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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

तो क्या तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिये लड़ा जाएगा? (Part 1)

अभी किचन में गया तो देखा कि RO से बाथरूम की बाल्टी भरी जा रही थी और RO से उतना ही पानी बेकार बह रहा था। मैंने RO का पाइप बाल्टी में डाल दिया, जिससे बेकार बह रहा पानी भी बाल्टी में भरने लगा।

पाँच मिनट बाद पार्टनर की नाराज़ सी आवाज़ आई, "भइया ये क्या कर दिया? मैं नहाने के लिये कित्ती देर से पानी इकठ्ठा कर रहा था, आपने सब गंदा कर दिया।"

मैंने कहा कि भइया काहे नाराज़ होते हो! नहाया तो जा ही सकता है उस पानी से .... आखिर टंकी का ही तो है, साल भर उसी से तो नहाते रहे हो। कितनी क्राइसिस है देश भर में पानी की और तुम जितना साफ पानी इकठ्ठा कर रहे हो, उतना ही बेकार बहा रहे हो।

हमारे पार्टनर साहब कुछ खास नहीं बोले, मुझे बस यही समझाया कि इतना लोड मत लिया कीजिये इन चीजों का ... देश तीन ओर से पानी से ही घिरा है ... कभी खत्म नहीं होगा और होगा भी तो कौन-सा अकेले मरेंगे।

मैंने कोई जवाब नहीं दिया ... एक बार भी नहीं पूछा कि हरियाणा से पानी की सप्लाई बंद होने पर घर घूमने क्यों चले गए थे।

मैंने एक बार भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि अगर हालात नहीं बदले तो वर्ष 2050 तक भारत को पानी आयात करना पड़ेगा और न ही यह कहा कि दरअसल देश का आधे से ज़्यादा भू-गर्भीय जल खत्म हो चुका है।

भारत में इटैलियन कंपनी बिसलरी ने जब वर्ष 1965 में पहली बार बोतलबंद पानी बाज़ार में उतारा था तो लोगों ने इसका खूब मजाक उड़ाया था। आज दशा यह है कि तमाम महानगरों की बड़ी आबादी बोतलबंद पानी के सहारे जी रही है और बिसलरी पानी का पर्यायवाची बन चुका है।

यह सारा बदलाव महज़ तीन दशकों का है। मुझे याद है कि पीने का पानी हर दस कदम पर लगे हैंडपम्प और हर कुछ सौ मीटर पर मौजूद 'ज़िंदा' कुओं से मुफ्त मिल जाया करता था लेकिन आज प्रकृति के इस जीवनरस के लिये हमें पैसे देने पड़ रहे हैं। सोचिये, हमने विकास के नाम पर संसाधनों को संपत्ति बना डाला है।

क्या पानी पर किसी कंपनी या व्यक्ति का अधिकार हो सकता है? कोई होता कौन है किसी को पानी और हवा बेचने वाला! खैर, पानी की तरह ही 'शुद्ध हवा' की बोतलें भी बाज़ार में आ चुकी हैं, और हम बेशर्मों की तरह इस पर चुटकुले और मीम बना रहे हैं।

पार्टनर मेरा डूड है, नासमझ है ... पर आप सब तो समझदार हैं! पानी बचाइये, जीवन बचाइये ...क्योंकि तब्दीलियाँ बदस्तूर जारी हैं ... खुद ही सोचिये, आखिर एकाएक इतने सारे भूकंप कैसे आने लगे हैं दुनियाभर में! आखिर क्यों मिज़ाज बदले हुए हैं धरती के?

यह धरती, ये संसाधन हमें विरासत में नहीं मिले हैं... इनको हमने अपनी आने वाली नस्लों से उधार लिया है... समझ रहे हैं न !

अनुपम मिश्र कृत 'आज भी खरे हैं तालाब' की ये पंक्तियाँ यहां पूरी तरह प्रासंगिक हैं-

"बाकी पानी के मामले में निपट बेवकूफी के उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। मध्य प्रदेश के ही सागर शहर को देखें, कोई 600 बरस पहले लाखा बंजारे द्वारा बनाए गए सागर नामक एक विशाल तालाब के किनारे बसे इस शहर का नाम सागर हो गया था।

आज यहाँ नए समाज की पाँच बड़ी प्रतिष्ठित संस्थाएँ हैं। ज़िले और संभाग के मुख्यालय हैं, पुलिस प्रशिक्षण केंद्र है, सेना के महार रेजिमेंट का मुख्यालय है, नगर पालिका है और सर हरि सिंह गौर के नाम पर बना विश्वविद्यालय है।

एक बंजारा यहाँ आया और विशाल सागर बना कर चला गया लेकिन नए समाज की ये साधन संपन्न संस्थाएँ इस सागर की देखभाल तक नहीं कर पाईं। आज सागर तालाब पर ग्यारह शोध प्रबंध पूरे हो चुके हैं, डिग्रियाँ बँट चुकी हैं पर एक अनपढ़ माने गए बंजारे के हाथों बने सागर को पढ़ा-लिखा माना गया समाज बचा तक नहीं पा रहा है।"

बाकी, हमारी अविवेकपूर्ण फसल वितरण की तकनीकों ने हमारे जल प्रबंधन की पोल पहले से ही खोल रखी है। भूगर्भ-जल के अंतिम कतरों के सहारे हम पंजाब में धान उगा रहे हैं, सूखे महाराष्ट्र में गन्ने की खेती कर रहे हैं, लेकिन ड्रिप इरिगेशन जैसी सिंचाई पद्धतियों के प्रसार से कोसों दूर हैं।

क्रमश:

[हिमांशु सिंह]

Himanshu Singh

हिमांशु दृष्टि समूह के संपादक मंडल के सदस्य हैं। हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं और समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ विविध विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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