विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
भारत-चीन अंतरिक्ष मिशन- एक तुलनात्मक अध्ययन
- 23 Nov 2020
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भौतिकविद् प्रोपेसर एस. जेम्स गेट्स जे. आर. का कहना है कि ‘‘हम आमतौर पर अंतरिक्ष के बारे में बहुत सचेत नहीं होते लेकिन मैं फिर भी लोगों को बताता हूँ, शायद मछली भी पानी के प्रति सचेत नहीं होती जबकि उसे हर समय उसमें ही रहना है।’’ हममें से ज्यादातर लोगों के दिमाग में अंतरिक्ष की जो छवि होती है वो बाहरी अंतरिक्ष के बारे में होती है, एक ऐसी जगह जो हमसे बहुत दूर है लेकिन वास्तव में अंतरिक्ष सब जगह मौजूद है।
सर आइजैक न्यूटन के अनुसार अंतरिक्ष संपूर्ण ब्रह्मांड में एक खाली स्थान के रूप में है जो प्रत्येक चीज के लिये एक रूपरेखा तैयार करता है। न्यूटन के अनुसार स्पेस पूर्ण शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। हमारे द्वारा किया गया कोई भी कार्य अंतरिक्ष को प्रभावित नहीं कर सकता। सेब के पेड़ से गिरने से लेकर न्यूटन के अन्य नियमों ने आज तक इतनी अच्छी तरह काम किया है कि आज भी हम उपग्रहों के प्रक्षेपण से लेकर एयरप्लेन के लैंडिंग तक में ‘इन नियमों’ का प्रयोग किया जाता है। बाद में अलबर्ट आइंस्टाइन ने बताया कि अंतरिक्ष तटस्थ एवं स्थिर स्थान नहीं है, वह भी फैलता और सिकुड़ता है।
आज पूरा विश्व अंतरिक्ष संबंधी अनुसंधानों के लिये प्रयासरत है। भारत एवं चीन, जो 3500 किलोमीटर की सीमा साझा करते है, के मध्य 1962 में जंग भी हो चुकी है। हाल ही में चीन ने एक बयान जारी किया था कि भारतीय सैनिकों ने गैरकानूनी तरीके से पैंगॉन्ग लेक के दक्षिण तट पर एलएसी पार करने की कोशिश की है।
पिछले कई दिनों से लद्दाख के गलवान घाटी में भारत और चीन के मध्य सैनय तनाव जारी था। लद्दाख के पास स्थित गलवान घाटी विवादित क्षेत्र अक्साई चीन में है। गलवान क्षेत्र लद्दाख के चुसूल काउंसिल के अंतर्गत आता है। गलवान घाटी लद्दाख और अक्साई चीन के बीच स्थित है जहाँ से भारत-चीन सीमा काफी करीब है। लद्दाख में एलएसी पर स्थित गलवान इलाके को चीन ने अपने कब्ज़े में ले रखा है।
गलवान घाटी भारत की तरफ लद्दाख से लेकर चीन के दक्षिणी शिनजियांग तक फैली है। यह क्षेत्र भारत के लिये सामरिक रूप से बेहद महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह पाकिस्तान और चीन के शिनजियांग दोनों के साथ लगा हुआ है। हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन स्थापित करने के क्रम में भारत को चीन जैसे पड़ोसी राष्ट्र की शक्ति को संतुलित करना आवश्यक है। इसके लिये जरूरी है कि विभिन्न क्षेत्रों यथा रक्षा, परमाणु, आर्थिक एवं अंतरिक्ष क्षेत्र में भारत अपना प्रभुत्व स्थापित करें। साथ ही चीन के शक्ति संवर्धन पर भी नज़र रखना आवश्यक हैं। इसी क्रम में भारत एवं चीन के अंतरिक्ष कार्यक्रमों का एक तुलनात्मक अध्ययन किया गया है जो उनकी शक्ति-प्रभुत्व को सिद्ध करते हैं।
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का उद्देश्य है, राष्ट्रीय विकास के लिये अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के प्रयोग में आत्मनिर्भरता को प्राप्त करना।
मुख्य क्षेत्र:
- विभिन्न राष्ट्रीय अनुप्रयोग: दूरसंचार, टीवी प्रसारण, आकाशवाणी हेतु उपग्रह संचार
- दूरसंवेदी द्वारा संसाधन सर्वेक्षण और प्रबंधन, पर्यावरण जाँच पड़ताल और मौसम विज्ञान संबंधी सेवाएँ
- उपर्युक्त उद्देश्यों की पूर्ति हेतु देशी उपग्रहों तथा प्रक्षेपण यानों का विकास।
भारत में अंतरिक्ष अनुसंधान का काल 60 के दशक में हुआ तथा 1969 ई. में इसरो (Indian Space and Research Organization) की स्थापना हुई। इसरो ने न सिर्फ भारत के कल्याण के लिये बल्कि भारत को विश्व के समक्ष सॉफ्ट पॉवर के रूप में स्थापित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। देश में दूरसंचार, प्रसारण और ब्राडबैंड अवसंरचना के क्षेत्र में विकास के लिये इसरो ने उपग्रह संचार के माध्यम से कार्यक्रमों को चलाया। इसमें प्रमुख भूमिका INSAT और GSAT उपग्रहों की थी। इन उपग्रहों के माध्यम से भारत में दूरसंचार, टेलीमेडिसिन टेलीविजन, रेडियो, आपदा प्रबंधन, खोज और बचाव अभियान जैसी सेवाएँ प्रदान कर पाना संभव हुआ है।
भारत में इसरो की दूसरी महत्त्वपूर्ण भूमिका भू-पर्यवेक्षण (Earth Observation) के क्षेत्र में रही है। भारत में मौसम पूर्वानुमान, आपदा प्रबंधन, संसाधनों की मैपिंग करना तथा भू-पर्यावरण के माध्यम से नियोजन करना आदि के लिये भू-पर्यवेक्षण तकनीक की आवश्यकता होती है। भारत में वन सर्वेक्षण रिपोर्ट भी इसी तकनीक द्वारा तैयार होती है। वर्तमान में भारत में अधिक उच्च क्षमता वाले उपग्रह RISAT, कार्टोसेट (Cartosat), रिसोससेट (Resourcesat) आदि शृंखला के उपग्रहों का उपयोग किया जा रहा है।
तीसरा महत्त्वपूर्ण क्षेत्र उपग्रह आधारित नौवहन (Navigation) है। नौवहन तकनीक का उपयोग भारत में वायु सेवाओं को मजबूत बनाने तथा इसकी गुणवत्ता को सुधारने के लिये होता है। इन्हें ध्यान में रखते हुए गगन (GPS-aided GEO augmented-GAGAN) कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए IRNSS (Indian Regional Navigation Satellite System) लाँच किया जो 7 उपग्रहों पर आधारित है। ये उपग्रह भू-तुल्यकालिक (Geostationary)भू-संक्रमणकारी(Geosynchronous) कक्ष में स्थापित किये गए हैं। IRNS (वर्तमान नाम नाविक-NAVIC) वस्तुओं की सटीक स्थिति बताने एवं रक्षा क्षेत्र हेतु काफी महत्त्वपूर्ण है।
इसरो ने सक्षम प्रमोचन यान तकनीक की शुरूआत SLV (Satellite launch Vehicle) तथा ASLV (Augmented Satellite Launch Vehicle) से की। आगे चलकर भारत ने PSL (Polar satellite launch vehicle) तकनीक का विकास किया जो अंतरिक्ष कार्यक्रमों के लिेय एक मोल का पत्थर साबित हुआ। भारत अब GSLV (Geosynchronous Satillite Launch Vehicle) के मार्क III वैरिएंट पर कार्य कर रहा है। GSLV का मार्क III 3.5 MT के पेलोड को जियोसिंकोनस कक्ष में स्थापित कर सकता है। भारत में PSLV तथा GSLV की सफलता ने अतीत में चंद्रयान-1 तथा मंगल मिशन को सफल बनाना है। अब भारत चंद्रयान-2 तथा गगनयान कार्यक्रम पर कार्य कर रहा है।
अंतरिक्ष स्थितिपरक जागरूकता (SSA) के रूप में प्र्मुख उद्देश्य के साथ आंतरिक वस्तु अनुवर्तन एवं विश्लेषण के लिये नेटवर्क (नेत्र) इसरो की प्हली परियोजना है। इस परियोजना का मुख्य उद्देश्य भारतीय अंतरिक्ष परिसंपत्तियों की सुरक्षा में खतरा पैदा करने वाली अंतरिक्ष वस्तुओं की पहचान, अनुवर्तन एवं सूचीबद्ध करने हेतु प्रेक्षणात्मक सुविधाओं का नेटवर्क एवं नियंत्रण केंद्र स्थापित करना है। भारत ने अंतरिक्ष में एंटी सैटेलाइट मिसाइल द्वारा एक लाइव भारतीय सैटेलाइट को सफलतापूर्वक नष्ट करते हुए मिशन शक्ति को सफल बनाया था। ‘मिशन शक्ति’ का मूल उद्देश्य भारत की सुरक्षा, आर्थिक विकास और भारत की तकनीकी प्रगति को दर्शाता है। इस प्रकार अमेरिका, रूस और चीन के बाद यह उपलब्धि हासिल करने वाला भारत दुनिया का चौथा देश बन गया। इसे ISRO और DRDO ने मिलकर विकसित किया था।
अगर चीन के अंतरिक्ष कार्यव्रमों की बात की जाए तो इस प्र्कार संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह, शीत युद्ध के दौर में चीन का अंतरिक्ष कार्यव्रम तब शुरू हुआ जब दुनिया कमोवेश वर्चस्व की इच्छा के कारण दो राजनीतिक खेमों में बँट गई। एक तरफ, संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी एवं दूसरे तरफ सोवियत संघ एवं उनके सहयोगी। हालाँकि चीन यूएसएसआर के साथ संबद्ध नहीं था परन्तु अमेरिका द्वारा उसे खतरा माना जाता था। 8 अक्टूबर 1956 को चीन की प्हली रौकेट मिसाइल विकास एजेंसी- पिफल्स रिसर्च इंस्टीट्यूट को चीन के राष्ट्रीय रक्षा मंत्रालय द्वारा स्थापित किया गया। 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध में इसकी स्थापना और 90 के दशक की शुरूआत में हुए इसमें सुधार के बाद से, चीन के अंतरिक्ष कार्यव्रम ने कुछ बहुत प्रभावशाली उपलब्धियाँ हासिल की है। 1970 में डोंग फेंग हांग-1 उपग्रह का प्रक्षेपण किया जिसने अंतरिक्ष में लांच किये गए सबसे भारी उपग्रह होने का रिकार्ड बनाया। FSW-O NO 1 रिक्वरेबल उपग्रह का प्रक्षेपण भी चीनी अंतरिक्ष कार्यव्रम के लिये एक प्र्मुख मील का पत्थर था। इसके साथ ही चीन उपग्रह वापसी तकनीक में विशेषज्ञता प्रदर्शित करने वाला दुनिया का तीसरा देश बन गया। युआनवांग-1 ट्रैकिंग जहाज की कमीशनिंग ने न चीन को दुनिया का चौथा ऐसा देश बना दिया जिसके पस समुद्र में जाने वाला अंतरिक्ष सर्वेक्षण जहाज है जो वैलिस्टिक मिसाइलों, उपग्रहों और अंतरिक्ष यान को ट्रैक करने में सक्षम है। 2003 में शैनझोउ-5 के प्रक्षेपण के साथ चीन अंतरिक्ष में किसी व्यक्ति को सफलतापूर्वक भेजने वाला तीसरा देश (अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ के बाद) बन गया। 2011 में चीन ने पांच सौ मीटर एर्प्चर गोलाकार रेडियों टेलीस्कोप (FAST) एरे का निर्माण शुरू किया, जिसका निर्माण कार्य 2016 में पूर्ण हुआ। 2016 में शेनझोउ 11 मिशन शुरू हुआ जिसके चालकदल तियांगाग-2 अंतरिक्ष स्टेशन पर गए थे।
चांगई कार्यक्रम चीन के लिये बहुत महत्त्वपूर्ण कदम था। 2007 में चांग'ए 1 आर्बिटर के प्र्क्षेपण के साथ चीन चंद्रमा पर सफलतापूर्वक परिक्रमा करने और उसकी सतह का नक्श बनाने वाला पांचवा राष्ट्र बन गया। चांग'4 मिशन सबसे महत्वपूर्ण था जिसने पहली बार चंद्रमा के दूर सतह पर सॉफट लैंडिंग कर इतिहास में स्थान बनाया था। लूनर माइक्रो इकोसिस्टम (LME) जीवित प्राणियों पर चंद्र गुरुत्वाकर्षण के प्रभावों का परीक्षण करने वाला पहला प्रयोग माना जाता है।
वर्ष 2020 में चीनी अंतरिक्ष कार्यक्रम में दो प्रमुख विकास हुए। जुलाई 2020 में चीन का पहला इंटरप्लेनेटरी मिशन (तियानवेव-1) मंगल के लिये लांच हुआ। सितंबर में चीन का पहला पुन: प्रयोग अंतरिक्ष विमान लांच हुआ। आज चीन को अंतरिक्ष में तीसरी सबसे बड़ी शक्ति माना जाता है (रूस और संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद)। आने वाले वर्षों में चीन की अंतरिक्ष एजेंसी CNSA के पास कई महत्वाकांक्षी योजनाएँ है जो उसे अग्रणी अंतरिक्ष महाशक्ति बना सकती है। अभी हाल ही में चीन 6G कम्युनिकेंशस टेस्ट सैटेलाइट लांच करने वाला विश्व का पहला देश बन गया है। माना जा रहा है कि यह तकनीक 5G की तुलना में 100 गुना तेज होगी।
वर्तमान समय में चीन की बढ़ती अंतरिक्ष क्षमताओं को देखते हुए भारत को भी इस दिशा में और प्रयास करने की आवश्यकता है ताकि एशिया-प्रशांत क्षेत्र में भू-राजनैतिक संतुलन बना रहे। भारत में अंतरिक्ष के लिये निजी क्षेत्र की भूमिका को सीमित रखा गया है। जबकि विश्व का सबसे बड़ा अंतरिक्ष क्षेत्र का संस्थान नासा (NASA) भी निजी क्षेत्र की सहायता लेता रहा है। हालाँकि भारत देश अंतरिक्ष एवं उपग्रह विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी देशों में शामिल है तथापि और प्रयास की आवश्यकता है ताकि यह चीन जैसे अपने पड़ोसी देशों के साथ शक्ति संतुलन स्थापित कर सके।