं। इन स्थानों के चयन में इस बात का ध्यान रखा गया है कि ये स्थान मेगा-एनक्लोज़र (Mega-Enclosures) यानी वे सागरीय क्षेत्र है जहाँ सागर (Sea) और महासागर (Ocean)आपस में मिलते हैं, यथा- फारस की खाड़ी, भूमध्य सागर, बाल्टिक सागर, आयरिश सागर और लाल सागर आदि।

प्रोजेक्ट के पक्ष में तर्क:

  • शोधपत्रों में यह दावा किया गया है कि जब वित्तीय लागत और इतने बड़े पैमाने पर बनाए जाने वाले इस प्रोजेक्ट की तुलना उपलब्ध अन्य वैकल्पिक समाधानों से की जाती है तो यह प्रोजेक्ट अन्य की तुलना में अधिक अनुकूलित (Potentially Favourable) नज़र आता है।
  • शोधकर्त्ता SLR के समाधानों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं:
    • कोई कार्रवाई नहीं (No Action)
    • सुरक्षा (Protection)
    • समस्या में कमी के लिये प्रबंधन (Managed Retreat)
  • शोधकर्त्ताओं ने NEED को दूसरी श्रेणी में रखा है।
  • उपर्युक्त तीसरी श्रेणी में ‘प्रवास का प्रबंधन’ जैसे विकल्प शामिल हैं जो ‘सुरक्षा’ श्रेणी की तुलना में महँगे हैं।
  • तीसरी श्रेणी में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक अस्थिरता, मनोवैज्ञानिक कठिनाइयाँ आप्रवासियों की संस्कृति और विरासत को नुकसान जैसी अमूर्त लागत शामिल है, जबकि NEED का लोगों के दैनिक जीवन पर बहुत कम प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा।
  • इन बाँधों का निर्माण ‘उचित लागत’ पर किया जा सकता है तथा निर्माण के तुरंत बाद ही ये आवश्यक दक्ष भूमिका निभा सकेंगे।

प्रोजेक्ट की व्यवहार्यता:

  • शोधकर्त्ताओं के अनुसार, NEED प्रोजेक्ट में बाँधों की निर्माण लागत 250-550 बिलियन यूरोपीय यूरो होगी, जो कि एक बहुत बड़ी राशि है। \
  • निर्माण की लागत अन्य देशों की तुलना में UK (United Kingdom), डेनमार्क, नीदरलैंड, जर्मनी और बेल्जियम में अधिक होगी क्योंकि इन देशों की न केवल SLR के प्रति सुभेद्यता अधिक है अपितु यहाँ के लोगों का जागरूकता स्तर भी उच्च है, ये दोनों कारक मिलकर इन देशों की बाँध निर्माण की लागत को बढ़ाते है।
  • निर्माण कार्य से समुद्री और स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र भी प्रभावित होंगे (बाँध के अंदर और बाहर दोनों)।
  • इसका सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव हो सकता है। इसके अलावा यह पर्यटन और मत्स्य पालन को भी प्रभावित कर सकता है।

अत: सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, पर्यावरणीय जैसे आयामों पर विचार करने के बाद ही प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

शीत-रक्त प्रजातियाँ

प्रीलिम्स के लिये:

'रेट ऑफ लिविंग' सिद्धांत

मेन्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन और प्रजातियाँ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में किये गए एक अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के कारण शीत-रक्त प्रजातियाँ (Cold-Blooded Species) तेज़ी से विलुप्त हो रही हैं।

शीत-रक्त प्रजातियाँ:

जानवरों द्वारा उपयोग किये जाने वाले ऊर्जा स्रोत के आधार पर जानवरों को दो समूहों में विभाजित किया जाता है:

1. शीत-रक्त प्रजातियाँ 2. गर्म-रक्त वाली प्रजातियाँ शीत-रक्त वाले जानवरों के शरीर का तापमान आंतरिक रूप से नियंत्रित नहीं रहता अपितु उनका तापमान अस्थिर होता है और वह वातावरण के अनुसार बदलता रहता है।

मुख्य बिंदु:

  • यह अध्ययन क्वीन्स यूनिवर्सिटी बेलफास्ट (Queen’s University Belfast ) और तेल अवीव विश्वविद्यालय (Tel Aviv University) के शोध पर आधारित है।
  • इस अध्ययन को ग्लोबल इकोलॉजी एंड बायोग्राफी (Global Ecology and Biogeography) जर्नल में प्रकाशित किया गया।
  • अध्ययन में दुनिया भर से 4,100 भूमि कशेरुक (Vertebrate) प्रजातियों के उपापचय क्रियाओं का विश्लेषण किया गया।

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष:

  • इस अध्ययन में ‘रेट ऑफ लिविंग’ (Rate of Living) सिद्धांत और जीवनकाल (Lifespan) के बीच कोई संबंध नहीं पाया गया।
  • जबकि अध्ययन में सरीसृप (Reptiles) और उभयचर (Amphibians) जैसे शीत-रक्त प्रजातियों की जीवन प्रत्याशा पर ग्लोबल वार्मिंग का बहुत विपरीत प्रभाव पाया गया।

रेट ऑफ लिविंग :

  • “उम्र का बढ़ना उपापचय की दर से संबंधित होता है, शरीर जितना तेजी से कार्य करेगा उतनी ही कम आयु में संतानोत्पत्ति क्षमता होगी और प्रजातियों का जीवनकाल उतना ही कम अवधि का होगा।”
  • 100 साल से अधिक पुराने इस सिद्धांत का परीक्षण वैश्विक स्तर पर सभी भूमि कशेरुकों के साथ नहीं किया गया था और इस सिद्धांत का जिन प्रजातियों पर परीक्षण किया गया उनकी भी अनेक प्रजातियों के साथ अनेक सीमाएँ थीं।
  • गर्म जलवायु ने वास्तव में ऐसी प्रजातियों के जीवनकाल को छोटा कर दिया है जिसके कारण इन प्रजातियों के तेज़ी से विलुप्त होने का खतरा उत्पन हो गया है।
  • शोधकर्त्ताओं ने अब 'रेट ऑफ लिविंग' के लिये एक वैकल्पिक परिकल्पना प्रस्तावित की है: “वातावरण जितना अधिक गर्म होगा, ‘रेट ऑफ लिविंग’ उतनी ही तेज़ होगी, जिससे अधिक तेज़ी से उम्र बढ़ेगी और जीवनकाल छोटा होगा।”

शोध का महत्त्व:

  • दुनिया भर में जैव विविधता में गिरावट की स्थिति में इस शोध के निष्कर्ष, विलुप्त होते जीवों के पीछे के कारकों को समझने में मदद करेंगे।
  • शीत-रक्त वाली प्रजातियाँ ग्लोबल वार्मिंग के कारण अब और अधिक असुरक्षित हैं। क्योंकि तापमान बढ़ने से इन जीवों की आयु कम हो जाती है तथा इन प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, अतः इन जीवों को अधिक संरक्षण उपायों की आवश्यकता होगी।

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

आदित्य एल- 1 मिशन

प्रीलिम्स के लिये:

आदित्य एल-1 मिशन, पार्कर सोलर प्रोब

मेन्स के लिये:

सौर मिशन से जुड़े मुद्दे, सौर मिशन का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नासा के सूर्य मिशन पार्कर सोलर प्रोब (Parker Solar Probe) से प्राप्त आँकड़ों के आकलन से संबंधित जानकारी को प्रकाशित किया गया। ध्यातव्य है कि भारत भी सूर्य का अध्ययन करने के लिये पहला वैज्ञानिक अभियान भेजने की तैयारी में है।

महत्त्वपूर्ण बिंदु:

  • इसरो अगले वर्ष चंद्रयान- 3 तथा वर्ष 2022 तक अंतरिक्ष में मानव मिशन भेजने की तैयारी के साथ सूर्य से संबंधित परीक्षण के लिये आदित्य एल-1 मिशन को भेजने की तैयारी कर रहा है।

आदित्य एल-1 मिशन के बारे में

  • Aditya L-1 Mission के वर्ष 2020 में शुरू होने की उम्मीद है यह सूर्य का नज़दीक से निरीक्षण करेगा और इसके वातावरण तथा चुंबकीय क्षेत्र के बारे में अध्ययन करेगा।
  • ISRO ने आदित्य L-1 को 400 किलो-वर्ग के उपग्रह के रूप में वर्गीकृत किया है जिसे ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान- XL (PSLV- XL) से लॉन्च किया जाएगा।
  • यह मिशन भारतीय खगोल संस्थान (Indian Institute of Astrophysics- IIA), बंगलूरू, इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (Inter University Centre for Astronomy and Astrophysics- IUCAA), पुणे और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस , एजुकेशन एंड रिसर्च (Indian Institute of Science, Education and Research- IISER), कोलकाता के साथ-साथ ISRO की विभिन्न प्रयोगशालाओं के सहयोग से संचालित होगा।
  • सितंबर 2015 में एस्ट्रोसैट के बाद आदित्य एल-1 इसरो का दूसरा अंतरिक्ष-आधारित खगोल विज्ञान मिशन होगा।
  • इस मिशन के अंतर्गत अंतरिक्ष-आधारित वेधशाला में सूर्य के कोरोना, सौर उत्सर्जन, सौर हवाओं और फ्लेयर्स तथा कोरोनल मास इजेक्शन (Coronal Mass Ejections- CME) का अध्ययन करने के लिये बोर्ड पर 7 पेलोड (उपकरण) होंगे।
  • ध्यातव्य है कि मिशन के सभी प्रतिभागी संस्थान वर्तमान में अपने संबंधित पेलोड को विकसित करने के अंतिम चरण में हैं। कुछ उपकरणों का निर्माण किया जा चुका है और परीक्षण चरण में प्रत्येक घटक की जाँच की जा रही है तथा कुछ पेलोड के अलग-अलग घटकों को असेम्बल किया जा रहा है।
  • ध्यातव्य है कि आदित्य एल- 1 को सूर्य एवं पृथ्वी के बीच स्थित एल-1 लग्रांज बिंदु के निकट स्थापित किया जाएगा।

सूर्य का अध्ययन क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • पृथ्वी सहित हर ग्रह और सौरमंडल से परे एक्सोप्लैनेट्स विकसित होते हैं और यह विकास अपने मूल तारे द्वारा नियंत्रित होता है। सौर मौसम और वातावरण जो सूरज के अंदर और आसपास होने वाली प्रक्रियाओं से निर्धारित होता है, पूरे सोलर सिस्टम को प्रभावित करता है।
    • सोलर सिस्टम पर पड़ने वाले प्रभाव उपग्रह की कक्षाओं को बदल सकते हैं या उनके जीवन को बाधित कर सकते हैं या पृथ्वी पर इलेक्ट्रॉनिक संचार को बाधित कर सकते हैं या अन्य गड़बड़ी पैदा कर सकते हैं। इसलिये अंतरिक्ष के मौसम को समझने के लिये सौर घटनाओं का ज्ञान होना महत्त्वपूर्ण है।
  • पृथ्वी पर आने वाले तूफानों के बारे में जानने एवं उन्हें ट्रैक करने तथा उनके प्रभाव की भविष्यवाणी करने के लिये निरंतर सौर अवलोकन की आवश्यकता होती है, इसलिये सूर्य का अध्ययन किया जाना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

मिशन से संबंधित चुनौतियाँ

  • सूर्य से संबंधित मिशनों के लिये सबसे बड़ी चुनौती पृथ्वी से सूर्य की दूरी है, इसके अतिरिक्त सौर वातावरण में अत्यधिक तापमान एवं विकिरण भी महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ हैं। हालाँकि आदित्य एल 1 सूर्य से बहुत दूर स्थित होगा और उपग्रह के पेलोड (Payload) /उपकरणों के लिये अत्यधिक तापमान चिंता का विषय नहीं है। लेकिन इस मिशन से संबंधित अन्य चुनौतियाँ भी हैं।
  • इस मिशन के लिये कई उपकरणों और उनके घटकों का निर्माण देश में पहली बार किया जा रहा है जो भारत के वैज्ञानिकों, इंजीनियरिंग और अंतरिक्ष समुदायों के लिये एक अवसर के रूप में चुनौती पेश कर रहा है। ऐसा ही एक घटक उच्च पॉलिश दर्पण (Highly Polished Mirrors) है जो अंतरिक्ष-आधारित दूरबीन पर लगाया जाएगा।
  • इसके अतिरिक्त इसरो के पहले के मिशनों में पेलोड अंतरिक्ष में स्थिर रहते थे किंतु इस मिशन में कुछ उपकरण अंतरिक्ष में गतिशील अवस्था में होंगे जो कि सबसे बड़ी चुनौती है।

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस


विविध

Rapid Fire (करेंट अफेयर्स): 19 फरवरी, 2020

एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक

भारतीय पहलवान सुनील कुमार ने एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप के पहले दिन ग्रीको रोमन श्रेणी के 87 किग्रा भार वर्ग में देश के लिये 27 वर्ष बाद स्वर्ण पदक जीता है। पहलवान सुनील कुमार ग्रीकों रोमन श्रेणी में स्वर्ण जीतने वाले तीसरे भारतीय बन गए हैं। इससे पूर्व वर्ष 1993 में पहलवान पप्पू यादव ने ग्रीको रोमन श्रेणी 48 किग्रा भार वर्ग में स्वर्ण पदक जीता था। ज्ञात हो कि बीते वर्ष भी सुनील कुमार ने चीन में आयोजित एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप के फाइनल में स्थान बनाया था, किंतु वे फाइनल में ईरान के हुसैन अहमद नौरी से मुकाबला हार गए थे। एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप का आयोजन प्रत्येक वर्ष एशियन एसोसिएटेड रेसलिंग कमेटी (Asian Associated Wrestling Committee) द्वारा किया जाता है।

पाकिस्तान की राद II मिसाइल

हाल ही में पाकिस्तान ने 600 किलोमीटर रेंज वाली राद II (Ra’ad II) क्रूज़ मिसाइल का परीक्षण किया है। इस परीक्षण के साथ ही पाकिस्तान की सैन्य क्षमता में महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई है। इस संबंध में पाकिस्तानी सेना की मीडिया विंग द्वारा जारी आधिकारिक सूचना के अनुसार, राद II मिसाइल प्रणाली अत्याधुनिक नेविगेशन सिस्टम से लैस है जिससे अधिक स्पष्टता के साथ निशाना साधा जा सकेगा। विशेषज्ञों के अनुसार, पाकिस्तान की राद II मिसाइल को भारत की ब्रह्मोस क्रूज़ मिसाइल के समकक्ष देखा जा सकता है। क्रूज़ मिसाइल आकार में बहुत छोटी होती है जिसके कारण उन्हें आसानी से छुपाया जा सकता है। क्रूज़ मिसाइल को पृथ्वी की सतह के समांनांतर छोड़ा जाता है और उनका निशाना बिल्कुल सटीक होता है। क्रूज़ मिसाइलों को पारंपरिक और परमाणु बम दोनों के लिये ही कारगर माना जाता है।

INS कवरत्ती

रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रम शिपयार्ड गार्डन रीच शिपबिल्डर्स एंड इंजीनियर्स लिमिटेड ने भारतीय नौसेना (Indian Navy) को पनडुब्बी रोधी युद्धपोत INS कवारत्ती (INS Kavaratti) प्रदान किया है। INS कवारत्ती भारतीय नौसेना के प्रोजेक्ट 28 के तहत डिलीवर की जाने वाली चौथी व अंतिम पनडुब्बी है और इसके 90 प्रतिशत पुर्ज़े स्वदेशी हैं। भारतीय नौसेना की इस परियोजना के तहत निर्मित INS कामोरता, INS कदमत्त और INS किल्तान की डिलीवरी पहले ही की जा चुकी है। वर्तमान में ये तीनों भारतीय नौसेना के ईस्टर्न फ्लीट का हिस्सा हैं। ध्यातव्य है कि प्रोजेक्ट 28 को वर्ष 2003 में मंज़ूरी दी गई थी। इसके तहत निर्मित युद्धपोतों का नाम लक्षद्वीप द्वीप समूह के टापुओं के नाम पर रखा गया है।

पक्षियों की दो नई प्रजातियाँ

केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख में तीन दिवसीय विशाल पक्षी गणना के दौरान पक्षियों की दो नई प्रजातियाँ पाई गई हैं। यह गणना वन्यजीव संरक्षण और लद्दाख पक्षी क्लब ने आयोजित की थी। लाल गले वाली सारिका और सुरमीला जल-पक्षी लद्दाख क्षेत्र में पहली बार पाई गई। दूसरी तरफ, कॉमन रोज़ फिंच और ग्रे हेरान प्रजातियाँ लद्दाख में इस बार पहले आ गई हैं। पक्षीविदों के तीन समूहों और वन्यजीव विशेषज्ञों ने लद्दाख में पक्षियों की कुल 87 तरह की विभिन्न प्रजातियों की गिनती की है।


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