मानवाधिकार दिवस क्यों? थानेदार दिवस क्यों नहीं?
- 23 Nov, 2019 | प्रतिमा सिंह
हम कभी थानेदार या दरोगा दिवस नहीं मनाते हैं। पहलवान दिवस भी नहीं मनाते और न ही अंग्रेज़ी दिवस मनाते हैं।
परसाईं जी पहले ही कह चुके हैं ‘दिवस’ हमेशा कमज़ोरों के मनाए जाते हैं।
जैसे- मज़दूर दिवस, बाल दिवस, महिला दिवस, हिंदी दिवस या पर्यावरण दिवस। हम ऐसे दिवस के माध्यम से स्वयं को जागरूक करने का प्रयत्न करते हैं।
तो आने वाले 10 दिसंबर को हम विश्व मानवाधिकार दिवस मनाएंगे। ज़ाहिर है मानवाधिकार खतरे में है।
अब यह बताने की जरूरत तो नहीं ही है कि मानवाधिकारों को किस से और कैसे खतरा है। यहाँ तो ‘मियां की जूती मियां के सिर’ वाला हाल है। मानवाधिकार तो हम मानवों के चलते ही खतरे में है।
सब क्षमतानुसार अपने छोटे-छोटे फायदों के लिये एक-दूसरे की खाल उतारने पर आमादा हैं। लेकिन यह किसी वर्ग विशेष की समस्या नहीं है। हर वर्ग के पास अपने शिकार हैं और सबके पास स्वयं को संतुष्ट करने के तर्क भी हैं।
उच्च वर्ग और संगठित क्षेत्रों में जहाँ कम कीमत पर ओवरटाइम करवाने का चलन है, वहीं मध्यम वर्ग मजदूरों से बेगार करवाने में सुख पाता है। मज़दूर वर्ग ..मज़दूर वर्ग तो राह चलते कुत्ते को पत्थर मार कर लंगड़ा कर देने में ही मनोरंजन ढूँढ लेता है। कुल मिलाकर टैलेंट की कमी कहीं नहीं है।
समझने की बात है कि इंसान दुनिया का इकलौता जीव है जो अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिये बाकी जीवों के साथ- साथ अन्य इंसानों को भी अपना गुलाम बनाता रहा है।
दुनिया के बाकी जानवर अपने बच्चों के जन्म के तुरंत बाद उनको चरने या शिकार करने के काम पर नहीं लगा देते हैं। चाहे शेर हो या हिरन सभी जन्म के बाद शुरुआत के कुछ दिनों तक अपने बच्चो को सुरक्षा देते हैं। भोजन जुटाने, शिकार करने के साथ-साथ सुरक्षित रहना सिखाते हैं। सिर्फ इंसान ऐसा जीव है जो अपने बच्चों को पर्याप्त सुरक्षा और प्रशिक्षण दिये बिना अल्पायु में ही ज़ल्द-से-ज़ल्द भोजन जुटाने और उत्पादन के कामों में लगा देता है।
अन्य जीवों में संतानोत्पत्ति और मादाओं को रिझाने के लिए बाक़ायदा संघर्ष होता है और श्रेष्ठ नर, मादा का संसर्ग पाता है। लेकिन एक मानव ही है जिसने अपनी यौन-इच्छाओं की पूर्ति के लिये बाक़ायदा वेश्यालयों का भी निर्माण किया जो प्रायः निरपराध यौन-दासियों के लिये आजीवन कारावास की तरह होते हैं।
इंसान की सबसे अनोखी बात तो यह है कि इंसान अपने अधिकारों को लेकर जितना सजग रहता है, दूसरों के अधिकार उसे उतना ही चुभते हैं।
अधिकारों के लिये उसकी भूख दूसरों के अधिकारों को हड़पने के बाद ही शांत होती है फिर चाहे समानता का अधिकार हो या स्वतंत्रता का अधिकार, अभिव्यक्ति का अधिकार हो या जीवन का अधिकार।
इन सबमें ख़ास बात यह है कि दुनिया के सभी इंसानों और जीवों के कुल अधिकार भी सीमित और निश्चित हैं।
ऐसे में अपने मूल स्वभाव के चलते इंसान अधिकारों के उपभोग का हिस्सा बढ़ाना चाहता है,जो दूसरों का हिस्सा मारे बिना संभव नही है। ये मानवाधिकार हनन की मूल वजह है। मानवाधिकारों का साम्यवाद यहीं से नष्ट होना शुरू हो जाता है।
सरकारें अपने नागरिकों को शासन देने के बदले उनके अधिकारों का कुछ हिस्सा अपने पास रखती हैं। इस तरह दुनियाभर के देशों के बीच हो रहा वर्चस्व का संघर्ष दरअसल अधिकारों पर ज़्यादा-से-ज़्यादा नियंत्रण पाने का संघर्ष ही तो है।
यह विचार कि ‘कुछ लोग विशेष हैं, तो उनके अधिकार भी ज़्यादा और विशेष होने चाहिये’ इस सारी झंझट की वजह यही है। यही विचार मानव अधिकारों के बंदरबाँट को जन्म देता है।
दिमाग पर थोडा ही जोर देने पर हम यह समझ सकते हैं कि दुनिया भर में असमानता, गुलामी और लिंगभेद जैसी तमाम समस्याएं यहीं से जन्मी हैं।
दुनिया भर में चल रही अधिकार विजय की इस अंतहीन प्रतिस्पर्द्धा में अगर हमें संतुलित जीवन का मूलमंत्र जानना हो तो उर्दू के लेखक कृष्ण चंदर की लिखी इन पंक्तियों पर अमल करना जरूर फायदेमंद रहेगा।
“अपनी जिंदगी में तुमने क्या किया? किसी को सच्चे दिल से प्यार किया? किसी दोस्त को नेक सलाह दी? किसी दुश्मन के बेटे को मुहब्बत की नज़र से देखा? जहाँ अँधेरा था वहां रौशनी की किरण लेकर गए? जितनी देर तक जिए, इस जीने का क्या मतलब था?
प्रतिमा सिंह शांत और जिज्ञासु स्वभाव की हैं, ये महिला हितों पर मुखर अभिव्यक्ति रखती हैं। साथ ही इन्हें नए लोगों से मिलना, उन्हें जानना, किताबें पढ़ना, कविता- कहानियाँ लिखना पसंद है।