अंतर्राष्ट्रीय संबंध
COVID-19 आपातकालीन उपाय एवं स्वास्थ्य प्रणाली तैयारी परियोजना
प्रीलिम्स के लिये:एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक, विश्व बैंक, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन मेन्स के लिये:COVID-19 आपातकालीन उपाय एवं स्वास्थ्य प्रणाली तैयारी परियोजना से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
भारत सरकार और एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (Asian Infrastructure Investment Bank- AIIB) ने COVID-19 से निपटने हेतु 500 मिलियन डॉलर की ‘COVID-19 आपातकालीन उपाय एवं स्वास्थ्य प्रणाली तैयारी परियोजना’ संबंधी समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं।
प्रमुख बिंदु:
- उल्लेखनीय है कि इस ‘COVID-19 आपातकालीन उपाय एवं स्वास्थ्य प्रणाली तैयारी परियोजना’ में विश्व बैंक ने भी 1.0 बिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता प्रदान किया है।
- गौरतलब है कि इस परियोजना के तहत भारत के सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों को शामिल किया जाएगा।
- दरअसल इस सहायता के प्राथमिक लाभार्थी संक्रमित लोग, जोखिम वाली आबादी, चिकित्सा तथा परीक्षण केंद्रों (सार्वजनिक व निजी दोनों) के सेवाप्रदाता और भारत में COVID-19 से निपटने में संलग्न सार्वजनिक निकाय होंगे।
- इस परियोजना को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (National Health Mission- NHM) और राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (National Centre for Disease Control- NCDC) के साथ-साथ स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय (Ministry of Health and Family Welfare) के अधीनस्थ भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research- ICMR) द्वारा कार्यान्वित किया जाएगा।
- गौरतलब है कि ‘एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक’ द्वारा भारत को दी जाने वाली मदद अब तक की स्वास्थ्य संबंधी पहली सहायता है।
परियोजना का उद्देश्य:
- भारत को COVID-19 से उत्पन्न खतरों से निपटने और राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणालियों को मज़बूती प्रदान करना।
- देश में COVID-19 के प्रसार को यथासंभव कम और सीमित करना।
- पीपीई, ऑक्सीजन डिलीवरी प्रणाली एवं दवाओं की खरीद की मात्रा को बढ़ाना और संक्रमित लोगों का पता लगाने की क्षमता में वृद्धि करना।
- COVID-19 एवं भविष्य की बीमारियों के प्रकोप से निपटने हेतु प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा, रोकथाम एवं रोगी प्रबंधन कार्य हेतु सुदृढ़ स्वास्थ्य प्रणालियों का निर्माण करना।
- भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के सहयोग से भारतीय एवं अन्य वैश्विक संस्थानों में COVID-19 संबंधी अनुसंधान में सहयोग करना।
- AIIB और विश्व बैंक द्वारा प्रदत्त इस धनराशि से भारत के एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम को मज़बूत करना, संक्रामक रोग संबंधी अस्पतालों, मेडिकल कॉलेज के अस्पतालों को बेहतर बनाने और उच्च नियंत्रण/रोकथाम वाली जैव प्रयोगशालाओं में सुरक्षा स्तर 3 नेटवर्क का निर्माण करना।
- ध्यातव्य है कि वर्तमान में लगभग 75% नए संक्रामक रोग मानव और पशुओं के आपसी संपर्क से उत्पन्न होते हैं जिनमें एचआईवी/एड्स, इबोला और सार्स भी शामिल हैं। अतः यह धनराशि पशुओं से मानव को होने वाली मौजूदा एवं उभरती बीमारियों का पता लगाने की क्षमता व प्रणाली विकसित करने में मदद करेगी।
- इस परियोजना से COVID-19 के व्यापक प्रकोप की स्थिति में संभावित नकारात्मक बाह्य कारकों से निपटने में भी मदद मिलेगी जिसमें स्वच्छता प्रथाओं, मास्क पहनने, सामाजिक दूरी बनाए रखने और कमज़ोर समुदायों के लिये मानसिक स्वास्थ्य एवं मनोवैज्ञानिक सेवाएँ मुहैया कराने पर व्यापक स्वास्थ्य जागरूकता और व्यवहार परिवर्तन अभियान चलाना भी शामिल है।
एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक
(Asian Infrastructure Investment Bank- AIIB):
- एशियाई इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक एक बहुपक्षीय विकास बैंक है जो एशिया और उसके बाहर के सामाजिक और आर्थिक नतीजों में सुधार के लिये एक मिशन के रूप में कार्य करता है।
- इसका मुख्यालय बीजिंग में है। इसने जनवरी 2016 में कार्य करना शुरू किया और वर्तमान में इसके 102 अनुमोदित सदस्य हैं।
- सुदृढ़ बुनियादी ढाँचे और अन्य उत्पादक क्षेत्रों में निवेश करके AIIB लोगों, सेवाओं और बाज़ारों को बेहतर ढंग से जोड़ रहा है, जो समय के साथ अरबों लोगों के जीवन को प्रभावित करेंगे और बेहतर भविष्य का निर्माण करेंगे।
स्रोत: पीआईबी
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
COVID-19 से निपटने हेतु ब्रिक्स (BRICS) का सहयोग
प्रीलिम्स के लिये:ब्रिक्स, COVID-19 मेन्स के लिये:वैश्विक अर्थव्यवस्था में ब्रिक्स की भूमिका, वैश्विक सहयोग |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ब्रिक्स (BRICS) देशों के विदेश मंत्रियों की एक वीडियोकॉन्फ्रेंस बैठक में भारतीय विदेश मंत्री ने COVID-19 से उत्पन्न आर्थिक चुनौतियों से निपटने हेतु उद्यमियों को ब्रिक्स समूह द्वारा सामूहिक सहयोग दिये जाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
मुख्य बिंदु:
- BRICS देशों के विदेश मंत्रियों की इस बैठक का आयोजन रूस के विदेश मंत्री द्वारा वीडियो कॉन्फ्रेंस के माध्यम से किया गया था।
- भारतीय विदेश मंत्री ने कहा कि COVID-19 न सिर्फ स्वास्थ्य क्षेत्र के लिये एक बड़ा खतरा है बल्कि इस महामारी से व्यापार और आपूर्ति श्रृंखला के प्रभावित होने से वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी गंभीर क्षति हुई है।
- भारतीय विदेश मंत्री ने COVID-19 के कारण औद्योगिक क्षेत्र में उत्पन्न हुई चुनौतियों से निपटने के लिये उद्यमों और विशेष कर ‘सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों’ (Micro, Small & Medium Enterprises- MSMEs) को BRICS समूह द्वारा सहायता उपलब्ध कराए जाने की आवश्यकता पर बल दिया।
- इस बैठक में COVID-19 के कारण अर्थव्यवस्था को हुई क्षति से BRICS देशों को उबारने के लिये 15 बिलियन अमेरिकी डॉलर के फंड की स्थापना का निर्णय लिया गया।
- बैठक में केंद्रीय विदेश मंत्री ने COVID-19 महामारी से निपटने में वैश्विक सहयोग के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को दोहराया, इसके तहत उन्होंने भारत द्वारा विश्व के लगभग 85 देशों को इस संक्रमण की रोकथाम के लिये दवा उपलब्ध कराए जाने के बारे में जानकारी दी।
- इस बैठक में भारत और रूस के अतिरिक्त चीन, ब्राज़ील तथा दक्षिण अफ्रीका के विदेश मंत्रियों ने भी हिस्सा लिया था।
BRICS देश:
- वर्ष 2009 में BRIC देशों (ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन) के पहले शिखर सम्मेलन के आयोजन और वर्ष 2010 में दक्षिण अफ्रीका के इस समूह में शामिल होने के बाद BRICS देशों के बीच विभिन्न क्षेत्रों में आपसी सहयोग में वृद्धि हुई है।
- BRICS समूह के देश विश्व के लगभग 26% भू-भाग और लगभग 42% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, साथ ही समूह के देशों ने उत्पादन में वृद्धि, निवेश, व्यापार आदि के माध्यम से वैश्विक अर्थव्यवस्था और राजनीतिक संबंधों को मज़बूत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है।
- एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2013 तक वैश्विक जीडीपी वृद्धि में BRICS देश की भागीदारी लगभग 27% थी।
- COVID-19 की महामारी से पहले विशेषज्ञों का अनुमान था कि वर्ष 2020 के अंत तक वैश्विक अर्थव्यवस्था की वृद्धि में BRICS देशों की हिस्सेदारी बढ़कर लगभग 50% हो जाएगी।
- हाल के वर्षों में समूह के देशों ने तकनीकी क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Inteligence- AI), 5G और डिजिटल अर्थव्यवस्था ने समूह के देशों को वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी भूमिका को मज़बूत करने का एक बड़ा अवसर प्रदान किया है।
- नवंबर 2019 में ब्राज़ील में आयोजित BRICS के 11वें सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री ने अगले 10 वर्षों के लिये विकास के प्रमुख क्षेत्रों की पहचान कर समूह के देशों द्वारा इनमें सहयोग बढ़ाए जाने पर ज़ोर दिया था।
- BRICS सदस्य विश्व की सबसे तेज़ उभरती अर्थव्यवस्था होने के अलावा इन देशों में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के विशाल भंडार, तकनीकी दक्षता, कुशल श्रमिक और बड़ा बाज़ार आर्थिक दृष्टि से समूह के लिये एक सकारात्मक भविष्य की तरफ संकेत करते हैं।
COVID-19 और BRICS देश:
- दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत में COVID-19 संक्रमण के शुरूआती मामलों के मिलने के बाद से यह बीमारी पूरे विश्व में फैल चुकी है।
- वर्तमान में चीन इस महामारी से लगभग उबर चुका है, परंतु BRICS समूह के अन्य देश विशेष कर भारत, रूस और ब्राज़ील में इस महामारी से स्वास्थ्य के साथ-साथ आर्थिक क्षेत्र को गंभीर क्षति हुई है।
- वर्तमान में COVID-19 की महामारी के बीच विश्व के बहुत से देशों में संरक्षणवादी दृष्टिकोण में वृद्धि देखी गई है, ऐसे में BRICS देशों द्वारा सामूहिक सहयोग को बढ़ावा मिलना एक सराहनीय पहल है।
- विशेषज्ञों के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास के लिये देश में तकनीकी एवं अन्य क्षेत्रों में स्टार्टअप (Startup) और लघु उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना बहुत ही आवश्यक है।
- COVID-19 की महामारी से बड़े आर्थिक स्रोत के अभाव और बाज़ार में मांग की कमी से स्टार्टअप और MSME कंपनियों को सबसे अधिक क्षति हुई है।
- BRICS समूह के सहयोग के माध्यम से इन कंपनियों को ऋण एवं सहयोग उपलब्ध करा कर अर्थव्यवस्था पर COVID-19 के नकारात्मक प्रभावों को कम करने में सहायता मिलेगी।
- साथ ही BRICS जैसे मंच पर भारतीय विदेश मंत्री द्वारा औद्योगिक क्षेत्र को सहयोग प्रदान करने की पहल से औद्योगिक क्षेत्र का मनोबल मज़बूत होगा।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय राजनीति
औद्योगिक आपदा और ‘पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत’
प्रीलिम्स के लिये:पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत, सख्त दायित्त्व सिद्धांत मेन्स के लिये:औद्योगिक आपदा प्रबंधन |
चर्चा में क्यों?
‘विशाखापत्तनम गैस त्रासदी’ मामले में 'राष्ट्रीय हरित अधिकरण' (National Green Tribunal) ने 19 वीं शताब्दी के ब्रिटिशकालीन 'सख्त दायित्त्व ' (Strict Liability) के सिद्धांत के आधार पर 'एलजी पॉलिमर' कंपनी को प्रथम दृष्ट्या (Prima Facie) ज़िम्मेदार माना है।
प्रमुख बिंदु:
- 'सख्त दायित्त्व ' के सिद्धांत को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1986 में निरर्थक (Redundant) बना दिया गया था।
- NGT ने ‘एलजी पॉलिमर’ कंपनी को 50 करोड़ की प्रारंभिक क्षतिपूर्ति राशि जमा करने के निर्देश के साथ ही एक 'तथ्य खोज समिति' (Fact-Finding Committee) का गठन किया है।
'सख्त दायित्त्व सिद्धांत' (Strict Liability Principle):
- इस सिद्धांत के अनुसार, एक औद्योगिक इकाई किसी आपदा के लिये उत्तरदायी नहीं होगी यदि औद्योगिक पदार्थों का रिसाव किसी दुर्घटना या 'प्रकृतिजन्य कार्य' (Act of God) के कारण हुआ है। ऐसे में इन औद्योगिक इकाइयों को कोई क्षतिपूर्ति देने की आवश्यकता नहीं है।
- इस सिद्धांत की उत्पति ब्रिटिशकालीन वर्ष 1868 के ‘रिलेंड्स बनाम फ्लेचर’ (Rylands versus Fletcher) मामले से मानी जाती है। यह सिद्धांत किसी औद्योगिक आपदा के समय कंपनियों को आवश्यक दायित्त्व निभाने में कई प्रकार की छूट प्रदान करता है।
‘पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत’ (Absolute Liability Principle):
- सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के ‘ओलियम गैस रिसाव मामले’ (Oleum Gas leak Case) में निर्णय दिया कि भारत जैसे विकासशील देश में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिये ‘सख्त दायित्त्व का सिद्धांत’ (Strict Liability Principle) अपर्याप्त है और इसके स्थान पर ‘पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत’ (Absolute Liability Principle) लागू किया जाना चाहिये।
‘पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत’ की आवश्यकता:
- यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि ‘पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत’ वर्ष 1984 की 'भोपाल गैस त्रासदी' के बाद में दिया गया था जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश पी.एन. भगवती भविष्य में ऐसी घटनाओं के लिये कॉर्पोरेट इकाइयों को ज़िम्मेदार ठहराना चाहते थे।
- 'पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत' के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय यह तय करना चाहता था कि भविष्य में ऐसी दुर्घटना होने पर कॉर्पोरेट को किसी प्रकार की छूट प्रदान न की जाए तथा इन इकाइयों से आवश्यक क्षतिपूर्ति राशि अवश्य वसूल की जाए। यहाँ ‘निरपेक्ष’ या पूर्ण (Absolute) का तात्पर्य है समाज के लिये ज़िम्मेदारी निभाने की बाध्यता है।
‘पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत’ और ‘अनुच्छेद 21’:
- ‘पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत' अनुच्छेद 21 का हिस्सा है तथा इसे जीवन के अधिकार के एक भाग के रूप में माना गया है।
NGT अधिनियम तथा पूर्ण दायित्त्व का सिद्धांत:
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 1986 में 'ऑलियम गैस रिसाव मामले' में प्रतिपादित किये गए ‘पूर्ण दायित्त्व के सिद्धांत’ को बाद में 'राष्ट्रीय हरित अधिकरण' (National Green Tribunal- NGT) अधिनियम- 2010 की धारा 17 में शामिल किया गया।
- NGT अधिनियम की धारा 17 के अनुसार यदि कोई औद्योगिक आपदा किसी दुर्घटना के कारण होती है तब भी अधिकरण 'बिना त्रुटि का सिद्धांत' (No Fault Principle) के आधार पर औद्योगिक इकाई पर आवश्यक कार्यवाही की जा सकती है।
पूर्ण दायित्त्व के सिद्धांत का नकारात्मक पक्ष:
- यह अधिनियम किसी खतरनाक कारखाने में हुई दुर्घटना के लिये हमेशा उद्यम को ही उत्तरदायी ठहराता है, भले ही आपदा किसी दुर्घटना के कारण हुई हो तथा आपदा के पीछे उद्यम की कोई लापरवाही नहीं हो।
निष्कर्ष:
- औद्योगिक आपदाओं की जाँच के लिये स्पष्ट कार्यप्रणाली अपनानी चाहिये तथा एक ‘सहायता राशि कोष’ की स्थापना की जानी चाहिये जो औद्योगिक इकाइयों पर लगाए जाने वाले आवश्यक शुल्क से मिलकर बनी हो।
स्रोत: द हिंदू
आंतरिक सुरक्षा
मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस में पदों की समाप्ति
प्रीलिम्स के लियेमिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस, शेकातकर समिति मेन्स के लियेशेकातकर समिति की सिफारिशें |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस (Military Engineering Service-MES) में 9,304 पदों को समाप्त करने के प्रस्ताव को मंज़ूरी दे दी है।
प्रमुख बिंदु
- ध्यातव्य है कि सरकार ने यह निर्णय लेफ्टिनेंट जनरल डी. बी. शेकातकर (सेवानिवृत्त) की अध्यक्षता में गठित समिति की सिफारिशों के आधार पर लिया है।
- इस समिति ने युद्ध क्षमता को बढ़ाने और सशस्त्र बलों के खर्च को संतुलित करने के उपाय सुझाए थे।
- रक्षा मंत्री ने शेकातकर समिति की सिफारिशों के आधार पर सेना में सामान्य एवं औद्योगिक क्षेत्र के रिक्त पड़े 13157 पदों में सैन्य इंजीनियरों के 9304 पदों को खत्म करने की अनुमति दी है।
- समिति द्वारा की गई एक अनुशंसा सिविलियन श्रम बल को इस प्रकार पुनर्संरचित करने की थी जिससे कि MES का कार्य आंशिक रूप से विभागीय रूप से तैनात कर्मचारियों द्वारा किया जाए और अन्य कार्यों को आउटसोर्स करा दिया जाए।
महत्त्व
- रक्षा मंत्री के इस निर्णय का उद्देश्य मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस (MES) को एक प्रभावी कार्यबल के साथ-साथ एक प्रभावी संगठन बनाना था, जो कुशल और लागत प्रभावी तरीके से नवीन परिदृश्य में जटिल मुद्दों को संभालने में सक्षम हो सके।
- विशेषज्ञों के अनुसार, यदि शेकातकर समिति की सिफारिशों को आगामी पाँच वर्षों में सही ढंग से लागू किया जाता है तो इसके माध्यम से देश के रक्षा व्यय में तकरीबन 25000 करोड़ रुपए तक की बचत हो सकती है।
शेकातकर समिति और उनकी सिफारिशें
- 11 सदस्यीय शेकातकर समिति का गठन पूर्व रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर द्वारा वर्ष 2016 में किया गया था और इस समिति ने दिसंबर 2016 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
- शेकातकर समिति की रिपोर्ट, जो कि मौजूदा समय में सेना में हो रहे सुधारों के सैद्धांतिक मार्गदर्शन का कार्य कर रही है, को अभी तक सार्वजनिक नहीं किया गया है क्योंकि इस रिपोर्ट में सशस्त्र बलों के परिचालन संबंधी पहलुओं को भी शामिल किया गया है और जिनका खुलासा राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में नहीं है।
- इस समिति के गठन का मुख्य उद्देश्य युद्ध क्षमता को बढ़ाने और सशस्त्र बलों के खर्च को संतुलित करने के उपाय को सुझाना था।
- समिति द्वारा अनुशंसित उपायों में शामिल हैं:
- शेकातकर समिति ने सिफारिश की थी कि भविष्य के खतरों और चुनौतियों के मद्देनज़र भारत का रक्षा बजट GDP के 2.5 से 3 प्रतिशत के मध्य होना चाहिये।
- समिति ने मध्य-स्तर के अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिये एक संयुक्त सेवा युद्ध महाविद्यालय (Joint Services War College) की स्थापना का भी सुझाव दिया था, हालाँकि मौजूदा महाविद्यालय (महू, सिकंदराबाद और गोवा) युवा अधिकारियों को प्रशिक्षण देना जारी रखेंगे।
- पुणे स्थित मिलिट्री इंटेलिजेंस स्कूल (Military Intelligence School) को त्रि-सेवा इंटेलिजेंस प्रशिक्षण प्रतिष्ठान (Tri-service Intelligence Training Establishment) में बदल दिया जाए।
- इस रिपोर्ट में शांत स्थानों में सैन्य फार्म (Military Farms) और सेना के डाकघरों को बंद करने का भी आह्वान किया, जो पहले से लागू की गई सिफारिशों में से है।
- राष्ट्रीय कैडेट कोर (National Cadet Corps-NCC) की कार्यक्षमता में सुधार किया जाना चाहिये।
- उल्लेखनीय है कि अगस्त 2017 में तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने भारतीय सेना से संबंधित 65 सिफारिशों के कार्यान्वयन को मंज़ूरी दी थी।
मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस
(Military Engineering Service-MES)
- मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस (Military Engineering Service-MES) भारत की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी सरकारी रक्षा अवसंरचना विकास एजेंसियों में से एक है।
- यह भारत में सबसे बड़ी निर्माण और रखरखाव एजेंसियों में से एक है, जिसका कुल वार्षिक बजट लगभग 13,000 करोड़ रुपये है।
- MES मुख्य रूप से भारतीय सेना, भारतीय वायु सेना, भारतीय नौसेना, भारतीय आयुध कारखानों, रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन और भारतीय तटरक्षक बल समेत भारतीय सशस्त्र बलों के लिये इंजीनियरिंग और निर्माण कार्य में कार्यरत है।
स्रोत: द हिंदू
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
सोना-सिलिकॉन इंटरफेस आधारित फोटोडिटेक्टर
प्रीलिम्स के लिये:सोना-सिलिकॉन इंटरफेस आधारित फोटोडिटेक्टर मेन्स के लिये:सोना-सिलिकॉन इंटरफेस आधारित फोटोडिटेक्टर से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
‘जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च’ (Jawaharlal Nehru Centre for Advanced Scientific Research-JNCASR) के वैज्ञानिकों द्वारा एक किफायती एवं ऊर्जा-कुशल ‘वेफर-स्केल फोटोडिटेक्टर’ (Wafer-scale Photodetector) (पतले टुकड़े पर आधारित) विकसित किया गया है।
प्रमुख बिंदु:
- यह शोधकार्य ‘अमेरिकन केमिकल सोसाइटी’ की ‘एप्लाइड इलेक्ट्रॉनिक मैटेरियल्स’ (Applied Electronic Materials) पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
- उल्लेखनीय है कि ‘वेफर-स्केल फोटोडिटेक्टर’ को सुरक्षा अनुप्रयोगों हेतु सोना- सिलिकॉन इंटरफेस का उपयोग करते हुए तैयार किया गया है।
- सोना (Au)- सिलिकॉन (Si) इंटरफेस जो प्रकाश के प्रति उच्च संवेदनशीलता प्रदर्शित करते हुए फोटोडिटेक्शन का कार्य करता है।
- सोना (Au)- सिलिकॉन (Si) इंटरफेस को ‘गैल्वेनिक डिपॉज़िट’ द्वारा तैयार किया जाता है।
- गैल्वेनिक डिपॉज़िट: यह धातुओं की इलेक्ट्रोप्लेटिंग हेतु एक तकनीक है जिसमे जल आधारित घोल (इलेक्ट्रोलाइट्स) का उपयोग कर धातुओं को आयन के रूप में जमा किया जाता है।
- एक नैनोस्ट्रक्चर Au फिल्म पी-टाइप सिलिसाइड ( p-type Silicide) (धनात्मक चार्ज की अधिकता) के ऊपर जमा की गई जो एक चार्ज कलेक्टर के रूप में कार्य करता है।
- यह शोधकार्य उच्च प्रदर्शन वाले फोटोडिटेक्टर के लिये एक सरल और किफायती समाधान आधारित निर्माण विधि प्रदान करता है।
- इसकी प्रक्रिया काफी तेज़ी से होने के साथ ही किसी भी मध्यवर्ती क्षेत्र का डिटेक्टर बनाने में महज़ कुछ ही मिनट लगते हैं।
वेफर-स्केल फोटोडिटेक्टर की विशेषताएँ:
- यह अवांछित गतिविधि के संकेत के रूप में कमज़ोर बिखरे हुए प्रकाश का पता लगाने में मदद कर सकता है।
- यह फोटोडिटेक्टर 40 माइक्रोसेकंड की त्वरित प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है और कम तीव्रता वाले प्रकाश का पता लगा सकता है।
- अल्ट्रावायलेट (Ultraviolet) से लेकर इन्फ्रारेड (Infrared) तक के लिये इस फोटोडिटेक्टर में एक व्यापक स्पेक्ट्रल रेंज है।
- इस फोटोडिटेक्टर की प्रतिक्रिया में 5% से कम भिन्नता वाले सक्रिय क्षेत्र में उत्कृष्ट एकरूपता दिखती है।
- घोल यानी विलयन आधारित तकनीक होने के कारण यह विधि काफी सस्ती और बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिये उपयुक्त है।
फोटोडिटेक्टर (Photodetectors):
- फोटोडिटेक्टर किसी भी ऑप्टोइलेक्ट्रॉनिक सर्किट का मुख्य भाग है जो प्रकाश का पता लगा सकता है।
- फोटोडिटेक्टर बाहरी आकाशगंगा से विकिरण का पता लगाने के अलावा सुपरमार्किट में स्वचालित प्रकाश व्यवस्था को नियंत्रित करता है। साथ ही सुरक्षा से संबंधित अनुप्रयोगों में व्यापक तौर पर उपयोग किया जाता है।
- हालाँकि, बढ़ती सामग्री की लागत और जटिल विनिर्माण प्रक्रियाओं के कारण दैनिक अनुप्रयोगों के लिये उच्च प्रदर्शन वाले डिटेक्टर की कीमत दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
जवाहरलाल नेहरु उन्नत वैज्ञानिक अनुसंधान केन्द्र
(Jawaharlal Nehru Centre for Advanced Scientific Research-JNCASR):
- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (Department of Science and Technology) द्वारा JNCASR की स्थापना वर्ष 1989 में की गई थी।
- शोधकार्यों को नौ इकाइयों में विभाजित किया गया है, जैसे-रासायनिकी एवं पदार्थ भौतिकी, अभियांत्रिकी यांत्रिकी, आण्विक जैविकी एवं आनुवंशिकी, तंत्रिका विज्ञान, इत्यादि।
स्रोत: पीआईबी
जैव विविधता और पर्यावरण
काराकोरम रेंज में ग्लेशियरों पर मौसमी प्रभाव
प्रीलिम्स के लिये:ग्लेशियल सर्ज, काराकोरम श्रेणी, काराकोरम श्रेणी के ग्लेशियर मेन्स के लिये:वैश्विक तापन और ग्लेशियर |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में 'विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग' (Department of Science and Technology- DST) के स्वायत्त संस्थान 'वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी' (Wadia Institute of Himalayan Geology- WIHG)- देहरादून के वैज्ञानिकों द्वारा काराकोरम श्रेणी के ग्लेशियरों का अध्ययन किया गया।
प्रमुख बिंदु:
- अध्ययन के अनुसार, हाल ही में काराकोरम श्रेणी के 220 अधिक गलेशियरों में ‘ग्लेशियल सर्ज’ (Glacial surges) की घटना देखने को मिली।
- अध्ययन के अनुसार, ग्रीष्मकाल में पिघले हुए जल के प्रणालीगत प्रवाह (Channelised Flow) के कारण गर्मियों में ‘ग्लेशियल सर्ज’ मे वृद्धि रुक जाती है।
ग्लेशियर:
- पृथ्वी पर परत के रूप में हिम प्रवाह या पर्वतीय ढालों से घाटियों में रैखिक प्रवाह के रूप में बहते हिम संहति को हिमनद कहते हैं।
ग्लेशियल सर्ज (Glacial surges):
- ‘ग्लेशियल सर्ज’ एक अल्पकालिक घटना है जिसमें ग्लेशियर की लंबाई तथा आयतन में वृद्धि देखने को मिलती है।
- इस प्रकार ग्लेशियर सर्ज की घटना हिमालय के अधिकांश ग्लेशियरों; जिनके आयतन तथा लंबाई में कमी देखी गई है, के विपरीत घटना है। इन ग्लेशियर की गति सामान्य से 100 गुना अधिक तक देखने को मिलती है।
ग्लेशियल सर्ज (Glacial surges) की चक्रियता:
- ग्लेशियर सर्ज अर्थात ग्लेशियरों के आगे बढ़ने की क्रिया एक स्थिर गति से न होकर चक्रीय प्रवाह के रूप में होती है।
- इस तरह के ग्लेशियरों के चक्रीय दोलन को सामान्यत: दो चरणों में वर्गीकृत किया गया है:
- सक्रिय (वृद्धि) चरण (Active Phase):
- इसमें ग्लेशियरों का तीव्र प्रवाह होता है तथा यह कुछ महीनों से कुछ वर्ष तक हो सकता है।
- निष्क्रिय चरण (Quiescent Phase):
- यह धीमी प्रक्रिया है तथा कई वर्षों तक कार्य करती है।
अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष:
- पूर्व में ऐसा माना जाता था कि ग्लेशियर की गति का निर्धारण ग्लेशियर की भौतिक विशेषताओं यथा- मोटाई, आकार तथा उस क्षेत्र द्वारा निर्धारित किया जाता है जहाँ ये ग्लेशियर पाए पाते हैं।
- वर्तमान में वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ग्लेशियरों की गति को न केवल उनकी भौतिक विशेषताओं से अपितु ये बाह्य कारकों से भी प्रभावित होती है।
- इन बाह्य कारकों में वर्षा की मात्रा और पिघला हुआ जल प्रमुख भूमिका निभाता है। यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इन दोनों कारकों में वैश्विक तापन के कारण वृद्धि होती है।
‘ग्लेशियर सर्ज’ चिंता विषय क्यों?
- ये ग्लेशियर काराकोरम के कुल हिमाच्छादित क्षेत्र के 40% का प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘ग्लेशियल सर्ज’ की घटना से से इन क्षेत्रों के गांवों, सड़कों और पुलों का विनाश हो सकता है।
- इससे 'झीलों में विस्फोट' की घटना देखने को मिल सकती है जिससे इन क्षेत्रों में बाढ़ की घटनाओं में वृद्धि देखी जा सकती है।
अध्ययन का महत्त्व:
- अध्ययन ग्लेशिययों के व्यवहार को समझने तथा बेहतर आपदा प्रबंधन योजना बनाने में मदद करेगा। इसके लिये ‘ग्लेशियर सर्ज’ की लगतार निगरानी की जानी चाहिये।
काराकोरम श्रेणी:
- काराकोरम और पीर पंजाल श्रेणी हिमालय श्रेणी के उत्तर-पश्चिम तथा दक्षिण में स्थित है। काराकोरम श्रेणी का एक बड़ा हिस्सा भारत और पाकिस्तान के मध्य विवादित है।
- काराकोरम की लंबाई लगभग 500 किमी. है तथा इसमें पृथ्वी की कई शीर्ष चोटियाँ स्थित हैं। K2; जिसकी ऊँचाई 8,611 मीटर है तथा जो दुनिया की दूसरी सबसे ऊँची चोटी है, काराकोरम श्रेणी में स्थित है।
- हिंदू-कुश श्रेणी जो काराकोरम श्रेणी का ही विस्तार माना जाता है अफगानिस्तान में स्थित है। ध्रुवीय क्षेत्रों के बाद काराकोरम में सबसे अधिक ग्लेशियर हैं। सियाचिन ग्लेशियर और बिआफो(Biafo) ग्लेशियर; जो दुनिया के क्रमश: दूसरे और तीसरे बड़े ग्लेशियर हैं, इस सीमा में स्थित हैं।
स्रोत: पीआईबी
भारतीय अर्थव्यवस्था
कैलाश मानसरोवर के लिये नवीन सड़क मार्ग
प्रीलिम्स के लिये:कैलाश मानसरोवर यात्रा के मार्ग, कैलाश पर्बत मेन्स के लिये:कैलाश मानसरोवर यात्रा |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय ‘रक्षा मंत्री’ (Defence Minister) ने उत्तराखंड में 80 किलोमीटर की सड़क को देश को समर्पित किया जो लिपुलेख दर्रे (Lipulekh Pass) से होकर कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिये एक नवीन मार्ग है।
प्रमुख बिंदु:
- इस 80 किलोमीटर लंबी ग्रीनफील्ड रोड का निर्माण ‘चाइना स्टडी ग्रुप’ (China Study Group- CSG) के निर्देशों के अनुसार किया गया है।
- यह सड़क परियोजना ‘भारत-चीन बॉर्डर रोड’ (Indo-China Border Road- ICBR) द्वारा वित्त पोषित है।
कैलाश पर्बत:
- कैलाश पर्बत मानसरोवर झील के आसपास के क्षेत्र में अवस्थित है जो उत्तराखंड की सीमा से 100 किमी. से भी कम दूरी पर है। कैलाश पर्बत को हिंदू, बौद्ध, जैन तथा बोन (Bon: तिब्बत का धर्म जो स्वयं की बौद्ध धर्म से अलग मानते हैं) धर्मों में पवित्र माना जाता है।
- हिंदुओं में कैलाश पर्बत को पारंपरिक रूप से भगवान शिव के निवास के रूप में मान्यता प्राप्त है। हिंदुओं द्वारा इसे पृथ्वी का केंद्र तथा स्वर्ग की अभिव्यक्ति माना जाता है।
लिपुलेख दर्रा:
- लिपुलेख दर्रा 17,000 फीट की ऊँचाई पर भारत, चीन और नेपाल के त्रि-जंक्शन के करीब उत्तराखंड में अवस्थित है।
नवीन लिपुलेख सड़क मार्ग:
- इस सड़क मार्ग का निर्माण ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ (Line of Actual Control- LAC) के करीब उत्तराखंड में किया गया है। यह सड़क काली नदी; जो भारत-नेपाल सीमा का निर्माण करती है, के साथ संरेखित है।
- इस सड़क का निर्माण होने से 'सीमा सड़क संगठन' (Border Roads Organisation- BRO) द्वारा किया गया है। यह सड़क धारचूला (Dharchula) को लिपुलेख (चीन सीमा पर) को जोड़ती है।
- इस सड़क परियोजना को 'सुरक्षा पर कैबिनेट समिति' (Cabinet Committee on Security- CCS) द्वारा वर्ष 2005 में मंज़ूरी दी गई थी तथा इसे वर्ष 2022 तक पूरा किया जाना था।
- वर्ष 2018 में इस परियोजना की कुल लागत 439.40 करोड़ रुपए निर्धारित की गई थी।
लिपुलेख दर्रे से कैलाश मानसरोवर यात्रा:
- कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिये इस नवीन मार्ग में दूरी को निम्नलिखित परिवहन माध्यमों तथा मार्गों से तय किया जाएगा।
- दिल्ली से पिथौरागढ़ तक की 490 किमी. की दूरी सड़क मार्ग से;
- पिथौरागढ़ से घाटिबगढ़ (Ghatiabgarh) तक 130 किमी. सड़क मार्ग से;
- घाटिबगढ़ से लिपुलेख दर्रा (चीन सीमा तक) तक 79 किमी.पैदल मार्ग से;
- चीन की सीमा में 5 किमी. की दूरी पैदल मार्ग से तथा उसके बाद 97 किमी. की दूरी सड़क मार्ग से तय की जाती है।
- 43 किमी. लंबाई की पैदल परिक्रमा सड़क द्वारा तय की जाती है।
नवीन मार्ग का महत्त्व:
- प्रथम, नवीन मार्ग की लंबाई कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिये उपलब्ध अन्य मार्गों की तुलना में लगभग पाँचवें हिस्से के बराबर है। अत: नवीन मार्ग लंबाई में सबसे छोटा तथा यात्रा खर्च के अनुसार सबसे सस्ता है।
- द्वितीय, नवीन मार्ग की संपूर्ण दूरी पैदल या वाहनों से तय की जाएगी तथा इसमें कोई हवाई यात्रा शामिल नहीं है।
- तृतीय, इस इस मार्ग से की जाने वाली यात्रा मार्ग का लगभग 84% हिस्सा भारत में है, केवल 16% हिस्सा ही चीन में है। जबकि अन्य मार्गों का लगभग 80% हिस्सा चीन में स्थित है।
- चतुर्थ, लिपुलेख दर्रे पर चीनी सीमा में 5 किमी के मार्ग को छोड़कर लगभग संपूर्ण यात्रा अब वाहनों द्वारा की जा सकेगी।
कैलाश मानसरोवर यात्रा के अन्य मार्ग:
- वर्तमान में कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिये दो अन्य मार्ग; सिक्किम मार्ग और दूसरा काठमांडू मार्ग, हैं।
- सिक्किम मार्ग:
- सिक्किम मार्ग से कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिये सर्वप्रथम दिल्ली से 1115 किमी. दूर स्थित बागडोगरा (पश्चिम बंगाल) के लिये उड़ान भरी जाती है, उसके बाद 1665 किमी. की दूरी सड़क द्वारा तय की जाती है। 43 किमी. पैदल परिक्रमा पैदल चलकर तय की जाती है।
- काठमांडू मार्ग:
- सर्वप्रथम दिल्ली से 1150 किमी. दूरी पर स्थित काठमांडू के लिये की उड़ान भरी जाती है तथा उसके बाद 1940 किमी. की दूरी सड़क मार्ग से (या दो हवाई उड़ानों एवं हेलीकाप्टर से) तथा 43 किमी. की परिक्रमा पैदल चलकर तय की जाती है।
स्रोत: द हिंदू
विविध
Rapid Fire (करेंट अफेयर्स): 09 मई, 2020
ओलिव रिडले कछुए
इस वर्ष मार्च महीने में ओड़िशा के समुद्र तट (रुशिकुल्या नदी के मुहाने के पास) पर लगभग 7 लाख 90 हजार ओलिव रिडले कछुओं (Olive Ridley turtles) अंडे देने के लिये पहुँचे थे जिनसे अब लाखों की संख्या में छोटे-छोट बच्चे बाहर निकल आए हैं। जिसके चलते उड़ीसा का समुद्र तट इन नन्हें कछुओं से भर चुका हैं। ओलिव रिडले समुद्री कछुओं (Lepidochelys Olivacea) को ‘प्रशांत ओलिव रिडले समुद्री कछुओं’ के नाम से भी जाना जाता है। यह मुख्य रूप से प्रशांत, हिंद और अटलांटिक महासागरों के गर्म जल में पाए जाने वाले समुद्री कछुओं की एक मध्यम आकार की प्रजाति है। ये माँसाहारी होते हैं। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम करने वाला विश्व का सबसे पुराना और सबसे बड़ा संगठन आईयूसीएन (IUCN) द्वारा जारी रेड लिस्ट में इसे अतिसंवेदनशील (Vulnerable) प्रजातियों की श्रेणी में रखा गया है। ओलिव रिडले कछुए हज़ारों किलोमीटर की यात्रा कर ओडिशा के गंजम तट पर अंडे देने आते हैं और फिर इन अंडों से निकले बच्चे समुद्री मार्ग से वापस हज़ारों किलोमीटर दूर अपने निवास-स्थान पर चले जाते हैं।
विश्व रेडक्रॉस दिवस
विश्व भर में 8 मई को ‘विश्व रेड क्रॉस दिवस’ (World Red Cross Day) मनाया जाता है। ‘रेड क्रॉस’ एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था है जो बिना किसी भेदभाव के युद्ध, महामारी एवं प्राकृतिक आपदा की स्थिति में लोगों की रक्षा करती है। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य विपरीत परिस्थितियों में लोगों के जीवन को बचाना है। उल्लेखनीय है कि रेड क्रॉस के जनक ‘जीन हेनरी ड्यूनैंट’ का जन्म 8 मई, 1828 को हुआ था। जिनके जन्मदिन को ही ‘विश्व रेड क्रॉस दिवस’ (World Red Cross Day) के तौर पर मनाया जाता है। ध्यातव्य है कि समाज की भलाई के लिये किये गए कार्यों को देखते हुए उन्हें वर्ष 1901 में पहला नोबेल शांति पुरस्कार मिला था। ‘इंटरनेशनल कमेटी ऑफ द रेड क्रॉस’ (ICRC) की स्थापना जीन हेनरी ड्यूनैंट द्वारा वर्ष 1863 में हुई थी। इसका मुख्यालय स्विटज़रलैंड के जेनेवा में है। गौरतलब है कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद फैली त्रासदी एवं सैनिकों की लाशों के साथ किये गए अमानवीय व्यवहार को देखते हुए एक ऐसी संस्था की जरूरत महसूस की गई जो विपरीत स्थिति में बिना भेदभाव के काम कर सके। ICRC को तीन अवसरों (1917, 1944 और 1963 में) पर नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। भारत में ‘इंडियन रेडक्रॉस सोसाइटी’ का गठन वर्ष 1920 में हुआ था।
e-mail के जरिये राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों का नामांकन
राष्ट्रीय खेल पुरस्कारों में विभिन्न पहलुओं को शामिल करते हुए खिलाड़ियों को देश का सर्वोच्च खेल पुरस्कार ‘राजीव गांधी खेल रत्न’ एवं ‘अर्जुन पुरस्कार’ प्रदान किये जाते हैं। खेलों के प्रशिक्षण क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिये ‘द्रोणाचार्य पुरस्कार’ दिया जाता है जबकि ‘ध्यान चंद पुरस्कार’ लाइफटाइम एचीवमेंट के लिये दिया जाता है। गौरतलब है कि इस बार खेल मंत्रालय ने COVID-19 के प्रकोप के कारण लॉकडाउन के चलते नामांकन की कागज़ी प्रक्रिया के बजाय ऑनलाइन प्रक्रिया (ईमेल द्वारा) को अपनाया है।