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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

विजयादशमी विशेष: शरण में आए व्यक्ति की रक्षा

कोरोना काल के पहले 2019 की विजयदशमी पर मैं रामेश्वरम गया था। धनुषकोडि से लौटते हुए मैं एक ऊँचे स्थल पर बने विभीषण मंदिर में भी गया। देश का शायद यह अकेला विभीषण मंदिर होगा। वहाँ के दाक्षिणात्य पुजारी ने मुझे कम्बन की तमिल रामायण का एक प्रसंग सुनाया- विभीषण राम की शरण में आए हैं, मंथन चल रहा है कि इन पर भरोसा किया जाए या नहीं। सुग्रीव भी तय नहीं कर पा रहे हैं, न जामवंत। कई वानर वीर तो विभीषण को साथ लेने के घोर विरोधी हैं, उनका कहना है कि राक्षसों को कोई भरोसा नहीं। क्या पता रावण ने कोई भेदिया भेजा हो। राम को विभीषण की बातों से सच्चाई तो झलकती है, लेकिन राम अपनी ही राय थोपना नहीं चाहते। वे चुप बैठे सब को सुन रहे हैं। सिर्फ बालि का पुत्र अंगद ही इस राय का है कि विभीषण पर भरोसा किया जाए। तब राम ने हनुमान की ओर देखा। हनुमान अत्यंत विनम्र स्वर में बोले- “प्रभु आप हमसे क्यों अभिप्राय मांगते हैं? स्वयं गुरु वृहस्पति भी आपसे अधिक समझदार नहीं हो सकते। लेकिन मेरा मानना है कि विभीषण को अपने पक्ष में शामिल करने में कोई डर नहीं है। क्योंकि यदि वह हमारा अहित करना चाहता तो छिपकर आता, इस प्रकार खुल्लमखुल्ला न आता। हमारे मित्र कहते हैं कि शत्रु पक्ष से जो इस प्रकार अचानक हमारे पास आता है, उस पर भरोसा कैसे किया जाए! किन्तु यदि कोई अपने भाई के दुर्गुणों को देखकर उसे चाहना छोड़ दे तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है। आपकी महिमा से विभीषण प्रभावित हो, तो इसमें आश्चर्य कैसा! परिस्थितियों को देखते हुए मुझे विभीषण पर किसी प्रकार की शंका नहीं होती।

अब राम चाहते तो विभीषण के बारे में अपना फैसला सुना देते, लेकिन उन्होंने अपने समस्त सहयोगियों की राय ली। यही उनकी महानता है और सबकी राय को ग्रहण करने की क्षमता। वे वानर वीरों को भी अपने बराबर का सम्मान देते हैं। (कंबन की तमिल रामायण का यह अंश, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की पुस्तक दशरथ-नंदन श्रीराम से लिया गया है। चक्रवर्ती जी की इस अंग्रेजी पुस्तक का हिंदी अनुवाद उनकी पुत्री और महात्मा गाँधी की पुत्रवधू लक्ष्मी देवदास गाँधी ने किया है)

इसीलिए राम के बारे में कहा गया है कि ‘राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाए सहज संभाव्य है’। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के बारे में इतना साहित्य रचा गया है कि शायद किसी नायक के इतने चरित्र गढ़े गए हों। उत्तर-दक्षिण-पूरब-पश्चिम सब जगह राम-कथाएँ मिलती हैं। और हर जगह की राम कथा अपने अलग ही रूप के साथ दिखती है। और अकेले भारत में ही नहीं बल्कि भारत से पश्चिमोत्तर कांधार देश में भी तो पूर्व में बर्मा, स्याम, थाईलैंड और इंडोनेशिया तक राम कथा मौजूद है। राम भले वैष्णव हिन्दुओं के लिए विष्णु के अवतार हों, लेकिन जैन, सिख और बौद्ध धर्मों में भी राम-कथा है। राम को हर जगह अयोध्या का राजा बताया गया है, बस बाकी चरित्रों में भिन्नता है। राम आदर्श, धीरोदात्त नायक हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, उनके अन्दर सागर जैसी गम्भीरता है और उनके चरित्र में पहाड़ सदृश ऊंचाई। वे समाज में एक ऐसे चरित्र को प्रतिस्थापित करते हैं, जिस चरित्र से पूरा मानव समाज गरिमा के साथ प्रकट होता है। उनमें अनुशासन है, वे माँ-बाप और गुरु के आज्ञाकारी हैं। लोभ तो उनमें छू तक नहीं गया है। ऐसे राम हमारे भारतीय समाज के नायक तो होंगे ही। तभी तो मशहूर शायर इकबाल ने भी उन्हें इमाम--हिन्द बताया है।

राम एक ऐसे नायक हैं, जो धर्म, जाति और संकीर्णता के दायरे मुक्त हैं। वे सिर्फ और सिर्फ मानवीय आदर्श के मानवीकृत रूप हैं। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर मध्यकालीन कवि तुलसी तक ने उन्हें विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया है। लेकिन एक आदर्श नायक के सारे स्वरूप उनमें निहित हैं। हर कवि ने राम को अपनी नज़र से देखा और उनके अलौकिक गुणों की व्याख्या अपनी संवेदना से की। मूल आधार वाल्मीकि रामायण है, लेकिन क्षेपक अलग-अलग हैं। जैसे तमिल के महान कवि कंबन ने अपने अंदाज़ में कहा है तो  कृतिवास की बाँग्ला रामायण और असम के शंकर देव का अंदाज़ अलग है। कहीं राम स्वर्ण-मृग की खोज में नहीं जाते हैं तो कहीं वे सीता की अग्नि परीक्षा और सीता वनवास से विरत रहते हैं। जितने कवि उतने ही अंदाज़, किन्तु राम कथा एक। यह विविधता ही राम कथा को और मनोहारी तथा राम के चरित्र को और उदात्त बनाती है। एक प्रसंग का वर्णन कंबन की तमिल राम कथा के सहारे और तुलसी का आधार लेकर सुप्रसिद्ध साहित्यकार रांगेय राघव ने किया है। वानर राज बालि के वध का प्रसंग तो अद्भुत है। वे लिखते हैं- 

बालि घायल पड़ा था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि सुग्रीव उसका छोटा भाई कभी उसे परास्त भी कर सकता है। तभी उसने अर्धचेतन अवस्था में ही राम और लक्ष्मण को वृक्षों के झुरमुट से बाहर आते देखा। वह फौरन समझ गया कि उसकी यह हालत सुग्रीव की गदा से नहीं बल्कि इन दो मनुष्यों के तीरों से हुई है। उसने कातर दृष्टि साँवले राम की तरफ डाली और बोला- “धर्म हेतु अवतरेहु गुसाईं, मारेहु मोहि ब्याधि की नाईं। मैं बैरी सुग्रीव पियारा, अवगुन कवन नाथ मोहिं मारा।।”

राम निरुत्तर थे। क्या बोलते। दूसरे का देश और वह प्रजा जो राम से अपरिचित थी। यहाँ  सिर्फ हनुमान, अंगद और सुग्रीव के अलावा बाकी सब राम को नहीं जानते थे। वह समझ नहीं पा रहे थे कि क्या जवाब दें। अगर अपने राजा की यह स्थिति देखकर प्रजा भड़क गई तो अथवा पट्ट महारानी तारा के विलाप से उनका पुत्र अंगद और देवर सुग्रीव विचलित हो गए तो राम का अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ मारा जाना तय था। भीड़ पर अंकुश पाना आसान नहीं होता। तारा की दहाड़ और अंगद का बिलखना खुद राम को भी विचलित कर रहा था। बड़ी कशमकश की घड़ी थी। तब ही अचानक राम की चेतना जागी और वे बोले- “अनुज बधू भगिनी सुत-नारी, सुनु सठ कन्या सम ये चारी। इन्हहिं कुदृष्टि बिलोकहि जोई, ताहि बधें कछु पाप न होई॥” 

राम ने अपनी बुद्घि चातुर्य का अद्भुत प्रदर्शन किया। उन्होंने बड़ी सफाई से एक क्षण में ही बालि के संपूर्ण आचरण को संदेहास्पद बना दिया। अब बालि अपराध बोध से ग्रसित था और उसकी प्रजा के पास इसका कोई जवाब नहीं था कि वह बालि के आचरण को सही कैसे ठहराए। यह सच था कि वानर राज बालि ने अपने छोटे भाई को लात मारकर महल से निकाल दिया था और उसकी पत्नी को अपने महल में दाखिल करवा लिया था। भले यह किष्किंधा राज्य वानरों का था पर दूसरे वह भी छोटे भाई की पत्नी को छीन लेना उचित कहाँ से था। राम ने एक मर्यादा रखी कि छोटे भाई की पत्नी, बहन और पुत्रवधू अपनी स्वयं की कन्या के समान है। और इन चारों पर बुरी नजर रखने वाले को मौत के घाट उतारना गलत नहीं है। तत्क्षण दृश्य बदल गया और बालि को अपने अपराध का भान होते ही वह स्वयं ही अपराध बोध से ग्रस्त हो गया और अपनी इस भूल का एहसास उसे हुआ तथा उसने प्राण त्याग दिए। राम ने एक मिनट की भी देरी नहीं की और सुग्रीव को किष्किंधा का नया राजा घोषित कर दिया तथा देवी तारा को दुख न हो इसलिए उनके पुत्र अंगद को युवराज। इससे जनता में एक संदेश गया कि ये दोनों मनुष्य भले ही हमारे राजा के हंता हों पर ये राज्य के भूखे नहीं हैं और देखो इन्होंने राज्य खुद न हड़प कर हमारे राजा के छोटे भाई सुग्रीव को सौंपा तथा राजा बालि के पुत्र अंगद को युवराज बनाया। राम चाहते तो राजा विहीन किष्किंधा को हड़प सकते थे। क्योंकि सुग्रीव तो अपने भाई के साथ विश्वासघात करने के कारण वैसे ही अपराधबोध से परेशान होते और विरोध भी न कर पाते। मगर राम ने एक मर्यादा को स्थापित किया। यही राम की विशेषता थी जिसके कारण आज भी राम हमारे रोम-रोम में समा गए हैं। राम के बिना क्या यह हिंदू माइथोलॉजी की, हिंदू समझदारी और हिंदू समाज व संस्कृति की कल्पना की जा सकती है?

राम इसीलिए तो पूज्य हैं, आराध्य हैं और समाज की मर्यादा को स्थापित करने वाले हैं। वे किष्किंधा का राज्य सुग्रीव को सौंपते हैं और लंका नरेश रावण का युद्घ में वध करने के बाद वहाँ  का राज्य रावण के छोटे भाई विभीषण को। राम को राज्य का लोभ नहीं है। वे तो स्वयं अपना ही राज्य अपनी सौतेली माँ के आदेश पर यूँ त्याग देते हैं जैसे कोई थका-माँदा पथिक किसी वृक्ष के नीचे विश्राम करने के बाद आगे की यात्रा के लिए निकल पड़ता है- ‘राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राजु बटाउ की नाईं’। राम आदर्श हैं और वे हर समय समाज के समक्ष एक मर्यादा उपस्थित करते हैं। राम एक पत्नीव्रती हैं पर पत्नी से उनका प्रेम अशरीरी अधिक है बजाय प्रेम के स्थूल स्वरूप के। वे पत्नी को प्रेम भी करते हैं मगर समाज जब उनसे जवाब मांगता है तो वे पत्नी का त्याग भी करते हैं।

राम हमारे संस्कृति के सबसे बड़े प्रतीक हैं। वे वैष्णव हैं, साक्षात विष्णु के अवतार हैं। वे उस समय की पाबंदी तोड़ते हुए खुद शिव की आराधना करते हैं और रामेश्वरम लिंगम की पूजा के लिए उस समय के सबसे बड़े शैव विद्वान दशानन रावण को आमंत्रित करते हैं। उन्हें पता है कि उनकी शिव अर्चना बिना दशानन रावण को पुरोहित बनाए पूरी नहीं होगी इसलिए राम रावण को बुलाते हैं। रावण आता है और राम को लंका युद्घ जीतने का आशीर्वाद देता है। राम द्वेष नहीं चाहते। वे सबके प्रति उदार हैं यहाँ  तक कि उस सौतेली माँ के प्रति भी जो उनके राज्याभिषेक की पूर्व संध्या पर ही उन्हें 14 साल के वनवास पर भेज देती है और अयोध्या की गद्दी अपने पुत्र भरत के लिए आरक्षित कर लेती है। लेकिन राम अपनी इस माँ कैकेयी के प्रति जरा भी निष्ठुर नहीं होते और खुद भरत को कहते हैं कि भरत माता कैकेयी को कड़वी बात न कहना। राम के विविध चरित्र हैं और वे सारे चरित्र कहीं न कहीं मर्यादा को स्थापित करने वाले हैं। संस्कृतियों के बीच समरसता लाने वाले हैं और विविधता में एकता लाने वाले हैं।

शंभूनाथ शुक्ल

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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