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डेली न्यूज़

  • 10 Dec, 2022
  • 49 min read
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भारतीय राजनीति

राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दल

प्रिलिम्स के लिये:

भारत निर्वाचन आयोग, राष्ट्रीय और राज्य दलों की घोषणा, पंजीकृत-गैर-मान्यता प्राप्त दल, जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम 1951

मेन्स के लिये:

राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय के रूप में मान्यता देने की प्रक्रिया

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गुजरात चुनाव के परिणाम के बाद आम आदमी पार्टी भारत की 9वीं राष्ट्रीय पार्टी बन गई, जहाँ उसे कुल वोट का लगभग 13% प्राप्त हुआ।

  • पहले आम चुनाव (1952) के समय भारत में 14 राष्ट्रीय दल थे।

नोट:

राष्ट्रीय दल (National Party):

  • परिचय: जैसा कि नाम से पता चलता है, इसकी एक क्षेत्रीय दल के विपरीत राष्ट्रव्यापी उपस्थिति होती है, जो केवल एक विशेष राज्य या क्षेत्र तक ही सीमित नहींं है।
    • एक निश्चित कद राष्ट्रीय दल के साथ जुड़ा होता है, लेकिन यह जरूरी नहीं कि उसका बहुत अधिक राष्ट्रीय राजनीतिक प्रभाव हो।
  • किसी पार्टी को 'राष्ट्रीय' घोषित करने की शर्तें:
    • ECI की राजनीतिक दल और चुनाव चिह्न, 2019 पुस्तिका के अनुसार, एक राजनीतिक दल को राष्ट्रीय दल माना जाएगा यदि:
      • यह चार या अधिक राज्यों में राज्य स्तरीय दल के रूप में 'मान्यता प्राप्त' हो; या
      • लोकसभा या राज्यों के विधानसभा चुनावों में 4 अलग-अलग राज्यों से कुल वैध मतों के 6 प्रतिशत मत प्राप्त करे तथा इसके अतिरिक्त 4 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज करे। या
      • यदि उसने कम से कम 3 राज्यों से लोकसभा में कुल सीटों का कम से कम 2% सीटें जीती हो।

किसी दल को राज्य स्तरीय दल कैसे घोषित किया जाता है?

  • किसी दल को किसी राज्य में राज्यस्तरीय दल के रूप में मान्यता दी जाती है यदि निम्न में से कोई भी शर्त पूरी होती है:
    • यदि यह संबंधित राज्य विधान सभा के आम चुनाव में राज्य में डाले गए वैध मतों का 6% मत प्राप्त करता है और साथ ही यह उसी राज्य विधान सभा में 2 सीटें जीतता है।
    • यदि यह लोकसभा के आम चुनाव में राज्य में कुल वैध मतों का 6% प्राप्त करता है और साथ ही यह उसी राज्य से लोकसभा में 1 सीट जीतता है।
    • यदि यह संबंधित राज्य की विधानसभा के आम चुनाव में विधान सभा में 3% सीटें जीतता है या विधानसभा में 3 सीटें (जो भी अधिक हो) जीतता है।
    • यदि वह संबंधित राज्य से लोकसभा के आम चुनाव में राज्य को आवंटित प्रत्येक 25 सीटों या उसके किसी खंड के लिये लोकसभा में 1 सीट जीतती है।
    • यदि यह राज्य या राज्य विधान सभा के लिये लोकसभा के आम चुनाव में राज्य में डाले गए कुल वैध मतों का 8% मत प्राप्त करता है।

राष्ट्रीय/राज्य घोषित किये जाने के महत्त्व

  • आयोग द्वारा दलों को प्रदान की गई मान्यता उनके लिये कुछ विशेषाधिकारों के अधिकार का निर्धारण करती है, जैसे चुनाव चिह्न का आवंटन, राज्य नियंत्रण, टेलीविजन और रेडियो स्टेशनों पर राजनीतिक प्रसारण हेतु समय का उपबंध एवं निर्वाचन सूचियों को प्राप्त करने की सुविधा।
  • इन दलों को चुनाव के समय 40 "स्टार प्रचारक" (पंजीकृत-गैर-मान्यता प्राप्त दलों को 20 "स्टार प्रचारक" रखने की अनुमति है) रखने की अनुमति है।
  • प्रत्येक राष्ट्रीय दल को एक चुनाव चिह्न प्रदान किया जाता है जो पूरे देश में विशिष्टतः उसी के लिये आरक्षित होता है। यहाँ तक कि उन राज्यों में भी जहाँ वह चुनाव नहीं लड़ रही है।
  • एक राज्य दल के लिये आवंटित चुनाव चिह्न विशेष रूप से उस राज्य/राज्यों में इसके उपयोग के लिये आरक्षित है जिसमें इसे मान्यता प्राप्त है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

भारत एवं ग्लोबल साउथ

प्रिलिम्स के लिये:

ग्लोबल साउथ, ग्लोबल नॉर्थ, G20, UNSC, BRI, हरित ऊर्जा कोष।

मेन्स के लिये:

भारत की G20 अध्यक्षता संबंधी चुनौतियाँ और आगे की राह।

चर्चा में क्यों?

भारत द्वारा G20 की अध्यक्षता प्राप्त करने के साथ ही, भारत के विदेश मंत्री ने "वैश्विक दक्षिणी देशों की आवाज़" के रूप में भारत की भूमिका पर बल दिया, जिसका वैश्विक मंचों पर प्रतिनिधित्त्व कम है।

ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ:

  • 'ग्लोबल नॉर्थ' से तात्पर्य मोटे तौर पर अमेरिका, कनाडा, यूरोप, रूस, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड जैसे देशों है, जबकि 'ग्लोबल साउथ' के अंतर्गत एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के देश शामिल हैं।
  • यह वर्गीकरण अधिक सटीक है क्योंकि इन देशों में , शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल के संकेतक आदि के संदर्भ में काफी समानताएँ हैं।
  • भारत और चीन जैसे कुछ दक्षिणी देश पिछले कुछ दशकों में आर्थिक रूप से विकसित हुए हैं।
    • कई एशियाई देशों द्वारा हासिल की गई प्रगति को इस विचार को चुनौती देने के रूप में भी देखा जाता है कि उत्तरी देश हीं आदर्श है।

पहले उपयोग की गई वर्गीकरण प्रणाली:

  • प्रथम विश्व, द्वितीय विश्व और तृतीय विश्व के देश:
  • प्रथम, द्वितीय और तृतीय विश्व के देश शीत युद्ध-कालीन अमेरिका, सोवियत संघ के सहायक देशों और गुट-निरपेक्ष देशों को संदर्भित करते हैं।
  • विश्व प्रणाली दृष्टिकोण:
  • यह विश्व राजनीति को देखने/समझने के परस्पर नज़रिये पर ज़ोर देता है। उत्पादन के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं: कोर, पेरिफेरल और सेमी- पेरिफेरल ।
  • अमेरिका या जापान जैसे देशों में अत्याधुनिक तकनीकों की बहुतायत होने के कारण कोर क्षेत्र में अधिक लाभ होता है।
  • दूसरी ओर, पेरिफेरल क्षेत्र, कम परिष्कृत उत्पादन में संलग्न हैं जो मूलतः श्रम प्रधान होता है।
  • सेमी-पेरिफेरल ज़ोन इन दोनों के बीच में है जिसमें भारत और ब्राज़ील जैसे देश शामिल हैं।
  • पूर्वी और पश्चिमी देश:
  • पश्चिमी देश आम तौर पर अपने लोगों के बीच आर्थिक विकास और समृद्धि के उच्च स्तर को दर्शाते हैं, और पूर्वी देशों को विकास की इसी संक्रमण की प्रक्रिया में माना जाता है।

ग्लोबल उत्तर और ग्लोबल दक्षिण के उद्भव का कारण:

पूर्व वर्गीकरण की गैर-व्यवहार्यता:

  • शीत युद्ध के बाद के विश्व में, प्रथम विश्व/तीसरा विश्व वर्गीकरण व्यवहार्य नहीं रह गया था, क्योंकि जब वर्ष 1991 में कम्युनिस्ट सोवियत संघ का विघटन हुआ तो अधिकांश देशों के पास पूंजीवादी अमेरिका के साथ किसी स्तर पर सहयोग करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था, जो उस समय एकमात्र वैश्विक महाशक्ति थी।
    • पूर्व/पश्चिम देशों को अक्सर अफ्रीकी और एशियाई देशों के विषय में रूढ़िवादी सोच बनाए रखने वालो के रूप में देखा जाता था।
    • विभिन्न देशों को एक ही श्रेणी में वर्गीकृत करना अत्यधिक सरल माना जा रहा था।

वैश्विक दक्षिण देशों में समानताएँ:

  • अधिकांश वैश्विक दक्षिणी देशों का उपनिवेश बनने का इतिहास रहा है। UNSC की स्थायी सदस्यता से बहिष्करण के कारण अंतर्राष्ट्रीय मंचों में इन देशों का प्रतिनिधित्त्व बहुत ही कम रहा है।
  • अधिकांश वैश्विक दक्षिणी देशों के आज भी विकासशील रहने/कम विकसित होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह बहिष्करण भी रहा है।

दक्षिण-दक्षिण सहयोग के लिये की गई पहल:

  • वैश्विक:
  • भारतीय:
    • ट्रिप्स छूट पर प्रस्ताव (Proposal on TRIPS Waiver):
      • बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार संबंधी पहलुओं (TRIPS) में छूट जिसे पहली बार वर्ष 2020 में भारत और दक्षिण अफ्रीका द्वारा प्रस्तावित किया गया था, में कोविड-19 टीकों और उपचारों पर बौद्धिक संपदा अधिकारों (IPRs) की अस्थायी वैश्विक आसानी शामिल होगी, ताकि उन्हें वैश्विक स्वास्थ्य का समर्थन करने और महामारी से बाहर निकलने का रास्ता मिल सके। कोविड-19 टीकों, दवाओं, चिकित्सीय और संबंधित प्रौद्योगिकियों पर समझौता।
    • वैक्सीन मैत्री अभियान:

ग्लोबल साउथ के विकास हेतु बाधाएँ:

  • हरित ऊर्जा कोष जारी करना:
    • वैश्विक उत्सर्जन के प्रति ग्लोबल नॉर्थ देशों के उच्च योगदान के बावजूद, वे हरित ऊर्जा के वित्तपोषण के लिये भुगतान की उपेक्षा कर रहे हैं, जिसके लिये अंतिम पीड़ित सबसे कम उत्सर्जक हैं - कम विकसित देश।

रूस-यूक्रेन युद्ध का प्रभाव:

  • रूस-यूक्रेन युद्ध ने सबसे कम विकसित देशों (LDCs) को गंभीर रूप से प्रभावित किया जिससे खाद्य, ऊर्जा और वित्त से संबंधित चिंताएँ बढ़ गईं तथा LDCs की विकास संभावनाओं को खतरा उत्पन्न हो गया।
  • चीन का हस्तक्षेप:
    • चीन बुनियादी ढाँचे के विकास के लिये बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के माध्यम से ग्लोबल साउथ में तेज़ी से पैठ बना रहा है।
      • हालाँकि, यह अभी भी संदेहास्पद है कि क्या BRI दोनों पक्षों के लिये लाभदायक होगा या यह केवल चीन के लाभ पर ध्यान केंद्रित करेगा।

अमेरिकी आधिपत्य:

  • विश्व को अब कई लोगों द्वारा बहुध्रुवीय माना जाता है लेकिन यह अकेला अमेरिका है जो अन्तराष्ट्रीय मामलों पर हावी है।।
  • संसाधनों तक अपर्याप्त पहुँच:
    • महत्त्वपूर्ण विकासात्मक परिणामों के लिये आवश्यक संसाधनों तक पहुँच में ग्लोबल नॉर्थ- साउथ विचलन ऐतिहासिक रूप से प्रमुख अंतरालों की विशेषता रही है।
      • उदाहरण के लिये, औद्योगीकरण, वर्ष 1960 के दशक की शुरुआत से उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के पक्ष में झुका हुआ है और इस संबंध में वैश्विक अभिसरण का कोई बड़ा प्रमाण नहीं मिला।
  • कोविड-19 का प्रभाव:
    • कोविड-19 महामारी ने पहले से मौजूद अंतराल को बढ़ा दिया है।
      • महामारी के शुरुआती चरणों से निपटने में न केवल देशों को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, बल्कि आज जिन सामाजिक और व्यापक आर्थिक प्रभावों का सामना करना पड़ रहा है, वे ग्लोबल साउथ के लिये अधिक खराब रहे हैं।
    • घरेलू अर्थव्यवस्थाओं की भेद्यता अब अर्जेंटीना और मिस्र से लेकर पाकिस्तान और श्रीलंका तक के देशों में कहीं अधिक स्पष्ट है।

भारत ग्लोबल साउथ कीआवाज़ कैसे बन सकता है?

  • वर्तमान समय में ग्लोबल साउथ को अग्रणी बनाने के लिये विकासशील देशों के बीच निंदनीय क्षेत्रीय राजनीति पर अंकुश लगाने हेतु भारत को सक्रिय भूमिका निभानी होगी।
  • भारत को इस तथ्य को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि ग्लोबल साउथ एक सुसंगत समूह नहीं है और न ही इसका कोई साझा एजेंडा है। धन, शक्ति, व क्षमताओं के मामले में आज ग्लोबल साउथ में बहुत अंतर है।
    • यह विकासशील देशों के विभिन्न क्षेत्रों और समूहों के अनुरूप सक्रिय भारतीय भूमिका की आवश्यकता है।
  • भारत पुरानी वैचारिक लड़ाइयों पर लौटने के बजाय व्यावहारिक परिणामों पर ध्यान केंद्रित करके उत्तर और दक्षिण के बीच एक पुल बनने के लिये उत्सुक है।
  • यदि भारत इस महत्वाकांक्षा को प्रभावी नीति में बदल सकता है, तो सार्वभौमिक और विशेष लक्ष्यों की प्राप्ति आसानी से की जा सकती है।

UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)

प्रश्न. निम्नलिखित में से किस समूह में सभी चार देश G20 के सदस्य हैं? (2020)

(A) अर्जेंटीना, मेक्सिको, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की
(B) ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, मलेशिया और न्यूज़ीलैंड
(C) ब्राज़ील, ईरान, सऊदी अरब और वियतनाम
(D) इंडोनेशिया, जापान, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया

उत्तर: A

व्याख्या:

  • यह 19 देशों और यूरोपीय संघ (EU) का एक अनौपचारिक समूह है, जिसकी स्थापना वर्ष 1999 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक के प्रतिनिधियों के साथ हुई थी।
  • सदस्य देश जो वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के 80% से अधिक का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे मज़बूत वैश्विक आर्थिक विकास प्राप्त करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के प्रमुख मंच पर आए, जिसके लिये पेन्सिलवेनिया (USA)सितंबर 2009 में पिट्सबर्ग शिखर सम्मेलन में नेताओं द्वारा सहमति व्यक्त की गई थी।
  • G-20 के सदस्य देशों में अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, यूरोपियन यूनियन, फ्राँस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मेक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, कोरिया गणराज्य, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
  • अतः विकल्प A सही उत्तर है।

मेन्स:

प्रश्न."डब्ल्यूटीओ के व्यापक लक्ष्य और उद्देश्य वैश्वीकरण के युग में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रबंधन और बढ़ावा देना है। लेकिन विकसित और विकासशील देशों के बीच मतभेदों के कारण दोहा दौर की वार्ता व्यर्थ हो गई है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में चर्चा करें। (2016)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

अनुसूचित जनजाति (ST) सूची में संशोधन हेतु विधेयक

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, अनुसूचित जनजाति, संविधान की पाँचवीं अनुसूची, संविधान की छठी अनुसूची।

मेन्स के लिये:

अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल करने की प्रक्रिया, भारत में जनजातियों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान और पहल।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 4 राज्यों - तमिलनाडु, कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अनुसूचित जनजाति (ST) सूची को संशोधित करने की मांग करने वाले चार विधेयकों को संविधान (ST) आदेश, 1950 में प्रस्तावित संशोधनों के माध्यम से लोकसभा में पेश किया गया था।

प्रस्तावित परिवर्तन:

  • विधेयक का उद्देश्य:
    • तमिलनाडु की ST सूची में नारीकोरवन और कुरुविक्करन पहाड़ी जनजातियों को शामिल करना।
      • लोकुर समिति (1965) ने भी अपनी रिपोर्ट में उन्हें सूची में शामिल करने की सिफारिश की थी।
    • कर्नाटक की ST सूची में पहले से ही वर्गीकृत काडू कुरुबा के पर्याय के रूप में बेट्टा-कुरुबा को शामिल करना।
    • छत्तीसगढ़ की ST सूची में पहले से वर्गीकृत भारिया भूमिया जनजाति के लिये देवनागरी लिपि में अन्य समानार्थक शब्द जोड़ना।
      • जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अनुसार, वे सभी एक ही जनजाति का हिस्सा हैं, लेकिन उन्हें सूची से बाहर रखा गया था क्योंकि उनके नाम अलग-अलग हैं।
    • सिरमौर ज़िले में ट्रांस-गिरि क्षेत्र केे हट्टी समुदाय को हिमाचल प्रदेश की ST सूची में शामिल करना (लगभग पाँच दशकों के बाद)।

ST सूची में शामिल करने की प्रक्रिया:

  • राज्य द्वारा सिफारिश:
    • जनजातियों को ST की सूची में शामिल करने की प्रक्रिया संबंधित राज्य सरकारों की सिफारिश से शुरू होती है, जिसे बाद में जनजातीय मामलों के मंत्रालय को भेजा जाता है, जो समीक्षा करता है और अनुमोदन के लिये भारत के महापंजीयक को इसे प्रेषित करता है।
  • NCST से मंज़ूरी: इसके बाद सूची को अंतिम निर्णय के लिये कैबिनेट को भेजे जाने से पहले राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (National Commission for Scheduled Tribes- NCST) द्वारा मंज़ूरी दी जाती है।
  • राष्ट्रपति की सहमति: अंतिम निर्णय करने की शक्ति राष्ट्रपति में निहित है (अनुच्छेद 342 के तहत)।
    • अनुसूचित जनजाति में किसी भी समुदाय को शामिल करने की प्रक्रिया संविधान (अनुसूचित जनजाति) आदेश, 1950 में संशोधन करने वाले विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ही प्रभावी होती है।

भारत में अनुसूचित जनजातियों से संबंधित प्रावधान

  • परिभाषा:
    • भारत का संविधान अनुसूचित जनजातियों की मान्यता के मानदंडों को परिभाषित नहीं करता है। वर्ष 1931 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों को "बहिष्कृत" और "आंशिक रूप से बहिष्कृत" क्षेत्रों में रहने वाली "पिछड़ी जनजातियों" के रूप में मान्यता जाना जाता है।
    • भारत सरकार अधिनियम 1935 ने पहली बार प्रांतीय विधानसभाओं में "पिछड़ी जनजातियों" के प्रतिनिधियों को शामिल किये जाने की मांग की।
  • संवैधानिक प्रावधान:
    • अनुच्छेद 366 (25): इसमें अनुसूचित जनजातियों को “ऐसी आदिवासी जाति या आदिवासी समुदाय या इन आदिवासी जातियों और आदिवासी समुदायों के भाग या उनके समूह के रूप में, जिन्हें इस संविधान के उद्देश्यों के लिये अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजातियाँ माना गया है” परिभाषित किया है।
    • अनुच्छेद 342(1): राष्ट्रपति किसी राज्य/संघ राज्य क्षेत्र के संबंध में (राज्य के मामले में राज्यपाल के परामर्श के बाद) उस राज्य/संघ राज्य क्षेत्र में जनजातियों/जनजातीय समुदायों/जनजातियों/जनजातीय समुदायों के कुछ भागों या समूहों को अनुसूचित जनजाति के रूप में विनिर्दिष्ट कर सकता है।
    • पाँचवीं अनुसूची: यह 6वीं अनुसूची में शामिल राज्यों के अलावा अन्य राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजाति के प्रशासन एवं नियंत्रण हेतु प्रावधान निर्धारित करती है।
    • छठी अनुसूची: असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित है।
  • वैधानिक प्रावधान:

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रिलिम्स:

प्र. यदि किसी विशिष्ट क्षेत्र को भारत के संविधान की पाँचवी अनुसूची के अधीन लाया जाए, तो निम्नलिखित कथनों में कौन-सा एक कथन इसके परिणाम को सर्वोत्तम रूप से दर्शाता है? (2022)

(a) इससे जनजातीय लोगों की ज़मीनें गैर-जनजातीय लोगों के अंतरित करने पर रोक लगेगी।
(b) इससे उस क्षेत्र में एक स्थानीय स्वशासी निकाय का सृजन होगा।
(c) इससे वह क्षेत्र संघ राज्य क्षेत्र में बदल जाएगा।
(d) जिस राज्य के पास ऐसे क्षेत्र होंगे, उसे विशेष कोटि का राज्य घोषित किया जाएगा क्षेत्रों वाले राज्य को विशेष श्रेणी का राज्य घोषित किया जाएगा।

उत्तर: (a)


प्र. भारत के संविधान की किस अनुसूची के तहत खनन के लिये निजी पार्टियों को आदिवासी भूमि के हस्तांतरण को शून्य और शून्य घोषित किया जा सकता है? (2019)

(A) तीसरी अनुसूची
(B) पाँचवी अनुसूची
(C) नौवीं अनुसूची
(D) बारहवीं अनुसूची

उत्तर: (B)


मेन्स:

प्र. स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिये, राज्य द्वारा की गई दो प्रमुख विधिक पहलें क्या हैं? (2017)

स्रोत: द हिंदू


भारतीय राजनीति

राष्ट्रीय न्यायिक आयोग विधेयक, 2022

प्रिलिम्स के लिये:

कॉलेजियम प्रणाली,Collegium System, 99 वां संविधान (संशोधन) अधिनियम, 99th Constitution (Amendment) Act, भारत के मुख्य न्यायाधीश, एसपी गुप्ता बनाम भारत संघ 1981।

मेन्स के लिये:

न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये संवैधानिक प्रावधान, कॉलेजियम प्रणाली का विकास, कॉलेजियम प्रणाली से संबंधित मुद्दे, प्रतिनिधि न्यायपालिका की ओर।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग विधेयक, 2022 को संसद में प्रस्तुत किया गया।

विधेयक की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • नियुक्ति की प्रक्रिया को विनियमित करता है:
    • विधेयक का उद्देश्य भारत के मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों एवं अन्य न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति हेतु लोगों की सिफारिश करने के लिये राष्ट्रीय न्यायिक आयोग द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया को विनियमित करना है।
  • स्थानान्तरण को विनियमित करना:
    • इसका उद्देश्य उनके स्थानांतरण को विनियमित करना और न्यायिक मानकों को निर्धारित करना तथा न्यायाधीशों की जवाबदेही सुनिश्चित करना है। इसके अलावा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के दुर्व्यवहार या अक्षमता के लिये व्यक्तिगत शिकायतों की जाँच हेतु विश्वसनीय और समीचीन तंत्र स्थापित करना और विनियमित करना है।
  • एक न्यायाधीश को हटाना:
    • यह एक न्यायाधीश को हटाने के लिये कार्यवाही के संबंध में और उससे जुड़े मामलों या प्रासंगिक मामलों के संबंध में राष्ट्रपति को संसद द्वारा एक अभिभाषण प्रस्तुत करने का भी प्रस्ताव करता है।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) क्या था?

  • NJAC:
    • अगस्त 2014 में, संसद ने NJAC अधिनियम, 2014 के साथ संविधान (99वां संशोधन) अधिनियम, 2014 पारित किया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर एक स्वतंत्र आयोग के गठन का प्रावधान है।
  • NJAC की संरचना:
    • पदेन अध्यक्ष के रूप में भारत के मुख्य न्यायाधीश
    • पदेन सदस्य के रूप में सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश
    • पदेन सदस्य के रूप में केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री
    • नागरिक समाज के दो प्रतिष्ठित व्यक्ति (एक समिति द्वारा नामित किये जाएँगे जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश, भारत के प्रधानमंत्री और लोकसभा के विपक्ष के नेता शामिल होंगे; प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से नामित किये जाने वाले व्यक्तियों में एक अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / अन्य पिछड़ा वर्ग / अल्पसंख्यक या महिला)
  • राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission- NJAC) और कॉलेजियम प्रणाली में अंतर:
    • NJAC:
      • भारत के मुख्य न्यायाधीश और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की सिफारिश NJAC द्वारा वरिष्ठता के आधार पर की जानी थी जबकि SC और HC के न्यायाधीशों की सिफारिश क्षमता, योग्यता और "नियमों में निर्दिष्ट अन्य मानदंडों" के आधार पर की जानी थी।
      • यह अधिनियम NJAC के किसी भी दो सदस्य को सिफारिश संबंधी निर्णय पर वीटो करने का अधिकार प्रदान करता था।
    • कॉलेजियम प्रणाली:
      • कॉलेजियम प्रणाली में, वरिष्ठतम न्यायाधीशों का एक समूह उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियाँ करता है और यह प्रणाली लगभग तीन दशकों से चालू है।

कॉलेजियम प्रणाली:

  • सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम एक पाँच सदस्यीय निकाय है, जिसका नेतृत्व निवर्तमान भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) करते हैं, जबकि सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश इसमें शामिल होते हैं।
    • उच्च न्यायालय कॉलेजियम का नेतृत्त्व उच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश और उस न्यायालय के दो अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश करते हैं।
  • कॉलेजियम की पसंद या चयन के बारे में सरकार आपत्ति कर सकती है और स्पष्टीकरण भी मांग सकती है, लेकिन अगर कॉलेजियम पुनः उन्हीं नामों की अनुशंसा करे तो सरकार उन्हें ही न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त करने के लिये बाध्य है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति संबंधी संवैधानिक प्रावधान

  • संविधान के अनुच्छेद 124(2) और 217 क्रमशः सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में उपबंध करते हैं।
    • ये नियुक्तियाँ राष्ट्रपति द्वारा की जाती हैं जिसके लिये वह ‘‘उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श के पश्चात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिये परामर्श करना आवश्यक समझे’’ की शर्त का पालन करता है।
  • लेकिन संविधान इन नियुक्तियों के लिये कोई प्रक्रिया निर्धारित नहीं करता है।

NJAC को अदालत में चुनौती देने का कारण:

  • वर्ष 2015 की शुरुआत में, सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) ने एक याचिका दायर की थी जिसमें मौज़ूदा कानूनों के प्रावधानों को चुनौती दी गई थी।
  • SCAORA का तर्क था कि दोनों अधिनियम "असंवैधानिक" और "अमान्य" थे।
    • यह तर्क दिया गया कि NJAC के निर्माण के लिये प्रदान किये गए 99वें संशोधन ने "भारत के मुख्य न्यायाधीश और भारत के सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों की सामूहिक राय की प्रधानता" को अप्रभावी कर दिया क्योंकि उनकी सामूहिक सिफारिश पर वीटो लगाया जा सकता है अथवा "तीन गैर-न्यायाधीश सदस्यों के बहुमत से निलंबित" किया जा सकता है।
    • इसमें कहा गया है कि संशोधन ने "गंभीर रूप से" संविधान की बुनियादी संरचना को नुकसान पहुँचाया है, जिसमें उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की स्वतंत्रता एक अभिन्न अंग थी।।
  • इसने यह भी तर्क दिया कि NJAC अधिनियम स्वयं "अमान्य" और "संविधान के दायरे से बाहर" था क्योंकि यह संसद के दोनों सदनों में तब पारित किया गया था जब मूल रूप से अधिनियमित अनुच्छेद 124(2) और 217(1) लागू थे और 99वाँ संशोधन राष्ट्रपति की स्वीकृति नहीं मिली थी।।

आगे की राह

  • स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच संतुलन: वास्तविक मुद्दा यह नहीं है कि कौन (न्यायपालिका या कार्यपालिका) न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है, बल्कि किस प्रकार से उन्हें नियुक्त किया जाता है।
    • इसके लिये न्यायिक नियुक्ति आयोग (JAC) की संरचना चाहे जो भी हो, न्यायिक स्वतंत्रता और न्यायिक जवाबदेही के बीच संतुलन बनाना महत्त्वपूर्ण है।
      • नियुक्तियों में कार्यपालिका की भूमिका होनी चाहिये लेकिन JAC की संरचना ऐसी होनी चाहिये कि इससे न्यायिक स्वतंत्रता से समझौता न हो।
  • न्यायपालिका के अंदर न्याय: यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि न्याय प्रदान करने के लिये न्यायालय की संस्थागत अनिवार्यता न्यायपालिका के भीतर अवसर की समानता और न्यायाधीशों के चयन के लिये निश्चित मानदंडों के साथ बनी रहे।
  • NJAC की स्थापना पर पुनर्विचार: NJAC के अधिनियम में उन सुरक्षा उपायों को शामिल करने के लिये संशोधन किया जा सकता है जो इसे संवैधानिक रूप से वैध बनाएँगेे साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिये पुनर्गठित किया जाएगा कि बहुमत नियंत्रण न्यायपालिका के पास बना रहे।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न: 

प्र. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. भारत के संविधान के 44 वें संशोधन द्वारा लाए गए एक अनुच्छेद ने प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक पुनरावलोकन से परे कर दिया।
  2. भारत के संविधान के 99 वें संशोधन को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विखंडित कर दिया क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता था।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b)


मैन्स

प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

फार्मास्युटिकल प्रदूषण

प्रिलिम्स के लिये:

फार्मास्युटिकल प्रदूषण, अपशिष्ट जल, जैव संचय, मल्टी-ड्रग प्रतिरोध, मल्टीड्रग प्रतिरोध के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना 2017।

मेन्स के लिये:

फार्मास्युटिकल प्रदूषण, संबद्ध चिंताएंँ, संभावित समाधान और संबंधित पहल।

चर्चा में क्यों?

एक शोध पत्र के अनुसार, लगातार नज़रंदाज किये जाने वाले फार्मास्युटिकल प्रदूषण पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है जिसके तहत औषधि, स्वास्थ्य सेवा और पर्यावरण क्षेत्रों से समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता है।

विश्व की लगभग आधी या 43% नदियाँ सांद्रता में सक्रिय औषधि सामग्री से दूषित हैं जो स्वास्थ्य पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकती हैं।

फार्मास्युटिकल प्रदूषण:

  • परिचय:
    • फार्मास्युटिकल संयंत्र अक्सर अपनी विनिर्माण प्रक्रिया में उपयोग किये जाने वाले सभी रासायनिक यौगिकों को फिल्टर करने में असमर्थ होते हैं और इस तरह, रसायन आसपास के ताज़े/स्वच्छ जल प्रणालियों में और अंततः महासागरों, झीलों, धाराओं और नदियों को प्रदूषित करते हैं।
    • औषधि निर्माताओं से अपशिष्ट जल को कभी-कभी खुले मैदानों और आस-पास के जल निकायों में भी छोड़ दिया जाता है, जिससे पर्यावरण, लैंडफिल या डंपिंग क्षेत्रों में औषधि अपशिष्ट या उनके उप-उत्पादों में वृद्धि होती है। यह सब मूल रूप से औषधि/फार्मास्युटिकल प्रदूषण के रूप में जाना जाता है।
  • प्रभाव:
    • मछली और जलीय जीवन पर प्रभाव:
      • कई अध्ययनों ने संकेत दिया है कि जन्म नियंत्रण की गोलियों और पोस्टमेनोपॉज़ल हार्मोन उपचार में पाए जाने वाले एस्ट्रोजन का नर मछली पर कुप्रभाव पड़ता है और महिला-से-पुरुष अनुपात प्रभावित हो सकता है।
    • सीवेज उपचार प्रक्रिया में व्यवधान:
      • सीवेज उपचार प्रणालियों में मौजूद एंटीबायोटिक्स सीवेज बैक्टीरिया की गतिविधियों को रोक सकते हैं और कार्बनिक पदार्थ अपघटन को गंभीरता से प्रभावित करते हैं।
    • पीने के जल पर प्रभाव:
      • इन फार्मास्यूटिकल्स में मौजूद रसायन, शरीर से उत्सर्जित होने के बाद जल को प्रदूषित करता हैं।
      • अधिकांश नगरपालिका सीवेज उपचार सुविधाएंँ इन औषधि यौगिकों को पीने के जल से नहीं हटा सकती हैं और लोग समान यौगिकों का उपभोग करते हैं।
      • इन यौगिकों के संपर्क में गंभीर स्वास्थ्य समस्याएंँ हो सकती हैं।
    • पर्यावरण पर दीर्घकालिक प्रभाव:
      • कुछ औषधि यौगिक पर्यावरण और जल की आपूर्ति में लंबे समय तक बने रह सकते हैं।
      • ये जैवसंचय की प्रक्रिया में एक कोशिका में प्रवेश करते हैं और खाद्य शृंखलाओं को आगे बढ़ाते हैं, प्रक्रिया में अधिक केंद्रित हो जाते हैं। यह लंबे समय में जीवन और पर्यावरण पर विनाशकारी प्रभाव डाल सकता है।
  • समाधान:
    • औषधिओं के उचित निपटान पर सार्वजनिक शिक्षा में निवेश ड्रग टेक-बैक कार्यक्रमों के हिस्से के रूप में किया जाना चाहिये।
    • अस्पतालों, नर्सिंग होम और अन्य स्वास्थ्य संस्थानों में बड़े पैमाने पर औषधि फ्लशिंग को सीमित करने के लिये कड़े नियम।
    • औषधि प्रदूषण के संभावित मानव प्रभावों का आकलन करने के लिये अतिरिक्त शोध की सख्त आवश्यकता है।
    • थोक खरीद को सीमित करने से यह सुनिश्चित होगा कि केवल आवश्यक राशि की आपूर्ति की जाए और जिससे कम प्रदूषण हो।
    • फ्लशिंग की तुलना में उचित कचरा समाधान का चुनाव करना चाहिये क्योंकि इससे उन्हें जलाया जाता है या लैंडफिल कर दिया जाता है।

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भारत में फार्मास्यूटिकल्स प्रदूषण की स्थिति:

  • विश्व का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक:
    • भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा फार्मास्यूटिकल्स उत्पादक है, जिसमें लगभग 3000 औषधि कंपनियांँ और लगभग 10500 विनिर्माण इकाइयांँ शामिल हैं।
    • फार्मास्यूटिकल्स उत्पादन को भारत के विभिन्न हिस्सों में सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में से एक माना जाता है।
  • भारत, थोक औषधि की राजधानी:
    • 'भारत को थोक औषधि राजधानी' के रूप में जाना जाता है।
      • इसमें लगभग 800 से अधिक फार्मा/बायोटेक इकाइयांँ हैं।
    • सर्वेक्षण के अनुसार, स्थानीय लोगों का तर्क है कि जिन क्षेत्रों में उद्योग स्थित हैं, वहांँ भूजल अत्यधिक दूषित है।
  • मल्टीड्रग-प्रतिरोध संक्रमण:
    • यह अनुमान लगाया गया है कि मल्टीड्रग-प्रतिरोध संक्रमण के कारण भारत में वार्षिक लगभग 60000 नवजात शिशुओं की मृत्यु हो जाती है, जहाँ रोगाणुरोधी औषधिओं के साथ औषधि जल प्रदूषण इसके लिये उत्तरदायी है।

संबंधित सरकारी पहल:

  • एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना 2017: औद्योगिक कचरे में एंटीबायोटिक औषधिओं पर सीमा से संबंधित समस्या से निपटने के लिये प्रस्तावित किया गया था।
  • शून्य तरल निर्वहन नीति: केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने शून्य तरल निर्वहन प्राप्त करने के लिये विभिन्न फार्मा उद्योगों को दिशानिर्देश पेश किये हैं।
    • हैदराबाद में 220 थोक औषधि निर्माताओं में से लगभग 86 के पास शून्य तरल निर्वहन सुविधाएंँ हैं, जिससे पता चला है कि वे लगभग सभी तरल अपशिष्ट को रिसायकल कर सकते हैं।
  • बहिःस्राव की निरंतर निगरानी: पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने यह भी घोषणा की है कि उद्योगों को लगातार बहिःस्राव की निगरानी के लिये उपकरण स्थापित करने चाहिये।

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्षों के प्रश्न: 

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन भारत में माइक्रोबियल रोगजनकों में मल्टीड्रग प्रतिरोध की घटना के कारण हैं? (2019)

  1. कुछ लोगों की आनुवंशिक प्रवृत्ति
  2. बीमारियों को ठीक करने के लिये एंटीबायोटिक औषधिओं की गलत खुराक लेना
  3. पशुपालन में एंटीबायोटिक का प्रयोग
  4. कुछ लोगों में कई पुरानी बीमारियाँ

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1, 3 और 4
(d) केवल 2, 3 और 4

उत्तर: (b)

  • मल्टीड्रग प्रतिरोध (AMR) एक सूक्ष्मजीव (जैसे बैक्टीरिया, वायरस और कुछ परजीवी) की एक रोगाणुरोधी (जैसे एंटीबायोटिक, एंटीवायरल और एंटीमाइलेरियल) को इसके खिलाफ काम करने से रोकने की क्षमता है। नतीजतन, मानक उपचार अप्रभावी हो जाते हैं, संक्रमण बना रहता है और दूसरों में फैल सकता है।
  • एक आनुवंशिक प्रवृत्ति (कभी-कभी आनुवंशिक संवेदनशीलता भी कहा जाता है) किसी व्यक्ति के आनुवंशिक मेकअप के आधार पर किसी विशेष बीमारी के विकसित होने की संभावना बढ़ जाती है। विशिष्ट आनुवंशिक विविधताओं से एक आनुवंशिक प्रवृत्ति का परिणाम होता है जो अक्सर माता-पिता से मिलता है। इसका मल्टीड्रग प्रतिरोध से कोई सीधा संबंध नहीं है। अतः 1 सही नहीं है।
  • AMR स्वाभाविक रूप से समय के साथ होता है। कई जगहों पर, लोगों और जानवरों में एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग और दुरुपयोग किया जाता है, और अक्सर पेशेवर निरीक्षण के बिना दिया जाता है। दुरुपयोग के उदाहरणों में शामिल हैं जब उन्हें सर्दी और फ्लू जैसे वायरल संक्रमण वाले लोगों द्वारा लिया जाता है, और जब उन्हें जानवरों में ग्रोथ प्रमोटर के रूप में दिया जाता है या स्वस्थ जानवरों में बीमारियों को रोकने के लिये उपयोग किया जाता है। अतः 2 और 3 सही हैं।
  • एकाधिक पुरानी बीमारियाँ दो या दो से अधिक पुरानी बीमारियाँ हैं जो एक ही समय में एक व्यक्ति को प्रभावित करती हैं। उदाहरण के लिये, या तो गठिया और उच्च रक्तचाप वाले व्यक्ति या हृदय रोग और अवसाद वाले व्यक्ति, दोनों को कई पुरानी बीमारियां हैं। इसलिये यह जरूरी नहीं है कि मल्टीपल क्रॉनिक डिजीज वाले व्यक्ति में एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस होगा, क्योंकि क्रॉनिक डिज़ीज़ ऐसी हो सकती है, जिसमें एंटीबायोटिक्स देने की ज़रूरत न हो। अतः 4 सही नहीं है।
  • अतः विकल्प (B) सही उत्तर है।

प्रश्न: क्या डॉक्टर के निर्देश के बिना एंटीबायोटिक औषधिओं का अति प्रयोग और मुफ्त उपलब्धता भारत में औषधि प्रतिरोधी रोगों के उद्भव में योगदान कर सकते हैं? निगरानी एवं नियंत्रण के लिये उपलब्ध तंत्र क्या हैं? इसमें शामिल विभिन्न मुद्दों पर आलोचनात्मक चर्चा कीजिये। (2014)

स्रोत: डाउन टू अर्थ


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