भारतीय इतिहास
भारत का राष्ट्रीय ध्वज
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय ध्वज के बारे में सामान्य जानकारी, ध्वज के अंगीकरण की तारीख मेन्स के लिये:भारतीय संविधान में राष्ट्रीय ध्वज के अपमान या इसे क्षति के संदर्भ में किये गए दंडात्मक प्रावधान |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत द्वारा वर्ष 2020 में अपना 74वाँ स्वतंत्रता दिवस मनाया गया है तथा हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी भारत के प्रधानमंत्री द्वारा 15 अगस्त के दिन लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज को फहराया गया।
प्रमुख बिंदु:
- भारतीय राष्ट्र तिरंगे का डिज़ाइन: भारतीय राष्ट्र तिरंगे के डिज़ाइन का श्रेय काफी हद तक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी पिंगली वेंकैया (Pingali Venkayya) को दिया जाता है।
- उन्होंने दो प्रमुख समुदायों, हिंदू और मुस्लिमों के प्रतीक के रूप में दो रंग की पट्टियों/बैंड (लाल और हरे रंग) को मिलाकर झंडे की एक मूल संरचना प्रस्तुत की।
- महात्मा गांधी द्वारा शांति एवं भारत में रहने वाले बाकी समुदायों तथा देश की प्रगति के प्रतीक के रूप में चरखा का प्रतिनिधित्व करने के लिये इस ध्वज़ में एक सफेद बैंड को जोड़ने का सुझाव दिया गया।
- वर्ष 1963 में पिंगली वेंकैया का निधन हो गया तथा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के लिये वर्ष 2009 में मरणोपरांत उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया। वर्ष 2014 में, उनका नाम भारत रत्न के लिये भी प्रस्तावित किया गया था।
राष्ट्रीय ध्वज का इतिहास:
- वर्ष 1906: भारत का पहला राष्ट्रीय ध्वज संभवतः 7 अगस्त 1906 को कोलकाता में पारसी बागान स्क्वायर (ग्रीन पार्क) में फहराया गया था।
- इस ध्वज में लाल, पीले एवं हरे रंग की तीन क्षैतिज पट्टियाँ शामिल थीं, जिनके मध्य में ‘वंदे मातरम’ लिखा हुआ था। झंडे पर लाल रंग की पट्टी में सूर्य और अर्द्धचंद्र का प्रतीक था और हरे रंग की पट्टी में आठ आधे खुले कमल थे।
- वर्ष 1907: मैडम भीकाजी कामा और निर्वासित क्रांतिकारियों के समूह द्वारा वर्ष 1907 में जर्मनी में भारतीय ध्वज फहराया गया जो विदेशी भूमि में फहराया जाने वाला पहला भारतीय ध्वज था।
- वर्ष 1917: डॉ. एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक द्वारा होम रूल आंदोलन के दौरान एक नए झंडे को अपनाया गया। यह पाँच वैकल्पिक लाल रंग एवं चार हरी क्षैतिज पट्टियों में मिलकर बना था जिसमें सप्तऋषि विन्यास में सात सितारे थे। इस संयुक्त ध्वज में एक सफेद एवं अर्द्धचंद्राकार तारा ध्वज़ के शीर्ष कोने पर विद्यमान था।
- वर्ष 1931: कॉन्ग्रेस समिति की कराची में बैठक में तिरंगे को (पिंगली वेंकैया द्वारा प्रस्तावित) भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाया गया। ध्वज के लाल रंग को केसरी रंग से बदल दिया गया एवं रंगों का क्रम बदला गया। इस ध्वज की कोई धार्मिक व्याख्या नहीं की गई थी।
- ध्वज के शीर्ष पर स्थित केसरी रंग ‘ताकत और साहस’ का प्रतीक है, मध्य में सफेद रंग ‘शांति और सच्चाई’ का प्रतिनिधित्व करता है एवं ध्वज के नीचे स्थित हरा रंग ‘भूमि की उर्वरता, वृद्धि और शुभता’ का प्रतीक है।
- ध्वज में विद्यमान चरखे को 24 तीलियों से युक्त अशोक चक्र द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। इसका उद्देश्य यह दिखाना है कि ’ गति में जीवन है और स्थायित्त्व में मृत्यु है’।.
- राष्ट्रीय ध्वज आयताकार आकर में होना चाहिये जिसकी लंबाई एवं चौड़ाई क्रमश 3:2 के अनुपात में हो।
संवैधानिक एवं कानूनी पक्ष:
- संविधान सभा द्वारा 22 जुलाई 1947 को राष्ट्रीय ध्वज के प्रस्ताव को अपनाया गया ।
- इस प्रस्ताव में कहा गया है कि ‘भारत का राष्ट्रीय ध्वज गहरे केसरिया (केसरी), समान अनुपात में सफेद और गहरा हरे रंग का तिरंगा होगा’ सफेद पट्टी में गहरे नील रंग का चक्र (चरखे द्वारा प्रतिस्थापित) है , जो अशोक की सारनाथ स्थित राजधानी के सिंह स्तंभ पर उपस्थित है।
- संविधान सभा की समितियों में से एक, राष्ट्रीय ध्वज पर गठित तदर्थ समिति के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे।
- संविधान का भाग IV-A (जिसमें केवल एक अनुच्छेद 51-A शामिल है) ग्यारह मौलिक कर्तव्यों को निर्दिष्ट करता है। अनुच्छेद 51 ए (ए) के अनुसार, भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों और संस्थानों, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करे।
- एक व्यक्ति जो राष्ट्रीय गौरव अपमान निवारण अधिनियम, 1971 के तहत वर्णित निम्नलिखित अपराधों के लिये दोषी पाया जाता है, उसे 6 वर्ष तक के लिये संसद एवं राज्य विधानमंडल के चुनावों में लड़ने के लिये अयोग्य घोषित किया जाता है। इन अपराधों में शामिल है-
- राष्ट्रीय ध्वज का अपमान करना।
- भारत के संविधान का अपमान करना।
- राष्ट्रगान गाने से रोकना।
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय समाज
विवाह की न्यूनतम आयु: इतिहास और वर्तमान
प्रिलिम्स के लिये:विवाह की न्यूनतम आयु, विवाह की न्यूनतम आयु से संबंधित कानून, शिशु मृत्यु दर, मातृत्त्व मृत्यु दर, कुल प्रजनन दर, बाल लिंग अनुपात मेन्स के लिये:महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु में बदलाव की आवश्यकता और बाल विवाह संबंधी मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
स्वतंत्रता दिवस पर अपने संबोधन में घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि केंद्र सरकार महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु पर पुनर्विचार करेगी।
प्रमुख बिंदु
- केंद्र सरकार ने महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु सीमा पर पुनर्विचार करने हेतु एक समिति का भी गठन किया है।
- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अनुसार, केंद्र सरकार समिति द्वारा रिपोर्ट प्रस्तुत करने के पश्चात् इस विषय पर निर्णय लेगी।
- भारत में विवाह की न्यूनतम आयु खासकर महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु सदैव एक विवादास्पद विषय रहा है, और जब भी इस प्रकार के नियमों में परिवर्तन की बात की गई है तो सामाजिक और धार्मिक रुढ़िवादियों का कड़ा प्रतिरोध देखने को मिला है।
- वर्तमान में नियमों के अनुसार, पुरुषों और महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 21 और 18 वर्ष है।
समिति का गठन
- 2 जून, 2020 को केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने मातृत्त्व की आयु, मातृ मृत्यु दर और महिलाओं के पोषण स्तर में सुधार से संबंधित मुद्दों की जाँच करने के लिये एक टास्क फोर्स का गठन किया था।
- यह टास्क फोर्स गर्भावस्था, प्रसव और उसके पश्चात् माँ और बच्चे के चिकित्सीय स्वास्थ्य एवं पोषण के स्तर के साथ विवाह की आयु और मातृत्त्व के सहसंबंध की जाँच करेगी।
- यह टास्क फोर्स शिशु मृत्यु दर (IMR), मातृत्त्व मृत्यु दर (MMR), कुल प्रजनन दर (TFR), जन्म के समय लिंगानुपात (SRB) और बाल लिंग अनुपात (CSR) जैसे प्रमुख मापदंडों की जाँच करेगी और महिलाओं के लिये विवाह की वर्तमान आयु (18 वर्ष) को 21 वर्ष तक बढ़ाने के विकल्प पर भी विचार करेगी।
- सामाजिक कार्यकर्त्ता और समता पार्टी की पूर्व अध्यक्ष जया जेटली की अध्यक्षता में गठित इस टास्क फोर्स में नीति आयोग के सदस्य और कई सचिव स्तर के अधिकारी शामिल हैं।
विवाह की आयु ऐतिहासिक और कानूनी दृष्टिकोण
- वर्ष 1860 में अधिनियमित हुई भारतीय दंड संहिता (IPC) में 10 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ किसी भी प्रकार के शारीरिक संबंध को अपराध की श्रेणी में शामिल कर दिया गया।
- वर्ष 1927 में ब्रिटिश सरकार ने कानून के माध्यम से 12 वर्ष से कम आयु की लड़कियों के साथ विवाह को अमान्य घोषित कर दिया, हालाँकि राष्ट्रवादी आंदोलन के रूढ़िवादी नेताओं द्वारा ब्रिटिश सरकार के इस कानून का काफी विरोध किया गया, क्योंकि वे इस प्रकार के कानूनों को हिंदू रीति-रिवाज़ों में ब्रिटिश हस्तक्षेप के रूप में देखा रहे थे।
- वर्ष 1929 में बाल विवाह निरोधक अधिनियम के माध्यम से महिलाओं और पुरुषों के विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 14 और 18 निर्धारित कर दी गई, वर्ष 1949 में संशोधन के माध्यम से महिलाओं के लिये विवाह की न्यूनतम आयु बढ़ाकर 15 वर्ष कर दी गई। वर्ष 1978 में इस कानून में एक बार फिर संशोधन किया गया और महिलाओं तथा पुरुषों के के लिये विवाह की न्यूनतम आयु को क्रमशः 18 वर्ष और 21 वर्ष कर दिया गया।
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954 और बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 भी महिलाओं और पुरुषों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः 18 और 21 वर्ष निर्धारित करते हैं।
पुरुषों और महिलाओं की विवाह आयु में अंतर?
- विवाह के लिये महिलाओं और पुरुषों की न्यूनतम आयु एकसमान न होने का कोई भी कानूनी तर्क दिखाई नहीं देता है, हालाँकि कई लोग इसके विरुद्ध तर्क देते हैं कि इस प्रकार के अलग-अलग नियम संविधान के अनुच्छेद 14 ( समानता का
- अधिकार) और अनुच्छेद 21 (गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) का उल्लंघन करते है।
- वर्ष 2018 में विधि आयोग ने अपने एक परामर्श पत्र में कहा था कि विवाह के लिये महिलाओं और पुरुषों की अलग-अलग आयु समाज में रूढ़िवादिता को बढ़ावा देती है।
- आयोग ने कहा था कि महिलाओं और पुरुषों के लिये विवाह की उम्र में अंतर का कानून में कोई आधार नहीं है क्योंकि विवाह में शामिल होने वाले महिला पुरुष हर तरह से एक समान होते हैं और इसलिये उनकी साझेदारी भी एक समान होनी चाहिये।
- महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के उन्मूलन संबंधी समिति (Committee on the Elimination of Discrimination against Women- CEDAW) भी उन कानूनों की समाप्ति का आह्वान करती है जो ये मानते हैं कि महिलाओं की शारीरिक और बौद्धिक विकास दर पुरुषों की तुलना में अलग होती है।
न्यूनतम आयु में परिवर्तन की आवश्यकता
- यूनिसेफ (UNICEF) के आधिकारिक आँकड़े बताते हैं कि विश्व भर में पाँच वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों में प्रत्येक पाँचवें बच्चे की मृत्यु भारत में होती है। इन आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में शिशु मृत्यु दर (IMR) काफी खतरनाक स्तर पर पहुँच गई है।
- संयुक्त राष्ट्र के शिशु मृत्यु दर के अनुमान से संबंधित आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2018 में संपूर्ण भारत में कुल 721,000 शिशुओं की मृत्यु हुई थी, जिसके अर्थ है कि इस अवधि में प्रति दिन औसतन 1,975 शिशुओं की मौत हुई थी।
- वर्ष 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey-NFHS) के अनुसार, 20-24 आयु वर्ग की महिलाओं में से 48 प्रतिशत का विवाह 20 वर्ष की उम्र में हो जाता है, इतनी छोटी सी उम्र में विवाह होने के पश्चात् गर्भावस्था में जटिलताओं और बाल देखभाल के बारे में जागरूकता की कमी के कारण मातृ और शिशु मृत्यु दर में वृद्धि देखने को मिलती है।
- ध्यातव्य है कि भारत में वर्ष 2017 में गर्भावस्था और प्रसव से संबंधित जटिलताओं के कारण कुल 35000 महिलाओं की मृत्यु हुई थी।
- भारत में जिस समय महिलाओं को उनके भविष्य और शिक्षा की ओर ध्यान देना चाहिये, उस समय उन्हें विवाह के बोझ से दबा दिया जाता है, 21वीं सदी में इस रुढ़िवादी प्रथा में बदलाव की आवश्यकता है, जो कि महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है।
- विशेषज्ञ मानते हैं कि महिलाओं के विवाह की न्यूनतम आयु को बढ़ाने से महिलाओं के पास शिक्षित होने, कॉलेजों में प्रवेश करने और उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु अधिक समय होगा।
- इस निर्णय से संपूर्ण भारतीय समाज खासतौर पर निम्न आर्थिक वर्ग पर इस निर्णय का खासा प्रभाव देखने को मिलेगा।
भारत में बाल विवाह
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निष्कर्ष
उल्लेखनीय है कि महिलाओं के विवाह की उम्र को बढ़ाना महिला सशक्तीकरण और महिला शिक्षा की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है, हालाँकि यह भी आवश्यक है कि नियम बनाने के साथ-साथ उनके कार्यान्वयन पर भी ध्यान दिया जाए, क्योंकि भारत में पहले से ही महिलाओं के विवाह की न्यूनतम सीमा 18 वर्ष तय है, किंतु आँकड़े बताते हैं कि अधिकांश क्षेत्रों में इन नियमों का पालन नहीं हो रहा है। भारतीय समाज में लड़कियों के प्रति दृष्टिकोण के बदलाव की भी आवश्यकता है, अधिकांश भारतीय घरों में यह विचार काफी प्रचलित है कि लड़कियाँ पराया धन होती हैं, और उन्हें जल्द-से-जल्द विदा करना आवश्यक है, जब तक हम मानसिकता में बदलाव नहीं करेंगे तब तक बाल विवाह को रोकना संभव नहीं होगा।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
ब्रिक्स एंटी-ड्रग वर्किंग ग्रुप की बैठक
प्रिलिम्स के लियेब्रिक्स, संयुक्त राष्ट्र ड्रग्स और अपराध कार्यालय, डार्क नेट मेन्स के लियेभारत में मादक पदार्थों की तस्करी और अवैध कार्यों के लिये डार्क नेट का प्रयोग |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में रूस की अध्यक्षता में ब्रिक्स एंटी-ड्रग वर्किंग ग्रुप (BRICS Anti-Drug Working Group) की चौथी बैठक का आयोजन किया गया, इस दौरान नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (Narcotics Control Bureau-NCB) के महानिदेशक राकेश अस्थाना ने भारतीय दल का नेतृत्त्व किया।
प्रमुख बिंदु
- इस बैठक के दौरान ब्रिक्स देशों में मादक पदार्थों की स्थिति, मादक पदार्थों की अवैध तस्करी से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय रुझान और मादक पदार्थों की तस्करी की स्थिति पर विभिन्न आंतरिक और बाहरी कारकों के प्रभाव आदि विषयों पर चर्चा की गई।
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मुख्य निष्कर्ष:
- ब्रिक्स के सदस्य देशों के बीच वास्तविक समय पर जानकारी साझा (Real Time Information Sharing) करने की आवश्यकता।
- समुद्री मार्गों के माध्यम से बढ़ती नशीली दवाओं की तस्करी पर अंकुश लगाने की आवश्यकता।
- इस दौरान भारत ने मादक पदार्थों की तस्करी के लिये डार्क नेट और आधुनिक तकनीक के ‘दुरुपयोग’ पर चर्चा की।
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COVID-19 और मादक पदार्थों की स्थिति
- मई माह में संयुक्त राष्ट्र ड्रग्स और अपराध कार्यालय (United Nations Office on Drugs and Crime- UNODC) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि COVID-19 और उसके कारण लागू किये गए लॉकडाउन के परिणामस्वरूप भी अवैध दवा की आपूर्ति पर कोई विशिष्ट प्रभाव देखने को नहीं मिलेगा।
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भारत और अवैध दवाओं की तस्करी
- संयुक्त राष्ट्र ड्रग्स और अपराध कार्यालय (UNODC) की हालिया रिपोर्ट बताती है कि भारत अवैध दवाओं के व्यापार का एक प्रमुख केंद्र है। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में ट्रामाडोल (Tramadol) और मेथाफेटामाइन (Methamphetamine) जैसे आधुनिक मादक पदार्थों से लेकर भांग (Cannabis) जैसे पुराने मादक पदार्थ आदि सब कुछ पाया जाता है।
- रिपोर्ट के अनुसार, भारत दो प्रमुख अवैध अफीम उत्पाद क्षेत्रों के बीच स्थित है, जिसमें पहला पश्चिम में गोल्डन क्रीसेंट (ईरान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान) है और दूसरा पूर्व में स्वर्णिम त्रिभुज (दक्षिण-पूर्व एशिया) है।
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डार्क नेट और मादक पदार्थों की तस्करी
- इंटरनेट पर ऐसी कई वेबसाइटें हैं जो आमतौर पर प्रयोग किये जाने वाले गूगल, बिंग जैसे सर्च इंजनों और सामान्य ब्राउज़िंग के दायरे से बाहर होती हैं। इन्हें डार्क नेट या डीप नेट कहा जाता है।
- सामान्य वेबसाइटों के विपरीत यह एक ऐसा नेटवर्क होता है जिस तक लोगों के चुनिंदा समूहों की पहुँच होती है और इस नेटवर्क तक विशिष्ट ऑथराइज़ेशन प्रक्रिया, सॉफ्टवेयर और कन्फिग्यूरेशन के माध्यम से ही पहुँचा जा सकता है।
- सामान्य शब्दों में हम कह सकते हैं कि डार्क वेब अथवा डार्क नेट इंटरनेट का वह भाग है जिसे आमतौर पर प्रयुक्त किये जाने वाले सर्च इंजन से एक्सेस नहीं किया जा सकता।
- इन तक पहुँच के लिये एक विशेष ब्राउज़र टॉर (TOR) का इस्तेमाल किया जाता है, जिसके लिये ऑनियन राउटर (Onion Router) शब्द का भी प्रयोग किया जाता है क्योंकि इसमें एकल असुरक्षित सर्वर के विपरीत नोड्स के एक नेटवर्क का उपयोग करते हुए परत-दर-परत डाटा का एन्क्रिप्शन होता है। जिससे इसके प्रयोगकर्त्ताओं की गोपनीयता बनी रहती है।
- हालाँकि आम उपयोगकर्त्ताओं के लिये इस ब्राउज़र का उपयोग काफी खतरनाक साबित हो सकता है।
- इसका इस्तेमाल मानव तस्करी, मादक पदार्थों की खरीद और बिक्री, हथियारों की तस्करी जैसी अवैध गतिविधियों में किया जाता है।
- मादक पदार्थों की तस्करी, मानव तस्करी और हथियारों की बिक्री जैसी अवैध गतिविधियों के लिये डार्क नेट के प्रयोग का मुख्य उद्देश्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों की निगरानी से बचना होता है।
स्रोत: पी.आई.बी
शासन व्यवस्था
'PURA पहल'
प्रिलिम्स के लिये:PURA, PURA 2.0, रुर्बन मिशन मेन्स के लिये:ग्रामीण क्षेत्र के विकास में PURA का महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
पुणे ग्रामीण प्रशासन COVID-19 महामारी के मध्य ‘प्रोविज़न ऑफ अर्बन एमेनिटीज़ इन रूलर एरिया’ (Provision of Urban Amenities in Rural Areas-PURA) के प्रावधान/पहलों को लागू करने में सक्षम है।
प्रमुख बिंदु:
- PURA को पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम द्वारा जनवरी 2003 में तीव्र एवं सशक्त ग्रामीण विकास के लिये प्रस्तुत किया गया।
- ग्रामीण विकास मंत्रालय ( Ministry of Rural Development-MoRD) ने PURA योजना को तीन वर्षों (2004- 05 से 2006-07) की अवधि के लिये सात समूहों (Seven Clusters) में पायलट आधार पर लागू किया।
- PURA 2.0 को एक केंद्रीय क्षेत्र योजना के रूप में वर्ष 2012 में संभावित विकास केंद्रों जैसे-शहरी जनगणना के विकास पर ध्यान केंद्रित करते हुए शुरू किया गया था।
उद्देश्य:
- ग्रामीण एवं शहरी विभाजन को कम करने के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका के अवसरों एवं शहरी सुविधाओं को उपलब्ध कराना।
- ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिये आजीविका के अवसर एवं शहरी सुविधाएँ प्रदान करने के लिये सार्वजनिक निजी भागीदारी ( Public Private Partnership- PPP) के माध्यम से एक ग्राम पंचायत (या ग्राम पंचायतों के एक समूह) में एक संभावित विकास केंद्र के आसपास सुगठित क्षेत्रों का समग्र और त्वरित विकास करना।
- PURA के तहत दी जाने वाली सुविधाओं तथा आर्थिक गतिविधियों में जल एवं मल निकासी, गांव की सड़कों का निर्माण एवं रखरखाव, ड्रेनेज, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, स्किल डेवलपमेंट, गांव की स्ट्रीट लाइटिंग, टेलीकॉम, बिजली उत्पादन, गांव से जुड़े पर्यटन आदि को शामिल किया जाता है।
- वर्ष 2014-15 में, सरकार ने PURA योजना के तहत कोई राशि आवंटित नहीं की बल्कि इसके स्थान पर 100 करोड़ रुपए की शुरुआती आवंटन राशि के साथ रुर्बन मिशन (Rurban Mission) की शुरुआत की।
- रुर्बन मिशन का उद्देश्य पूरे देश में 300 ग्रामीण विकास समूहों का निर्माण करना है।
स्रोत: द हिंदू
सामाजिक न्याय
बाल श्रम कन्वेंशन को सार्वभौमिक अनुसमर्थन
प्रिलिम्स के लिये:अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, मिनिमम ऐज कन्वेंशन 1973, कन्वेंशन नंबर 182, सतत् विकास लक्ष्य मेन्स के लिये:वैश्विक स्तर पर बाल श्रम को रोकने की दिशा में प्रयास एवं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की भूमिका |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ( International Labour Organization-ILO) के बाल श्रम के सबसे विकृत स्वरुप पर कन्वेंशन, जिसे कन्वेंशन नंबर 182 के रूप में भी जाना जाता है, को किंगडम ऑफ टोंगा (Kingdom of Tonga) की पुष्टि के बाद सार्वभौमिक अनुसमर्थन प्राप्त हो गया है ।
प्रमुख बिंदु:
- सार्वभौमिक अनुसमर्थन: इसका अर्थ है किसी संगठन के सभी सदस्यों द्वारा अनुसमर्थन प्राप्त होना। कन्वेंशन नंबर 182 को अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के सभी 187 सदस्यों से अनुसमर्थन प्राप्त हो गया है।
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बाल श्रम:
- ILO द्वारा बाल श्रम को ऐसे कार्य के रूप में परिभाषित किया गया है जो बच्चों को उनके बचपन, उनकी क्षमता और उनकी गरिमा से वंचित करता है एवं जो उनके शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिये हानिकारक है।
- कम विकसित देशों में, चार बच्चों में से एक से अधिक (5 से 17 उम्र) बच्चे बाल श्रम में लगे हुए हैं जो उनके स्वास्थ्य एवं विकास के लिये हानिकारक माना जाता है।
- बाल श्रम का उन्मूलन सतत् विकास लक्ष्य 8.7 का हिस्सा है।
- संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2021 को बाल श्रम के उन्मूलन के लिये वर्ष घोषित किया गया है।
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कन्वेंशन नंबर 182:
- इस सम्मेलन को वर्ष 1999 में जिनेवा में ILO के सदस्य राज्यों की बैठक द्वारा अपनाया गया था।
- इसका उद्देश्य बच्चों को बाल श्रम के सबसे बुरे स्वरूप से बचाना है, जिसमें दासता, वेश्यावृत्ति, तस्करी, सशस्त्र संघर्ष में बच्चों की संलिप्तता एवं उनकी समग्र भलाई से जुड़े अन्य पक्ष शामिल हैं।
बाल श्रम पर अन्य अंतर्राष्ट्रीय कानून:
- यूएन कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ द चाइल्ड, 1989 ( UN Convention on the Rights of the Child, 1989): इसमें यह विचार शामिल है कि बच्चे उनके माता-पिता के लिये सिर्फ कोई वस्तु नहीं हैं तथा जिनके लिये वो निर्णय लें या उनके व्यस्क प्रशिक्षण में शामिल हों बल्कि, वे अपने अधिकारों के साथ मनुष्य एवं व्यक्ति भी हैं।
- मिनिमम ऐज कन्वेंशन 1973 (Minimum Age Convention 1973): इसका उद्देश्य कम आयु सीमा से कम के बच्चों को बाल श्रम करने से रोकना है।
- दोनों कन्वेंशन अर्थात, नंबर 182 और मिनिमम ऐज कन्वेंशन,1973 आठ मूल ILO सम्मेलनों में से एक हैं, जिन्हें वर्ष 1998 के मूल सिद्धांतों एवं काम पर अधिकारों की घोषणा की भावना के रूप में जाना जाता है।
- भारत द्वारा वर्ष 2017 में कन्वेंशन नंबर 182 तथा मिनिमम ऐज कन्वेंशन,1973 की पुष्टि की गई।
बाल श्रम पर कानून का प्रभाव:
- ILO के अनुसार, बाल श्रम की घटनाओं और इसके सबसे खराब रूपों में वर्ष 2000 और वर्ष 2016 के मध्य लगभग 40% की गिरावट देखी गई है क्योंकि बाल श्रम पर अनुसमर्थन दर में वृद्धि हुई एवं बाल श्रम को रोकने के लिये देशों ने कानूनों और नीतियों को अपनाया है।
- दोनों कन्वेंशन के परिणामस्वरूप प्राथमिक शिक्षा के नामांकन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।
बाल श्रम से संबंधित चुनौतियाँ:
- सतत् विकास लक्ष्य (Sustainable Developmental Goal- SDG) का लक्ष्य 2025 तक बाल श्रम को पूरी तरह से समाप्त करना है। हालांकि, अभी भी अनुमानित 152 मिलियन बच्चे बाल श्रम में शामिल हैं और उनमें से 72 मिलियन खतरनाक काम में लगे हुए हैं।
- COVID -19 महामारी के कारण अब तक के प्राप्त लाभों के पलटने का खतरा है, जिसमें व्यापक रूप से नौकरी के नुकसान, काम की स्थिति में गिरावट, घरेलू आय में गिरावट और अस्थायी स्कूल बंद होने का खतरा शामिल है।
आगे की राह:
- गरीबी और उसके निहितार्थ चक्र को ठीक से संबोधित किया जाना चाहिये, ताकि परिवारों को जीवित रहने के लिये अन्य साधन प्राप्त हो सकें। कई एनजीओ जैसे बचपन बचाओ आंदोलन ( Bachpan Bachao Andolan), चाइल्डफंड (ChildFund), केयर इंडिया (CARE India) आदि भारत में बाल श्रम को समाप्त करने की दिशा में कार्य कर रहे हैं।
- बाल श्रम की प्रथा को समाप्त करने के लिये राज्य स्तर के अधिकारियों को सही नीतियों एवं उद्देश्यों की आवश्यकता है। मजबूर बाल श्रमिकों के लिये सरकारों एवं अंतर्राष्ट्रीय समुदायों द्वारा एक तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है।
स्रोत: द हिंदू
शासन व्यवस्था
स्वतंत्रता दिवस पर नवीन डिजिटल घोषणाएँ
प्रिलिम्स के लिये:भारत-नेट परियोजना, राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन, साइबर सुरक्षा नीति- 2020, राष्ट्रीय स्वास्थ्य आईडी प्रणाली मेन्स के लिये:साइबर सुरक्षा नीति- 2020 |
चर्चा में क्यों?
74वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री द्वारा 'डिजिटल इंडिया' पहल से जुड़ी तीन बड़ी परियोजनाओं; 'राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन', 'साइबर सुरक्षा नीति'-2020, और 1,000 दिनों में सभी छह लाख ग्रामों को ऑप्टिकल फाइबर से जोड़ने की घोषणा की गई।
प्रमुख बिंदु:
ऑप्टिकल-फाइबर कनेक्टिविटी:
- ‘भारत-नेट परियोजना’ की शुरुआत अक्तूबर 2011 में की गई थी, जिसे मूल रूप से 'नेशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क' (NOFN) नाम से जाना जाता था।
- देशभर की 2.5 लाख ग्राम पंचायतों को ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क से जोड़ने के लिये केंद्र सरकार द्वारा फ्लैगशिप कार्यक्रम ‘भारत-नेट प्रोजेक्ट’ की शुरुआत की गई थी।
- परियोजना को ‘यूनिवर्सल सर्विस ऑब्लिगेशन फंड’ (Universal Service Obligation Fund - USOF) द्वारा वित्त पोषित किया जा रहा है।
- परियोजना का मुख्य उद्देश्य, राज्य की राजधानी, ज़िला मुख्यालय और ब्लॉकों में उपलब्ध फाइबर कनेक्टिविटी का प्रत्येक ग्राम पंचायत तक विस्तार करना है।
- परियोजना के माध्यम से भारत की 69 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को ब्रॉडबैंड इंटरनेट सेवाएँ प्रदान की जाएगी।
- परियोजना को विभिन्न चरणों के तहत लागू किया जा रहा है, जिसकी अनुमानित लागत 42,068 करोड़ रुपए है।
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प्रथम चरण:
- भारतनेट परियोजना के प्रथम चरण को जून 2014 में प्रारंभ किया गया था जिसके लक्ष्य को दिसंबर 2017 तक पूरा कर लिया गया।
- इस चरण में 1 लाख पंचायतों के ऑप्टिकल फाइबर कनेक्टिविटी के लक्ष्य की तुलना में 1,22,908 पंचायतों की कनेक्टिविटी की गई जिसकी कुल लागत 11,200 करोड़ रुपए थी।
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द्वितीय चरण:
- दूसरे चरण में, शेष 1,29,827 ग्राम पंचायतों को मार्च 2020 तक कवर किया जाना था। जिसकी समय सीमा को वर्तमान में बढ़ाकर अगस्त 2021 तक कर दिया गया है।
- इस चरण में जम्मू और कश्मीर, पूर्वोत्तर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड जैसे अधिक दुर्गम स्थानों को कवर किया जाएगा।
- इनके लिये न केवल भूमिगत फाइबर केबल अपितु इसमें हवाई फाइबर, रेडियो और उपग्रह आधारित कनेक्टिविटी भी शामिल हैं।
राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन:
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पृष्ठभूमि:
- भारत में ‘डिजिटल स्वास्थ्य अवसंरचना’ का प्रारंभ वर्ष 2017 की 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति' के तहत 'राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य प्राधिकरण' (National Digital Health Authority) की स्थापना के प्रस्ताव से माना जाता है।
- ‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण’ (UIDAI) के पूर्व अध्यक्ष सत्यनारायण की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा जुलाई 2019 में 'राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन' का ब्लूप्रिंट जारी किया गया।
- 7 अगस्त, 2020 को ‘राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन’ (NDHM) की दिशा में नवीनतम रणनीतिक दस्तावेज़ जारी किये गए।
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नवीन राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन:
- राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन (National Digital Health Mission- NDHM) एक पूर्ण डिजिटल स्वास्थ्य पारिस्थितिकी तंत्र होगा, जिसके तहत चार प्रमुख डिजिटल पहलों; हेल्थ आईडी, व्यक्तिगत स्वास्थ्य रिकॉर्ड, डिजी डॉक्टर और स्वास्थ्यसुविधा रजिस्ट्री को लॉन्च किया जाएगा।
- नवीन NDHM रणनीतिक दस्तावेज में डॉक्टरों, अस्पतालों, फार्मेसियों, और बीमा कंपनियों द्वारा डिजिटल रजिस्ट्री का निर्माण करने, 'डिजिटल व्यक्तिगत स्वास्थ्य रिकॉर्ड रखने 'डिजिटल नैदानिक निर्णय प्रणालियों' की रूपरेखा प्रस्तुत की गई।
- 'राष्ट्रीय स्वास्थ्य आईडी प्रणाली' की भी चर्चा की गई है जिससे रोगी अपने डेटा को अस्पतालों और डॉक्टरों के बीच डिजिटल रूप से साझा कर सकते हैं
'राष्ट्रीय स्वास्थ्य आईडी प्रणाली' (National Health ID System):
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साइबर सुरक्षा नीति- 2020:
- वर्तमान 'साइबर सुरक्षा नीति'-2013 के स्थान पर नवीन 'साइबर सुरक्षा नीति'-2020 लागू की जाएगी।
- 'राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा रणनीति' (National Cyber Security Strategy- NCSS), 2020 के तहत जनवरी, 2020 तक सार्वजनिक टिप्पणियाँ मांगी गई थी।
- नवीन साइबर नीति, संसदीय संयुक्त समिति के तहत विचाराधीन 'डेटा संरक्षण कानून'; जो डेटा स्थानीयकरण को अनिवार्य करता है, के प्रावधानों को भी प्रभावित कर सकती है।
नवीन साइबर सुरक्षा नीति की आवश्यकता:
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नवीन चुनौतियाँ:
- साइबर सुरक्षा के समक्ष नवीन चुनौतियों में डेटा गोपनीयता, कानूनी प्रवर्तन, विदेशों में संग्रहीत डेटा तक पहूँच का अभाव, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का दुरुपयोग, साइबर अपराध और साइबर आतंकवाद पर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग का अभाव आदि शामिल हैं।
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डेटा सुरक्षा:
- राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और सुरक्षा पर साइबर खतरों का बढ़ना; संवेदनशील व्यक्तिगत और व्यावसायिक डेटा पर साइबर घुसपैठ और हमलों के दायरे और प्रकार में वृद्धि होना;'महत्त्वपूर्ण सूचना अवसंरचना' (critical Information Infrastructure) की सुरक्षा आदि डेटा सुरक्षा की नवीन चुनौतियाँ पेश कर रही है।
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तीव्र तकनीकी विकास:
- साइबर परिदृश्य में तेज़ी से तकनीकी विकास जैसे- क्लाउड कंप्यूटिंग, कृत्रिम बुद्धिमता, इंटरनेट ऑफ थिंग्स, 5G प्रौद्योगिकी आदि के कारण नवीन सुरक्षा चुनौतियाँ पेश हुई है।
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साइबर युद्ध:
- वर्तमान में ‘संगठित साइबर अपराध’, तकनीकी शीत युद्ध और बढ़ते ‘राज्य प्रायोजित साइबर हमलों’ के खतरे सामने आए हैं, जिनसे सुरक्षा के लिये मौजूदा साइबर अवसंरचनाओं को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।
निष्कर्ष:
- चीन के साथ तनाव के बाद स्वतंत्रता दिवस पर घोषित ये परियोजनाएँ 'डिजिटल इंडिया' पहल के लक्ष्यों को प्राप्त करने, दीर्घकालिक डिजिटल सुरक्षा को मज़बूत बनाने तथा देश को ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था बनाने में मदद करेगी।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
असम समझौते के खंड 6 पर रिपोर्ट
प्रीलिम्स के लिये:असम समझौता, असम समझौते की धारा-6, समिति द्वारा प्रस्तावित परिभाषा मेन्स के लिये:असम समझौते की धारा-6 से संबंधित चुनौतियाँ और इस संदर्भ में की गई कार्यवाहियाँ |
चर्चा में क्यों?
असमिया व्यक्ति/लोग कौन हैं?' यह प्रश्न हमेशा से विवादास्पद रहा है। किंतु हाल ही में असम समझौते के खंड 6 के कार्यान्वयन हेतु गृह मंत्रालय द्वारा नियुक्त समिति ने इस संदर्भ में एक परिभाषा सार्वजनिक की है।
प्रमुख बिंदु
- इस 14 सदस्यीय समिति का गठन उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बिप्लब कुमार सरमा की अध्यक्षता में वर्ष 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शनों के बाद किया गया था।
- गौरतलब है कि इस समिति ने फरवरी 2020 में असम समझौते के खंड 6 के कार्यान्वयन के लिये अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की थीं जिसे अब समिति के कुछ सदस्यों द्वारा सार्वजनिक किया गया है।
- उल्लेखनीय है कि असम समझौते का खंड 6 एक महत्त्वपूर्ण प्रावधान है जो दशकों से विवादास्पद रहा है। यह खंड असम समझौते की जटिलताओं को उजागर करता है।
- प्रस्तावित परिभाषा वर्ष 1985 के असम समझौते के प्रावधान को लागू करने तक सीमित है।
बहस का विषय क्यों?
- बांग्लादेश से आ रहे अवैध प्रवासियों के विरोध में छह साल के आंदोलन (1979-85) के अंत में असम समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे।
- समझौते के खंड 6 की भाषा से असमिया कौन है, इस पर प्रश्न उठता है। इस खंड के अनुसार, असम के लोगों को उनकी विरासत, सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान की रक्षा और संरक्षण के लिये ‘संवैधानिक, विधायी एवं प्रशासनिक सुरक्षा, जो भी उपयुक्त हो प्रदान की जायेगी।’
- इससे दो प्रश्न उठते हैं, पहला ये कि ‘सुरक्षा उपाय क्या होंगे’ और दूसरा ‘असमिया लोग’ कौन हैं?
- प्रवासन की राजनीति से परिभाषित इस राज्य में हर कोई शामिल नहीं है। यद्यपि ‘असमिया’ की परिभाषा इतनी संकीर्ण नहीं हो सकती है कि इसका अभिप्राय सिर्फ उन लोगों से हो जिनकी प्रथम भाषा असमिया है।
- असम में कई स्थानीय जनजातीय और जातीय समुदाय हैं जिनकी अपनी अलग भाषाएँ हैं। खण्ड 6 में असमिया भाषा से परे ‘असमिया’ की परिभाषा का विस्तार करना आवश्यक था।
- जो लोग खंड 6 के तहत सुरक्षा उपायों के लिये पात्र नहीं हैं, वे स्पष्ट रूप से प्रवासी वर्ग से होंगे लेकिन क्या समस्त प्रवासी लोगों को इससे बाहर रखा जाएगा अथवा उनमें से कुछ खंड 6 के तहत लाभ के पात्र होंगे? इस प्रकार यह एक बहस का विषय बन जाता है।
प्रवासी कौन हैं?
- लोक चर्चाओं में ‘स्थानीय’ का अर्थ उन समुदायों से है जिनका संबंध वर्ष 1826 से पहले असम से रहा हैं। वर्ष 1826 में ही भूतपूर्व असम राज्य ब्रिटिश भारत में शामिल किया गया था। ब्रिटिश शासन के दौरान पूर्वी बंगाल से बड़े पैमाने पर असम में प्रवासन हुआ। स्वतंत्रता के पश्चात् बड़ी संख्या में बंगाल से असम में प्रवासन हुआ।
- बंगाली मुस्लिम और बंगाली हिंदू प्रवासी एक दिन स्थानीय आबादी से अधिक हो जाएंगे और राज्य के संसाधनों तथा राजनीति पर हावी हो जाएंगे, की आशंकाओं ने वर्ष 1979-85 के असम आंदोलन को जन्म दिया।
- इस आंदोलन के दौरान वर्ष 1951 के पश्चात् पलायन करने वालों का पता लगाने और उनके निर्वासन की माँग की गई थी।
- असम समझौते में वर्ष 1951 की जगह 24 मार्च, 1971 की तिथि तय की गई, जो कोई भी इस तिथि से पहले असम में आया, उसे भारत का नागरिक माना जाएगा। यह तिथि वर्ष 2019 में जारी ‘नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न्स’ (NRC) का आधार भी थी।
- चूँकि इस समझौते ने वर्ष 1951 की मूल माँग के बजाय अतिरिक्त प्रवासियों (1951-71) को भी वैध कर दिया इसलिये समझौते के खंड 6 को स्थानीय लोगों हेतु एक सुरक्षा कवच के रूप में शामिल किया गया था।
खण्ड 6 की स्थिति क्या रही है?
- खण्ड 6 में शामिल जटिलताओं की वजह से एक रूपरेखा तैयार करने के पिछले प्रयासों में बहुत कम बढ़त हासिल हुई है।
- पिछले वर्ष असमिया लोगों द्वारा नागरिकता संशोधन विधेयक (जो कि अब एक अधिनियम है) के विरोध में इस मामले पर तत्काल प्रभाव पड़ा, जिससे कुछ श्रेणियों के प्रवासियों के लिये भारतीय नागरिकता प्राप्त करना आसान हो जाता है- बांग्लादेश के हिंदू इनमें मुख्य हैं।
- इसलिये गृह मंत्रालय ने एक नई समिति गठित की जिसने फरवरी में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। हालाँकि सरकार ने महीनों तक इस मुद्दे पर अपना रुख स्पष्ट नहीं किया जिसके कारण समिति के 14 सदस्यों में से चार ने स्वयं के पास उपलब्ध जानकरी सार्वजनिक कर दी।
मुख्य सिफारिशें
- खण्ड 6 के कार्यान्वयन के उद्देश्य से प्रस्तावित परिभाषा में स्थानीय आदिवासी, अन्य स्थानीय समुदाय तथा भारत के सभी अन्य ऐसे नागरिक शामिल हैं जो 1 जनवरी, 1951 या उससे पहले से असम में रह रहे हैं अथवा जो स्थानीय असमियाओं के वंशज हैं।
- संक्षेप में कहें तो यह परिभाषा ऐसे किसी भी व्यक्ति को शामिल करती है जो वर्ष 1951 से पहले असम में अपनी उपस्थिति (या अपने पूर्वजों की) साबित कर सकता है।
- सुरक्षा उपायों में ‘असमिया लोगों’ के लिये विधायिका और नौकरियों में आरक्षण की सिफारिश के साथ ही ‘भूमि अधिकार असमिया लोगों लिये सीमित हैं’ जैसे प्रावधान शामिल हैं।
- वर्ष 1951 के पश्चात लेकिन 24 मार्च, 1971 से पहले असम में प्रवेश करने वाले प्रवासी असमिया नहीं हैं लेकिन वे भारतीय नागरिक हैं। उदाहरण के लिये, वे असम की 80-100% सीटों पर चुनाव लड़ने के लिये पात्र नहीं होंगे (यदि यह समिति कि सिफारिशें स्वीकार की जाती हैं) हालाँकि वे मतदान कर सकते हैं।
- सिर्फ स्थानीय समूह ही नहीं, बल्कि 1951 से पहले असम में प्रवेश करने वाले पूर्वी बंगाल के प्रवासियों को भी असमिया माना जाएगा।