डेली न्यूज़ (10 May, 2019)



केंद्र सरकार बनाम कॉलेजियम व्यवस्था

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिये कॉलेजियम (Collegium) ने दो जजों की सिफारिश की थी किंतु केंद्र सरकार ने उनके नामों पर आपत्ति दर्ज कराई। जवाब में कॉलेजियम ने केंद्र सरकार की आपत्तियों को खारिज कर दिया है।

प्रमुख बिंदु

  • 12 अप्रैल को कॉलेजियम की तरफ से सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिये झारखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस अनिरुद्ध बोस और गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ए.एस. बोपन्ना के नामों की सिफारिश की गई थी।
  • केंद्र सरकार ने कॉलेजियम की ओर से भेजे गए उच्च न्यायालय के इन दो न्यायाधीशों के नामों पर आपत्ति दर्ज़ कराते हुए वरिष्ठता के आधार पर इन नामों पर दोबारा विचार करने को कहा था।
  • जवाब में कॉलेजियम का कहना है कि जज नियुक्त करते समय हालाँकि वरिष्ठता को ध्यान में रखना चाहिये किंतु योग्यता को वरीयता मिलनी चाहिये।
  • कॉलेजियम ने कहा कि सरकार से सहमत होने का कोई कारण नहीं है क्योंकि दोनों न्यायाधीशों के आचरण एवं योग्यता में कुछ भी प्रतिकूल नहीं पाया गया और सभी मापदंडों पर विचार किये जाने के बाद उनके नामों की सिफारिश की गई थी।
  • इस प्रकार कॉलेजियम की तरफ से केंद्र की दलील खारि कर दी गई और दोबारा जस्टिस बोस एवं जस्टिस बोपन्ना का नाम भेजा गया।
  • साथ ही सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिये दो अन्य न्यायाधीश, बॉम्बे हाईकोर्ट के जज बी. आर. गवई और हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत का नाम भी भेजा गया।
  • ज्ञातव्य है कि सर्वोच्च न्यायालय में इस वक्त 27 जज हैं, जबकि 31 जजों के पद स्वीकृत हैं। अगर इन चारों न्यायाधीशों के नामों पर सहमति बन जाती है तो जजों की अधिकतम संख्या पूरी हो जाएगी।
  • उल्लेखनीय है कि भारत के मूल संविधान के अनुच्छेद 124(1) के अनुसार, “भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय होगा एवं इसके मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 7 अन्य न्यायाधीश होंगे और जब तक संसद विधि द्वारा अधिक संख्या विहित नहीं करती तब तक संख्या यही रहेगी।“
  • संसद द्वारा समय-समय पर इस संख्या को बढाया गया एवं वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में 31 न्यायाधीश पद स्वीकृत हैं जिनमे से 1 मुख्य न्यायाधीश एवं 30 अन्य न्यायाधीश शामिल है।

क्या है कॉलेजियम व्यवस्था ?

देश की अदालतों में जजों की नियुक्ति की प्रणाली को कॉलेजियम व्यवस्था कहा जाता है।

  • 1990 में सर्वोच्च न्यायालय के दो फैसलों के बाद यह व्यवस्था बनाई गई थी। कॉलेजियम व्यवस्था के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में बनी वरिष्ठ जजों की समिति जजों के नाम तथा नियुक्ति का फैसला करती है।
  • सर्वोच्च न्यायालय तथा हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति तथा तबादलों का फैसला भी कॉलेजियम ही करता है।
  • हाईकोर्ट के कौन से जज पदोन्नत होकर सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे यह फैसला भी कॉलेजियम ही करता है।
  • उल्लेखनीय है कि कॉलेजियम व्यवस्था का उल्लेख न तो मूल संविधान में है और न ही उसके किसी संशोधन प्रावधान में।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC)

  • गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले के लिये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम बनाया था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी।
  • वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया था कि ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ अपने वर्तमान स्वरूप में न्यायपालिका के कामकाज में एक हस्तक्षेप मात्र है।
  • उल्लेखनीय है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाले इस आयोग की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश को करनी थी। इसके अलावा, सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश, केंद्रीय विधि मंत्री और दो जानी-मानी हस्तियाँ भी इस आयोग का हिस्सा थीं।
  • आयोग में जानी-मानी दो हस्तियों का चयन तीन सदस्यीय समिति को करना था, जिसमें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में नेता विपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल थे।
  • आयोग के संबंध में एक दिलचस्प बात यह थी कि अगर आयोग के दो सदस्य किसी नियुक्ति पर सहमत नहीं हुए तो आयोग उस व्यक्ति की नियुक्ति की सिफ़ारिश नहीं करेगा।
  • गौरतलब है कि शीर्ष न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली में व्यापक पारदर्शिता लाने की बात हमेशा से होती रही है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि अभी तक इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है और शीर्ष न्यायालयों में न्यायाधीशों के बहुत से पद रिक्त हैं।

स्रोत: द हिंदू


नौसैनिक अभ्यास ‘ग्रुप सेल’

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत, अमेरिका, जापान और फिलीपींस के युद्धपोतों ने दक्षिण चीन सागर में छह दिवसीय नौसैनिक अभ्यास ‘ग्रुप सेल’ (Group Sail) में हिस्सा लिया।

प्रमुख बिंदु

  • यह अभ्यास 3-9 मई के मध्य आयोजित किया गया था। इसमें भारत की तरफ से आईएनएस कोलकाता और आईएनएस शक्ति शमिल हुए।
  • इसका उद्देश्य देशों के बीच साझेदारी बढ़ाने के साथ ही भाग लेने वाली नौसेनाओं के बीच आपसी समझ को बढ़ावा देना था।
  • इस अभ्यास में भाग लेने से सुरक्षित समुद्री वातावरण सुनिश्चित करने के लिये समान विचारधारा वाले देशों के साथ भारत के सहयोग करने की प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है।
  • इस दौरान दक्षिण चीन सागर में चीन के आक्रामक और विस्तारवादी व्यवहार को ध्यान में रखते हुए भारत ने अंतर्राष्ट्रीय जल क्षेत्र में नेविगेशन की स्वतंत्रता का सम्मान करने और 1982 के संयुक्त राष्ट्र समुद्री क़ानून संधि (UNCLOS) सहित अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार चलने की सभी देशों की आवश्यकता को दोहराया है।
  • यह अभ्यास ऐसे समय में हुआ है जब भारत उत्तरी हिंद महासागर में बढ़ती चीनी गतिविधियों पर नज़र रख रहा है जहाँ चीनी जहाज़ों और पनडुब्बियों की उपस्थिति बढ़ रही है।

मुद्दे

  • दक्षिण चीन सागर के रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण जलमार्ग पर चीन द्वारा पूरी तरह से दावा किया जाता है, जबकि यह वियतनाम, फिलीपींस, इंडोनेशिया एवं चीन के मध्य विवादस्पद है।
  • ज्ञातव्य है कि समुद्र में हाइड्रोकार्बन का विशाल भंडार होने का अनुमान है।
  • वर्ष 2016 में हेग स्थित परमानेंट कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन (Permanent Court of Arbitration) ने UNCLOS के तहत फिलीपींस द्वारा चीन के खिलाफ लाए गए एक दावे पर अपना फैसला सुनाया, जिसमें लगभग हर बिंदु पर फैसला फिलीपींस के पक्ष में था।
  • यद्यपि चीन इस न्यायालय की स्थापना की संधि पर हस्ताक्षर करने वाला राष्ट्र है इसके बावजूद उसने अदालत के इस फैसले को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
  • वर्ष 2017 में चीन ने जिबूती में अपनी पहली विदेशी सैन्य सुविधा (Overseas Military Facility) शुरू की और वह अपने महत्त्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के हिस्से के रूप में अफ्रीका के पूर्वी तट, तंज़ानिया और केन्या में बुनियादी ढाँचे में भी भारी निवेश कर रहा है।
  • ये गतिविधियाँ चीन की भारत को चारों ओर से घेरने की कोशिश को दर्शाती हैं, जिसे ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल’ (String of Pearls) कहा जाता है।
  • ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल’ हिंद महासागर क्षेत्र में संभावित चीनी इरादों से संबंधित एक भू-राजनीतिक सिद्धांत है, जो चीनी मुख्य भूमि से सूडान पोर्ट तक फैला हुआ है।

संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि (UNCLOS)

  • संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि (UN Convention on the Law of the Sea-UNCLOS) एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो विश्व के सागरों और महासागरों पर देशों के अधिकार और ज़िम्मेदारियों का निर्धारण करती है और समुद्री साधनों के प्रयोग के लिये नियमों की स्थापना करती है।
  • संयुक्त राष्ट्र ने इस कानून को वर्ष 1982 में अपनाया था लेकिन यह नवंबर 1994 में प्रभाव में आया। उल्लेखनीय है कि उस समय यह अमेरिका की भागीदारी के बिना ही प्रभावी हुआ था। 
  • संधि के प्रमुख प्रावधान:
  • क्षेत्रीय समुद्र के लिये 12 नॉटिकल मील सीमा का निर्धारण।
  • अंतर्राष्ट्रीय जलडमरूमध्य के माध्यम से पारगमन की सुविधा।
  • द्वीपसमूह और स्थलबद्ध देशों के अधिकारों में वृद्धि।
  • तटवर्ती देशों हेतु 200 नॉटिकल मील EEZ (Exclusive Economic Zone) का निर्धारण।
  • राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर गहरे समुद्री क्षेत्र में खनिज संसाधनों के दोहन की व्यवस्था।

स्रोत: टाइम्स ऑफ़ इंडिया


दिल्ली उच्च न्यायालय का ‘जीरो पेंडेंसी प्रोजेक्ट’

चर्चा में क्यों ?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय की प्रायोगिक परियोजना रिपोर्ट प्रस्तुत की गई जिसमें कहा गया कि न्यायालय में लंबित सभी मुकदमों को एक वर्ष में निपटाने हेतु वर्तमान न्यायाधीशों की संख्या में बढ़ोतरी करने की आवश्यकता है।

अल्प विश्वसनीय संस्था (Less Credible System)

  • ज़ीरो पेंडेंसी कोर्ट प्रोजेक्ट (Zero Pendency Courts Project) अपनी तरह की एकलौती ऐसी योजना है जिससे विभिन्न प्रकार के मामलों हेतु समयसीमा तथा न्यायाधीशों की संख्या निश्चित करने में सहायता मिलेगी।
  • रिपोर्ट के अनुसार, न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया में लगातार देरी होने से पक्षकारों को निर्णय मिलने में दशकों लग जाते हैं जिससे न्यायालय के प्रति विश्वास में कमी आने लगती है।
  • प्रतिवर्ष मुकदमों की बढ़ती संख्या के कारण न्यायपालिका पर लंबित मुकदमों का बोझ तीव्र दर से बढ़ रहा है। अतः इस समस्या से उभरने के लिये शीघ्र ही कोई व्यवस्थित योजना बनानी होगी।
  • वर्ष 2016 में यह अनुमान लगाया गया कि भारत में न्यायिक देरी और इससे संबंधित रख-रखाव में सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product- GDP) का 1.5% खर्च होता है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने न्यायिक प्रक्रिया और नियत समय पर निर्णय देने से संबंधित अध्ययन के लिये अपने कुछ अधीनस्थ न्यायालयों में जनवरी 2017 में पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत की।

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  • प्रोजेक्ट का प्राथमिक लक्ष्य लंबित मुकदमों को निस्तारित करने के पश्चात् मुकदमों के दायर होने की दर ज्ञात करना है।
  • रिपोर्ट में बताया गया कि दिल्ली में आपराधिक मुकदमों की संख्या, सिविल मुकदमों से बहुत अधिक है।
  • 20 मार्च, 2019 तक 5.5 लाख आपराधिक मुकदमे और 1.8 लाख सिविल मुकदमे दिल्ली के अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित हैं।
  • यह भी उल्लेखनीय है कि किसी मुकदमें का निर्णय करने में सबसे अधिक समय लगता है और काफी समय मुकदमों को सुनने और लिखने एवं उससे संबंधित नियमों को खोजने आदि में खराब होता है। इसलिये निर्णय देने में काफी देरी होती है।

विलंब का कारण

  • इस रिपोर्ट के मुताबिक, सबूतों का अभाव भी मामलों में देरी के मूल कारणों में से एक है।
  • चूँकि साक्ष्य किसी भी मुकदमें का आधार होते हैं, अतः इनको एकत्रित करने में जितनी देरी होती है उसका सीधा प्रभाव वाद की न्यायिक प्रक्रिया पर पड़ता है। इसके साथ ही बाहरी पक्षकारों को सम्मन जारी करने में देरी होती है।
  • इसके अतिरिक्त अधिवक्ताओं और पक्षकारों द्वारा मुकदमें के हर स्तर पर अनावश्यक रूप से कार्यवाही को प्रभावित किया जाता है।
  • दूरस्थ क्षेत्रों के निवासी पक्षकारों को सम्मन जारी करने में भी देरी होती है इसलिये न्यायिक प्रक्रिया में अधिक विलंब होता है।
  • इस रिपोर्ट में कहा गया है कि न्यायाधीशों की कमी के कारण कार्य का बोझ बढ़ जाता है।
  • अतः लंबित मुकदमों के निश्चित समय में निस्तारण हेतु न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि करने की ज़रूरत है और वर्तमान न्यायाधीशों की संख्या 143 से 186 करने की आवश्यकता है।

स्रोत- द हिंदू


Rapid Fire करेंट अफेयर्स (10 May)

  • अमेरिका के वर्मोन्ट विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं ने एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला है कि वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों का सर्वाधिक सामना करने वाले भारत और चीन द्वारा कार्बन उत्सर्जन कम करने के उद्देश्य वाली मजबूत जलवायु नीति बनाने से इन्हें सर्वाधिक स्वास्थ्य लाभ मिलेगा। अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन को कम करने की कीमत तब तक अधिक लग सकती है, जब तक कि वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन से होने वाली मौतों के तथ्यों को इसमें शामिल न किया जाए। अध्ययन में यह भी पाया गया कि पेरिस जलवायु समझौते की शर्तों को पूरा करने के लिए कार्बन उत्सर्जन में तत्काल, उल्लेखनीय कटौती आर्थिक रूप से फायदेमंद है, अगर इसमें मनुष्य के स्वास्थ्य लाभों को शामिल कर लिया जाए। ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम किये जाने से के वायु प्रदूषण से होने वाली मौतें भी कम होंगी।
  • भारतीय इस्पात संघ ने ईरान से इस्पात आयात को लेकर भारतीय बैंक संघ से चिंता जताई है। UAE के ज़रिये ईरान से बढ़ता इस्पात आयात बहुत कम दामों पर भारत पहुँच रहा है और इसने उद्योग के सामने चिंता खड़ी कर दी है। चीन की तुलना में इसकी कीमतों का अंतर करीब 5,000 रुपयए प्रति टन है। गौरतलब यह भी है कि ईरान से भारत को होने वाले इस्पात आयात से CATSA के प्रावधान वाले अमेरिकी प्रतिबंधों का उल्लंघन हो रहा है। वित्त वर्ष 2017-18 में ईरान से भारत को होने वाले इस्पात आयात में 66 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गई थी। हालांकि वित्त वर्ष 2018-19 में ईरान ने शून्य निर्यात दर्ज किया। माना जाता है कि इस अवधि में निर्यात UAE के ज़रिये किया गया। इस वर्ष के लिये भारतीय व्यापारियों ने ईरान से आयात करने के लिये 72,000 टन इस्पात की बुकिंग की हुई है। ज्ञातव्य है कि ईरान आसियान देशों को लगभग 30 प्रतिशत इस्पात निर्यात करता है।
  • अमेरिका के परमाणु करार से हटने के ठीक एक साल बाद ईरान ने भी आंशिक तौर पर इस समझौते से हटने की घोषणा कर दी है। ईरान ने कहा कि समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले ब्रिटेन, फ्राँस, चीन, रूस और जर्मनी ने अगर अगले 60 दिनों में हमारे तेल और बैंकिंग क्षेत्रों को बचाने के वादे को पूरा नहीं किया तो ईरान फिर से परमाणु संवर्द्धन की राह पर लौट जाएगा। ईरान ने परमाणु मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पास दोबारा भेजने पर कड़ी प्रतिक्रिया की चेतावनी भी दी, लेकिन साथ ही कहा कि उनका देश बातचीत के लि तैयार है। संयुक्त राष्ट्र के जाँचकर्त्ताओं के अनुसार अमेरिका के हटने के बाद भी ईरान परमाणु समझौते का पालन कर रहा था। ज्ञातव्य के हटने का ऐलान किया था। इसके बाद उसने ईरान के तेल निर्यात को रोकने के साथ ही उस पर कई अन्य प्रतिबंध लगा दिए। ईरान पर यह कार्रवाई उसके परमाणु कार्यक्रम और आतंकी गतिविधियों के नाम पर की गई थी। गौरतलब है कि ईरान ने 2015 में दुनिया के 6 ताकतवर देशों अमेरिका, फ्राँस, रूस, चीन, जर्मनी और ब्रिटेन के साथ परमाणु समझौता किया था। इस समझौते के तहत सहमति बनी थी कि परमाणु कार्यक्रम बंद करने पर ईरान को प्रतिबंधों से राहत दी जाएगी और उसकी मदद भी की जाएगी।
  • कार्बन उत्सर्जन को कम करने के अपने प्रयासों के तहत जर्मनी ने वाहनों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये पहली बार देश में छह करोड़ डॉलर (544 करोड़ रुपए) की लागत से ई-हाईवे तैयार किया है। हाल ही में फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट और नज़दीकी इंडस्ट्रियल पार्क के बीच 10 किलोमीटर लंबे इलेक्ट्रिक हाईवे का परीक्षण किया गया। इसमें विशेषतौर पर तैयार किये गए ट्रक चलाए गए, जो ट्रेन के इलेक्ट्रिक इंजनों की तरह सड़क के ऊपर लगी केबल से विद्युत ऊर्जा प्राप्त करते हैं। ट्रकों में मोटर लगाई गई है, जो केबल से बिजली प्राप्त करती है। इलेक्ट्रिक केबल की ऊर्जा से ट्रक 90 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकते हैं। इस सिस्टम को जर्मन कंपनी सीमेंस ने विकसित किया है। यह सिस्टम जीवाश्म ईंधन से चलने वाले ट्रकों के मुकाबले काफी ऊर्जा बचाता है। साथ ही कार्बन डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में भी इससे कमी आएगी।
  • वैज्ञानिकों ने खतरनाक डायनासोर टायरेनोसोरस रेक्स की एक नई प्रजाति की पहचान की है। ये डायनासोर आकार में विशाल और मांसाहारी होते थे, लेकिन नई प्रजाति के डायनासोर टायरेनोसोरस रेक्स की तुलना में काफी छोटे होते थे। इस प्रजाति के डायनासोर का अस्तित्व 9.2 करोड़ साल पहले क्रीटेशस काल में था। यह वह समय था जब धरती पर विशाल आकार के डायनासोर पाए जाते थे। इस नई प्रजाति को सस्किट्रायननस हेजेल नाम दिया गया है। यह करीब 0.9 मीटर ऊँचा और 2.7 मीटर लंबा था और इसका वज़न 20 से लेकर 41 किलोग्राम तक होने का अनुमान लगाया गया है। पूरी तरह विकसित होने पर टायरेनोसोरस रेक्स डायनासोर का वज़न मोटे तौर पर नौ टन होता था। टायरेनोसोरस रेक्स की तरह सस्किट्रायननस हेजेल भी मांसाहारी था और छोटे जानवरों का शिकार करता था। यह खोज एक डायनासोर के जीवाश्म से की गई है।
  • अमेरिका के डीप कार्बन ऑब्जर्वेटरी के वैज्ञानिकों ने दुनिया के 20 से अधिक देशों और कई गहरे महासागरीय क्षेत्रों में मीथेन के अजैविक उत्पत्ति स्त्रोतों का पता लगाया है। इससे पता चला है कि कुछ विशेष चट्टानों में पाए जाने वाले ओलिविन नामक खनिज और पानी आपस में क्रिया करके हाइड्रोजन गैस बनाते हैं। यह हाइड्रोजन कार्बन स्त्रोतों, जैसे- कार्बन डाइऑक्साइड से क्रिया करके मीथेन बनाती है। वैज्ञानिक इसी को अजैविक मीथेन कहते हैं क्योंकि यह बिना किसी जैविक आधार के निर्मित होती है। अध्ययन में यह भी पता चला है कि कुछ विशिष्ट सूक्ष्मजीव वास्तव में अजैविक मीथेन बनाने में मदद करते हैं। पृथ्वी में बहुत अधिक गहराई में मिलने वाले मीथोनोजेन नामक ये सूक्ष्मजीव भू-रासायनिक क्रियाओं के दौरान बनने वाली हाइड्रोजन का उपयोग करके अपशिष्ट के रूप में मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं। मीथेन ईंधन के रूप में उपयोग की जाती है और यह गैस धरती में पड़ी दरारों से निकलती है।