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डेली न्यूज़

  • 04 Sep, 2019
  • 55 min read
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

‘McrBC’ एक आणविक कैंची

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पुणे स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (Indian Institute of Science Education and Research- IISER) के वैज्ञानिकों की एक टीम ने ‘McrBC की परमाणु संरचना’ का निर्धारण किया है।

  • McrBC एक जटिल बैक्टीरियल प्रोटीन (Bacterial Protein) है जो एक जीवाणु कोशिका में वायरल संक्रमण को रोकने में मदद करता है और आणविक कैंची (Molecular Scissors) के रूप में कार्य करता है।

प्रमुख बिंदु

  • McrBC की संरचना के इस अध्ययन को पिछले महीने प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिकाओं नेचर कम्युनिकेशंस और न्यूक्लिक एसिड रिसर्च (जो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित की गई है) में प्रकाशित किया गया था।
    • इसे आणविक कैंची के कार्य को समझने की दिशा में एक बड़ा कदम बताया गया है।
  • यह उच्च-रिज़ॉल्यूशन संरचना (High-Resolution Structure) की पहली भारतीय रिपोर्ट है, जिसे इलेक्ट्रॉन क्रायोमाइक्रोस्कोपी (Cryomicroscopy) का उपयोग करके निर्धारित किया जाता है, इसे सामान्यतः क्रायो-EM (Cryo-EM) के रूप में जाना जाता है।
  • McrBC की संरचना के निर्धारण में ’फेज थेरेपी’ (Phage Therapy’) के दीर्घकालिक प्रभाव होते हैं जिनका उपयोग भविष्य में दवा प्रतिरोधी संक्रमणों से निपटने में सहायता प्राप्त करने में किया जा सकता है।
    • फेज (Phages) वायरस के समूह होते हैं जो बैक्टीरिया की कोशिकाओं को संक्रमित करते हैं तथा नष्ट कर देते हैं।
    • फेज थेरेपी बैक्टीरियल संक्रमणों के इलाज के लिये बैक्टीरियोफेज का चिकित्सीय उपयोग है।

McrBC

'आणविक कैंची' (Molecular Scissors)

  • जिस तरह मानव शरीर में वायरस से लड़ने के लिये प्रतिरक्षा प्रणाली होती है, उसी प्रकार बैक्टीरिया में फेज से निपटने के लिये एक विस्तृत रक्षा प्रणाली होती है।
  • ये फेज अपने DNA को बैक्टीरियल सेल में इंजेक्ट करते हैं, जिसमें वे उस वायरस का गुणन करके उसका डुप्लिकेट बनाते हैं और अंततः उस सेल से बाहर निकलकर कई और बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं।
  • संक्रमण को रोकने के लिये जीवाणुओं में विशेष रूप से 'आणविक कैंची' (Molecular Scissors) होती है, जो विशेष रूप से वाह्य DNA को काटती हैं तथा बैक्टीरिया की कोशिकाओं में उनके गुणन को रोकती है।
  • आणविक कैंची न केवल वायरल DNA को काटती है, बल्कि DNA के अन्य वाह्य प्रवेश को भी नियंत्रित करती है। इस प्रकार DNA एक एंटीबायोटिक प्रतिरोध जीन की मेजबानी भी कर सकता है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

समुद्री मत्स्य पालन बिल

चर्चा में क्यों?

समुद्री मत्स्य विनियमन और प्रबंधन (MFRM) विधेयक 2019 को चर्चा और सुझावों हेतु पब्लिक डोमेन में रखा गया है। इस विधेयक को लाने का कारण संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि (UNCLOS), 1982 और विश्व व्यापार संगठन (WTO) के नियम हैं, जिनके अनुसार भारत को अपने मत्स्य पालन क्षेत्र को विनियमित करने हेतु कानूनों का निर्माण करना है।

संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि

UNCLOS (United Nations Convention on the Law of the Sea)

  • यह एक अंतर्राष्ट्रीय समझौता है जो विश्व के सागरों और महासागरों पर देशों के अधिकार एवं ज़िम्मेदारियों का निर्धारण करता है तथा समुद्री साधनों के प्रयोग के लिये नियमों की स्थापना करता है।
  • संयुक्त राष्ट्र ने इस कानून को वर्ष 1982 में अपनाया था लेकिन यह नवंबर 1994 में प्रभाव में आया।
  • भारत ने वर्ष 1995 में UNCLOS को अपनाया, इसके तहत समुद्र के संसाधनों को तीन क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया है- आंतरिक जल (IW), प्रादेशिक सागर (TS) और अनन्य आर्थिक क्षेत्र (EEZ)।

आंतरिक जल (Internal Waters-IW): यह बेसलाइन की भूमि के किनारे पर होता है तथा इसमें खाड़ी और छोटे खंड शामिल हैं।

प्रादेशिक सागर (Territorial Sea-TS): यह बेसलाइन से 12 समुद्री मील की दूरी तक फैला हुआ होता है। इसके हवाई क्षेत्र, समुद्र, सीबेड और सबसॉइल पर तटीय देशों की संप्रभुता होती है एवं इसमें सभी जीवित और गैर-जीवित संसाधन शामिल हैं।

अनन्य आर्थिक क्षेत्र ( Exclusive Economic Zone-EEZ): EEZ बेसलाइन से 200 नॉटिकल मील की दूरी तक फैला होता है। इसमें तटीय देशों को सभी प्राकृतिक संसाधनों की खोज, दोहन, संरक्षण और प्रबंधन का संप्रभु अधिकार प्राप्त होता है।

Territorial Sea Baseline

समुद्री मत्स्य विनियमन और प्रबंधन (MFRM) विधेयक से जुड़े मुद्दे-

  • चूँकि मत्स्य राज्य सूची का विषय है तथा IW और TS में मछली पकड़ना संबंधित राज्यों के दायरे में आता है। इसके अतिरिक्त TS में अन्य गतिविधियाँ तथा इससे परे EEZ में मछली पकड़ना संघ सूची का विषय है। अब तक किसी भी केंद्र सरकार ने पूरे EEZ को कवर करने के लिये किसी प्रकार का प्रावधान नहीं किया है। विधेयक में इसके लिये प्रयास किये गए है।
  • देश में EEZ की वार्षिक मत्स्य क्षमता लगभग 5 मिलियन टन है। इसे विवेकपूर्ण रूप से उपयोग करना सरकार की एक महत्त्वपूर्ण प्राथमिकता है जिसे एक नए मत्स्य मंत्रालय के गठन द्वारा रेखांकित किया गया था।
  • विकसित देशों का तर्क है कि विकासशील देश अपने संबंधित EEZ में मत्स्य पालन का प्रबंधन करने वाले कानूनों के अभाव के चलते अनियमित रूप से मछली पकड़ते हैं। MFRM विधेयक इस समस्या का हल प्रदान करेगा तथा वर्ष 2001 के दोहा दौर के बाद से विश्व व्यापार संगठन में मत्स्य पालन हेतु सब्सिडी पर चर्चा करने करने के लिये भारत को मज़बूती प्रदान करेगा।
  • विधेयक में एक दोषपूर्ण प्रावधान है कि प्रादेशिक सागर के बाहर केवल बड़े जहाजों को मछली पकड़ने की अनुमति होगी, जबकि इस क्षेत्र में नियमित रूप से हजारों छोटे जहाज़ मछली पकड़ने का कार्य करते हैं और इससे अपनी आजीविका चलाते हैं। यदि यह विधेयक कानून बन जाता है तो प्रादेशिक सागर के बाहर मछलियाँ पकड़ने की उनकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाएगी।
  • विधेयक विदेशी जहाजों द्वारा मछली पकड़ने पर प्रतिबंध लगाता है, इस प्रकार यह EEZ का राष्ट्रीयकरण करता है। TS के बाहर EEZ में मछली पकड़ने के इच्छुक एक भारतीय जहाज़ को इसके लिये परमिट प्राप्त करना होगा और छोटे मछुआरों द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है।
  • इस विधेयक में महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय मत्स्य समझौतों के साथ समन्वय का अभाव है। यह अन्य तटीय क्षेत्रों के नियमों से भी मेल नहीं खाता है।

आगे की राह

  • यह विधेयक मत्स्य पालन उद्योग के स्थायित्व के लिये आवश्यक है। विधेयक प्रादेशिक सागर पर तटीय राज्यों के अधिकार क्षेत्र का सम्मान भी करता है। यह मछुआरों के लिये सामाजिक सुरक्षा का प्रस्ताव करता है और गंभीर मौसमी घटनाओं के दौरान समुद्र में जीवन की सुरक्षा का प्रावधान भी करता है। राज्य सरकारों, मत्स्य उद्योगों के प्रतिनिधियों और उद्योगों को मछली पकड़ने हेतु अनुमति लेने के भय से पूरे विधेयक का विरोध नहीं करना चाहिये तथा उन्हें अधिक से अधिक "सहकारी संघवाद" के लिये प्रयास करना चाहिये।
  • विभिन्न समुद्री क्षेत्रों (IW, TS और EEZ) हेतु सहकारी संघवाद समुद्री मत्स्य पालन के स्थायी प्रबंधन के लिये महत्त्वपूर्ण है, जिसे अब आदर्श रूप से समवर्ती सूची में शामिल किया जाना चाहिये। छोटे स्तर के मछुआरों को अपने तर्कों के समर्थन के लिये FAO/UN Small-Scale के मत्स्य दिशा निर्देशों का उपयोग करते हुए संपूर्ण प्रादेशिक सागर को मुक्त बनाने की मांग करनी चाहिये। यह उनकी आय को बढ़ाएगा, उपभोक्ताओं हेतु एक स्थिर आपूर्ति सुनिश्चित करेगा, तटीय क्षेत्रों का प्रबंधन करेगा तथा मछली पकड़ने पर लगे प्रतिबंध को हटाएगा।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय अर्थव्यवस्था

इथेनॉल मूल्‍य में पुनरीक्षण व्‍यवस्‍था को मंज़ूरी

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री की अध्‍यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल की आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (Cabinet Committee on Economic Affairs) ने 1 दिसंबर, 2019 से 30 नवंबर, 2020 तक इथेनॉल आपूर्ति वर्ष के दौरान आगामी चीनी उत्‍पादन मौसम 2019-20 के लिये EPB कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्‍न कच्‍चे मालों से निर्मित इथेनॉल की उच्च कीमत तय करने को मंज़ूरी दी है।

प्रमुख बिंदु

EPB कार्यक्रम के अंतर्गत विभिन्‍न कच्‍चे मालों से निर्मित इथेनॉल की उच्च कीमत तय करने के मामले में निम्नलिखित को मंज़ूरी दी गई है:

  • सी-टाइप भारी शीरे (C Heavy Molasses) से प्राप्‍त इथेनॉल की कीमत 43.75 रुपए प्रतिलीटर होगी जो पहले 43.46 रुपए प्रतिलीटर थी।
  • बी-टाइप भारी शीरे (B Heavy Molasses) से प्राप्‍त इथेनॉल की कीमत 54.27 रुपए प्रतिलीटर होगी जो पहले 52.43 रुपए प्रतिलीटर थी।
  • गन्ने के रस/चीनी/चीनी के शीरे से प्राप्‍त इथेनॉल की कीमत 59.48 रुपए प्रतिलीटर तय की गई है।
  • उपरोक्त के अलावा वस्तु एवं सेवा कर तथा परिवहन शुल्‍क भी देय होंगे।
  • तेल कंपनियों को वास्‍तविक परिवहन शुल्‍क तय करने का सुझाव दिया गया है, ताकि लंबी दूरी तक इथेनॉल का परिवहन हतोत्‍साहित न हो।

तेल कंपनियों को इथेनॉल के लिये निम्‍न प्राथमिकता के साथ आपूर्ति जारी रखने की सलाह दी गई है-

  1. गन्‍ना रस/चीनी/चीनी का शीरा
  2. बी-टाइप भारी शीरा
  3. सी-टाइप भारी शीरा
  4. खराब खाद्यान्‍न/अन्‍य स्रोत।

लाभ:

  • सभी डिस्टिलरी (शराब बनाने का स्थान) इस योजना का लाभ प्राप्‍त कर सकते हैं और उनमें से कई EBP कार्यक्रम के लिये इथेनॉल की आपूर्ति भी कर सकते हैं।
  • इथेनॉल आपूर्तिकर्त्ताओं को लाभकारी कीमत मिलने से गन्‍ना किसानों की बकाया राशि चुकाने में मदद मिलेगी।
  • यह प्रक्रिया गन्‍ना किसानों की समस्‍या को कम करने में योगदान देगी।

इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल (Ethanol Blended Petrol-EBP) कार्यक्रम

  • भारत सरकार ने इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल (Ethanol Blended Petrol-EBP) कार्यक्रम वर्ष 2003 में लागू किया था। इसके ज़रिये पेट्रोल में इथेनॉल का मिश्रण कर पर्यावरण को जीवाश्म ईंधनों के इस्तेमाल से होने वाले नुकसान से बचाना, किसानों को क्षतिपूर्ति दिलाना तथा कच्चे तेल के आयात को कम कर विदेशी मुद्रा बचाना है।
  • EBP कार्यक्रम के तहत तेल कंपनियों द्वारा अधिकतम 10 प्रतिशत इथेनॉल मिश्रित पेट्रोल की बिक्री की जाती है।
  • 1 अप्रैल, 2019 से केंद्रशासित प्रदेश अंडमान निकोबार और लक्ष‍द्वीप द्वीपसमूह को छोड़कर पूरे भारत में इस कार्यक्रम को विस्‍तारित किया गया है, ताकि वैकल्पिक और पर्यावरण अनुकूल ईंधनों के इस्‍तेमाल को बढ़ावा मिले।
  • इस क्रियाकलाप से ऊर्जा संबंधी ज़रूरतों के लिये आयात पर निर्भरता घटेगी और कृषि क्षेत्र को बल मिलेगा।

इथेनॉल की कीमत का निर्धारण

  • सरकार वर्ष 2014 से इथेनॉल की निर्धारित कीमत अधिसूचित करती रही है।
  • पहली बार वर्ष 2018 के दौरान, सरकार द्वारा इथेनॉल के उत्‍पादन के लिये व्‍यवहृत कच्‍चे माल के आधार पर इथेनॉल की कीमत घोषित की गई थी।
  • इन निर्णयों से इथेनॉल की आपूर्ति में महत्त्वपूर्ण सुधार हुआ है। परिणामस्‍वरूप सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों द्वारा इथेनॉल की खरीद इथेनॉल आपूर्ति वर्ष 2013-14 के 38 करोड़ लीटर से बढ़कर वर्ष 2018-19 में अनुमानित 200 करोड़ लीटर से अधिक हो गई है।

स्रोत: पी.आई.बी


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

ब्रह्मपुत्र नदी और भारत तथा चीन

चर्चा में क्यों?

हाल ही में चीनी विदेश मंत्रालय द्वारा दिये गए आधिकारिक बयान में कहा गया है कि चीन ने यारलुंग जांग्बो नदी (Yarlung Zangbo River) पर एक जलविद्युत संयंत्र का निर्माण कर लिया है एवं 2 अन्य जलविद्युत संयंत्रों का निर्माण कार्य अभी चल रहा है, परंतु इसमें से किसी भी परियोजना में जल का भंडारण शामिल नहीं है।

  • ज्ञातव्य है कि तिब्बत की यारलुंग जांग्बो नदी भारत के असम में पहुँचकर ब्रह्मपुत्र नदी के नाम से जानी जाती है।

प्रमुख बिंदु:

  • गौरतलब है कि कुछ आसत्यापित मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, चीनी सरकार तिब्बत में यारलुंग जांग्बो नदी पर बड़ी बांध परियोजना का निर्माण कर रही है, जिसके कारण नदी का पानी भारत तक नहीं पहुँचेगा और चीन में ही भंडारित कर लिया जाएगा।
  • चीन ने इन मीडिया रिपोर्ट्स को पूरी तरह नकार दिया है और कहा है कि वह नदी के पानी का केवल कुछ ही हिस्सा प्रयोग करता है और अन्य क्षेत्रों के प्रयोग हेतु काफी पानी बचता है।

ब्रह्मपुत्र नदी विवाद

बीते वर्षों में कई बार ऐसी खबरें सामने आती रही हैं कि चीन, तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी के जल प्रवाह को रोकने के उद्देश्य से बांध का निर्माण कर रहा है और यदि ऐसा होता है तो भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में जल की आपूर्ति बाधित हो सकती है, यही दोनों पक्षों के मध्य विवाद का एक बड़ा कारण बना हुआ है। हालाँकि चीन की सरकार द्वारा हर बार इस प्रकार की खबरों को सिरे से नकार दिया जाता है, परंतु चीन की विशाल आबादी को देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि उसे जल संसाधन की सख्त आवश्यकता है और इसकी पूर्ति हेतु वह किसी भी नीति का अनुसरण कर सकता है।

चीन को अधिक जल संसाधन की ज़रूरत

  • नवीन आँकड़ों के अनुसार, विश्व की लगभग 18 प्रतिशत आबादी चीन में निवास करती है एवं उसके पास विश्व के पीने योग्य जल संसाधनों का 7 फीसदी से भी कम हिस्सा मौजूद है।
  • चीन की जल संसाधन चुनौतियों में न सिर्फ मात्रात्मक चुनौतियाँ शामिल हैं बल्कि उसके समक्ष गुणवत्ता संबंधी चुनौतियाँ भी मौजूद हैं। स्वयं चीन के सरकारी आँकड़ों के अनुसार चीन का लगभग 60 प्रतिशत भूजल दूषित है।
  • चीन की 12वीं पंचवर्षीय योजना में माना गया था कि जल संसाधनों की कमी के कारण देश के आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
  • जल संसाधनों तक निरंतर पहुँच, आपूर्ति और नियंत्रण को बनाए रखना सदैव ही चीन के राष्ट्रीय हितों में शामिल रहा है। उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि चीन की आंतरिक चुनौतियाँ उसे अपने जल संसाधनों के भंडारण हेतु प्रेरित कर सकती हैं।

भारत के हितों पर प्रभाव

  • विशेषज्ञों के अनुसार, यारलुंग जांग्बो नदी पर चीन की जलविद्युत परियोजनाएँ ब्रह्मपुत्र नदी को एक मौसमी नदी में परिवर्तित कर देंगी, जिसका परिणाम भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में सूखे के रूप में सामने आ सकता है।
  • एक अन्य खतरा यह है कि बांधों के निर्माण के पश्चात् जब चीन मानसून में बाढ़ का पानी छोड़ेगा तो इससे ब्रह्मपुत्र नदी के जल प्रवाह में वृद्धि होने की संभावना बढ़ जाएगी।
  • नदियों के आस-पास जल संबंधी परियोजनाओं के चलते चीन ने अपनी नदियों को काफी प्रदूषित किया है और इसके कारण चीन से भारत की ओर प्रवाहित होने वाली नदियों के जल की गुणवत्ता पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है।
  • इसके अतिरिक्त चीन के इस कदम से असम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान और पोबितोरा वन्यजीव अभयारण्य जो कि ब्रह्मपुत्र नदी के पानी पर निर्भर हैं, में भी पानी की आपूर्ति प्रभावित होगी।

ब्रह्मपुत्र नदी से जुड़ी मुख्य बातें

  • भारत की ब्रह्मपुत्र नदी को ही तिब्बत में यारलुंग जांग्बो के नाम से जाना जाता है। चीन में इसका एक अन्य नाम यारलुंग त्संग्पो (Yarlung Tsangpo) भी है।
  • ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत की मानसरोवर झील के पूर्व तथा सिंधु एवं सतलुज के स्रोतों के काफी नज़दीक से निकलती है। इसकी लंबाई सिंधु से कुछ अधिक है, परंतु इसका अधिकतर मार्ग भारत से बाहर स्थित है। यह हिमालय के समानांतर पूर्व की ओर बहती है। नामचा बारवा शिखर (7,757 मीटर) के पास पहुँचकर यह अंग्रेजी के यू (U) अक्षर जैसा मोड़ बनाकर भारत के अरुणाचल प्रदेश में गॉर्ज के माध्यम से प्रवेश करती है।
  • यहाँ इसे दिहाँग के नाम से जाना जाता है तथा दिबांग, लोहित, केनुला एवं दूसरी सहायक नदियाँ इससे मिलकर असम में ब्रह्मपुत्र का निर्माण करती हैं।
  • तिब्बत के रागोंसांग्पो इसके दाहिने तट पर एक प्रमुख सहायक नदी है।
  • हिमालय के गिरिपद में यह सिशंग या दिशंग के नाम से निकलती है। अरुणाचल प्रदेश में सादिया कस्बे के पश्चिम में यह नदी भारत में प्रवेश करती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा में बहते हुए इसके बाएँ तट पर इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ दिबांग या सिकांग और लोहित मिलती हैं और इसके बाद यह नदी ब्रह्मपुत्र के नाम से जानी जाती है।

India china

स्रोत: द हिंदू


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

भारत में ई-वाहनों की स्वीकार्यता

चर्चा में क्यों?

वर्तमान में भारत में पारंपरिक ईधन वाहनों से ई-वाहनों की ओर जाने संबंधी परिवर्तन की मांग की जा रही है। माना जा रहा है कि देश में इस दिशा में परिवर्तन की अत्यधिक आवश्यकता है लेकिन मुद्दा यह है कि इलेक्ट्रिक वाहनों (Electric Vehicle-EV) का बड़े पैमाने पर उपयोग आर्थिक रूप में किस हद तक संभव हो सकेगा?

पृष्ठभूमि

  • मई 2019 में नीति आयोग द्वारा मार्च 2023 के बाद सभी आंतरिक दहन इंजन (ICE) वाले थ्री-व्हीलर्स की बिव्री पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव दिया गया था। साथ ही मार्च 2025 के बाद 150cc से नीचे वाले उन्हीं नए दोपहिया वाहनों की बिव्री संभव हो सकेगी, जो कि इलेक्ट्रिक वाहन होंगे।
  • इन प्रस्तावों के अनुरूप 5 जुलाई, 2019 को पेश किये गए केंद्रीय बजट में इन वाहनों की उपलब्धता की शुरुआत में ही इन्हें अपनाने वाले लोगों के लिये कर-प्रोत्साहन की घोषणा भी की गई थी।
  • परंतु ऑटोमोबाइल उद्योग द्वारा थिंक टैंक के इस प्रस्ताव पर आपत्ति जताई गई और इलेक्ट्रिक वाहन संबंधी नीतियों को तैयार करने में व्यावहारिक दृष्टिकोण को अपनाने की मांग की गई थी क्योंकि इलेक्ट्रिक वाहनों के निर्माण और उपयोग से जुड़ी विभिन्न लागतों के कारण EVs अभी भी वित्तीय रूप से व्यवहार्य नहीं है।

पारंपरिक एवं इलेक्ट्रिक वाहन की लागत संरचना में अंतर

  • ICE वाहनों से तुलना करने पर यह स्पष्ट होता है कि EVs के ड्राइवट्रेन (मोटर वाहन का सिस्टम) की लागत पूरे वाहन की लागत की तुलना में 4% कम है। इसका मुख्य कारण इलेक्ट्रिक ड्राइवट्रेन के पार्टस की संख्या का कम होना है। हालाँकि बैटरी पैक में इलेक्ट्रिक वाहन की लागत लगभग आधी होती है।
  • EV के भौतिक मूल्य में किसी भी अर्थपूर्ण कमी के लिये बैटरी पैक की लागत में कमी करने की आवश्यकता है।

बैटरी पैक के घटक एवं लागत

  • EVs में लिथियम आयन बैटरी (Li-ion) का प्रयोग किया जाता है परंतु इससे संबंधित कोई भी नई तकनीक तात्कालिक रूप से व्यावसायिक उपयोग के करीब नहीं है।
  • बैटरी में प्रयुक्त सामग्री या मुख्य घटकों अर्थात् कैथोड, एनोड, इलेक्ट्रोलाइट एवं सेपरेटर (Separater) की लागत, कुल लागत की तुलना में सबसे अधिक यानी 60% है।
  • शेष लागत हेतु श्रम शुल्क, ओवरहेड्स एवं लाभ मार्जिन उत्तरदायी होते हैं। समग्र लागत की अपेक्षा श्रम एक छोटा घटक माना जाता है। बैटरी पैक की कीमत में किसी भी तरह की कमी लाने हेतु सामग्री की लागत या विनिर्माण खर्च में कमी लानी होगी।
  • हालाँकि इन बैटरी पैक की कीमत पिछले कुछ वर्षों में लगातार कम हो रही है। कीमतों में कमी तकनीकी सुधार एवं लिथियम आयन बैटरी की बढ़ती मांग के कारण संभव हो सका है।
  • प्रमुख निर्माताओं के मध्य अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धात्मक माहौल का भी कीमतों की गिरावट में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की स्वीकार्यता

  • भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों की सामूहिक स्वीकृति बढ़ाने हेतु उच्च संख्या में कारों के बजाय दोपहिया वाहनों को प्रोत्साहन दिया जाएगा क्योंकि भारत का मोबिलिटी बाज़ार दोपहिया वाहनों द्वारा ज़्यादा संचालित है।
  • नीति आयोग के अनुसार, भारतीय सड़कों पर 79% दोपहिया वाहन हैं। कुल वहन योग्य लागत को देखते हुए कारों की तुलना में दोपहिया वाहनों हेतु छोटी बैटरी की आवश्यकता होगी। इसलिये भारत में ली-आयन सेल (Li-ion Cells) के निर्माण किये जाने की आवश्यकता है। वर्तमान में इन सेल्स का आयात कर उन्हें बैटरी में संकलित किया जाता है।
  • ली-आयन के निर्माण से संबंधित इकाई की स्थापना हेतु उच्च पूंजी व्यय करने की आवश्यकता होती है लेकिन सवाल यह भी है कि EV वाहन किस हद तक पर्यावरण के अनुकूल होंगे?
  • पारंपरिक ICE में पेट्रोल या डीज़ल इंधन द्वारा इंजन को ऊर्जा प्राप्त होती है। हालाँकि EVs में बैटरी इंजन का कार्य नहीं करती बल्कि बैटरी द्वारा आपूर्ति किये गए इलेक्ट्रॉन से वाहनों को ऊर्जा प्राप्त होती है। विद्युत द्वारा प्राप्त इलेक्ट्रॉनों/ऊर्जा को बैटरी द्वारा संग्रहीत किया जाता है।

आगे की राह

वर्तमान में भारत में अधिकांश विद्युत का उत्पादन पारंपरिक स्रोतों के उपयोग द्वारा होता है। वर्ष 2018-19 में भारत में 90% से अधिक विद्युत का उत्पादन पारंपरिक स्रोतों यथा- कोयला आदि द्वारा किया गया था। करीब 10% का उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों यथा- सौर, पवन एवं बायोमास के द्वारा किया गया। हालाँकि नवीरकणीय स्रोतों द्वारा विद्युत उत्पादन की दर में समय के साथ वृद्धि हुई है लेकिन इसे अपनाने की दिशा में और अधिक ज़ोर देने की आवश्यकता है। EV चार्ज़िग संबंधी बुनियादी ढाँचे को नवीकरणीय स्रोतों के माध्यम से संचालित करने की आवश्यकता है ताकि यह सही मायने में टिकाऊ हो।

स्रोत: The Hindu


सामाजिक न्याय

कार्डियो-वैस्कुलर रोग

चर्चा में क्यों?

हाल ही में लैंसेट (Lancet) में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार भारत में कार्डियो-वैस्कुलर रोगों (Cardiovascular Disease-CVD) के कारण होने वाली मृत्यु-दर उच्च है।

प्रमुख बिंदु

  • CVD वैश्विक स्तर पर मृत्यु का सबसे बड़ा कारण है परंतु उच्च आय वाले देशों ( (High Income Countries-HIC) में कैंसर के कारण होने वाली मौतों CVD की तुलना में दोगुनी हैं, जबकि भारत सहित निम्न आय वाले देशों (Low Income Countries-LIC) में CVD के कारण होने वाली मौतें कैंसर की तुलना में तिगुनी हैं।
  • इस शोध पत्र में निम्न आय वाले देशों (LIC) एवं मध्यम आय वाले देशों में (Middle-Income Countries-MIC) घरेलू वायु प्रदूषण को CVD के एक प्रमुख कारण के रूप में पहचाना गया है।
  • निम्न आय वाले देशों में जोखिम कारकों के कम होते हुए भी उच्च मृत्यु दर का कारण गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच की कमी और बीमा सुविधा का अभाव है।
  • इस शोध में उच्च आय वाले देशों (HIC) में कनाडा, सऊदी अरब, स्वीडन और संयुक्त अरब अमीरात शामिल थे, जबकि मध्यम आय वाले देशों (MIC) देशों में अर्जेंटीना, ब्राज़ील, चिली, चीन, कोलंबिया, ईरान, मलेशिया, फिलिस्तीन, फिलीपींस, पोलैंड, तुर्की और दक्षिण अफ्रीका को शामिल किया गया था वहीँ निम्न आय वाले देशों (LIC) देशों में भारत सहित बांग्लादेश, पाकिस्तान, तंजानिया और जिम्बाब्वे शामिल थे।
  • इस शोध के निष्कर्ष समान आर्थिक और सामाजिक विशेषताओं तथा स्वास्थ्य देखभाल वाले अन्य देशों पर भी लागू होते हैं। इस शोध में पांच भारतीय अनुसंधान संस्थानों ने भी भाग लिया।

कार्डियो-वैस्कुलर रोग क्या हैं?

हृदय रोग (CVDs) हृदय और रक्त वाहिकाओं से संबंधित बीमारियों का समूह है। इन बीमारियों में शामिल हैं:

  • हृदय-धमनी रोग (Coronary Heart Disease): हृदय की मांसपेशियों को रक्त की आपूर्ति करने वाली रक्त वाहिकाओं की बीमारी;
  • रक्त धमनी का रोग (Cerebrovascular Disease): मस्तिष्क को रक्त की आपूर्ति करने वाली रक्त वाहिकाओं की बीमारी;
  • बाह्य धमनी रोग (Peripheral Arterial Disease): हाथ और पैरों को रक्त की आपूर्ति करने वाली रक्त वाहिकाओं की बीमारी;
  • वातरोगग्रस्त हृदय रोग (Rheumatic Heart Disease): स्ट्रेप्टोकोकल बैक्टीरिया के कारण होने वाले आमवाती बुखार (Rheumatic Fever) से हृदय की मांसपेशियों और हृदय के वाल्व को नुकसान।
  • जन्मजात हृदय रोग (Congenital Heart Disease): जन्म के समय से मौजूद हृदय संरचना की विकृति;
  • तीव्र शिरा थ्रोम्बोसिस और फेफड़ों से संबंधित वाहिकारोध (Deep Vein Thrombosis and Pulmonary Embolism): पैर की नसों में रक्त के थक्के जो हृदय और फेफड़ों की कार्यप्रणाली को अव्यवस्थित कर सकते हैं।

कार्डियो-वैस्कुलर रोग के जोखिम कारक

हृदय रोग के जोखिम कारक वे विशेष आदतें, व्यवहार व दिनचर्या आदि हैं जो किसी व्यक्ति के हृदय रोग से ग्रस्त होने के जोखिम को बढ़ाते हैं।

  • धूम्रपान।
  • व्यायाम की कमी।
  • वसायुक्त आहार।
  • मोटापा।
  • उच्च रक्तचाप।
  • कार्डियो-वैस्कुलर रोग का पारिवारिक इतिहास।

हृदय रोग कम और मध्यम आय वाले देशों में विकास का मुद्दा क्यों हैं?

  • CVDs के कारण विश्व में कम-से-कम तीन-चौथाई मौतें कम और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं।
  • कम और मध्यम आय वाले देशों में उच्च आय वाले देशों की तुलना में जोखिम कारकों के तहत आने वाले लोगों का पता लगाने और उनके इलाज के लिये एकीकृत प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रमों की सुविधा का अभाव होता है।
  • कम और मध्यम आय वाले देशों में CVDs और अन्य गैर-संचारी बीमारियों से पीड़ितों की उनकी ज़रूरतों के अनुसार प्रभावी और समान स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं तक कम पहुँच है। इसके कारण बीमारियों का समय पर पता नहीं लग पाता है और लोग असामयिक मृत्यु का शिकार हो जाते हैं।
  • निम्न और मध्यम आय वाले देशों में सबसे गरीब लोग सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। इन देशों में CVDs और अन्य गैर-संचारी रोग अत्यधिक स्वास्थ्य व्यय और उच्च आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय के कारण गरीबी को बढ़ावा देतें हैं।
  • वृहद् आर्थिक स्तर पर CVDs कम और मध्यम आय वाले देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर भारी बोझ डालते हैं।

WHO की प्रतिक्रिया

वर्ष 2013 में WHO की अगुवाई में सभी सदस्य देश गैर-संचारी रोगों (Non-Communicable Disease-NCD)के बोझ को कम करने के लिये वैश्विक तंत्र स्थापित करने तथा “NCDs की रोकथाम और नियंत्रण के लिये वैश्विक कार्ययोजना 2013-2020" को अपनाने पर सहमत हुये। इस योजना का लक्ष्य नौ स्वैच्छिक वैश्विक लक्ष्यों के माध्यम से वर्ष 2025 तक NCDs के कारण होने वाली असामयिक मौतों को 25% तक कम करना है।

स्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

सरकार द्वारा IDBI बैंक को पूंजी प्रदान करने को मंज़ूरी

चर्चा में क्यों?

प्रधानमंत्री की अध्‍यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सरकार द्वारा IDBI बैंक में 4,557 करोड़ रुपए की पूंजी प्रदान करने को मंज़ूरी दे दी है।

प्रमुख बिंदु

  • सरकार द्वारा IDBI बैंक को पूंजी प्रदान किये जाने से बैंक के कारोबार की प्रक्रिया पूरी करने में मदद मिलेगी और यह मुनाफा कमाने तथा सामान्‍य रूप से ऋण देने में समर्थ हो जाएगा साथी ही सरकार के पास सही समय पर अपने निवेश की वसूली करने का विकल्‍प उपलब्‍ध होगा।
  • IDBI बैंक को अपने बही-खाते से निपटने की प्रक्रिया पूरी करने के लिये एकबारगी पूंजी निवेश की आवश्यकता है।
  • बैंक ने जून 2018 के 18.8 प्रतिशत गैर-निष्पादित संपत्ति (NPA) को जून 2019 में 8 प्रतिशत तक कम करने में महत्त्वपूर्ण सफलता हासिल की है।
  • इस निवेश के बाद संभवतः IDBI बैंक अपने दम पर और अधिक पूंजी जुटाने में काफी हद तक सक्षम हो जाएगा और आने वाले वर्ष में भारतीय रिज़र्व बैंक के त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (Prompt Corrective Action-PCA) कार्यक्रम से भी मुक्‍त हो सकेगा।
  • यह कैश न्‍यूट्रल पूंजी प्रवाह रिकैप बॉण्डों यानी सरकार द्वारा बैंक में पूंजी प्रवाह और उसी दिन सरकार से बैंक द्वारा रिकैप बॉण्ड की खरीद के माध्‍यम से किया जाएगा। इससे तरलता अथवा मौजूदा वर्ष के बजट पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।

पृष्‍ठभूमि:

  • अगस्‍त 2018 में मंत्रिमंडल की मंज़ूरी मिलने के बाद LIC ने IDBI बैंक में 51 प्रतिशत हिस्‍सेदारी प्राप्‍त की थी। सरकार इसकी प्रवर्तक/प्रमोटर है और सरकार के पास 46.46 प्रतिशत की हिस्‍सेदारी है।
  • पिछले एक वर्ष के दौरान IDBI बैंक की वित्‍तीय स्थिति में उल्‍लेखनीय सुधार हुआ है।

स्रोत: पी.आई.बी.


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

उदारवाद

चर्चा में क्यों?

ओसाका में G-20 की बैठक से ठीक पहले रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने एक साक्षात्कार में कहा कि वैश्विक स्तर पर उदारवाद का अंत हो रहा है।

उदारवाद की पृष्ठभूमि :

  • उदारवाद एक राजनीतिक और नैतिक दर्शन है जो स्वतंत्रता, शासित की सहमति और कानून के समक्ष समानता पर आधारित है।
  • उदारवाद आमतौर पर सीमित सरकार, व्यक्तिगत अधिकारों (नागरिक अधिकारों और मानवाधिकारों सहित), पूंजीवाद (मुक्त बाज़ार ), लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, लिंग समानता, नस्लीय समानता और अंतर्राष्ट्रीयता का समर्थन करता है।
  • उदारवाद के मुख्यतः तीन पक्ष हैं:
  1. आर्थिक उदारवाद: इसमें मुक्त प्रतिस्पर्द्धा, स्व-विनियमित बाज़ार, न्यूनतम राज्य हस्तक्षेप और वैश्वीकरण इत्यादि विशेषताएँ शामिल हैं।
  2. राजनीतिक उदारवाद में प्रगति में विश्वास, मानव की अनिवार्य अच्छाई, व्यक्ति की स्वायत्तता और राजनीतिक तथा नागरिक स्वतंत्रता शामिल है।
  3. सामाजिक उदारवाद के अंतर्गत अल्पसंख्यक समूहों के संरक्षण से जुड़े मुद्दे, समलैंगिक विवाह और LGBTQ से संबंधित मुद्दे आते हैं।
  • प्रबोधन काल (Age of Enlightenment) के बाद से पश्चिम में दार्शनिकों और अर्थशास्त्रियों के बीच उदारवाद लोकप्रिय हुआ था।
  • उदारवाद ने वंशानुगत विशेषाधिकार, राज्य धर्म, पूर्ण राजतंत्र, राजाओं के दिव्य अधिकारों जैसे पारंपरिक रूढ़िवादी मानदंडों को प्रतिनिधि लोकतंत्र और कानून के शासन के माध्यम से रूपांतरित करने की मांग की थी।
  • उदारवादियों ने व्यापारिक नीतियों को आसान बनाने, शाही एकाधिकार और व्यापार हेतु अन्य बाधाओं को समाप्त करने की मांग की थी।

उदारवाद का वर्तमान स्वरूप:

  • रूस के अतिरिक्त भारत, चीन, तुर्की, ब्राज़ील, फिलीपींस और यहांँ तक ​​कि यूरोप में भी अब अत्यधिक केंद्रीकृत राजनीतिक प्रणालियांँ प्रचलित हो रही हैं जो उदारवाद की सामान्य विशेषताओं का विरोध कर रही हैं।
  • वर्तमान में इस प्रकार की प्रणालियों के समर्थक मानते हैं कि राजनीतिक स्थिरता और आर्थिक प्रगति के लिये उदारवादी लोकतंत्र की तुलना में ये प्रणालियांँ बेहतर तरीके से काम कर रही हैं।
  • द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उदारवाद पश्चिम में प्रमुख सामाजिक-राजनीतिक विचारधारा रहा है लेकिन हाल ही में पश्चिम में भी उदारवाद की स्थिति में गिरावट देखी जा रही है।
  • ब्रिटेन में ब्रेक्ज़िट का जनता द्वारा समर्थन, अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की संरक्षणवादी नीतियों का समर्थन, हंगरी के राष्ट्रपति विक्टर ऑर्बन और पूर्व इतालवी उपप्रधानमंत्री माटेओ साल्विनी की लोकप्रियता यह प्रदर्शित करती है कि पश्चिम के समाज में भी प्रचलित मूल उदारवाद के स्वरूप में अब परिवर्तन आ रहा है।
  • अमेरिका की नई प्रवासी नीतियों के माध्यम से प्रवासियों को अमेरिका में प्रवेश से रोका जा रहा है साथ ही जर्मनी द्वारा शरणार्थियों को स्वीकार करने की नीतियों से गलत परिणाम निकलने की संभावना व्यक्त की जा रही है।
  • पोलैंड और हंगरी हिंसा एवं युद्ध से भागे शरणार्थियों के प्रवेश के पक्ष में नहीं हैं तथा लगभग सभी यूरोपीय संघ के सदस्यों का मानना है कि यूरोपीय संघ में शरणार्थियों के प्रवेश से यूरोप के पूर्ण एकीकरण की योजना बुरी तरह प्रभावित होगी।
  • समलैंगिक विवाह को केवल कुछ देशों द्वारा ही मान्यता दी जा रही है, दूसरी ओर समलैंगिकता हेतु कई देशों में मौत की सज़ा का प्रावधान है। LGBTQ (Lesbian, Gay, Bisexual, Transgender, QUEER) के अधिकारों में बहुत धीमी प्रगति देखी जा रही है, जबकि अब यह सिद्ध हो चुका है कि इस प्रकार के लोगों की शारीरिक संरचना प्रकृति द्वारा निर्धारित होती है।
  • कई देशों द्वारा पर्यावरण हित के विरुद्ध नीतियाँ बनाई जा रही हैं इसमें स्वयं के संकीर्ण हितों को वैश्विक जलवायु परिवर्तन से ज़्यादा प्राथमिकता दी जा रही है। हाल ही में ब्राज़ील के वनों में लगी आग हेतु सरकार की नीतियों को ज़िम्मेदार बताया जा रहा है।
  • पर्यावरण संबंधी अभिसमयों की प्रकृति गैर-बाध्यकारी होने के कारण कई देश इस प्रकार के अभिसमयों से अलग होते जा रहे हैं। पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका का अलग होना संरक्षणवादी नीतियों को प्रदर्शित करता है।

वर्तमान समय में उदारवाद में गिरावट के कारण:

  • वर्ष 1991 में साम्यवाद के पतन के समय उदारवाद का प्रभाव अपने चरम पर पहुंँच गया था। इस समय तक उदारवाद की सफलता निर्विवाद रही थी और भविष्य में भी उदारवाद का कोई ठोस विकल्प नहीं दिखाई दे रहा था।
  • वर्ष 2008-2009 के वित्तीय संकट ने उदारवादी आर्थिक व्यवस्था को चुनौती दी, उस समय अर्थशास्त्रियों और राजनेताओं के पास इस संकट का कोई भी समाधान नहीं था। उस समय की आर्थिक विकास दर मात्र 1% से 2% तक रह गई थी। इस आर्थिक संकट से उबरने में विश्व को काफी समय लग गया।
  • उदारवादी व्यवस्था दो स्तंभों पर टिकी हुई है- एक स्तंभ व्यक्ति की स्वतंत्रता है (उदारवादी इस सिद्धांत को अपना सर्वोच्च मूल्य मानते हैं) और दूसरा स्तंभ आर्थिक विकास तथा सामाजिक प्रगति हेतु प्रतिबद्धता है।
  • उदारवाद में इन दोनों स्तंभों को एक-दूसरे से संबंधित माना जाता है। वर्तमान विश्व की सबसे बड़ी समस्या यही है कि इस व्यवस्था के मूल सिद्धांत वैध नहीं रह गए हैं, वैश्विक आर्थिक विकास की प्रकृति प्रगतिशील तो है लेकिन समाज में समावेशी विकास का अभाव दिख रहा है। उदाहरणस्वरूप प्रति व्यक्ति आय तो बढ़ रही है लेकिन गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों की प्रभावशीलता पर्याप्त नहीं है।
  • इस प्रकार की स्थितियों के मद्देनज़र विश्व द्विपक्षीय और गुटबाज़ी में फँसता जा रहा है। यूरोपीय संघ, अफ्रीका समूह, आसियान जैसे समूह कहीं-न-कहीं उदारवाद के मूल को क्षति पहुँचा रहे हैं।
  • शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ की शक्ति को संतुलित करने के लिये बनाए गए नाटो जैसे संगठन की वर्तमान प्रासंगिकता समझ से परे है। शायद इस प्रकार के संगठन केवल क्षेत्रीयता को बढ़ावा दे रहे हैं क्योंकि इस प्रकार के संगठनों का कोई निश्चित ध्येय तक नहीं निर्धारित किया गया है।
  • आज उदारवाद अनिश्चित भविष्य का सामना कर रहा है क्योंकि पुनर्जीवित राष्ट्रवाद इसके सम्मुख एक स्थायी खतरा उत्पन्न कर रहा है। इसी राष्ट्रवाद के स्वरूप में विभिन्न देशों में कट्टरपंथ का उदय हो रहा है। इस प्रकार के विचारों से घिरी सरकारें अपने देश को संधारणीय और वैश्विक हितों को नज़रअंदाज़ करते हुए प्राथमिकता देने वाली नीतियों का निर्माण कर रहे हैं।
  • उदारीकरण के बाद बहु-राष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कंप्यूटर, रोबोट और सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग स्थानीय रोज़गार को प्रभावित कर रहा है, इस कारण से स्थानीय उद्योगों और संस्थाओं द्वारा उदारीकरण का विरोध किया जा रहा है।

आगे की राह:

  • कई उदार अर्थशास्त्रियों और पर्यावरणविदों के अनुसार, पृथ्वी के संसाधनों की सीमित क्षमता है और यह लगातार बढ़ती मानव आबादी तथा उनकी बढ़ती ज़रूरतों को समायोजित नहीं कर सकती है।
  • प्रकृति हमारी सभ्यता के वर्तमान विकास को बनाए नहीं रख सकती है और इसलिये सरकार की नीतियों में परिवर्तन आवश्यक है। अतः भौतिक चीज़ो का पीछा करने के बजाय एक खुशहाल और संतुष्ट जीवन जीने का लक्ष्य निर्धारित किया जाना चाहिये।
  • समावेशी नीतियों के निर्माण के साथ ही इनके क्रियान्वयन हेतु मानक स्थापित किये जाएँ साथ ही उदारवाद के मुख्य सिद्धांत सामाजिक कल्याण का गंभीरता से पालन किया जाए।
  • उदारवाद के अभिजात्यकरण को सीमित किया जाए क्योंकि इस प्रकार की स्थिति में सैधांतिक रूप से उदारवाद प्रगतिशील प्रतीत हो रहा है लेकिन व्यावहारिक रूप से वह काफी पिछड़ा हुआ है।
  • उदारीकरण को बढ़ाया जाना चाहिये जिससे सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक रूप से पिछड़े क्षेत्रों का समावेशी विकास किया जा सके।

स्रोत: द हिंदू


सामाजिक न्याय

एड्स, टीबी और मलेरिया हेतु वैश्विक फंंड

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारत सरकार ने GFTAM के लिये 22 मिलियन अमेरिकी डाॅलर के योगदान की घोषणा की है।

प्रमुख बिंदु:

  • भारत ने GFTAM के छठे पुनःपूर्ति चक्र (Replenishment Cycle) वर्ष 2020-22 के लिये 22 मिलियन अमेरिकी डॉलर के योगदान की घोषणा की है जो भारत द्वारा 5वें पुनःपूर्ति चक्र के दौरान दी गई राशि से से 10% अधिक है।
  • भारत ग्लोबल फंंड के छठे पुनःपूर्ति चक्र में योगदान करने वाला G20 और ब्रिक्स देशों में से पहला देश है, इस प्रकार के योगदान से देश भी प्रेरित होंगे।
  • एड्स, टीबी और मलेरिया हेतु वैश्विक फंंड (Global Fund for AIDS, TB and Malaria- GFTAM) सार्वभौमिक स्वास्थ्य और इन तीनों बीमारियों की महामारियों से लड़ने हेतु एक समर्पित फंंड है।
  • एड्स, टीबी और मलेरिया हेतु वैश्विक फंंड को 2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की राशि के साथ वर्ष 2002 में बनाया गया था।
  • यह फंंड सरकारों, नागरिक समाज, तकनीकी एजेंसियों, निजी क्षेत्र और बीमारियों से प्रभावित लोगों के मध्य एक साझेदारी है।

स्रोत: PIB


विविध

Rapid Fire करेंट अफेयर्स (04 September)

  • हाल ही में नई दिल्ली में स्थित न्यूज़ीलैंड के उच्चायोग में ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, पापुआ न्यू गिनी तथा फिजी के उच्चायोगों ने संयुक्त रूप से नमस्ते पैसिफिक नामक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य भारत में प्रशांत महासागरीय देशों की संस्कृति का प्रदर्शन करना था। भारत में ऑस्ट्रेलियाई उच्चायुक्त हरिंदर सिद्धू ने कहा कि भारतीयों के पास प्रशांत संस्कृति पर बात करने या समझने के लिए बहुत कम अवसर हैं। ऐसे में ‘नमस्ते पैसिफिक’ जैसे कार्यक्रम अच्छा अवसर प्रदान करते हैं। कई प्रशांत द्वीप देश बहुत छोटे हैं, लेकिन दिल्ली में उनके उच्चायोग हैं, उनके लिये इस प्रकार के कार्यक्रम बेहतरीन अवसर प्रदान करते हैं। रणनीतिक रूप से प्रशांत क्षेत्र के द्वीपीय देश भारत के लिये बेहद महत्त्वपूर्ण हैं तथा भारत इन देशों की ज़रूरतों एवं प्राथमिकताओं के अनुसार अपने द्विपक्षीय सहयोग को आकार देता है। प्रशांत महासागर और उसके आसपास के क्षेत्र के द्वीपीय देशों को उनकी भौगोलिक समानता के कारण ओशिनियाई देशों के रूप में जाना जाता है।
  • प्लास्टिक से होने वाले पर्यावरण प्रदूषण को कम करने के लिये छत्तीसगढ़ में एक अनूठी पहल शुरू होने जा रही है। राज्य के अंबिकापुर में पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर गार्बेज कैफे (Garbage Cafe) की शुरुआत की जा रही है। देशभर में अपनी तरह का यह पहला कैफे है, जहाँ प्लास्टिक कचरा देकर भरपेट खाना मिलेगा। इस प्रोजेक्ट के तहत अंबिकापुर नगर निगम गरीब और बेघर लोगों को प्लास्टिक कचरे के बदले खाना खिलाएगा। एक किलो प्लास्टिक के बदले एक बार भरपेट खाना मिलेगा, जबकि 500 ग्राम प्लास्टिक देकर ब्रेकफास्ट किया जा सकता है। यह कैफे शहर के मुख्य बस अड्डे पर होगा तथा बजट से इस गार्बेज स्कीम के लिए 5 लाख रुपए दिए गए हैं। इस मुहिम के तहत नगर निगम गरीब और बेघर लोगों को मुफ्त खाना खिलाएगा। साथ ही, प्लास्टिक बीनने वाले बेघर लोगों को मुफ्त शरण देने की भी योजना है। इस प्लास्टिक से छत्तीसगढ़ के शहर अंबिकापुर में सड़क बनाई जाएगी, जिसे इंदौर के बाद देश का दूसरा सबसे साफ शहर चुना गया है।
  • केरल के कोच्चि शहर से 80 किलोमीटर दूर बसे अलेप्पी में हर वर्ष अगस्त महीने के दूसरे शनिवार को नेहरू ट्रॉफी बोट रेस का आयोजन किया जाता है। सर्प नौका दौड़ या स्नेक बोट रेस के नाम से प्रसिद्ध यह बोत रेस यहाँ पुन्नमदा लेक में आयोजित की जाती है, जिसमें हर साल बड़ी संख्या में बोट्स हिस्सा लेती हैं। इस रेस में भाग लेने के लिए आसपास के गांवों से बोट्स आती हैं और हर गाँव की अपनी अलग बोट होती है। इन बोट्स को चंदन वल्लम या स्नेक बोट कहते हैं और 100 फीट लंबी हर स्नेक बोट में 100 से ज़्यादा नाविक, खेवनहार और 25 चीयर लीडर्स आ सकते हैं। इस बोट रेस में मज़बूत भुजाओं वाले नाविक एक लय में चप्पू से नाव को खेते हैं, वहीं इनके बीच बैठे हुए गायक अपने साथियों का उत्साह बढ़ाने के लिए बोट सॉंग्स गाते हैं। इन्हीं के साथ दो ड्रमर भी होते हैं जो बड़े उत्साह के साथ ड्रम बजाकर अपने नाविकों में जोश भरते हैं। इस वर्ष केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर के साथ 2019 नेहरू ट्रॉफी बोट रेस के 67वें संस्करण का उद्घाटन किया, जिसमें पल्लथुर्थी बोट क्लब के नदुभगम चंदन बोट ने जीत हासिल की। पुन्नमदा लेक में हुई इस रेस में नडुभगम ने यूबीसी बोट क्लब के चंबाकुलम बोट को हराकर यह खिताब जीता। इस रेस की शुरुआत वर्ष 1952 में हुई थी और 1 जुलाई, 1962 को इसका नाम नेहरू ट्रॉफी रखा गया।

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