देश की जनसंख्या वृद्धि दर में गिरावट
चर्चा में क्यों?
हाल ही में जारी आर्थिक सर्वेक्षण (Economic Survey) 2018-19 के अनुसार भारत की जनसंख्या वृद्धि दर अनुमान की अपेक्षा और अधिक तेज़ी से घटेगी।
मुख्य बिंदु
- आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, आने वाले दो दशकों में भारत अपनी जनसंख्या वृद्धि में तेज़ी से गिरावट दर्ज़ करेगा और इसी के साथ-साथ भविष्य में भारत को जनसांख्यिकीय लाभांश (Demographic Dividend) भी प्राप्त होगा।
- लेकिन इसी समयावधि में भारत के समक्ष अपनी जनसंख्या की बढ़ती उम्र को प्रबंधित करना सबसे बड़ी चुनौती होगी।
मुख्य आर्थिक सलाहकार केवी सुब्रमण्यन ने 4 जुलाई, 2019 को, चालू वित्त वर्ष का बजट पेश करने से एक दिन पहले आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया था।
- भारत में 13 राज्य ऐसे हैं जहाँ कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rates- TFR) प्रतिस्थापन दर से भी नीचे है।
- बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे घनी आबादी वाले राज्यों में प्रजनन दर, प्रतिस्थापन दर से ऊपर है, लेकिन राहत की बात यह है कि प्रजनन दर पहले की तुलना में तेज़ी से घट रही है।
- सर्वेक्षण के पूर्वानुमान के अनुसार, अगले दो वर्षों में भारत की कुल प्रजनन दर, प्रतिस्थापन दर से कम हो जाएगी।
- भारत की कार्य करने योग्य जनसंख्या वर्ष 2021-31 के दौरान 9.7 मिलियन प्रतिवर्ष की दर से बढ़ेगी, जबकि वर्ष 2031-41 के मध्य यह संख्या मात्र 4.2 मिलियन ही रह जाएगी।
- वर्ष 2021 से वर्ष 2041 के बीच भारत में स्कूल जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या में 18.4 प्रतिशत की कमी होगी।
- सर्वेक्षण के अनुसार, उपरोक्त कमी के बहुत महत्त्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक परिणाम होंगे।
- वर्ष 1971-81 के दौरान भारत की जनसंख्या वृद्धि दर 2.5 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2011-16 में 1.3 प्रतिशत हो गई। आँकड़े दर्शाते हैं कि वर्ष 1970-80 से अब तक भारत की जनसंख्या वृद्धि दर में काफी गिरावट आई है।
जनसांख्यिकीय लाभांश
(Demographic Dividend)
- भारत में युवाओं की एक बहुत बड़ी संख्या ऐसी है जो अकुशल और बेरोज़गार है तथा अर्थव्यवस्था में उनका योगदान न्यूनतम है। किसी भी देश के लिये उसकी युवा जनसंख्या जनसांख्यिकीय लाभांश होती है, यदि वह कुशल, रोज़गारयुक्त और अर्थव्यवस्था में योगदान देने वाली हो।
प्रजनन दर
- प्रजनन दर का अभिप्राय बच्चे पैदा कर सकने की आयु (जो आमतौर पर 15 से 49 वर्ष की मानी जाती है) वाली प्रति 1000 स्त्रियों की इकाई पर जीवित जन्मे बच्चों की संख्या से होता है।
प्रतिस्थापन दर
- यह एक ऐसी अवस्था होती है जिसमें जितने बूढ़े लोग मरते हैं उनका खाली स्थान भरने के लिये उतने ही बच्चे पैदा हो जाते हैं। कभी-कभी कुछ समाजों को ऋणात्मक प्रतिस्थापन दर का भी सामना करना पड़ता है; अर्थात् उनकी कुल प्रजनन दर उनकी कुल प्रतिस्थापन दर से कम हो जाती है। जापान, रूस, इटली एवं पूर्वी यूरोप सहित आज विश्व में ऐसे कई सारे देश हैं जहाँ यह स्थिति बनी हुई है।
स्रोत: डाउन टू अर्थ
कॉस्मिक किरणों का पृथ्वी पर प्रभाव
चर्चा में क्यों?
वैज्ञानिकों द्वारा किये गए शोध के अनुसार, अंतरिक्ष से पृथ्वी पर पड़ने वाले उच्च-ऊर्जा विकिरण (High-Energy Radiation) बादलों के आवरण (Cloud Cover) में वृद्धि करके ‘अम्ब्रेला इफ़ेक्ट’ (Umbrella Effect) जैसी स्थिति बनाते हैं, जो पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित कर सकते हैं।
प्रमुख बिंदु
- इन उच्च-ऊर्जा विकिरण (High-Energy Radiation) को गेलेक्टिक कॉस्मिक किरणें (Galactic Cosmic Rays) भी कहा जाता है।
- वायुमंडलीय तापमान तथा वायु में उपस्थित जलवाष्प की मात्रा के साथ-साथ अंतरिक्ष के माध्यम से आने वाली कॉस्मिक किरणें भी बादल बनने की दिशा में योगदान करती हैं।
- साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल (Scientific Reports Journal) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, गेलेक्टिक कॉस्मिक किरणें बादलों के निर्माण में वृद्धि करती हैं या वैश्विक स्तर पर बादलों के आवरण (Cloud Cover) को बढ़ा सकती हैं इससे अंततः पृथ्वी का वातावरण प्रभावित होता है।
- हालाँकि जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) के मौसम संबंधी आँकड़ों के आधार पर किये गए पिछले अध्ययन इस बात को सही साबित नहीं करते।
- इस अध्ययन के लिये जापान में कोबे विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं ने 7,80,000 साल पहले पृथ्वी पर हुए अंतिम भू-चुंबकीय उत्क्रमण (Geomagnetic Reversal Transition) का विश्लेषण किया।
- इस अवधि के दौरान पृथ्वी की चुंबकीय शक्ति एक-चौथाई से भी कम हो गई और गेलेक्टिक कॉस्मिक किरणों में 50 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई।
कॉस्मिक किरणें/ गेलेक्टिक कॉस्मिक किरणें
- कॉस्मिक किरणें उच्च ऊर्जा वाले कण होते हैं, जो अंतरिक्ष के वाह्य भाग में उत्पन्न होती हैं। इनकी गति लगभग प्रकाश की गति के समान होती है और पृथ्वी के चारों तरफ पाई जाती हैं।
- अधिकांश कॉस्मिक किरणें आवर्त सारणी में सबसे हल्के तत्त्वों से लेकर सबसे भारी तत्त्व तक परमाणुओं की नाभिक में होती हैं। कॉस्मिक किरणों में उच्च ऊर्जा इलेक्ट्रॉन, पॉज़िट्रॉन और अन्य उप-परमाणु कण भी शामिल होते हैं।
- शब्द ‘कॉस्मिक किरणें’ आमतौर पर गेलेक्टिक कॉस्मिक किरणों को संदर्भित करता है, जो सौर प्रणाली के वाह्य स्रोतों में उत्पन्न होती हैं।
अम्ब्रेला इफ़ेक्ट
‘Umbrella Effect’
- यह पर अम्ब्रेला इफ़ेक्ट पृथ्वी के शीतलन को संदर्भित करता है, क्योंकि कॉस्मिक किरणें निम्न स्तर के बादलों को बढ़ाती हैं जो सूर्य के प्रकाश को अवरुद्ध करती हैं जिससे यह अम्ब्रेला/छाता के रूप में कार्य करता है।
चुंबकत्व वह प्रक्रिया है, जिसमें एक वस्तु दूसरी वस्तु पर आकर्षण या प्रतिकर्षण बल लगाती है।
- सभी वस्तुएँ न्यूनाधिक मात्रा में चुंबकीय क्षेत्र की उपस्थिति से प्रभावित होती हैं।
- पृथ्वी भी चुंबकीय क्षेत्र प्रदर्शित करती है। इसे ‘भू-चुंबकत्व’ कहते हैं।
- पृथ्वी एक विशाल चुंबक है, जिसका अक्ष लगभग पृथ्वी के घूर्णन अक्ष पर पड़ता है। यह मुख्यत: ‘द्वि-ध्रुवीय’ है और पृथ्वी के आंतरिक क्रोड से उत्पन्न होता है। वहीं, शीतल ज्वालामुखी लावा, जमी हुई तलछट और प्राचीन ईंट प्रेरित चुंबकत्व का अध्ययन ‘पुरा-चुंबकत्व’ कहलाता है।
- ‘पुरा-चुंबकत्व’ शताब्दियों, सहस्त्राब्दियों और युगों पूर्व के भू-चुंबकीय परिवर्तनों की जानकारी प्रदान करता है।
- शोधकर्त्ताओं ने अपने अध्ययन में वार्षिक औसत तापमान में 2-3 डिग्री सेल्सियस की गिरावट तथा जापान में ओसाका खाड़ी में तलछट से वार्षिक तापमान में वृद्धि के प्रमाण भी प्राप्त किये।
- शोधकर्त्ताओं के अनुसार, वर्तमान में जलवायु परिवर्तन की घटनाओं में वृद्धि के साथ ग्लोबल वार्मिंग में गेलेक्टिक कॉस्मिक किरणों की भूमिका को समझना महत्त्वपूर्ण हो सकता है।
- यह जलवायु पर बादलों के प्रभाव का अध्ययन करने का अवसर प्रदान करता है।
निष्कर्ष
- जब गेलेक्टिक कॉस्मिक किरणें बढ़ती हैं, तब निम्न बादल बनते हैं और जब कॉस्मिक किरणें कम हो जाती हैं तो बादल वैसे ही रहते हैं, जलवायु में परिवर्तन होने का कारण अपोज़िट- अम्ब्रेला इफ़ेक्ट (Opposite-Umbrella Effect) हो सकता है।
- वर्तमान के ग्लोबल वार्मिंग के साथ-साथ मध्ययुगीन काल की गर्म अवधि का अध्ययन करने में गेलेक्टिक कॉस्मिक किरणों के कारण उत्पन्न अम्ब्रेला इफ़ेक्ट अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल
Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC
- जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) जलवायु परिवर्तन से संबंधित वैज्ञानिक आकलन करने हेतु संयुक्त राष्ट्र का एक निकाय है जिसमें 195 सदस्य देश हैं।
- इसे संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) द्वारा वर्ष 1988 में स्थापित किया गया था।
- इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन, उसके प्रभाव और भविष्य के संभावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा जलवायु परिवर्तन को कम करने हेतु नीति निर्माताओं को रणनीति बनाने के लिये नियमित वैज्ञानिक आकलन प्रदान करना है।
- IPCC आकलन सभी स्तरों पर सरकारों को वैज्ञानिक सूचनाएँ प्रदान करता है जिसका इस्तेमाल जलवायु के प्रति उदार नीति विकसित करने के लिये किया जा सकता है।
- IPCC आकलन जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय वार्ताओं में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
स्रोत- डाउन टू अर्थ
पिघल रही है शीत कटिबंध की बर्फ
चर्चा में क्यों?
वैज्ञानिक एजेंसियों द्वारा जारी नए आँकड़ों के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग के कारण आर्कटिक और अंटार्कटिक के आसपास की बर्फ तेज़ी से पिघल रही है।
प्रमुख बिंदु
- उल्लेखनीय है कि यह परिघटना शीत कटिबंध (Frigid Zone) पर ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव के बारे में जलवायु वैज्ञानिकों की चेतावनी को सही साबित करती है।
- जलवायु वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग की वजह से चरम मौसमी घटनाओं की बारंबारता में वृद्धि, जलवायु परिवर्तनशीलता और जलवायु पैटर्न की अस्थिरता की चेतावनी देते रहे हैं।
- यूएस नेशनल स्नो एंड आइस डेटा सेंटर (US National Snow and Ice Data Center) के एक अध्ययन के अनुसार, आर्कटिक महासागर में जून 2016 के बाद वर्तमान में दूसरी सबसे कम बर्फ की मात्रा दर्ज की गई है।
- अध्ययन में यह भी कहा गया कि आर्कटिक महासागर की समुद्री सतह का तापमान चुक्सी सागर (Chukchi Sea) के तापमान से 5 डिग्री सेल्सियस अधिक है। साथ ही लाप्तेव सागर (Laptev Sea) और कारा सागर (Kara Sea) में जल की मात्रा बैफिन खाड़ी और दक्षिण-पूर्वी ग्रीनलैंड तट की अपेक्षा बढ़ रही है।
- विश्व मौसम संगठन (WMO) के अनुसार, अंटार्कटिक और आर्कटिक समुद्री बर्फ की मात्रा रिकॉर्ड स्तर पर कम हुई है।
- नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज के अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1970 से वर्ष 2014 तक बर्फ की मात्रा में बढ़ोतरी देखी गई, जबकि वर्ष 2014 से वर्ष 2017 के बीच बर्फ की मात्रा में कमी आने लगी।
- आर्कटिक महासागर के गर्म होने से उत्तरी गोलार्द्ध में पछुवा और जेट स्ट्रीम भी प्रभावित होगी। इससे मौसमी पैटर्न में बदलाव के साथ चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति में वृद्धि होगी और जलवायु में अस्थिरता बढ़ जाएगी।
- IPCC ने अपनी रिपोर्ट में भी 21वीं सदी के अंत तक आर्कटिक महासागर के तापमान में 8 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी का अनुमान व्यक्त किया है।
शीत कटिबंध
- 66 डिग्री के ऊपर की अक्षांशीय स्थिति को शीत कटिबंध या फ्रिज़िड ज़ोन (Frigid Zone) कहते हैं।
- शीत कटिबंध क्षेत्र में सूर्य की किरणें क्षितिज से ज्यादा ऊपर नहीं आ पाती है। इसलिये यहाँ का औसत तापमान काफी कम रहता है और बर्फ की उपस्थिति भी वर्ष के महीनों तक बनी रहती है।
- वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस क्षेत्र की बर्फ तेज़ी से पिघल रही है जिसके परिणामस्वरूप चरम मौसमी घटनाओं की बारंबारता बढ़ रही है साथ ही जलवायु अध्ययनों में दीर्घकालिक जलवायु अस्थिरता का भी अनुमान व्यक्त किया जा रहा है।
- अमेरिका, कनाडा, आइसलैंड, नार्वे, फिनलैंड, स्वीडन, रूस इत्यादि देश फ्रिज़िड ज़ोन में स्थित हैं।
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम
सेंट्रल वेलफेयर डेटाबेस
चर्चा में क्यों?
आर्थिक सर्वेक्षण 2018-2019 को लोकसभा में पेश किया गया। विभिन्न मंत्रालयों और विभागों के आँकड़ो को मिलाकर नागरिकों का सेंट्रल वेलफेयर डेटाबेस तैयार किया जा रहा है, जिससे सभी नागरिकों और विशेष रूप से गरीबों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने में आसानी होगी।
प्रमुख बिंदु :
- आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया कि सरकार जनता की भलाई के लिये डेटा गोपनीयता के कानूनी ढाँचे के भीतर डेटाबेस तैयार कर सकती है।
- डेटा गोपनीयता की सुरक्षा के लिये कठोर तकनीकी तंत्र कि मौजूदगी की भी बात कही गयी हैं।
- पैन कार्ड, आधार संख्या और मोबाइल नंबर आदि की सुरक्षा को लेकर आश्वस्त किया गया है। इस बात को भी स्पष्ट किया गया है कि बैंक में जुड़े मोबाइल, पैन और आधार जैसे डेटा का प्रयोग बैंक केवल बेनामी और फर्जी खातों की जाँच के लिये करता है। सरकार और UIDAI इस डेटा का प्रयोग लोगों और उनकी बैंक खातों की जानकारी प्राप्त करने के लिये नही कर सकते हैं।
- लोगों के डेटा का प्रयोग लोगों के लिये किया जाएगा, इस सिद्धांत का भी जिक्र किया गया है।
- सरकार के विभिन्न विभागों के पास प्रशासनिक, संस्थागत, लेनदेन और सर्वे का का ढेर सारा बिखरा हुआ डेटा पड़ा है, इस डेटा को एक विभाग के पास एकत्र करके इसके बेहतर प्रयोग का प्रयास किया जाएगा।
- इस डेटा का प्रयोग लोगों का जीवन स्तर उठाने, साक्ष्य आधारित नीति बनाने, कल्याणकारी योजनाओं, बाज़ारों को एकीकृत करने, लोक सेवाओं के प्रति अधिक जवाबदेह बनाने और शासन में लोगों की सहभागिता बढ़ाने में किया जाएगा।
- विभिन्न प्रकार के प्रशासनिक डेटा यथा: जन्म और मृत्यु प्रमाणपत्र, पेंशन, कर रिकॉर्ड, शादी का रिकॉर्ड; विभिन्न प्रकार के सर्वे यथा: जनसंख्या का डेटा, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण डेटा; विभिन्न प्रकार के लेनदेन डेटा यथा: ई-नाम (E-NAM) डेटा, UPI डेटा, संस्थागत डेटा और सरकारी अस्पतालों के मरीजों से संबंधित डेटा को मिलाकर एक डेटा बेस तैयार किया जाएगा।
- इस प्रकार के डेटा का प्रयोग व्यावसायिक लाभ के बजाय सामाजिक लाभ के लिये किया जाएगा।
स्रोत : द हिन्दू
मियावाकी पद्धति
चर्चा में क्यों ?
तेलंगाना सरकार ने जापानी वृक्षारोपण ‘मियावाकी पद्धति’ (Miyawaki method) की तर्ज़ पर तेलंगानाकु हरिता हरम (Telanganaku Haritha Haaram- TKHH) योजना की शुरुआत की है जिसका उद्देश्य शहरी क्षेत्रों में वृक्षारोपण को बढ़ावा देना है।
प्रमुख बिंदु
- मियावाकी पद्यति के प्रणेता जापानी वनस्पति वैज्ञानिक अकीरा मियावाकी (Akira Miyawaki) हैं। इस पद्यति से बहुत कम समय में जंगलों को घने जंगलों में परिवर्तित किया जा सकता है।
- इस योजना ने घरों के आगे अथवा पीछे खाली पड़े स्थान (Backyards) को छोटे बागानों में बदलकर शहरी वनीकरण की अवधारणा में क्रांति ला दी है।
- इस पद्धति में देशी प्रजाति के पौधे एक दूसरे के समीप लगाए जाते हैं, जो कम स्थान घेरने के साथ ही अन्य पौधों की वृद्धि में भी सहायक होते हैं।
- सघनता की वज़ह से ये पौधे सूर्य की रौशनी को धरती पर आने से रोकते हैं, जिससे धरती पर खरपतवार नहीं उग पाता है। तीन वर्षों के पश्चात् इन पौधों को देखभाल की आवश्यकता नही होती है।
- पौधे की वृद्धि 10 गुना तेज़ी से होती है जिसके परिणामस्वरूप वृक्षारोपण सामान्य स्थिति से 30 गुना अधिक सघन होता है।
- जंगलों को पारंपरिक विधि से उगने में लगभग 200 से 300 वर्षों का समय लगता है, जबकि मियावाकी पद्धति से उन्हें केवल 20 से 30 वर्षों में ही उगाया जा सकता है।
मियावाकी पद्धति
- सर्वप्रथम क्षेत्र विशेष के मूल पेड़ों की पहचान की जाती है और उन्हें चार भागों में विभाजित किया जाता है-
- झाड़ी (Shurb)
- छोटे पेड़ (Sub-Tree )
- पेड़
- कैनोपी (canopy)
- मिट्टी की गुणवत्ता का विश्लेषण करने के पश्चात् इसमें बायोमास (Biomass) मिलाया जाता है जो मिट्टी की जल धारण क्षमता तथा इसमें पोषक तत्वों को बढ़ाने में मदद करता है।
- हालाँकि कई पर्यावरणविदों ने इस पद्धति के तहत होने वाले वृद्धि और विकास पर सवाल उठाया है।
- पर्यावरणविदों के अनुसार, पौधों को तीव्र प्रकाश संश्लेषण की क्रिया हेतु उत्तेजित करना उचित नहीं है।
स्रोत: द हिंदू
मानव एटलस पहल
चर्चा में क्यों?
हाल ही में मानव शरीर के सभी ऊतकों की आणविक संरचनाओं का एक एकीकृत डेटाबेस बनाने और मानव शरीर की क्रियाविधि का एक समग्र रूप से खाका खींचने हेतु एक नई पहल ’मानव एटलस’ शुरू की गई है।
प्रमुख बिंदु
- ‘मानव’ नामक परियोजना को जैव प्रौद्योगिकी विभाग और जैव प्रौद्योगिकी कंपनी पर्सिसटेंट सिस्टम (Persistent Systems) द्वारा शुरू किया गया है।
- इस वृहद परियोजना के अंतर्गत मानव ऊतकों और अंगों की आणविक जानकारियाँ अर्जित तथा एकीकृत की जाएगी जो वर्तमान में विभिन्न शोध-पत्रों में अव्यवस्थित रूप से लिखित हैं।
- यह डेटाबेस शोधकर्त्ताओं को मौज़ूदा कमियों को सुधारने और भविष्य में रोगों की पहचान एवं उसके निदान से जुडी परियोजनाओं में मदद करेगा।
- इस परियोजना का विचार स्मार्ट इंडिया हैकाथॉन की सफलता से आया। स्मार्ट इंडिया हैकाथॉन एक राष्ट्रव्यापी प्रतियोगिता है, जिसमें बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों ने भाग लिया तथा इन विद्यार्थियों को समस्याओं का समाधान खोजने हेतु प्रोत्साहित किया गया।
- उसी तरह से ‘मानव’ (MANAV) जीव विज्ञान के छात्रों को जीव विज्ञान से जुड़ा साहित्य पढ़ने में,अपने कौशल को निखारने और जैविक प्रणाली के बारे में अपनी समझ को उन्नत करने में सहायता करेगी।
- इस सार्वजनिक-निजी उपक्रम में DBT और Persistent Systems क्रमशः 13 करोड़ एवं 7 करोड़ रुपए का निवेश करेंगे।
- इस परियोजना को भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (Indian Institute of Science Education and Research- IISER) और पुणे स्थित नेशनल सेंटर फॉर सेल साइंसेज (National Center for Cell Sciences- NCCS) द्वारा निष्पादित किया जाएगा।
- गौरतलब है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा स्थापित स्वायत्त संस्थान है। NCCS भी एक स्वायत्त संगठन है, जो जैव प्रौद्योगिकी विभाग, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय द्वारा सहायता प्राप्त है।
- इस परियोजना के अंतर्गत संस्थान छात्रों को प्रशिक्षित करेंगे तथा डेटा प्रबंधन एवं प्रौद्योगिकी मंच निजी भागीदार द्वारा प्रदान किया जाएगा।
- इस परियोजना में DBT के सर्वश्रेष्ठ कॉलेजों और जैव प्रौद्योगिकी सूचना नेटवर्क प्रणाली (Biotechnology Information network system- BTIS) के छात्र और संकाय भी शामिल होंगे।
- इस परियोजना की टीम अन्य एजेंसियों जैसे कि अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (All India Council of Technical Education- AICTE), वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (Council of Scientific and Industrial Research- CSIR), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission- UGC) और भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (Indian Council of Medical Research-ICMR) के साथ सहयोग हेतु बातचीत कर रही है।
- वर्ष 2016 में भी इसी तरह का एक मानव सेल एटलस प्रोजेक्ट (Human Cell Atlas project) वैज्ञानिकों के बीच एक सहयोगी प्रयास के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शुरू किया गया था।
- इस परियोजना में सिंगल सेल जीनोमिक्स (Single Cell Genomics) जैसी तकनीकों के माध्यम से अपने सामान्य और रोग के दौरान शरीर में विभिन्न प्रकार की कोशिकीय और आणविक गतिविधियों से संबंधित डेटाबेस का निर्माण किया जाएगा।
- भारतीय परियोजना कोशिकाओं संबंधी जानकारी प्राप्त करने के लिये पहले से ही उपलब्ध ज्ञान के आधार पर निर्भर करती है।
- इस परियोजना के दौरान विकसित डेटा पद्धति और तकनीकी प्लेटफॉर्म को अन्य विज्ञान संबंधी परियोजनाओं जैसे-जैवविविधता, पारिस्थितिकी, पर्यावरण आदि में भी प्रयोग किया जा सकता है।
स्रोत: डाउन टू एअर्थ
भारतीय चिकित्सा परिषद (संशोधन) विधेयक
चर्चा में क्यों?
हाल ही में संसद ने भारतीय चिकित्सा परिषद (संशोधन) विधेयक, 2019 [Indian Medical Council (Amendment) Bill, 2019] पारित किया है।
प्रमुख बिंदु
- यह विधेयक भारतीय चिकित्सा परिषद (संशोधन) द्वितीय अध्यादेश, 2019 को प्रतिस्थापित करेगा, जिसे 21 फरवरी, 2019 को प्रवर्तित किया गया था।
- यह विधेयक भारतीय चिकित्सा परिषद (Medical Council of India- MCI) की समयावधि को तीन वर्ष से घटाकर दो वर्ष करने से संबंधित है। इसी अवधि के दौरान सरकार द्वारा गठित भारतीय चिकित्सा परिषद् के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स इंडियन मेडिकल काउंसिल (IMC) अधिनियम, 1956 के तहत प्राप्त शक्तियों और कार्यों का उपयोग करेंगे।
- 1956 का अधिनियम MCI के गठन की तिथि से तीन वर्ष की अवधि के भीतर इसके पुनर्गठन का प्रावधान करता है। इस अंतरिम अवधि में, इस अधिनियम के अंतर्गत MCI को प्राप्त शक्तियों का उपयोग करने के लिये केंद्र सरकार को एक बोर्ड ऑफ गवर्नर्स के गठन की आवश्यकता होती है।
- इस विधेयक के द्वारा केंद्र सरकार द्वारा गठित बोर्ड को मज़बूत बनाने हेतु इसके सदस्यों की संख्या 7 से बढ़ाकर 12 कर दी गई।
- सरकार शीघ्र ही राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (National Medical Commission -NMC) विधेयक लेकर आएगी जो MCI को एक राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (National Medical Commission -NMC) से प्रतिस्थापित करेगा और भारत में चिकित्सा शिक्षा प्रणाली का निरीक्षण एवं जाँच भी करेगा।
पृष्ठभूमि
- मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1956 के तहत मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (MCI) की स्थापना की गई थी, जो चिकित्सा व्यवसाय-संबंधी, नए मेडिकल कॉलेजों के बीच पाठ्यक्रम के पुनरीक्षण मानक तय करता हैं।
- MCI के पदाधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों और मेडिकल कॉलेजों की अपारदर्शी मान्यता (opaque accreditation) की जांच के आरोपों के बीच, सुप्रीम कोर्ट ने मई 2016 में सरकार को यह निर्देश दिया था कि नए कानून आने तक MCI के सभी वैधानिक कार्यों की देखरेख हेतु एक निगरानी समिति का गठन किया जाए। जिसे MCI की सभी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
- वर्ष 2017 में, पहली समिति के एक वर्ष के कार्यकाल की समाप्ति के बाद, शीर्ष अदालत की मंज़ूरी मिलने के पश्चात् एक और निगरानी समिति बनाई गई। हालांकि, समिति ने MCI द्वारा उसके निर्देशों का पालन नहीं करने का हवाला देते हुए जुलाई 2018 में इस्तीफा दे दिया।
- देश में चिकित्सा शिक्षा के संचालन में पारदर्शिता, जवाबदेही और गुणवत्ता लाने के लिये हेतु भारतीय चिकित्सा परिषद (संशोधन) अध्यादेश, 2018 के माध्यम से MCI को भंग करने का निर्णय लिया गया। इससे संबंधित मामलों को एक बोर्ड ऑफ गवर्नर्स को सौंपा गया जिसमें विशिष्ट चिकित्सकों को शामिल किया गया था। जो 26 सितंबर 2018 को लागू हुआ।
स्रोत: द हिंदू
Rapid Fire करेंट अफेयर्स (06 July)
- सरकार ने लोकसभा में जानकारी देते हुए बताया कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत अब तक ग्रामीण भारत में 9.8 करोड़ से भी ज्यादा शौचालयों का निर्माण किया गया है। राष्ट्रीय स्वच्छता कवरेज़ आज 99 प्रतिशत से अधिक हो गया है, जबकि 2014 में यह 39 प्रतिशत था। इस प्रकार स्वच्छ भारत मिशन अक्तूबर, 2019 तक खुले में शौच से मुक्त (ODF) भारत के लक्ष्य को प्राप्त करने की राह पर है। स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत 5.57 लाख से अधिक गाँव और 616 जिले खुले में शौच से मुक्त घोषित किये गए हैं। अब तक 30 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों ने स्वयं को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया है। ज्ञातव्य है कि 2 अक्तूबर, 2014 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली के मंदिर मार्ग पुलिस स्टेशन के पास स्वयं झाड़ू लगाकर स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) स्वच्छ भारत अभियान की तारीफ करते हुए कह चुका है कि इसकी वज़ह से अक्तूबर 2014 और अक्तूबर 2019 के बीच तीन लाख से अधिक लोगों को मौत के मुँह में जाने से बचा लिया जाएगा।
- 20 साल तक चली बातचीत के बाद यूरोपीय संघ और दक्षिणी अमेरिकी इकोनॉमिक ब्लॉक ने मुक्त व्यापार समझौते पर सहमति जताई है। इस ब्लाक को मर्कोसुर (Mercosur) के नाम से जाना जाता है तथा अर्जेंटीना, ब्राज़ील, पराग्वे और उरुग्वे जैसे देश इसके सदस्य हैं। वेनेज़ुएला भी इसका सदस्य था, लेकिन समूह के आधारभूत मानकों को पूरा न कर पाने के कारण उसे वर्ष 2016 में इससे हटा दिया गया। इस समझौते का उद्देश्य ट्रेड टैरिफ हटाना, उपभोक्ताओं के लिये आयातित उत्पाद सस्ते करना और दोनों पक्षों के देशों में कंपनियों के लिये आयात बढ़ाना है। मर्कोसुर सदस्यों देशों का यूरोपीय संघ के साथ हुआ यह समझौता वस्तुओं और सेवाओं के लिये एक बाज़ार बनाएगा जिसमें करीब 80 करोड़ लोगों तक पहुँच बन सकेगी।
- संयुक्त राष्ट्र संस्था अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने गर्म धरती पर कार्य करना-गर्मी से उत्पन्न दबाव का श्रम उत्पादकता एवं साफ सुथरे कार्य पर प्रभाव (Working on a Warmer Planet-The Impact of Heat Stress on Labour Productivity & Decent Work) शीर्षक से अपनी रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के अनुसार, वायुमंडल का तापमान बढ़ने से वर्ष 2030 में भारत में 5.8% काम के घंटों का नुकसान हो सकता है। उत्पादकता की इस क्षति का कुल नुकसान 3.4 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियों के बरारबर होगा तथा इससे कृषि एवं निर्माण क्षेत्र खासतौर पर प्रभावित होंगे। भीषण गर्मी के कारण वर्ष 2030 तक दुनियाभर में कुल कामकाजी घंटों में 2.2% की कमी आ सकती है तथा इससे आठ करोड़ पूर्णकालिक नौकरियों की उत्पादकता का ह्रास होगा। इस रिपोर्ट में ऊष्मागत तनाव के कारण वर्ष 2030 तक वैश्विक स्तर पर कुल 2400 अरब डॉलर का वित्तीय नुकसान होने की संभावना जताई गई है।
- उत्तर प्रदेश कैडर की IPS ऑफिसर और इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (ITBP) की DIG अपर्णा कुमार उत्तरी अमेरिका की सबसे ऊँची चोटी माउंट डेनाली पर तिरंगा फहराने वाली पहली महिला IPS बन गई हैं। माउंट डेनाली की समुद्र स्तर से ऊँचाई 20,301 फीट है। इसके साथ ही अपर्णा कुमार ने विश्व की सात पर्वतमालाओं की सबसे ऊँची चोटियों पर आरोहण करने में सफलता पाई है। इनमें माउंट एवरेस्ट, माउंट किलिमंजारो, माउंट एल्ब्रुस, कार्सटेंस पिरामिड, विन्सन मैसिफ व माउंट एकांकागुआ शामिल हैं।
- टीम इंडिया के बैट्समैन अंबाती रायडू ने अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट के सभी प्रारूपों से संन्यास ले लिया है। गौरतलब है कि अंबाती रायडू ने 55 एकदिवसीय मैचों में 47.05 की औसत से 1694 रन बनाए तथा 6 अंतर्राष्ट्रीय टी-20 मैचों में 10.50 की औसत से 42 रन बनाए। उन्हें टेस्ट क्रिकेट खेलने का मौका नहीं मिला। अंबाती रायडू को BCCI की तरफ से विश्व कप के लिये रिज़र्व खिलाड़ियों में रखा गया था। इसके बावजूद विश्व कप के बीच सलामी बल्लेबाज़ शिखर धवन और नंबर चार पर खेलने वाले विजय शंकर के चोटिल होने पर भी उन्हें टीम में नहीं शामिल किया गया।
- 4 जुलाई को पिंगाली वैंकेया की जयंती मनाई गई। आज देश में बहुत कम लोग यह जानते हैं कि हमारा राष्ट्रीय ध्वज पिंगाली वैंकेया का ही डिज़ाइन किया हुआ है। 2 अगस्त, 1876 को जन्मे पिंगाली वैंकेया 19 वर्ष की उम्र में ब्रिटिश आर्मी से जुड़े और अफ्रीका में एंग्लो-बोएर (Anglo-Boer) युद्ध में हिस्सा लिया तथा यहाँ वह महात्मा गांधी से मिले। वर्ष 1921 में उन्होंने केसरिया और हरा झंडा सामने रखा था, जिसमें लाला हंसराज ने चरखा जोड़ा और महात्मा गांधी ने सफेद पट्टी जोड़ने का सुझाव दिया था। ज्ञातव्य है कि भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को इसके वर्तमान स्वरूप में 22 जुलाई, 1947 को आयोजित भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया था, जो 15 अगस्त, 1947 को भारत की स्वतंत्रता के कुछ ही दिन पूर्व आयोजित हुई थी। बाद में इसमें से चरखे को हटाकर सम्राट अशोक के धर्मचक्र को शामिल किया गया। पिंगाली वैंकेया का निधन 4 जुलाई 1963 को हुआ था तथा वर्ष 2009 में उन पर डाक टिकट जारी किया गया।