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मतदान की पहेली

देश के शासन को चलाने के लिए सरकार के गठन में मतदाता वोटिंग के लिए जो व्यवहार अपनाते है, वह व्यवहार ही तय करता है कि सरकार बहुमत प्राप्त कर शासन करेगी या गठबंधन में रहकर कार्य करेगी। इस बिंदु के विश्लेषण से पहले एक गंभीर सत्य को आत्मसात करना आवश्यक है कि यहां इच्छा और उसके परिणाम में अंतर होता है। उदाहरण के लिए, बाजार से अपनी मनपसंद वस्तु या सेवा प्राप्त करने की गांरटी आधारित सुविधा होती है और ऐसा न होने पर त्वरित रकम अदायगी या ब्रांड बदलने का विकल्प होता है। लेकिन चुनावी राजनीति में परिणाम अलग होते हे। यहां मतदाता किसी मुद्दे पर अपनी प्राथमिकता या पसंद के आधार पर राजनीतिक प्रतिनिधि का चयन करते है लेकिन यहां कई बार राजनीतिक प्रतिनिधि के चयन के पश्चात परिणाम मतदाता की उम्मीदों के विपरीत भी हो सकते है और उस परिणाम को मतदाता नापसंद भी कर सकते है। यहां बाजार की तरह त्वरित बदलाव नहीं होता परंतु लोकतंत्र में मतदाता को फिर से चुनाव का अधिकार एक निश्चित समय अंतराल के पश्चात ही मिलने की व्यवस्था है और इसी आधार पर वह वांछित बदलाव कर सकता है I

लोकतांत्रिक देशों में वोटिंग के विविध व्यवहार देखे गये है, जो स्थानीय आवश्यकताओं एवं मतदाताओं के विविध समूहों के बैकग्रांउड पर निर्भर करता है। कई बार मतदाता ईकोनॉमिक वोटिंग का तरीका अपनाते है, इसमें मतदाता इस आधार पर मतदान करता है कि वह चुनी गई सरकार को आर्थिक मुद्दों पर जिम्मेदार ठहरा सकें। ईकोनॉमिक वोटिंग में देश की आर्थिक हालातों को सुधारने वाले राजनीतिक दल को सत्ता सौपने की प्रवृत्ति पर मतदान होता है। अमेरिकी चुनाव में रिपब्लिक पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने आर्थिक व रोजगार के क्षेत्र में प्रवासियों की तुलना में ‘अमेरिका फर्स्ट’ की नीति को अपनाते हुए अपनी विरोधी डेमोक्रेटिक पार्टी को चुनावों में हराया था। लेकिन बाद में सफल न होने पर अगले चुनावों में ट्रंप चुनावों में असफल हुए। आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे श्रीलंका, पाकिस्तान में हम देख सकते है, जहां पब्लिक का एक वर्ग हमेशा ऐसे राजनीतिक दलों के पक्ष में वोटिंग कर रही है, जो आर्थिक सुधारों की वकालत कर रहे है।

यह उदाहरण बताते है कि देश के मैक्रो ईकोनॉमिक्स पर राजनीतिक दलों की नीतियां, एंजेडे उनके चुनावी परिणाम को निर्धारित करने में अहम भूमिका निभाती है। इसके बावजूद ईकोनॉमिक वोटिंग की अपनी सीमाएं भी है। चूंकि सामान्य मतदाता आर्थिक विशेषज्ञ नहीं होते है। ऐसे में मुद्दों की भ्रामक समझ से सही उम्मीदवार का चयन करने में गलती की संभावना रहती है। देश के अलग-अलग मतदाताओं के समूह पर आर्थिक गतिविधियों का अलग-अलग प्रभाव पड़ता है। ईकोनॉमिक वोटिंग में मतदाता द्वारा प्रचलित आर्थिक नीति के लिए बनाये गये आंकलन गलत भी साबित हो सकते है। उदारहरण के लिए श्रीलंका में सरकार समर्थिक सब्सिडी आधारित आर्थिक गतिविधियों ने देश के राजस्व को भंयकर घाटे में ला दिया। पंरतु प्रारंभ में वे ही सरकारे चुनावों में सफल हुई, जो सब्सिडी के पक्ष में थी, और अब आर्थिक संकट की वजह से उन्हें चुनावों में सपोर्ट नहीं मिल रहा है। कई बार मतदाता विभिन्न लोकनीतियों को प्राथमिकता के आधार पर रखते है और फिर उन उम्मीदवारों के पक्ष में मतदान करते है जो उनकी प्राथमिकताओं के करीब होते है। यह मुद्दों की प्राथमिकता पर आधारित वोटिंग है। यदि मुद्दा पापुलर रहने की संभावना रखता हो तो इस वोटिंग में मतदाता की राजनीतिक प्रतिभागिता बढ़ जाती है। इसलिए इसमें मुद्दे को लेकर जागरुकता तथा मतदाता तक पहुंच रही सकरात्मक व नकारात्मक सूचनाओं की अहम भूमिका होती है।

यहीं कारण है कि राजनीतिक दल विकास, अवसंरचना, प्रदूषण, शिक्षा, रोजगार, खेती या स्वास्थ्य से जुड़े ऐसे मुद्दों को अपने एंजेडे में शामिल करते हैं, जो पापुलर होने की संभावना रखते हों। मुद्दा आधारित वोटिंग की भी अपनी सीमाएं है। मतदाता कई बार मुद्दों की गहरी समझ नहीं रखते बल्कि अपने बैकग्राउंड, पूर्वाग्रह और प्राथमिकताओं के आधार पर मुद्दों से जुड़ता है और वोट करता है। किसी मुद्दे पर मतदाताओं के विविध पक्ष हो सकते है जो मुद्दे को लेकर अलग-अलग धारणा रख सकते है। राजनीतिक दलों द्वारा कई बार ऐसे मुद्दों को भी जानबूझकर सक्रिय किया जाता है, जो संवेदनशील हों और मतदान को प्रभावित कर सकते हों।

भारत में इधर रणनीतिक वोटिंग भी चर्चा में रही है। इसमें जब मतदाता इस बात से आश्वस्त हो कि उसकी पसंद के उम्मीदवार के जीतने की संभावना नगण्य हो तो वह किसी ऐसे अन्य उम्मीदवार को वोट देने का निर्णय लेता है जो उसकी प्रथम पसंद न हो लेकिन जिसके जीतने की संभावना ज्यादा हो और मतदाता की कुछ प्राथमिकताओं को भी पूरा करता हो। ऐसे में मतदाता उन उम्मीदवारों के विरोध में भी वोट करता है जिन्हें वह हराना चाहता है।
रणनीतिक वोटिंग प्रत्येक चुनाव में किसी न किसी रुप में अवश्य होती है पर ये कितनी होती है, इसका आंकलन संभव नहीं होता है। यह छोटे राजनीतिक दलों एवं उम्मीदवारों को नुकसान पहुंचाती है क्योंकि उनके जीतने की संभावना को कम देखते हुए मतदाता ऐसे उम्मीदवार को चुनते है जो बड़े राजनीतिक दल से जुड़ा हो और जीतने की संभावना रख रहा हो। राजनीतिक दलों के गठबंधन में आने से रणनीतिक वोटिंग को लेकर नई तरह के आयाम बन जाते है। यहीं कारण है कि गठबंधन में आने वाले दल एक ही सीट पर अपने-अपने उम्मीदवार अलग से नहीं उतारते। इस वोटिंग की भी अपनी सीमाएं है, जैसे इसमें एक एक्सप्रेशिव वोटर होते हैं जो अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए यह जानते हुए भी वोट करते हैं कि उनकी पंसद का उम्मीदवार नहीं जीतेगा। वहीं दूसरी ओर मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग भी होता है जो इसी विश्वास के साथ वोट करता है कि उनका उम्मीदवार प्रथम या द्वितीय आयेगा भले ही उसके जीतने की संभावना नगण्य हो। ये एक तरह का कैडर बेस्ड वोट होता है जो पूरी तरह से वैचारिक प्राथमिकता पर आधारित होता है।

हमें गौर करना होगा कि बीसवी शताब्दी में बहुत सारे देश औपनिवेशकालीन गुलामी से बाहर निकले और लोकतंत्र की राह पर चल पड़े। आज समीक्षा की जाये तो बहुत से ऐसे देश जहां लोकतांत्रिक शासन स्थापित हुए, वे इस व्यवस्था में पारदर्शी स्थायित्व नहीं पा पाये लेकिन भारत में लोकतंत्र न केवल मजबूती से चल रहा है बल्कि अपनी संपूर्ण विविधता के साथ प्रगति भी कर रहा है। भारत में विविध जाति, धर्म, प्रजाति, भाषा, संस्कृति के लोग अपनी पहचान के साथ रहते है। यही कारण है कि यहां बहुदलीय राजनीतिक दलों की प्रणाली सफल है और मतदाता अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर अपनी पंसद के राजनीतिक दलों से जुड़कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बनते हैं और इस तरह विविधताओं से भरे भारत के मतदाता इस पहेली का बेहतर हल जानते हैं कि मतदान किसे किया जाये।

  कपिल शर्मा  

(लेखक कपिल शर्मा भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), नई दिल्ली से पत्रकारिता की पढ़ाई किये हैं। आईआईएमसी के पश्चात इन्होंने बिज़नेस स्टैंडर्ड के लिए बिज़नेस पत्रकारिता और टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल सांइस से चुनाव प्रबंधन का अध्ययन किया। कपिल पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से बिहार में निर्वाचन अधिकारी एवं चुनाव प्रबंधन के अध्येता के रूप में कार्यरत हैं।)

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