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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

क्यों है जरूरी टॉक्सिक पॉजि़टिविटी से बचना?

हमें बचपन से परिवार, दोस्‍तों, रिश्‍तेदारों, स्‍कूल, कॉलेज, जॉब में यही सिखाया जाता है जाता है कि पॉजिटिव रहो, नेगेटिव मत सोचो; पॉजिटिव सोचने के बहुत फ़ायदे हैं। नेगेटिव सोचने से बहुत नुकसान होता है, नेगेटिव ख्‍याल मन में नहीं लाने चाहिये और पता नहीं क्‍या क्‍या सिखाया जाता है। जैसे यह कम नहीं था, आजकल तो इंटरनेट भी पॉजिटिविटी के प्रवचन देने वालों और कोटेशन से भरा हुआ है। लेकिन, क्‍या आपको पता है कि पॉज़ि‍टिविटी टॉक्सिक यानी विषाक्‍त भी हो सकती है, यानी आपके लिए हानिकारक भी हो सकती है? दरअसल, इस हानिकारक पॉजिटिविटी को टॉक्सिक पॉजिटिविटी कहा जाता है। आइये, जानें कि टॉक्सिक पॉजिटिविटी क्‍या है और यह कैसे नुकसान पहुँचाती है।

टॉक्सिक पॉजिटिविटी क्‍या है

टॉक्सिक पॉजिटिविटी असल में सभी स्थितियों में एक खुशहाल, आशावादी अवस्‍था के अत्यधिक और अप्रभावी अतिसामान्यीकरण को कहा जाता है। लोग टॉक्सिक पॉजिटिविटी की प्रक्रिया में प्रामाणिक मानवीय भावनात्मक अनुभव को अस्‍वीकार करते हैं, उन्‍हें कम समझते हैं या मानते ही नहीं।

किसी भी अतिरेक की तरह, जब सकारात्मकता, यानी पॉजिटिविटी, का उपयोग मानवीय भावनाओं को दबाने के लिये किया जाता है, तो वह टॉक्सिक यानी विषाक्‍त हो जाती है। कुछ भावनाओं के अस्तित्व को नकारने से, हम इंकार और दमित भावनाओं की स्थिति में आ जाते हैं। सच तो यह है, मनुष्य में खामियाँ होती हैं। हम ईर्ष्यालु, क्रोधी और लालची हो जाते हैं। कभी-कभी जीवन आपको निचोड़ लेता है, लेकिन यह दिखावा करके कि हम "पूरे दिन पॉजिटिव" हैं, हम वास्तविक मानवीय अनुभव की वैधता को नकारते हैं।

टॉक्सिक पॉजिटिविटी के लक्षण

टॉक्सिक पॉजिटिविटी के कुछ सामान्य भाव और अनुभव नीचे दिये गए हैं ताकि आप यह जान सकें कि यह रोज़मर्रा की जिंदगी में कैसी दिखाई देती है।

  • अपनी सच्ची भावनाओं को दूसरी भावनाओं से ढकना या छिपाना।
  • भावनाओं पर दूसरी भावनाएँ थोपकर या उन्‍हें खारिज करके "बस आगे बढ़ते रहने" की कोशिश करना
  • आप जो महसूस करते हैं उसके लिए खुद को दोषी मानना
  • "अच्छा महसूस करो" जैसी बात कहकर दूसरों के बुरे अनुभव को कम करके आँकने की कोशिश करना
  • किसी के भावनात्मक अनुभव को समझने के बजाय यह समझाने की कोशिश करना जैसे, "यह और भी बुरा हो सकता था"
  • पॉजिटिविटी के अलावा झल्‍लाहट या निराशा जैसा कुछ भी व्यक्त करने के लिए दूसरों को शर्मिंदा करना
  • "जो है सो है" कहकर आपको परेशान करने वाली चीजों को किनारे कर देना

टॉक्सिक पॉजिटिविटी हमारे के लिए क्‍यों हानिकारक है

दबाई गई भावनाएँ

कई मनोवैज्ञानिक अध्ययन दिखाते हैं कि भावनाओं को छिपाने या नकारने से अधिक तनाव होता है और/या कष्टदायक विचारों और भावनाओं से बचने से परेशानी और बढ़ जाती है।

उदाहरण के लिए, एक अध्ययन में अनुसंधान प्रतिभागियों को दो समूहों में विभाजित किया गया था और उन्हें परेशान करने वाली चिकित्सा प्रक्रिया की फिल्में दिखाई गईं, और उस दौरान उनकी तनाव प्रतिक्रियाओं को मापा गया (जैसे, हृदय गति, आँखों की पुतली का फैलाव, पसीना आना)।

एक समूह को वीडियो देखते हुए अपनी भावनाओं को व्‍यक्‍त करने के लिए कहा गया, जबकि दूसरे समूह के प्रतिभागियों को फिल्में देखने और यह अभिनय करने के लिए कहा गया जैसे कि कुछ भी उन्हें परेशान नहीं कर रहा था।

जानते हैं इसका नतीजा क्‍या निकला? जिन प्रतिभागियों ने अपनी भावनाओं को दबाया (ऐसा अभिनय किया जैसे कि उन्हें कुछ भी परेशान नहीं करता) उनमें काफी अधिक शारीरिक उत्तेजना थी। भावनात्मक दमन करने वाले भले ही शांत दिखाई दे रहे हों लेकिन अंदर से वे भी तनाव से पीड़ित हो रहे थे।

इस प्रकार के अध्ययनों से हमें पता चलता है कि विभिन्‍न भावनाओं (यहाँ तक कि "उतने पॉजिटिव नहीं" वाले) को व्यक्त करना, शब्‍दों में यह बताना कि हम कैसा महसूस करते हैं, और व्‍यक्‍त करने के लिए चेहरे के भाव (जिसका अर्थ रोना भी हो सकता है) हमें तनाव के प्रति प्रतिक्रिया को नियंत्रित करने में मदद करते हैं।

जब हम खुद की कोई चीज़ ज़ाहिर नहीं करना चाहते, तो हम दुनिया के लिए एक नकली चेहरा या सार्वजनिक व्यक्तित्व बनाते हैं। वह चेहरा कभी-कभी प्रसन्नता भरी मुस्कान के साथ, यह कहते हुए हर्षित दिख सकता है, कि सब कुछ किसी कारण से होता है, या जो है सो है। जब हम इस तरह छिप जाते हैं, तो हम अपनी सच्चाई को नकार देते हैं। जीवन का सत्य यह है कि वह कभी-कभी तकलीफ़ पहुँचा सकता है। ऐसे में यदि हमको क्रोध या दुःख की अनुभूति होती हैं - और हम उन भावनाओं को स्वीकार नहीं करते हैं - तो वे हमारे शरीर के भीतर दब जाती हैं। जैसा कि ऊपर बताया गया है, दबी हुई भावनाएँ बाद में चिंता, अवसाद या यहाँ तक कि शारीरिक बीमारी के रूप में प्रकट हो सकती हैं।

अपनी भावनाओं की वास्तविकता को मौखिक रूप से स्वीकार करना और उन्हें शरीर से बाहर निकालना ज़रूरी है। यही हमें स्वस्थ रखता है और सच को दबाने से उत्पन्न होने वाले तनाव से मुक्ति दिलाता है। हम अपनी भावनाओं का स्‍वीकार करते हैं, तो हम अच्छे, बुरे और बदसूरत सभी को अपना लेते हैं। और हम जैसे हैं वैसे ही खुद को स्वीकार करना, एक मज़बूत भावनात्मक जीवन का ज़रिया है।

अलगाव और अन्य संबंधित समस्याएं

अपनी सच्चाई को नकारने में, हम निजी और बाहरी दुनिया के सामने नकली जीवन जीने लगते हैं। हम अपने आप से कट जाते हैं, जिससे दूसरों के लिए हमसे जुड़ना मुश्किल हो जाता है। हम बाहर से अटूट लग सकते हैं, लेकिन अंदर से हम किसी को गले लगाने के लिए तरस रहे होते हैं।

क्या आप कभी खुशमिज़ाज, मिठास भरे "बस अच्छे विचारों के बारे में सोचें" ऐसे व्यक्ति के आसपास रहे हैं? आप जिन भावनाओं को महसूस कर रहे हैं, उनके बारे में बताने में आप कितने सहज होते हैं?

भले ही उस व्यक्ति के इरादे दुनिया में सबसे अच्छे हों, लेकिन वे जो संदेश बिना सोचे समझे भेज रहे हैं, वह है, "मेरी उपस्थिति में केवल अच्छी भावनाओं की अनुमति है।" इसलिए, उनके आस-पास "अच्छे वाइब्स" के अलावा कुछ भी व्यक्त करना वास्तव में कठिन हो जाता है। नतीजतन, आप निहित नियमों का पालन करते हैं, "मैं केवल आपके आस-पास एक निश्चित प्रकार का व्यक्ति हो सकता हूं, मैं स्वयं नहीं हो सकता।"

अपने आप से संबंध, अक्सर दूसरों के साथ आपके संबंधों में झलकता है। यदि आप अपनी भावनाओं के बारे में ईमानदार नहीं हो सकते हैं, तो आप अपनी उपस्थिति में वास्तविक भावनाओं को व्यक्त करने वाले किसी और के लिए जगह कैसे रख पाएँगे? एक नकली भावनात्मक दुनिया बनाकर, हम अधिक नकलीपन को आकर्षित करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप नकली अंतरंगता और सतही दोस्ती होती है।

खुद को अपनी भावनाओं को महसूस करने दें

हालाँकि यह जितना सरल लगता है, अक्‍सर उससे ज्‍़यादा कठिन होता है। हमारी जटिल भावनाओं में न उलझने के लिये हमारे पास अक्सर बहाने होते हैं, जैसे कि, हमारे पास उनसे निपटने का समय नहीं है, हम व्यथित नहीं होना चाहते, हम दूसरों को परेशान नहीं करना चाहते, आदि।

हालाँकि, याद रखें, आपकी नकारात्मक भावनाएँ तब तक दूर नहीं होंगी जब तक कि आप अंततः उनसे निपट नहीं लेते। इसलिये उन्हें स्वीकार करें, यह समझने की कोशिश करें कि वे विचार कहाँ से आ रहे हैं, और सोचें कि आप उन्हें दूर करने के लिए क्या कर सकते हैं।

यह बेहद ज़रूरी है कि नेगेटिव भावनाओं पर पॉजिटिव भावनाओं को न थोपा जाए। सभी भावनाएँ आपको इस बारे में उपयोगी जानकारी प्रदान करती हैं कि आप दुनिया में कैसे अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, और सभी समान रूप से मान्य हैं। और आप यह जितना जल्‍दी स्‍वीकार कर लें, उतना आपके लिए अच्‍छा होगा। पॉजिटिविटी के अतिरेक से बचें, टॉक्सिक पॉजिटिविटी से बचें।

संदीप शर्मा 

(संदीप शर्मा दस साल तक हिंदी पत्रकारिता से जुड़े रहने और फिर सामाजिक कार्यों में सलग्न रहने के बाद एक लोकलाइजेशन कम्पनी में टीम लीड के तौर पर काम कर रहे हैं।)

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