डेली न्यूज़ (14 Oct, 2020)



खपत मांग एवं पूंजीगत व्यय

प्रिलिम्स के लिये:

लीव ट्रैवल कंसेशन वाउचर स्कीम, फेस्टिव एडवांस स्कीम, सकल घरेलू उत्पाद, गुड्स एंड सर्विस टैक्स 

मेन्स के लिये:

लीव ट्रैवल कंसेशन वाउचर स्कीम, फेस्टिव एडवांस स्कीम का अर्थव्यवस्था के संदर्भ में महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सरकार द्वारा खपत मांग (Consumption Demand) एवं पूंजीगत व्यय-कैपेक्स (Capital Expenditure-CapEx) को बढ़ावा देने के लिये दो प्रकार के उपायों की घोषणा की गई है, जिसके परिणामस्वरूप मार्च 2021 तक एक लाख करोड़ रुपए से अधिक का त्वरित व्यय होना अनुमानित है। 

प्रमुख बिंदु: 

  • ये उपाय लीव ट्रैवल कंसेशन वाउचर स्कीम (Leave Travel Concession Voucher Scheme)  एवं फेस्टिव एडवांस स्कीम (Festival Advance Scheme) के तहत किये गए हैं।
    • इसके साथ ही केंद्र और राज्य दोनों के स्तर पर कैपेक्स को आगे बढ़ाने के उपायों की घोषणा की गई है।

लाभ:

  • हाल के महीनों में अर्थव्यवस्था में आपूर्ति बाधा जैसी कमी देखी गई है, बावजूद इसके उपभोक्ता मांग प्रभावित हुई है, अतः इन उपायों का उद्देश्य उपभोक्ता खर्च एवं कैपेक्स को बढ़ावा देना है। 
    • कैपेक्स प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक उत्पादन में होने वाली वृद्धि से जुड़ा है जिसका उत्पादन वृद्धि में उच्च गुणक प्रभाव देखा जाता है।
  • सरकार द्वारा पहले घोषित आत्मनिर्भर भारत पैकेज द्वारा समाज के ज़रूरतमंद वर्गों के लिये आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति को सुनिश्चित किया गया, वहीँ अब इन उपायों को अपनाने का उद्देश्य उन कर्मचारियों द्वारा उच्च मूल्य वाली वस्तुओं की खपत को बढ़ावा देना है, जिनका वेतन एवं रोज़गार COVID-19 महामारी से अप्रभावित रहा है।
  • निजी क्षेत्र की भागीदारी के साथ ये उपाय अर्थव्यवस्था में अपेक्षाकृत उच्च मूल्य की वस्तुओं एवं सेवाओं की खपत को बढ़ाकर अर्थव्यवस्था के विकास को प्रोत्साहित करेंगे।

लीव ट्रैवल कंसेशन वाउचर स्कीम:

लीव ट्रैवल कंसेशन: 

  • केंद्र सरकार के कर्मचारियों को चार वर्ष के ब्लॉक में एलटीसी अर्थात् लीव ट्रैवल कंसेशन की सुविधा मिलती है। 
    • इसके तहत वेतन या पात्रता के अनुसार, हवाई या रेल टिकिट के किराये का भुगतान किया जाता है। साथ ही कर्मचारी को दस दिनों के अवकाश का नकद भुगतान (वेतन + महँगाई भत्ता) मिलता है।
    • हालाँकि महामारी के कारण कर्मचारी वर्ष 2018-21 के ब्लॉक में लीव ट्रैवल कंसेशन का लाभ प्राप्त नहीं कर पाएंगे जिसके कारण सरकारी कर्मचारी लीव ट्रैवल कंसेशन वाउचर स्कीम से लाभान्वित हो सकेंगे।
  • वर्ष 2018-21 के दौरान लीव ट्रैवल कंसेशन के बदले कर्मचारियों को नकद भुगतान किया जाएगा, साथ ही अवकाश के लिये भी पूर्ण भुगतान प्राप्त होगा।
    • पात्रता की श्रेणी के आधार पर तीन स्लैब्स के अनुसार किराये का भुगतान किया जाना है जिस पर कोई कर नहीं लगेगा।
    • प्राप्त राशि को केवल डिजिटल भुगतान द्वारा 12% या उससे अधिक के गुड्स एंड सर्विस टैक्स (Goods and Services Tax-GST) को आकर्षित करने वाले सामान की खरीद पर खर्च करना होगा। साथ ही कर्मचारियों को जीएसटी चालान (GST Invoice) भी देना होगा।
  • यदि कर्मचारी द्वारा इस राशि को खर्च नहीं किया जाता है तो एलटीसी घटक पर सीमांत कर की दर के अनुसार कर्मचारी को कर का भुगतान करना होगा।
  • निजी क्षेत्र के कर्मचारी भी इसका समान लाभ प्राप्त कर सकेंगे, यदि नियोक्ता अपने कर्मचारियों के लिये योजना की पेशकश करना चाहते हैं तो वे इसका लाभ उठा सकते हैं।

अर्थव्यवस्था को लाभ:

  • इससे सरकार को अर्थव्यवस्था में 28,000 करोड़ रुपए की मांग बढ़ने की उम्मीद है। (19,000 करोड़ रुपए केंद्र सरकार के कर्मचारियों द्वारा एवं शेष राज्य सरकार के कर्मचारियों द्वारा)
  • COVID-19 महामारी के कारण वित्त वर्ष की पहली छमाही में जीएसटी संग्रह गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है। खपत में वृद्धि वर्ष की दूसरी छमाही में जीएसटी संग्रह को बढ़ा देगी क्योंकि यह योजना 31 मार्च, 2021 तक किये जाने वाले खर्च पर आधारित है।
  • यदि इस योजना में निजी क्षेत्र के कर्मचारी भी शामिल होते हैं, तो इससे समग्र उपभोग में महत्त्वपूर्ण वृद्धि होने से जीएसटी के संग्रह में भी वृद्धि हो सकती है।
  • चूँकि अधिकांश कर्मचारी महामारी के बाद यात्रा करने में सक्षम नहीं हैं, इस कारण एलटीसी को कहीं और स्थानांतरित करके मांग उत्पन्न होने की उम्मीद की जा सकती है।

 फेस्टिव एडवांस:

  • फेस्टिव एडवांस (Festival Advance) को 7वें वेतन आयोग की सिफारिशों के आधार पर समाप्त कर दिया गया था, जिसे पुनः 31 मार्च, 2021 तक बहाल कर दिया गया है।
  • केंद्र सरकार के सभी कर्मचारियों को ब्याज मुक्त 10,000 रुपए अग्रिम प्राप्त होंगे जिन्हें 10 किस्तों में प्राप्त किया जाएगा। इस राशि को अग्रिम मूल्य के प्री-लोडेड रूपे कार्ड (Pre-Loaded RuPay Card) के रूप में दिया जाएगा।
  • यदि सभी राज्य समान अग्रिम प्रदान करते हैं तो सरकार द्वारा इस योजना के तहत 31 मार्च, 2021 तक 4,000 करोड़ रुपए वितरित किये जाने की उम्मीद है ।
  • इससे दीवाली जैसे त्योहारों से पहले उपभोक्ता मांग उत्पन्न होने की उम्मीद है।

पूंजीगत व्यय को बढ़ाने के अन्य उपाय:

  • सड़कों, रक्षा अवसंरचना, जल आपूर्ति, शहरी विकास और घरेलू तौर पर उत्पादित पूंजीगत उपकरणों पर कैपेक्स के लिये 25,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बजट निर्धारित है जिसके संसाधनों के पुन: आवंटन/वितरण द्वारा वापस प्राप्त होने की उम्मीद है।
  • राज्यों को 12,000 करोड़ रुपए के ब्याज मुक्त 50 वर्षीय ऋण की विशेष सहायता प्रदान की जाएगी। इसका उपयोग केवल कैपेक्स प्रयोजनों द्वारा कुछ शर्तों के साथ किया जा सकता है। 

चिंताएँ:

  • अत्यधिक प्रतिबंध: वस्तु एवं सेवाओं को तीन गुना भुगतान कर प्राप्त करना जैसे प्रावधान, केवल 31 मार्च से पहले डिजिटल मोड के माध्यम से 12% या अधिक की जीएसटी को आकर्षित करने वाले सामानों की खरीद इत्यादि उपभोक्ता की स्वतंत्रता को समाप्त करते हैं।
  • छोटा आकार: आर्थिक विकास पर सार्थक प्रभाव लक्षित होने के नज़रिये से कैपेक्स की मात्रा काफी कम है।
    • बजटीय राजकोषीय सहायता सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product-GDP) की  लगभग 1% है, वर्तमान कुल राजकोषीय सहायता उपाय सकल घरेलू उत्पाद को लगभग 1.2% तक बढ़ा सकते हैं, जो कि वृद्धि की तुलना में काफी कम है, यह भारत की कमज़ोर राजकोषीय स्थिति को दर्शाता है।
  • सीमित प्रभाव: इन उपायों का उद्देश्य निजी/कमज़ोर वर्गों (जहाँ रोज़गार की क्षति/आय में कमी सामान्य समस्या है) के बजाय सरकारी कर्मचारियों के खर्च को प्रोत्साहित करना है जो इसके समग्र प्रभाव को सीमित करेगा।
  • पर्यटन:  उपभोक्ता लीव ट्रैवल कंसेशन वाउचर स्कीम के माध्यम से खर्च करते हैं तो यह योजना यात्रा एवं पर्यटन उद्योग को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है क्योंकि COVID-19 के कारण लॉकडाउन के बाद से यात्रा और पर्यटन क्षेत्र में मांग पहले ही काफी कम हो गई है।

आगे की राह: 

  • सरकार समग्र उपभोग को बढ़ावा देने के लिये त्योहार की समयावधि के साथ योजनाओं का समायोजन करना चाहती है तथा कर और विनिवेश राजस्व पर कम खर्च करके सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ को भी कम करना चाहती है।
  • योजनाओं के पीछे की रणनीतिक मंशा उन वस्तुओं की मांग को निर्देशित करना है, जिनकी मांग में लॉकडाउन की अवधि के दौरान कमी आई, लेकिन यह मांग को पुनर्जीवित करने के सरकार के उद्देश्य को विफल कर सकता है। खपत-आधारित विकास यकीनन भविष्य के विकास में कमी का कारण बन सकता है अगर यह क्षमता निर्माण की सीमाओं के कारण असंतुलन में और अधिक वृद्धि करता है तो इससे विशेष रूप से परिवारों के ऊपर ऋण का भार/बोझ बढ़ेगा।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


आयुध निर्माणी बोर्ड का निगमीकरण

प्रिलिम्स के लिये

आयुध निर्माणी बोर्ड

मेन्स के लिये

आयुध निर्माणी बोर्ड का निगमीकरण, उसका महत्त्व और संबंधित चिंताएँ 

चर्चा में क्यों?

केंद्र सरकार के ‘आयुध निर्माणी बोर्ड’ (Ordnance Factory Board-OFB) के निगमीकरण के निर्णय का देश भर के 41 आयुध कारखानों और उनकी संबद्ध इकाइयों के श्रमिक संघों द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा है। 

प्रमुख बिंदु

  • ध्यातव्य है कि केंद्र सरकार के इस निर्णय का विरोध करने के लिये देश के तीन मान्यता प्राप्त रक्षा कर्मचारियों के ट्रेड यूनियन एक साथ एक मंच पर आ गए हैं, इनमें शामिल हैं-
    • अखिल भारतीय रक्षा कर्मचारी महासंघ (AIDEF)
    • भारतीय राष्ट्रीय रक्षा कर्मचारी महासंघ (INDWF)
    • भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन काॅन्ग्रेस (INTUC)
  • तीनों संगठनों द्वारा सरकार के इस निर्णय को लेकर 12 अक्तूबर से अनिश्चितकालीन हड़ताल करने का निर्णय लिया गया था, हालाँकि रक्षा मंत्रालय (MoD) के साथ तीनों संगठनो की वार्ता के चलते इस अनिश्चितकालीन हड़ताल को कुछ समय के लिये रद्द कर दिया गया है।

आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB)

  • आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) एक विशाल औद्योगिक ढाँचा है, जो कि रक्षा मंत्रालय (MoD) के रक्षा उत्पादन विभाग (DDP) के अधीन कार्य करता है।
  • 200 वर्ष पुराने आयुध निर्माणी बोर्ड का मुख्यालय कोलकाता में स्थित है और यह 41 कारखानों, 9 प्रशिक्षण संस्थानों, 3 क्षेत्रीय विपणन केंद्रों तथा 4 क्षेत्रीय सुरक्षा नियंत्रकों का एक समूह है।
  • इतिहास
    • भारतीय आयुध कारखानों का इतिहास और विकास भारत में ब्रिटिश शासनकाल से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपने आर्थिक लाभ और राजनीतिक शक्ति को बढ़ाने के लिये रक्षा उपकरणों को एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व के रूप में स्वीकार किया था।
    • इस आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1775 में ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज में आयुध बोर्ड की स्थापना किये जाने की स्वीकृति प्रदान की और  इससे भारत में औपचारिक तौर पर आयुध कारखानों की शुरुआत हुई।
    • भारत में वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय कुल 18 आयुध कारखाने थे और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 23 आयुध कारखाने और बनाए गए।
    • वर्ष 1962 के युद्ध के बाद भारत में रक्षा उपकरणों के उत्पादन हेतु एक बुनियादी ढाँचा विकसित करने के उद्देश्य से रक्षा मंत्रालय के तहत रक्षा उत्पादन विभाग (DDP) की स्थापना की गई। इसके पश्चात् भारत के सभी आयुध कारखानों के प्रबंधन और उन्हें एक साथ एक समूह में लाने के उद्देश्य से 02 अप्रैल, 1979 को आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) का गठन किया गया। 

महत्त्व

  • ध्यातव्य है कि आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) द्वारा संचालित आयुध कारखानों से न केवल सशस्त्र बलों के लिये बल्कि अर्ध-सैनिक और पुलिस बलों के लिये भी हथियार, गोला-बारूद और रक्षा उपकरणों के एक बड़े हिस्से की आपूर्ति की जाती है।
  • आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) का उद्देश्य भारत को हथियारों और गोला-बारूद के उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाना है। 

आयुध निर्माणी बोर्ड का निगमीकरण और उसका महत्त्व

  • आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) का निगमीकरण करना ‘आत्मनिर्भर भारत अभियान’ का एक भाग है जिसकी घोषणा भारत सरकार ने 16 मई, 2020 को की थी।
  • निगमीकरण के परिणामस्वरूप आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) को भी सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य उपक्रमों की तरह कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत एक या एक से अधिक 100 प्रतिशत सरकारी स्वामित्त्व वाली संस्थाओं के रूप में परिवर्तित कर दिया जाएगा।
    • अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) के निगमीकरण से सार्वजनिक क्षेत्र की एक ही संस्था बनाई जाएगी अथवा सार्वजनिक स्वामित्त्व वाली कई सारी संस्थाएँ बनाई जाएंगी।
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2000-2015 के बीच सरकार द्वारा रक्षा सुधारों को लेकर गठित तीन-तीन समितियों ने आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) के निगमीकरण की सिफारिश की थी, किंतु अब तक इसको कार्यान्वित नहीं किया जा सका है।
  • महत्त्व 
    • इस संबंध में घोषणा करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीताराम ने कहा था कि सरकार के इस निर्णय से आयुध आपूर्ति की स्वायत्तता, जवाबदेही एवं दक्षता में सुधार किया जा सकेगा।
    • उल्लेखनीय है कि आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) का सशस्त्र बलों समेत अपने अन्य रक्षा बलों को रक्षा उपकरणों और अन्य वस्तुओं की आपूर्ति का काफी खराब रिकॉर्ड रहा है।
    • वर्ष 2019 में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) के प्रदर्शन मूल्यांकन से संबंधित अपनी रिपोर्ट में भी इस प्रकार की खामियों का उल्लेख किया था, जो कि संगठन के कार्यों को प्रभावित कर रही हैं।
    • आयुध निर्माणी बोर्ड के प्रदर्शन मूल्यांकन से पता चलता है कि इस संगठन का प्रबंधन काफी खराब तरीके से किया जा रहा है, जिसका प्रभाव इसके संचालन पर पड़ रहा है।
    • इसी को देखते हुए कई विशेषज्ञ आयुध निर्माणी बोर्ड के निगमीकरण की मांग कर रहे थे, ताकि आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) के प्रबंधन को सुधारा जा सके।
    • संगठन के प्रबंधन में सुधार कर सशस्त्र बलों को रक्षा उपकरणों की आपूर्ति में होने वाली देरी को कम किया जा सकेगा, जिससे सशस्त्र बलों और अन्य रक्षा बलों की सैन्य क्षमता में बढ़ोतरी होगी।
  • निर्णय की आलोचना
    • कई जानकार मान रहे हैं कि आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) को अलग-अलग स्वायत्त कारखानों के रूप में विभाजित करना, इसकी मौजूदा कार्यप्रणाली को प्रभावित करेगा। इसका प्रभाव सशस्त्र बलों को की जाने वाली आपूर्ति पर पड़ सकता है, क्योंकि हथियारों और रक्षा उपकरणों के विनिर्माण में संलग्न इकाइयाँ रक्षा उत्पादन के लिये परस्पर निर्भर हैं और यदि इन्हें स्वायत्त इकाई बनाया जाता है तो इनके बीच समन्वय स्थापित करना काफी मुश्किल हो जाएगा।
    • आयुध कारखानों में कार्यरत कर्मचारियों को आशंका है कि आयुध निर्माणी बोर्ड का निगमीकरण अंततोगत्वा निजीकरण को बढ़ावा देगा।
    • इसी कारण आयुध कारखानों में कार्यरत कर्मचारियों को अपनी नौकरी जाने का भी खतरा है।

आगे की राह

  • भारत के कुछ आयुध कारखाने 200 से भी अधिक वर्ष पुराने हैं और यही कारण है कि ये मौजूदा समय की आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ नहीं हैं। 
  •  इन कारखानों और आयुध निर्माणी बोर्ड (OFB) के निगमीकरण के माध्यम से इनकी कार्यपद्धति में परिवर्तन सुनिश्चित किया जा सकेगा।
  • आयुध निर्माणी बोर्ड के पश्चात् इसके प्रबंधन में क्षेत्र विशिष्ट विशेषज्ञों को भी शामिल किया जाना चाहिये और साथ ही अनुसंधान एवं विकास (R&D) पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये।
  • केंद्र सरकार आयुध कारखानों में कार्य कर रहे कर्मचारियों को विश्वास में लिये बिना आयुध निर्माणी बोर्ड का निगमीकरण नहीं कर सकती है, इसलिये यह आवश्यक है कि कर्मचारियों को यह विश्वास दिलाया जाए कि ‘निगमीकरण’ का अर्थ ‘निजीकरण’ नहीं है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


प्रदूषण विरोधी अभियान

प्रिलिम्स के लिये: 

वृक्ष प्रत्यारोपण नीति, स्मॉग टॉवर, इलेक्ट्रिक वाहन, पराली

मेन्स के लिये: 

वायु प्रदूषण की रोकथाम हेतु विभिन्न उपाय।

चर्चा में क्यों?   

दिल्ली सरकार ने हाल ही में वृहद् स्तर का एक  प्रदूषण विरोधी अभियान शुरू किया है,  जिसे ‘युद्ध प्रदूषण के विरुद्ध’  (Yuddh Pradushan Ke Viruddh) नाम दिया गया है। इसके अंतर्गत पेड़ों के प्रत्यारोपण की नीति, कनॉट प्लेस (दिल्ली) में एक स्मॉग टॉवर का निर्माण, इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना और पराली  को जलाने से रोकना जैसी मुहिम शामिल हैं।

प्रमुख बिंदु

  • इससे दिल्ली की खराब वायु गुणवत्ता का मुकाबला करने में मदद मिलेगी जो सर्दियों के मौसम में और भी अधिक खराब हो जाती है।

वृक्ष प्रत्यारोपण नीति (Tree Transplantation)

  • ट्री ट्रांसप्लांटेशन से तात्पर्य किसी विशेष स्थान से किसी पेड़ को उखाड़ना और उसे दूसरे स्थान पर लगाना है।
  • इस नीति के तहत किसी भी विकासात्मक परियोजना से प्रभावित होने वाले कम-से-कम 80% पेड़ों को प्रत्यारोपित किया जाएगा। इसके अलावा प्रत्यारोपित पेड़ों के न्यूनतम 80% को अच्छी तरह से विकसित होना चाहिये और यह सुनिश्चित करना उन एजेंसियों की ज़िम्मेदारी होगी जो सरकार से इस विकासात्मक परियोजना  हेतु अनुमति लेंगे।
  • यह प्रत्यारोपण, प्रत्येक काटे गए वृक्ष के लिये 10 पौधे लगाने के मौजूदा प्रतिपूरक वनीकरण के अतिरिक्त होगा।
  • सरकार द्वारा एक समर्पित ट्री ट्रांसप्लांटेशन सेल का गठन किया जाएगा।

लाभ:

  • एक मौजूदा पूरी तरह से विकसित पेड़ के विकल्प के रूप में एक  नए पौधे को लगाना, मौजूदा पेड़ को काटने से जो  प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव उत्पन्न होता है, उसका पर्याप्त रूप से मुकाबला नहीं करता है। प्रत्यारोपण से पुराने पेड़ों का संरक्षण सुनिश्चित होगा।
  • इसके अलावा कई पुराने पेड़ों का एक प्रतीकात्मक या विरासत मूल्य होता है जिसे संरक्षित करने की आवश्यकता है।

सीमाएँ:

  • कम सफलता दर: प्रत्यारोपण एक जटिल प्रक्रिया है और इसकी सफलता दर लगभग 50% है। एक प्रत्यारोपित पेड़ की उत्तरजीविता दर मिट्टी के प्रकार पर निर्भर करती है क्योंकि यमुना में बाढ़ की स्थिति में दिल्ली के रिज पर उगने वाले पेड़ों  के जीवित रहने की संभावना नहीं है।
  • महँगे: औसत आकार के पेड़ के प्रत्यारोपण में लगभग 1 लाख रुपए का खर्च आता है।

स्मॉग टॉवर (Smog Tower):

  • एक स्मॉग टॉवर, जो एक मेगा एयर प्यूरीफायर के रूप में काम करेगा,  को  दिल्ली सरकार और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को दिये गए सर्वोच्च न्यायालय के नवंबर 2019 के आदेश के अनुसार स्थापित किया जाएगा।
  • दिल्ली में स्थापित किये जाने वाले टॉवर आईआईटी मुंबई, आईआईटी दिल्ली और मिनेसोटा विश्वविद्यालय के बीच सहयोग का परिणाम होंगे।
  • नीदरलैंड, चीन, दक्षिण कोरिया और पोलैंड के शहरों में हाल के वर्षों में स्मॉग टावरों का प्रयोग किया गया है। नीदरलैंड के रॉटरडैम में  वर्ष 2015 में ऐसा पहला टॉवर बनाया गया था।
  • दुनिया का सबसे बड़ा एयर-प्यूरिफाइंग टॉवर शीआन, चीन में है।
  • टॉवर प्रदूषित वायु के प्रदूषकों को ऊपर से सोख लेगा और नीचे की तरफ से स्वच्छ वायु छोड़ेगा।

सीमाएँ:

  • कई विशेषज्ञों ने दावा किया है कि  बड़ी मात्रा में प्रदूषित वायु के स्मॉग टावर्स में प्रवाह के कारण ये वायु को स्वच्छ करने में अधिक कुशल नहीं होते।
  • यहाँ तक ​​कि चीन के पास भी अपने स्मॉग टावरों की प्रभावशीलता का समर्थन करने के लिये अपर्याप्त डेटा है।
  • एक विशेषज्ञ पैनल ने अनुमान लगाया है कि दिल्ली में प्रदूषण के संकट से लड़ने के लिये  कुल 213 स्मॉग टॉवरों की आवश्यकता होगी जो बहुत महँगे होंगे क्योंकि प्रत्येक टॉवर पर लगभग 20 करोड़ रुपए का खर्च आएगा।

इलेक्ट्रिक वाहन (Electric Vehicles )

  • सरकार का लक्ष्य वर्ष 2024 तक राजधानी में पंजीकृत कुल नए वाहनों में से एक-चौथाई वाहनों के लिये ईवीएस खाता बनाना है।
  • इलेक्ट्रिक वाहन के लक्ष्य को इन वाहनों की खरीद हेतु प्रोत्साहन द्वारा, पुराने वाहनों पर मार्जिन लाभ देने, अनुकूल ब्याज पर ऋण देने और सड़क करों में छूट देने आदि के माध्यम से प्राप्त किया जाएगा।
  • हाल ही में दिल्ली सरकार ने इलेक्ट्रिक वाहन नीति 2020 को अधिसूचित किया जो ईवीएस के साथ निजी चार पहिया वाहनों के बजाय दोपहिया वाहन, सार्वजनिक परिवहन, साझा वाहनों और माल-वाहक द्वारा  प्रतिस्थापन पर सबसे अधिक ज़ोर देती है।

इन कदमों के अलावा  सरकार दिल्ली में थर्मल प्लांटों और ईंट भट्टों के साथ-साथ आस-पास के राज्यों में जलने वाली पराली से उत्पन्न प्रदूषण के रासायनिक उपचार पर भी ध्यान केंद्रित करती है।

दिल्ली में वायु प्रदूषण

  • विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा संकलित वायु गुणवत्ता के आँकड़ों के अनुसार, दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से एक है।
  • दिल्ली में पार्टिकुलेट मैटर, पीएम 2.5 और पीएम 10, राष्ट्रीय मानकों से कहीं अधिक हैं।
    • दिल्ली को PM2.5 के राष्ट्रीय मानकों को पूरा करने हेतु इसकी मात्रा में 65% की कमी करने की आवश्यकता है।
  • दिल्ली की ज़हरीली हवा में सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड की उच्च मात्रा भी होती है।
  • हवा की कमी से प्रदूषकों की सांद्रता भी बढ़ती है।
  • पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने अक्तूबर 2018 में एक शोध पत्र प्रकाशित किया, जिसमें लगभग 41% वाहनों से, 21.5% धूल से और 18% उद्योगों से होने वाले उत्सर्जन को प्रदूषण हेतु ज़िम्मेदार ठहराया गया।
    • वाहनों का उत्सर्जन परीक्षण केवल 25% है।
  • डब्ल्यूएचओ के अनुसार, भारत, साँस की बीमारियों और अस्थमा से होने वाली मौतों के मामले में दुनिया में अग्रणी है। कम दृश्यता, अम्ल वर्षा और ट्रोपोस्फेरिक स्तर पर ओज़ोन की उपस्थिति के माध्यम से भी  वायु प्रदूषण पर्यावरण को प्रभावित करता है।

दिल्ली की बिगड़ती वायु गुणवत्ता के कारण

  • पराली जलाना 
  • वाहनों से उत्सर्जन
  • मौसम
  • उच्च जनसंख्या घनत्व
  • इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी
  • निर्माण गतिविधियाँ और खुले में कचरा जलाना
  • थर्मल पावर प्लांट और उद्योग
  • पटाखे
  • डीज़ल जेनरेटर
  • खाड़ी देशों से धूल का तूफान

आगे की राह:

  • दिल्ली में वायु प्रदूषण का दीर्घकालिक समाधान परिवहन से होने वाले उत्सर्जन को समाप्त करने पर महत्त्वपूर्ण रूप से निर्भर करेगा। वाहनों के उत्सर्जन का मुकाबला करने के लिये  उत्सर्जन मानक, सार्वजनिक परिवहन और इलेक्ट्रिक वाहन जैसे कदम उठाना आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए निर्णय के अनुसार, दिल्ली में बस बेड़े को बढ़ाने और इसे मेट्रो नेटवर्क के साथ संरेखित करने के कार्य को पूरा करना चाहिये।
  • केंद्रीय, राज्य और स्थानीय सरकारों में समन्वय और पारदर्शिता से तकनीकी समाधानों को बढ़ाने की आवश्यकता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा उपलब्ध डेटा का उपयोग करके प्रदूषण और स्वास्थ्य पर संदेश साझा करने के लिये नागरिक भागीदारी और मीडिया महत्त्वपूर्ण हैं।
  • कोविड-19 महामारी परिदृश्य में वायु प्रदूषण पर नियंत्रण की आवश्यकता अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वायु प्रदूषण के कारण श्वसन संबंधी बीमारियाँ कोविड-19 से प्रभावित लोगों की स्थिति को और खराब कर सकती हैं।

स्रोत: द हिंदू


सुपरकंप्यूटिंग अवसंरचना के लिये समझौता ज्ञापन

प्रिलिम्स के लिये:

सुपरकंप्यूटिंग, राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटिंग मिशन, C-DAC

मेन्स के लिये:

राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटिंग मिशन के प्रमुख घटक, इसकी उपयोगिता, सुचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियाँ और प्रयास आदि 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग' (C-DAC) ने भारत में सुपरकंप्यूटिंग अवसंरचना की स्थापना तथा विकास के लिये भारत के प्रमुख शैक्षणिक और अनुसंधान एवं विकास संस्थानों के साथ कुल 13 समझौता ज्ञापनों (MoUs) पर हस्ताक्षर किये हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • समझौता ज्ञापनों के तहत असेम्बलिंग और विनिर्माण सुपरकंप्यूटिंग अवसंरचना के अलावा 'राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटिंग मिशन' (National Supercomputing Mission) के महत्त्वपूर्ण घटक (Critical Components) की स्थापना की जाएगी।
  • प्रमुख संस्थानों के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करना 'आत्मनिर्भर भारत अभियान' की दिशा में एक पहल है।
  • समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये जाने का मुख्य लक्ष्य स्वदेशी हार्डवेयर का उपयोग करके एक्सैस्केल पैमाने पर चिप का निर्माण करना,  सिलिकॉन-फोटोनिक्स सहित एक्सैस्केल सर्वर बोर्ड, एक्सैस्केल इंटरकनेक्टस और स्टोरेज के निर्माण में पूर्ण आत्म-निर्भरता प्राप्त करना है।
    • एक्सैस्केल (Exascale) कंप्यूटिंग कम-से-कम 10 ^ 18 फ्लोटिंग पॉइंट ऑपरेशंस प्रति सेकंड (FLOPS) की गणना करने में सक्षम कंप्यूटिंग सिस्टम को संदर्भित करता है।

सुपरकंप्यूटिंग (Supercomputing):

  • सुपरकंप्यूटर उच्च-प्रदर्शन कंप्यूटिंग (High-performance Computing- HPC) का भौतिक मूर्त रूप हैं, जो संगठनों को उन समस्याओं को हल करने में सक्षम बनाता है, जिन्हें नियमित कंप्यूटर के साथ हल किया जाना असंभव है।

राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटिंग मिशन

(National Supercomputing Mission- NSM):

  • मार्च 2015 में सात वर्षों की अवधि के लिये 4,500 करोड़ रुपए की अनुमानित लागत से ‘राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटिंग मिशन’ की घोषणा की गई थी।
  • मिशन के तहत 70 से अधिक उच्च प्रदर्शन वाले सुपरकंप्यूटरों के माध्यम से एक विशाल सुपरकंप्यूटिंग ग्रिड स्थापित कर देश भर के राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थानों और आर एंड डी संस्थानों को सशक्त बनाने की परिकल्पना की गई है।
  • यह मिशन सरकार के 'डिजिटल इंडिया', 'मेक इन इंडिया' और 'आत्मनिर्भर भारत' दृष्टिकोण का समर्थन करता है।
  •  मिशन को 'विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग' (विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय) तथा 'इलेक्ट्रॉनिक्स एवं  सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय' (MeitY) द्वारा 'सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग' (C-DAC) और 'भारतीय विज्ञान संस्थान' (IISc) बंगलूरू के माध्यम से कार्यान्वित किया जा रहा है।
  • इन सुपरकंप्यूटरों को 'राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क' (National Knowledge Network- NKN) के विस्तार के माध्यम से 'राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटर ग्रिड’ के साथ जोड़ा जाएगा। 
    • NKN एक उच्च गति के नेटवर्क के माध्यम से शैक्षणिक संस्थानों और आर एंड डी प्रयोगशालाओं को जोड़ता है।
  • अगले पाँच वर्षों में 20,000 कुशल व्यक्तियों का एक मज़बूत आधार बनाया जाएगा, जो सुपरकंप्यूटरों की जटिलताओं के समाधान तथा उन्हें प्रबंधित करने में सक्षम होंगे।

सुपरकंप्यूटिंग का महत्त्व:

  • ये सुपरकंप्यूटर देश में वैज्ञानिक और अकादमिक समुदाय की बढ़ती कंप्यूटिंग मांग को पूरा करने में मदद करेंगे।
  • सुपरकंप्यूटर, देश को वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के क्षेत्र में एक अंतर्राष्ट्रीय बेंचमार्क के रूप में स्थापित करने में मदद करेंगे।
  • मिशन के कार्यान्वयन से देश में बड़े वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी समुदाय की पहुँच सुपरकंप्यूटरों तक हो पाएगी जिससे बहु-अनुशासनात्मक समस्याओं को हल करने की क्षमता के निर्माण में मदद मिलेगी।

अनुप्रयोग के क्षेत्र:

  • सुपरकंप्यूटिंग कंप्यूटेशनल बायोलॉजी;
  • आणविक गतिशीलता/मॉलिक्यूलर डायनेमिक्स;
  • राष्ट्रीय सुरक्षा
  • कंप्यूटेशनल केमिस्ट्री;
  • साइबर फिज़िकल सिस्टम;
  • बिग डेटा एनालिटिक्स; 
  • सरकारी सूचना प्रणाली; 
  • कृत्रिम बुद्धिमत्ता;
  • मशीन लर्निंग;
  • जलवायु मॉडलिंग।

वैश्विक परिदृश्य:

  • विश्व स्तर पर अधिकतम सुपरकंप्यूटरों के साथ चीन दुनिया में शीर्ष स्थान रखता है। 
  • चीन के बाद अमेरिका, जापान, फ्रांँस, जर्मनी, नीदरलैंड, आयरलैंड और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों का स्थान है।

भारत की स्थिति:

  • NSM के तहत प्रथम सुपरकंप्यूटर ‘परम शिवाय’ (Param Shivay)  IIT-BHU, वाराणसी में वर्ष 2019 में स्थापित किया गया है। इसमें 837 टेराफ्लॉप की उच्च-प्रदर्शन कम्प्यूटिंग (HPC) क्षमता है।
    • टेराफ्लॉप्स, 10 ^ 12 फ्लोटिंग-पॉइंट ऑपरेशंस प्रति सेकंड (FLOPS) के बराबर कंप्यूटिंग गति की इकाई है।
  • दूसरा सुपरकंप्यूटर ‘परम शक्ति’ (Param Shakti) आईआईटी-खड़गपुर में 1.66 पेटाफ्लॉप की क्षमता के साथ स्थापित किया गया है।
    • पेटाफ्लॉप्स, 10 ^ 15 फ्लोटिंग-पॉइंट ऑपरेशंस प्रति सेकंड (FLOPS) के बराबर कंप्यूटिंग गति की इकाई है।
  • तीसरी प्रणाली, ‘परम ब्रह्म’ (Param Brahma) को ‘इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च’ (IISER)- पुणे में स्थापित किया गया है, जिसकी क्षमता 797 टेराफ्लॉप है।

निष्कर्ष:

  • राष्ट्रीय सुपरकंप्यूटिंग मिशन का प्रारंभिक चरण समाप्त हो चुका है और इस संबंध में समग्र तकनीक विकसित की जा चुकी है तथा यह मिशन प्रधानमंत्री द्वारा दिये गए 'आत्मनिर्भर भारत’ के दृष्टिकोण को पूरा करने में मदद करेगा

‘सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस्ड कंप्यूटिंग’ (C-DAC):

  • यह 'इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय' (MeitY) का प्रमुख अनुसंधान एवं विकास संगठन है, जो सूचना प्रौद्योगिकी, इलेक्ट्रॉनिक और संबंधित क्षेत्रों में अनुसंधान एवं विकास की दिशा में कार्य करता है।
  • C-DAC की स्थापना वर्ष 1988 में सुपरकंप्यूटरों का निर्माण करने के लिये की गई थी। C-DAC तब से सुपरकंप्यूटर की कई पीढ़ियों के निर्माण का कार्य कर रहा है, वर्ष 1988 में प्रथम सुपरकंप्यूटर 'परम' (जिसकी गति 1 गीगाफ्लॉप थी) का निर्माण किया गया था।

स्रोत: पीआईबी


गुटनिरपेक्ष आंदोलन: वर्तमान प्रासंगिकता

प्रिलिम्स के लिये

गुटनिरपेक्ष आंदोलन, बांडुंग सम्मेलन

मेन्स के लिये

गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना, उद्देश्य तथा वर्तमान प्रासंगिकता और भारत के दृष्टिकोण से गुटनिरपेक्ष आंदोलन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (Non Aligned Movement-NAM) की मंत्रिस्तरीय बैठक में भारत ने अपने संबोधन में कहा कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) में वैश्विक सहयोग की मांग करने वाले मौजूदा समय के प्रासंगिक मुद्दों को संबोधित करने की क्षमता है।

प्रमुख बिंदु

  • कोरोना वायरस महामारी ने ‘हमारी परस्परता एवं एक-दूसरे पर निर्भरता’ को और अधिक स्पष्ट किया है। हालाँकि महामारी मौजूदा समय की एकमात्र चुनौती नहीं है और संपूर्ण विश्व आतंकवाद तथा फेक न्यूज़ जैसी गंभीर समस्याओं का भी सामना कर रहा है।
  • इसके अलावा भारत ने जलवायु परिवर्तन, साइबर सुरक्षा और विकास से संबंधित मुद्दों का भी उल्लेख किया। 

गुटनिरपेक्ष आंदोलन- पृष्ठभूमि

  • द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद शीत युद्ध का दौर शुरू हुआ, जिसमें संपूर्ण विश्व वैचारिक आधार पर मुख्यतः दो गुटों में विभाजित हो गया। 
    • इस वैचारिक युद्ध के एक छोर पर साम्यवादी सोवियत संघ तो दूसरे छोर पर पूंजीवादी अमेरिका जैसी महाशक्तियाँ मौजूद थीं। 
  • असल में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की स्थापना औपनिवेशिक व्यवस्था के पतन के दौरान हुई थी। यह वह दौर था जब नए-नए देश औपनिवेशिक गुलामी से आज़ाद हो रहे थे और वैश्विक पटल पर एक नई पहचान प्राप्त करने में लगे थे, भारत भी इन्हीं देशों में से एक था।
  • उपनिवेशवाद से स्वतंत्र हुए इन देशों ने स्वयं को दोनों गुटों- सोवियत संघ और अमेरिका से दूर रखा और एक ऐसे संगठन के रूप में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की स्थापना की जो स्वतंत्र और तटस्थ रहने की मांग कर रहा था।
  • हालाँकि वर्ष 1955 से पूर्व भी स्वतंत्रता और तटस्थता की मांग की जा रही थी, किंतु अधिकांश इतिहासकार मानते हैं कि गुटनिरपेक्षता की ओर पहला अहम कदम बांडुंग सम्मेलन (वर्ष 1955) के माध्यम से उठाया गया, जिसमें भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, अब्दुल नासिर, सुकर्णो और मार्शल टीटो जैसे नेताओं ने हिस्सा लिया था। इस सम्मेलन में विश्व शांति और सहयोग संवर्द्धन संबंधी घोषणा पत्र जारी किया गया था।
  • बांडुंग सम्मेलन के छह वर्ष बाद सितंबर 1961 में यूगोस्लाविया के बेलग्रेड में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का पहला शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया और इसमें कुल 25 देशों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया।
  • वर्तमान में गुटनिरपेक्ष आंदोलन संयुक्त राष्ट्र के बाद विश्व का सबसे बड़ा राजनीतिक समन्वय और परामर्श का मंच है। इस समूह में वर्ष 2018 तक कुल 120 विकासशील देश शामिल थे। इसके अतिरिक्त इस समूह में 17 देशों और 10 अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त है।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) ने सदैव एक स्वतंत्र राजनीतिक पथ बनाने का प्रयास किया है, ताकि सदस्य राष्ट्र को दो महाशक्तियों के वैचारिक युद्ध के बीच फँसने से बचाया जा सके।
  • वर्तमान में यह संगठन एक नवीन अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था बनाने का प्रयास कर रहा है।

उद्देश्य

  • शीत युद्ध की राजनीति का त्याग करना और स्वतंत्र अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अनुसरण करना।
  • सैन्य गठबंधनों से पर्याप्त दूरी बनाए रखना।
  • साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद का विरोध करना।
  • रंगभेद की नीति के विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत करना और मानवाधिकारों की रक्षा के लिये यथासंभव प्रयास करना।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन और भारत

  • भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का संस्थापक और इसके सबसे महत्त्वपूर्ण सदस्यों में से है तथा 1970 के दशक तक भारत ने इस आंदोलन की बैठकों में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया, किंतु 1970 के दशक के बाद गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत की स्थिति बदलने लगी और सोवियत संघ की ओर भारत का झुकाव बढ़ने लगा, जिससे गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के उद्देश्यों को लेकर छोटे देशों के बीच भ्रम की स्थिति पैदा हो गई। 
    • अंततः इससे गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थिति कमज़ोर हुई और अधिकांश छोटे देश या तो अमेरिका की ओर या फिर सोवियत संघ की ओर अग्रसर होने लगे।
  • वर्ष 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद वैश्विक स्तर पर अमेरिका का वर्चस्व कायम हो गया, यह वह समय था जब भारत ने अर्थव्यवस्था में बड़े आर्थिक सुधार किये। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत कि आर्थिक नीति अमेरिका की ओर झुकने लगी, जिससे इस आंदोलन को लेकर भारत की गंभीरता पर एक बार पुनः प्रश्न उठने लगे। 
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन को लेकर भारत की गंभीरता एक बार फिर संदेह के दायरे में आई जब वर्ष 2016 और वर्ष 2019 में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री ने हिस्सा नहीं लिया, यह पहली बार हुआ था जब भारत का कोई प्रधानमंत्री गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के शिखर सम्मेलन में हिस्सा नहीं ले रहा था। 
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के प्रति भारत के झुकाव में कमी का कारण:
    • संकट के दौर में इस आंदोलन के सदस्य देश भारत को अपना समर्थन देने में विफल रहे हैं। उदाहरण के लिये वर्ष 1962 के युद्ध के दौरान घाना और इंडोनेशिया जैसे देशों ने चीन समर्थक नीति का अनुसरण किया था। वहीं 1965 और 1971 के युद्ध के दौरान इंडोनेशिया और मिस्र ने भारत विरोधी नीति अपनाते हुए पाकिस्तान का समर्थन किया था।
    • गुटनिरपेक्ष आंदोलन में आम सहमति का अभाव दिख रहा है और इसमें शामिल अधिकांश देश आपस में ही गुटबंदी कर रहे हैं।
    • अब भारत एक परमाणु शक्ति संपन्न देश है, वहीं गुटनिरपेक्ष आंदोलन के प्राथमिक उद्देश्यों में परमाणु निरस्त्रीकरण की नीति भी शामिल है।

गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता

गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का उदय मुख्यत: उपनिवेशवाद और शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में हुआ था, किंतु अब दोनों ही समाप्त हो चुके हैं, जिसके कारण लोग मानते हैं कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता भी समाप्त हो गई है, हालाँकि अधिकांश जानकार मानते हैं कि गुटनिरपेक्ष आंदोलन आज भी अपने सिद्धांतों के कारण उतना ही प्रासंगिक है, जितना शीत युद्ध के दौर में था।

  • विश्व शांति: गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने विश्व शांति को संरक्षित करने के प्रयासों में सक्रिय भूमिका निभाई है। गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) के सदस्य देश आज भी शांतिपूर्ण और समृद्ध दुनिया स्थापित करने के अपने लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहे हैं और भारत भी इनमें से एक है। 
  • क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता: गुटनिरपेक्ष आंदोलन क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता के सिद्धांत का समर्थन करता है और इसके सदस्य देशों द्वारा प्रत्येक राष्ट्र की स्वतंत्रता के संरक्षण के विचार को बार-बार दोहराया जाता है, जो कि इसकी मौजूदा प्रासंगिकता को स्पष्ट करता है।
  • न्यायसंगत विश्व व्यवस्था: गुटनिरपेक्ष आंदोलन एक न्यायसंगत विश्व व्यवस्था को बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है। यह अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में विद्यमान राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों के बीच एक सेतु का काम कर सकता है।
  • विकासशील देशों के लिये एक मंच: यदि विकासशील देशों के बीच किसी विशिष्ट मुद्दे को लेकर मतभेद पैदा होता है तो गुटनिरपेक्ष आंदोलन उस मतभेद को हल करने हेतु एक महत्त्वपूर्ण मंच के रूप में कार्य कर सकता है।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन में कुल 120 विकासशील देश शामिल हैं और इनमें से लगभग सभी देश संयुक्त राष्ट्र (UN) के सदस्य हैं। गुटनिरपेक्ष आंदोलन संयुक्त राष्ट्र के दो-तिहाई सदस्यों का प्रतिनिधित्त्व करता है।

आगे की राह 

  • एक विचार के रूप में गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकता है, इसका कारण यह है कि सैद्धांतिक तौर पर यह आंदोलन आज भी अपने सदस्य देशों को उनकी विदेश नीति निर्धारित करने का आधार प्रदान करता है।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन को इसकी स्थापना के समय की भांँति वर्तमान में भी अपने उद्देश्यों में एकरूपता लानी होगी, इसके अतिरिक्त सदस्य देशों को क्षेत्रीय गुटबंदी की राजनीति पर रोक लगाने का प्रयास करना होगा।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) का आतंकवाद, जलवायु परिवर्तन और व्यापार संरक्षणवाद जैसे महत्त्वपूर्ण वैश्विक मुद्दों को उठाने के लिये एक मंच के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिये। 

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय छात्रों द्वारा विकसित फेम्टो उपग्रह

प्रिलिम्स के लिये:

फेम्टो उपग्रह, कलामसैट, सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण

मेन्स के लिये:

अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में भारतीयों की उपलब्धियाँ  

चर्चा में क्यों? 

नासा (NASA) द्वारा उप-कक्षीय अंतरिक्ष में प्रक्षेपण के लिये करूर (तमिलनाडु) के तीन छात्रों द्वारा विकसित एक प्रयोगात्मक फेम्टो उपग्रह (femto Satellite) का चयन किया गया है।

femto-Satellite

प्रमुख बिंदु

  • यह भारतीय छात्रों के लिये एक महत्त्वपूर्ण क्षण था क्योंकि उनके मॉडल को 50 से अधिक देशों के युवा प्रतियोगियों द्वारा प्रस्तुत किये गए प्रोजेक्टों में से प्रमुख रूप से चुना गया था।
  • तीन भारतीय छात्रों द्वारा विकसित यह उपग्रह प्रबलित ग्राफीन बहुलक (Reinforced Graphene Polymer) से बना है। इसका आकार 3 सेमी. और वजन 64 ग्राम है।
  • पृथ्वी से बाहरी अंतरिक्ष में संकेत भेजने और प्राप्त करने के लिये इस उपग्रह की अपनी रेडियो आवृत्ति संचार प्रणाली है। इस उपग्रह से जुड़े सौर सेल इसे ऊर्जा प्रदान करते हैं। 
  • इस उपग्रह से संबद्ध फोटोग्राफिक फिल्म (Photographic Film) रॉकेट के अंदर कॉस्मिक विकिरण को अवशोषित करेगी एवं मापेगी।
  • यह सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण (Microgravity) में प्रबलित ग्राफीन बहुलक के प्रभाव का अध्ययन करेगा। यह समुद्र में उतरने से पहले कुछ मिनटों के लिये उप-कक्षीय अंतरिक्ष उड़ान पूरी करेगा।

फेम्टो उपग्रह (femto Satellite): 

  • शब्द ‘फेम्टो सैटेलाइट’ (Femto Satellite) या ‘फेम्टोसैट’ (Femtosat) सामान्य तौर पर 100 ग्राम से कम द्रव्यमान वाले कृत्रिम उपग्रहों के लिये प्रयोग किया जाता है।
  • इन नई श्रेणियों के उपग्रहों की लागत अत्यंत कम होती है।
  • भारतीय संचार उपग्रह ‘कलामसैट’ (Kalamsat) तमिलनाडु के छात्रों द्वारा बनाया गया एक फेम्टो उपग्रह था।
    • यह उपग्रह एक स्मार्टफोन की तुलना में हल्का है और प्रबलित कार्बन फाइबर बहुलक (Reinforced Carbon Fibre Polymer) से बना है। इस उपग्रह ने अपनी उड़ान के बाद अंतरिक्ष के एक सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण वातावरण में 12 मिनट तक कार्य किया।
    • इस उपग्रह की मुख्य भूमिका 3D-मुद्रित कार्बन फाइबर (3D-Printed Carbon Fibre) का प्रदर्शन करना है। 
    • यह पहली बार था जब 3D प्रिंटिंग तकनीक (3D Printing Technology) का उपयोग अंतरिक्ष में किया गया था। 

सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण (Microgravity): 

  • सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण (Microgravity) वह स्थिति होती है जब कोई वस्तु भारहीन अवस्था में होती है। जब अंतरिक्ष यात्री या कोई वस्तु अंतरिक्ष में विचरण करते हैं तो सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण का प्रभाव देखा जा सकता है।
    • सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण को अन्य तरीकों से भी अनुभव किया जा सकता है। 
  • ‘सूक्ष्म’ (Micro) का अर्थ ‘बहुत छोटा’ होता है, इसलिये सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण उस स्थिति को संदर्भित करता है जहाँ गुरुत्त्वाकर्षण बल अत्यंत सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण की स्थिति में अंतरिक्ष यात्री अपने अंतरिक्षयान में या उससे बाहर आसानी से तैर सकते हैं।
  • सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण के कारण भारी वस्तुएँ अंतरिक्ष में आसानी से घूमती हैं। उदाहरण के लिये अंतरिक्ष यात्री अपनी उंगलियों से सैकड़ों पाउंड वजन के उपकरण को एक जगह से दूसरी जगह पर स्थानांतरित कर सकते हैं। सूक्ष्म गुरुत्त्वाकर्षण को कभी-कभी ‘शून्य गुरुत्त्वाकर्षण’ (Zero Gravity) कहा जाता है किंतु यह भ्रामक है।

स्रोत: द हिंदू 


सबसे बड़े आर्कटिक अभियान का समापन

प्रिलिम्स के लिये:

मोज़ेक अभियान

मेन्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में मोज़ेक अभियान का महत्त्व 

चर्चा में क्यों? 

वर्ष भर आयोजित हुआ मोज़ेक अभियान (MOSAiC Expedition) नॉर्वे से शुरू हुआ तथा इसका समापन जर्मनी के ब्रेमेरवेन (Bremerhaven) बंदरगाह तट पर हुआ।

‘अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट’(Alfred Wegener Institute), जर्मनी द्वारा आयोजित इस अभियान की कुल लागत 150 मिलियन डॉलर थी। 

प्रमुख बिंदु:

  • ‘मल्टीडिसिप्लिनरी ड्रिफ्टिंग ऑब्ज़र्वेट्री फॉर द स्टडी ऑफ आकर्टिक क्लाइमेट’ (Multidisciplinary Drifting Observatory for the Study of Arctic Climate- MOSAiC) भौतिक, रासायनिक एवं जैविक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने के लिये  एक अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान अभियान है जो आर्कटिक के वातावरण, समुद्री बर्फ, महासागर एवं पारिस्थितिकी तंत्र को एक साथ अपने अध्ययन में शामिल करता है। 
  • केंद्रीय आर्कटिक क्षेत्र में आर्कटिक जलवायु प्रणाली की  खोज को लेकर  इस वर्ष मोज़ेक अभियान  का यह प्रथम चरण था।
  • पूरे वर्ष अनुसंधान के दौरान अवलोकन स्थलों के लिये वितरित क्षेत्रीय नेटवर्क को जलयान आइसब्रेकर आर.वी. पोलरस्टर्न(RV Polarstern) के आसपास की समुद्री बर्फ पर स्थापित किया गया।
    • आइसब्रेकर आर. वी. पोलरस्टर्न एक जर्मन अनुसंधान जलयान है जिसका उपयोग मुख्य रूप से आर्कटिक और अंटार्कटिका में अनुसंधान के लिये किया जाता है।
  • मोजेक अभियान से प्राप्त परिणाम आर्कटिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के कारणों की खोज करने, समुद्री-बर्फ के पिघलने के कारणों का पता लगाने तथा जलवायु परिवर्तन के क्षेत्रीय एवं वैश्विक परिणामों के प्रति बेहतर समझ विकसित करने के साथ-साथ सटीक मौसम एवं जलवायु दशाओं के पूर्वानुमान में सहायक होंगे।

महत्त्व:

  • इस क्षेत्र की समुद्री बर्फ हाल के दशकों में निरंतर पिघल रही है, वर्ष 1979 में उपग्रह मापन की शुरुआत के बाद से वर्ष 2019 दूसरा ऐसा वर्ष है जब इस क्षेत्र में बर्फ की मात्रा में सर्वाधिक कमी देखी गई है। 
  • तापन (Warming) भी आर्कटिक की पुरानी एवं  मोटी बर्फ के पिघलने का कारण है।
  • आर्कटिक क्षेत्र के महासागर, बर्फ, बादल, तूफान एवं  पारिस्थितिक तंत्र के बारे में एकत्र की गई  जानकारी  वैज्ञानिकों के लिये इस क्षेत्र को बेहतर तरीके से समझने में महत्त्वपूर्ण साबित होगी,जो कि इस  ग्रह के किसी अन्य भाग की तुलना में तेज़ी से गर्म हो रहा है। 

स्रोत: फर्स्ट पोस्ट


एक्वापोनिक्स और संबंधित वैकल्पिक कृषि तकनीक

प्रिलिम्स के लिये:

एक्वापोनिक्स

मेन्स के लिये:

एक्वापोनिक्स

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'सेंटर ऑफ एडवांस कंप्यूटिंग ऑफ डेवलपमेंट' (C-DAC), मोहाली में एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में'एक्वापोनिक्स सुविधा ’का उद्घाटन किया गया।

प्रमुख बिंदु :`

  • एक्वापोनिक्स (Aquaponics) पारिस्थितिकी रूप से एक स्थायी मॉडल है जो दो खाद्य उत्पादन प्रणालियों- एक्वाकल्चर (Aquaculture) और हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics) को एक साथ जोड़ता है।

 हाइड्रोपोनिक्स (Hydroponics): 

  • हाइड्रोपोनिक्स में मृदा के बिना पौधों को उगाया जाता है,  इसमें मृदा के स्थान पर जल का उपयोग किया जाता है। 

एक्वाकल्चर (Aquaculture):

  • एक्वाकल्चर शब्द का प्रयोग मत्स्य पालन हेतु आवश्यक परिस्थितियों तथा परिवेश के लिये किया जाता है। 
  • एक्वाकल्चर एक ही प्रजाति के जंतुओं की बड़ी मात्रा, उनके मांस या उप-उत्पादों के उत्पादन में सक्षम बनाता है।
  • एक्वापोनिक्स एक उभरती हुई तकनीक है जिसमें मत्स्यन के साथ-साथ पौधों को भी एकीकृत तरीके से उगाया जाता है।
  • मत्स्यन द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट का उपयोग पौधों की वृद्धि के लिये आवश्यक उर्वरक के रूप में किया जाता है।
  • पौधे जहाँ एक तरफ आवश्यक पोषक तत्त्वों को अवशोषित करने का कार्य करते हैं, वहीँ दूसरी और जल को फिल्टर/निस्पंदन करने का कार्य भी करते हैं। इस निस्पंदन किये गए जल का उपयोग मत्स्य टैंक को फिर से भरने के लिये किया जाता है।

एक्वापोनिक प्रणाली का महत्त्व:

  • एक्वापोनिक एक पर्यावरण अनुकूल तकनीक है। इस प्रणाली के कई फायदे हैं, जिनमें निम्नलिखित शामिल हैं:
    • एक प्रणाली द्वारा उत्पन्न अपशिष्ट का उपयोग किसी अन्य जैविक प्रणाली के लिये आगत/इनपुट या उर्वरक के रूप में किया जाता है।
    • मत्स्यन और पौधों का एकीकरण जैविक विविधता में वृद्धि करता है, जो तंत्र की स्थिरता और धारणीयता को बढ़ाता है।
    •  यह पर्यावरण में मुक्त किये गए अपशिष्ट की मात्रा में कमी और जल के निस्पंदन द्वारा नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों को कम करती है।
    • बाज़ार में 'जैविक उत्पादों' की बिक्री से किसानों की आय बढ़ाने में मदद मिलेगी और यह स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी समर्थन प्रदान करती है।
    • शुष्क क्षेत्रों में, जहाँ जल की कमी रहती है,  के लिये एक्वापोनिक एक उपयुक्त खाद्य उत्पादन तकनीक है क्योंकि इस तकनीक में जल का पुन: उपयोग करके खाद्य उत्पादन किया जाता है।

एक्वापोनिक प्रणाली के समक्ष चुनौतियाँ:

  • एक्वापोनिक प्रणाली की आरंभिक लागत मृदा उत्पादन अथवा हाइड्रोपोनिक्स की तुलना में बहुत अधिक है।
  • खाद्य सुरक्षा, खाद्य उत्पादन और एक्वापोनिक प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण घटक है। जीवाणु एस्चेरिचिया कोलाई (Escherichia coli) एक्वापोनिक्स में व्यापक रूप से संभावित संदूषक हैं।
  • सभी स्थानों पर वाणिज्यिक एक्वापोनिक्स उपयुक्त नहीं हैं। बड़े पैमाने पर प्रणालियों में निवेश करने से पहले ऑपरेटरों को कई कारकों पर विचार करने की आवश्यकता होती है, खासकर इनपुट की उपलब्धता, बिजली की लागत, विश्वसनीयता और प्रमुख बाज़ारों तक पहुँच आदि।
  • एक्वापोनिक्स में एक्वाकल्चर और हाइड्रोपोनिक्स दोनों के जोखिम शामिल होते हैं, अत: विशेषज्ञों द्वारा मूल्यांकन और परामर्श आवश्यक होता है।

निष्कर्ष:

  • वर्तमान में किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार के लिये एक्वापोनिक्स और संबंधित वैकल्पिक कृषि तकनीकों की अत्यधिक आवश्यकता है। यह तकनीक किसान को उसकी भूमि की उत्पादकता बढ़ाने और आय में वृद्धि करने में मदद करेगी।

स्रोत: पीआईबी