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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा: कब होगा इसका अंत?

"झूठ नहीं बोलेंगी हवाएँ
झूठ नहीं बोलेगी पर्वत-शिखरों पर
बची हुई थोड़ी-सी बर्फ
झूठ नहीं बोलेंगे चिनारों के
शर्मिंदा पत्ते
उनसे ही पूछो
सुमित्रा के मुँह में चीथड़े ठूँसकर
उसे कहाँ तक घसीटती ले गई
उनकी जीप
अपने पीछे बाँधकर’’

स्त्रियों के साथ होने वाले जघन्य अपराधों को इंगित करती ये पंक्तियाँ रूह को कंपा देने वाली हैं। हालाँकि महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की समस्या कोई नई नहीं है। भारतीय समाज में महिलाएँ एक लंबे समय से अवमानना, यातना और शोषण का शिकार रही हैं। हमारी विचारधाराओं, संस्थागत रिवाज़ों और समाज में प्रचलित प्रतिमानों ने उनके उत्पीड़न में काफी योगदान दिया है। इनमें से कुछ व्यावहारिक रिवाज़ आज भी व्याप्त हैं।

आज महिलाएँ एक तरफ सफलता के नए-नए आयाम गढ़ रही हैं तो वहीं दूसरी तरफ कई महिलाएँ जघन्य हिंसा और अपराध का शिकार हो रही हैं। उनको पीटा जाता है; उनका अपहरण किया जाता है; उनके साथ बलात्कार किया जाता है; उनको जला दिया जाता है या उनकी हत्या कर दी जाती है। लेकिन क्या हम कभी ये सोचते हैं कि आखिर वे कौन-सी महिलाएँ हैं जिनके साथ हिंसा होती है या उनके साथ हिंसा करने वाले लोग कौन है? हिंसा का मूल कारण क्या है और इसे खत्म कैसे किया जाए?

जाह़िर सी बात है, हम में से अधिकांश लोग कभी भी इन प्रश्नों पर विचार नहीं करते हैं। इसके विपरीत हम जब भी किसी महिला के साथ हिंसा की खबर देखते या सुनते हैं तो उस हिंसा के खिलाफ आवाज़ उठाने की बजाय अपने घर की महिलाओं, बहनों और बेटियों पर तरह-तरह के प्रतिबंध लगा देते हैं, जो स्वयं एक प्रकार की हिंसा ही है। इन्हीं सब कारणों के चलते संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर साल 25 नवंबर को अंतर्राष्ट्रीय महिला हिंसा उन्मूलन दिवस (International Day for the Elimination of Violence against Women) मनाया जाता है। इस दिवस का उद्देश्य दुनिया भर में महिलाओं के साथ हो रही हिंसा के प्रति लोगों को जागरुक करना है।

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की प्रकृति

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है-

  • आपराधिक हिंसा जैसे- बलात्कार, अपहरण, हत्या…
  • घरेलू हिंसा जैसे- दहेज संबंधी हिंसा, पत्नी को पीटना, लैंगिक दुर्व्यवहार, विधवा और वृद्ध महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार….
  • सामाजिक हिंसा जैसे पत्नी/पुत्रवधू को मादा भ्रूण की हत्या (female foeticide) के लिये बाध्य करना, महिलाओं से छेड़-छाड़, संपत्ति में महिलाओं को हिस्सा देने से इंकार करना, अल्पवयस्क विधवा को सती होने के लिये बाध्य करना, पुत्र-वधू को और अधिक दहेज के लिये सताना, साइबर उत्पीड़न आदि।

आइए, घरेलू दायरे और साथ ही साथ समाज में महिलाओं के साथ होने वाले कुछ अपराधों पर नज़र डालें-

घरेलू हिंसा

घरेलू हिंसा सभ्य समाज का एक कड़वा सच है। भारत में घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत साल 2021 में केवल 507 मामले दर्ज किये गए, जो महिलाओं के खिलाफ अपराध के कुल मामलों का 0.1 फीसदी है। जबकि वास्तविकता में यह संख्या कई गुना अधिक है। इसमें महिलाओं को लैंगिक, शारीरिक और मानसिक यातनाएँ दी जाती हैं।

अधिकांश मामलों में घरेलू हिंसा पति द्वारा पत्नी या ससुराल वालों के द्वारा बहू को शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न के रूप में नज़र आती है और महिलाएँ इसे अपना भाग्य समझकर सहती रहती हैं। इस हिंसा को सहने का एक कारण यह भी है कि हमारे भारतीय समाज में शादी के पहले से ही लड़की के दिमाग में यह बात बैठा दी जाती है कि एक बार पिता के घर से डोली उठने के बाद पति के घर से ही अर्थी उठनी चाहिये यानी शादी के बाद लड़की अपने पिता के घर वापस आकर नहीं रह सकती, भले ही ससुराल वाले उसका कितना ही उत्पीड़न करें। जिसके चलते अधिकाँश महिलाएँ बिना किसी से शिकायत किये शांति से हिंसा को सहती रहती हैं।

वहीं, कई महिलाएँ एवं बेटियाँ ऐसी भी हैं, जो अपने ही घर में हिंसा की शिकार हो जाती हैं। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में घर की बेटियों व महिलाओं के सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय घर के पुरुष मुखिया ही करते हैं। जिसके चलते कई बार वह अपने घर की लड़कियों को पढ़ाई के उचित अवसर नहीं देते, अगर पढ़ा भी दिया तो नौकरी करने के लिये घर की चारदीवारी से बाहर नहीं भेजते, उन पर जबरन शादी का दबाव बनाते हैं, जो कि एक प्रकार की मानसिक हिंसा है। साथ ही, अगर कोई लड़की अपना जीवनसाथी स्वयं चुन ले तो उसके परिवार वाले अपनी झूठी शान के लिये बेटी की हत्या करने में भी नहीं कतराते हैं। हैरान करने वाली बात तो यह है कि इनमें से अधिकांश मामलों की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं होती और अपराधियों का मनोबल बढ़ता जाता है।

अगर कुछ महिलाएँ आवाज़़ उठाती भी हैं तो कई बार पुलिस ऐसे मामलों को पंजीकृत करने में टालमटोल करती है क्योंकि पुलिस को भी लगता है कि पति द्वारा कभी गुस्से में पत्नी की पिटाई कर देना या पिता और भाई द्वारा घर की महिलाओं को नियंत्रित करना एक सामान्य सी बात है। इसलिये अब समय आ गया है कि महिलाएँ अपनी आवाज़ आवाज़ बुलंद करें और कहें कि ‘’केवल एक थप्पड़, लेकिन नहीं मार सकता”।

बलात्कार

बलात्कार समाज में होने वाला सबसे घिनौना अपराध है। ऐसे अपराधों में भी आमतौर पर अपरिचितों की बजाय परिचित ही शामिल होते हैं। यह अपराध अचानक नहीं होता बल्कि इसे पुरुषों द्वारा विचारित कर्म माना जाता है। अपराधी अधिकतर ऐसी संवेदनशील महिलाओं या बच्चियों को अपना शिकार बनाते हैं जो न तो इनके खिलाफ आवाज़ उठा सकती हैं और न ही उनका सामना कर सकती हैं। कई बार एक समूह के पुरुष, किसी दूसरी जाति के पुरुषों को नीचा दिखाने या अपनी दुश्मनी का बदला लेने के लिये उनके परिवार की महिलाओं को अपना शिकार बना लेते हैं; उनका बलात्कार करते हैं और परिवार के सदस्यों द्वारा इज्जत के डर से बलात्कार के अधिकांश मामलों की रिपोर्ट नहीं दर्ज कराई जाती है।

यौन उत्पीड़न

इसके अंतर्गत महिलाओं की आयु, वर्ग या वेशभूषा पर ध्यान दिये बिना सड़कों पर, बसों एवं रेलगाड़ियों में सफर के दौरान या फिर कार्यस्थल पर, उन पर मौखिक व्यंग्यात्मक टिप्पणियाँ करना या जानबूझकर उनसे टकराना या अश्लील भाषा का प्रयोग करना आदि शामिल हैं। ये शायद ऐसे गिने-चुने अपराध हैं जो दिनदहाड़े किये जाते हैं और ये ऐसे अपराध भी हैं जिन्हें पुलिस और आम जनता अनदेखा कर देती है। महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और एक आम रुख कि ‘’लड़के आखिर लड़के हैं’’, यौन उत्पीड़न को निरपराध और छिछोरी गतिविधि बनाते हैं। लेकिन ऐसे विकृत सुख का आखिर अर्थ क्या है और महिलाओं पर इसका क्या असर है, इस पर कोई विचार नहीं करता।

यौन उत्पीड़न की घटनाएँ जिस परिस्थिति में घटित हैं, वे शायद अलग-अलग हो सकती हैं लेकिन महिलाओं पर इनका प्रभाव एक जैसा ही होता है। यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाएँ कामगार और मनुष्य के रूप में खुद को शंका की दृष्टि से देखना शुरू कर देती हैं और उनमें घोर निराशा आ जाती है; वे स्वयं को शक्तिहीन मानने लगती हैं। इसी कारण यौन उत्पीड़न को अक्सर ‘मनोवैज्ञानिक बलात्कार’ भी कहा जाता है।

भारत में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा से संबंधित कुछ आँकड़े

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2015 में महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के 3.29 लाख मामले, साल 2016 में 3.38 लाख मामले, साल 2017 में 3.60 लाख मामले और साल 2020 में 3,71,503 मामले दर्ज किये गए। वहीं, साल 2021 में ये आँकड़ा बढ़कर 4,28,278 हो गया, जिनमें से अधिकतर यानी 31.8 फीसदी पति या रिश्तेदार द्वारा की गई हिंसा के, 7.40 फीसदी बलात्कार के, 17.66 फीसदी अपहरण के, 20.8 फीसदी महिलाओं को अपमानित करने के इरादे से की गई हिंसा के मामले शामिल हैं।

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के प्रमुख कारण

  • पितृसत्तात्मक मानसिकता।
  • पुरुष और महिलाओं के बीच शक्ति एवं संसाधनों का असमान वितरण।
  • लैंगिक जागरूकता का अभाव।
  • पुरुषों की तुलना में महिलाओं का सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से कम सशक्तीकरण।
  • समाज द्वारा लैंगिक हिंसा को मौन सहमति।
  • पुरुषों पर अत्यधिक निर्भरता के कारण महिलाओं का लैंगिक हिंसा के प्रति अधिक सुभेद्य (Vulnerable) होना।
  • कानूनों का कुशल कार्यान्वयन न होना।
  • घरेलू हिंसा को संस्कृति का हिस्सा बना देना।
  • लिंग भूमिकाओं से संबंधित रूढ़ियाँ।
  • महिलाओं की भूमिका विवाह और मातृत्व तक सीमित कर देना।

अक्सर ऐसी महिलाएँ होती हैं हिंसा की शिकार

यदि हम महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के सभी मामलों का अवलोकन करें तो हम पाएँगे कि सामान्यतया हिंसा की शिकार वे महिलाएँ होती हैं-

  • जो असहाय और अवसादग्रस्त होती हैं; जिनकी आत्मछवि खराब होती है; जो आत्म अवमूल्यन से ग्रसित होती हैं या वे जो अपराधकर्ताओं द्वारा की गई हिंसा के कारण भावात्मक रूप से निर्बल हो गई हैं।
  • जो दबावपूर्ण पारिवारिक स्थितियों में रहती हैं।
  • जिनमें सामाजिक परिपक्वता की या सामाजिक अन्तर-वैयक्तिक प्रवीणताओं की कमी है, जिसके कारण उन्हें व्यवहार संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
  • जिनके पति या ससुराल वालों का व्यक्तित्व विकृत है और जिनके पति प्राय: शराब पीते हैं।

हिंसा करने वाले कौन?

हिंसा करने वालों में प्राय: वे लोग शामिल होते हैं-

  • जो अवसादग्रस्त होते हैं; जिनमें हीन भावना होती है और जिनका आत्मसम्मान कम होता है।
  • जो मनोरोगी होते हैं।
  • जिनके पास संसाधनों, प्रवीणताओं (Skills) और प्रतिभाओं (talents) का अभाव होता है और जिनका व्यक्तित्व विकृत होता है।
  • जिनकी प्रकृति में मालिकानापन (Possessive), शक्कीपन और प्रबलता (dominance) होती है।
  • जो पारिवारिक जीवन में तनावपूर्ण स्थितियों का सामना करते हैं।
  • जो बचपन में हिंसा के शिकार हुए थे और जो मदिरापान करते हैं।

महिलाओं की सुरक्षा हेतु कुछ महत्त्वपूर्ण कानून -

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के अंतर्गत बलात्कार को अत्यंत जघन्य अपराध माना गया है।
  • दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961और 1986
  • आईपीसी की धारा 494 के तहत पति या पत्नी के जीवित होते हुए विवाह करना दंडनीय अपराध।
  • हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अंतर्गत दूसरे विवाह को प्रतिबंधित किया गया है।
  • घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005
  • महिला आरोपी की दंड प्रक्रिया संहिता 1973
  • भ्रूण लिंग चयन निषेध अधिनियम 1994
  • अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम 1956
  • कार्यस्थल पर महिलाओं के सम्मान की सुरक्षा के लिये वर्कप्लेस बिल (POSH Act, 2013)
  • पॉक्सो (POCSO) अधिनियम

अपराधों को रोकने संबंधी चुनौतियाँ

तमाम कानूनों और तरीकों को अपनाने के बाद भी हम महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों को रोकने में असफल हो रहे हैं, इसलिये यह आवश्यक है कि समस्या का समाधान करने से पहले हम उसमें आने वाली चुनौतियों को समझें-

  • न्यायालय में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों का लंबे समय तक लंबित पड़े रहना।
  • सजा दिये जाने की दर में कमी।
  • जाँच करने वाले अधिकारियों का महिलाओं के साथ अच्छा व्यवहार न किया जाना अर्थात महिलाओं को उत्पीड़ित नहीं बल्कि अपराधी की नज़र से देखना।
  • सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों में ‘रोकथाम’ के स्थान पर ‘सज़ा’ पर अधिक ज़ोर दिया जाना।

महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को रोकने के उपाय

निम्नलिखित तरीकों को अपनाकर महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है-

  • महिलाओं की सुरक्षा के लिये बनाए गए कानूनों को मज़बूत करने के साथ-साथ उन्हें सख्ती से लागू किया जाए।
  • सरकार द्वारा सभी स्तरों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा दिया जाए।
  • फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की जाए।
  • महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली संस्थाओं को मजबूत बनाया जाए।
  • महिला थानों की संख्या के साथ-साथ महिला पुलिस अधिकारियों की संख्या को बढ़ाया जाए और हेल्पलाइन नंबर, फोरेंसिक लैब की स्थापना, सार्वजनिक परिवहन में सीसीटीवी और पैनिक बटन लगाने जैसी व्यवस्थाएँ की जानी चाहिये।
  • समाज की मानसिकता में बदलाव लाने की ज़रूरत ।
  • सभी महिलाओं को शिक्षित किया जाए जिससे वे अपने अधिकारों के प्रति जागरुक हों और आत्मनिर्भर बन सकें।

तो हमने देखा कि महिलाओं की मानवीय प्रतिष्ठा के वास्तविक सम्मान के लिये जो लड़ाई लड़नी है, उसके लिये अभी मीलों का सफर तय करना है और हम इस सफर को तभी तय कर पाएँगे जब महिलाएँ अपने साथ होने वाले अपराधों को सहना छोड़कर उनके खिलाफ आवाज़ उठाएँगी क्योंकि हमारे भारतीय समाज में महिलाओं को सिर्फ सहना सिखाया जाता है, कहना नहीं सिखाया जाता। इसलिये ज़रूरी है कि महिलाएँ सबसे पहले अपनी आवाज़ खुद उठाएँ, अपनी मशाल का दीपक खुद जलाएँ तथा अपनी गरिमा के साथ कोई समझौता न करें। इसी संदर्भ में महिला अधिकार कार्यकर्ता कमला भसीन का कहना है कि-

इरादे कर बुलंद अब रहना शुरू करती तो अच्छा था
तू सहना छोड़ कर कहना शुरू करती तो अच्छा था
सदा औरों को खुश रखना बहुत ही खूब है लेकिन
खुशी थोड़ी तू अपने को भी दे पाती तो अच्छा था
दुखों को मानकर किस्मत हारकर जीने से क्या होगा
तू आँसू पोंछकर अब मुस्कुरा लेती तो अच्छा था
ये पीला रंग, लब सूखे सदा चेहरे पे मायूसी
तू अपनी एक नयी सूरत बना लेती तो अच्छा था
तेरी आँखों में आँसू हैं तेरे सीने में हैं शोले
तू इन शोलों में अपने गम जला लेती तो अच्छा था
है सर पर बोझ जुल्मों का तेरी आँखे सदा नीची
कभी तो आँखे उठा तेवर दिखा देती तो अच्छा था
तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल का इक परचम बना लेती तो अच्छा था।

  शालिनी बाजपेयी  

शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।

  स्रोत  

https://youtu.be/rHMOHFWrzdA

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