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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

मानव और प्रकृति का संबंध: शांति, स्थिरता और आत्म-साक्षात्कार

मानव-प्रकृति संबंध, मानव और प्राकृतिक घटकों के बीच अंतःक्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं के कारण बने संबंध को संदर्भित करते हैं। जब मनुष्य ऐसी वस्तुओं के साथ अंत:क्रिया करता है जिन्हें उसने स्वयं निर्मित नहीं किया है, तो उसकी प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति यह निर्धारित करती है कि वह प्रकृति को कैसे देखता है। दूसरी ओर, यह भी स्पष्ट होता है कि प्रकृति की दृष्टि में मानव की क्या भूमिका या स्थिति है।

मानव-प्रकृति संबंधों की व्याख्या कई तरह से की गई है। कुछ विचारकों का मानना है कि मनुष्य के निर्णय और कर्म केवल परिणाम हैं, जो आकस्मिक परिस्थितियों एवं नियमों के अधीन नियंत्रित होते हैं। यानी सभी मानवीय क्रियाएँ पूर्ववर्ती कारकों या कारणों का परिणाम हैं। मानवीय क्रियाओं सहित सभी घटनाएँ पूर्व निर्धारित हैं और मनुष्य की इच्छा, उनके समक्ष कुछ भी नहीं हैं। प्रकृति और मनुष्य के संबंध की इस व्याख्या को निर्धारणवाद कहा गया है। दूसरे विश्व युद्ध के समय तक निर्धारणवाद का यह विचार किसी-न-किसी रूप में प्रभावशील बना रहा था। यह विचार कहता है कि प्रकृति की शक्तियाँ समूचे मानवीय क्रियाकलापों को नियंत्रित करती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि सामाजिक समूहों और देशों का इतिहास, संस्कृति, जीवन शैली तथा विकास का स्तर विशेष रूप से या बड़े पैमाने पर प्रकृति के द्वारा ही नियंत्रित होता है। प्रकृति को समस्त मानवीय क्रियाओं का आधार माना जाता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, प्रकृति ही मानवीय गतिविधियों को नियंत्रित करती है। मानव व्यवहार में विविधता, सामाजिक समूहों या राष्ट्रों का इतिहास, संस्कृति, जीवन शैली और विकास सभी प्रकृति द्वारा शासित तथा नियंत्रित होते हैं।

20वीं सदी की शुरुआत में, प्रकृति और मनुष्य के संबंधों को समझाने वाले इस निर्धारणवाद को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। इसे रूढ़िवादी विचारधारा मानते हुए कहा गया कि वैज्ञानिक जागरूकता से संपन्न सभ्य और प्रगतिशील समाज इसे स्वीकार नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि तकनीकी विकास की मदद से मनुष्य ने प्रकृति को संशोधित किया है। उदाहरण के लिये, मनुष्य ने रेगिस्तानी क्षेत्रों को रहने योग्य बनाने के लिये वहाँ पानी की उपलब्धता हेतु नहरों का निर्माण किया है। इस दृष्टिकोण को संभावनावाद के नाम से जाना जाता है। प्रकृति एवं मनुष्य के परस्पर संबंध को बताने वाली यह अवधारणा कहती है कि प्रकृति कई अवसर और संभावनाएँ प्रदान करती है जिनके चयन हेतु मनुष्य स्वतंत्र होता है। मनुष्य अपने मन और इच्छाशक्ति के माध्यम से प्रकृति के प्रभावों को परिवर्तित करने की क्षमता रखता है। प्रकृति वास्तव में संभावनाओं का एक द्वार खोलती है और जैसे-जैसे समुदाय का ज्ञान एवं तकनीकी प्रगति बढ़ती है, इन संभावनाओं की संख्या भी बढ़ती जाती है। इस धरती की सतह को संशोधित करने में मनुष्य सबसे शक्तिशाली प्राणी है।

इन विचारों के आलोचक मानते हैं कि प्रकृति और मानव के संबंध को नियतिवाद तथा संभावनावाद के बीच संतुलन की आवश्यकता है। उनके अनुसार, किसी देश के लिये उपयुक्त आर्थिक कार्यक्रम काफी हद तक प्रकृति की स्थितियों से प्रभावित और निर्देशित होता है। मनुष्य एक यातायात नियंत्रक के समान है, जो प्रगति की गति को तेज़, धीमा या रोक सकता है, लेकिन उसकी दिशा को पूरी तरह से परिवर्तित नहीं कर सकता। वास्तव में, यह न तो पूर्ण नियतिवाद की स्थिति है और न ही पूर्ण स्वतंत्रता की। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि स्थिति न तो प्रकृति द्वारा पूरी तरह से नियंत्रित है और न ही मनुष्य द्वारा। इसका आशय यह है कि मनुष्य प्रकृति की आज्ञा मानकर उस पर विजय प्राप्त कर सकता है। मनुष्य को संकेतों का उत्तर देना होता है और वह विकास के मार्ग पर तभी आगे बढ़ सकता है जब प्रकृति परिवर्तन की अनुमति दे। इसका अर्थ है कि प्रकृति द्वारा प्रदत्त सीमाओं के भीतर संभावनाओं का सृजन किया जा सकता है, जिससे पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे।

मानव और प्रकृति के संबंध पर एक आधुनिक दृष्टिकोण सांस्कृतिक पारिस्थितिकी का है। इसके अनुसार, प्रकृति के केवल कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू ही सामाजिक और सांस्कृतिक पहलुओं को प्रभावित या निर्धारित करते हैं। प्रकृति कुछ संभावनाओं को प्रदान करती है या सीमित करती है लेकिन संस्कृति को निर्धारित नहीं करती है। इसी तरह पारिस्थितिकीय नारीवाद कहता है कि पितृसत्तात्मक समाज और वर्चस्व की विचारधाराएँ प्रकृति एवं महिलाओं को समानता से देखती हैं ताकि दोनों का दमन, अत्याचार तथा शोषण किया जा सके। यह दृष्टिकोण महिलाओं और प्रकृति दोनों को वस्तु के रूप में देखता है, जिसके कारण इन्हें शोषण तथा क्षरण का पात्र माना जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि महिलाओं और प्रकृति के बीच एक गहरा वैचारिक संबंध है, जो विश्वासों, प्रणालियों, मूल्यों तथा सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व में निहित है।

प्रकृति और मनुष्य के बीच संबंध को गहन पारिस्थितिकी के सिद्धांत ने विशिष्ट तरीके से परिभाषित करने की कोशिश की है। यह विचारधारा "उथले" पारिस्थितिकी तंत्र को प्रकृति को व्यक्तिवादी रूप में देखने के लिये आलोचना करती है और प्रकृति के मानव-केंद्रित दृष्टिकोण को अनुचित मानती है। गहन पारिस्थितिकी इस बात पर ज़ोर देती है कि मनुष्य को प्रकृति की ओर सचेत रूप से लौटना चाहिये और प्रकृति के प्रति एक पारिस्थितिकी-संबंधी दृष्टिकोण विकसित करना चाहिये। गहन पारिस्थितिकी, मनुष्य के प्रकृति पर प्रभुत्व और हावी होने की मानवीय आवश्यकता को चुनौती देती है। इसके अनुसार, प्रकृति द्वारा प्रदान की गई प्रत्येक वस्तु या प्राणी को जीने और विकसित होने का समान अधिकार है तथा उन्हें बड़े आत्म-बोध के भीतर अपने व्यक्तिगत रूपों को प्रकट करने एवं आत्म-साक्षात्कार तक पहुँचने का भी अधिकार है। चूँकि सब कुछ आपस में संबंधित है, इसलिये अगर हम प्रकृति को नुकसान पहुँचाते हैं, तो हम अनिवार्य रूप से स्वयं को नुकसान पहुँचाते हैं।

इन विचारों से यह स्पष्ट होता है कि प्रकृति के साथ संवाद करना हमें अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण मामलों पर विस्तृत दृष्टिपात करने की एक क्षमता प्रदान करता है। हम प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य का आनंद लेते हैं, उसे इंद्रियों के माध्य‍म से महसूस करते हैं। साथ ही प्रकृति के साथ एकांतमय होने से विचारों का जन्म होता है। विचार कोलाहल में नहीं उपजते और न ही विस्तार पाते हैं। उनके लिये शांति का होना आवश्यक है। जब हमारा मन शांत होगा, वातावरण शांत होगा तब ही हम अपने आप को भीतर से भी पूर्ण शांत कर सकेंगे। यह शांति प्रकृति से ही संभव है, इसलिये प्रकृति के साथ संबंध को बचाए रखना हमारे समाज की शांति के लिये, समाज के लोगों के कल्याण के लिये अत्यंत महत्त्‍वपूर्ण है। प्रकृति के साथ इस प्रकार का गहरा संबंध हमें शांति प्रदान करने के साथ संतुष्टि और समृद्धि की अनुभूति कराता है, जो प्रकारांतर से शांति को ही बढ़ावा देती हैं।

हमारे वैदिक ग्रंथों में कहा गया है-

“ओम द्यौः शान्तिर-अन्तरिक्षसं शान्तिः पृथ्वीः शान्तिः-आपः शान्तिः-ओससाध्यः शान्तिः

वनस्पतयः शान्तिर-विश्वेदेवः शान्तिर-ब्रह्म शान्तिः सर्वम् शान्तिः शान्तिर-एव शान्तिः सा माँ शान्तिर-एधि

ओम शांतिः शांतिः शांतिः।।”

इसका अर्थ है कि ओम, शांति आकाश में है; शांति अंतरिक्ष में है (पृथ्वी और आकाश के मध्य); शांति पृथ्वी में है; शांति जल में है; शांति पौधों में है; शांति वृक्षों में है; शांति देवताओं में है (जो प्रकृति के विभिन्न तत्वों के अधिष्ठाता हैं); शांति ब्रह्म (परम चेतना) में है। शांति हर जगह व्याप्त है; बाहरी शांति और आंतरिक शांति एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। आप उसी शांति में स्थित होकर अपने जीवन को पूर्ण बनाएँ। ओम शांति, शांति, शांति।

यह श्लोक दर्शाता है कि शांति और प्रकृति के संबंध पर हमारे विचार अत्यंत प्राचीन हैं। हमारे पूर्वजों ने प्रकृति को शांति का प्रतीक और पर्याय माना है। इसलिये हमें प्रकृति द्वारा प्रदान की गई शांति का सदैव सम्मान और संरक्षण करना चाहिये।

जब हम प्रकृति के साथ निकटता का संबंध रखते हैं तो हम मानसिक स्थिरता का अनुभव करते हैं। यह मानसिक स्थि‍रता जब आती है तो हम विराट प्रकृति के साथ एकता महसूस करते हैं। प्रकृति की गोद में रहने से हम स्वयं को पहचानने लगते हैं और जीवन के वास्तविक मूल्यों तथा उसके उद्देश्य को गहराई से समझ पाते हैं। मानसिक स्थिरता हमें विचार करने के लिये अवकाश प्रदान करती है और विचार कर पाना हमें मनुष्य होने का अर्थ प्रदान करता है। इसका कारण यह है कि वैचारिकता ही वह बिंदु है जहाँ मनुष्य अजैविकता से भिन्न हो जाता है। इसलिये हमें प्रकृति के साथ संवाद में बने रहने की आवश्यकता होती है और यह संवाद हमें स्थिरता के साथ शांति एवं संतुष्टि की अद्वितीय अनुभूति प्रदान करता है।

प्रकृति हमारे व्यक्तित्व में स्थिरता लाती है। जब हम प्रकृति के विराट स्वरूप को समझने लगते हैं तो हमें अपनी लघुता का अहसास होने लगता है। लघुता की यह समझ हमें स्थिरता की ओर ले जाती है। मनुष्य प्रकृति की विराटता के समक्ष कुछ भी नहीं है। जब यह विचार जगह बनाने लगता है तो हमारी सोच और व्यक्तित्व में परिवर्तन आने लगते हैं। तब हमें पता चलता है कि वास्तव में प्रकृति हमारे जीवन का मूल आधार है, न कि हम प्रकृति के आधार हैं।

आधुनिक जीवनशैली की प्रवृत्तियों ने प्रकृति के साथ हमारे संबंधों को तनावपूर्ण बना दिया है, जिससे स्थिरता में कमी आई है। यह समस्या अब गंभीर हो चुकी है और इसका समाधान यही है कि हम प्रकृति के साथ ऐसा संबंध स्थापित करें जो उसके सम्मान, संरक्षण एवं संतुलन को बनाए रखे। हमें प्रकृति के साथ शांतिपूर्ण व्यवहार करते हुए ऐसे रहना होगा जैसा कि हम उसका एक साधारण अंश मात्र हैं। इससे ही स्थिरता का बोध विकसित होगा। वृक्षों के नीचे बैठना, प्राकृतिक वातावरण में चलना और प्राकृतिक संगीत का आनंद लेना हमारी मानसिक तथा शारीरिक स्वस्थता के लिये लाभकारी होता है एवं हम स्थिरमय बनते हैं। इसलिये हमें समझना होगा कि प्रकृति की रक्षा करना हमारे अपने हित के लिये ही नहीं है, बल्कि शांति और स्थिरता के लिये भी अत्यंत महत्त्‍वपूर्ण और आवश्यक है। हमें प्रकृति के साथ गहरा संबंध स्थापित कर उसके साथ सामंजस्य और एकता में जीवन जीने का प्रयास करना चाहिये।

प्रकृति और मनुष्य के संबंध को समझने के लिये, हमें स्वयं से सवाल पूछने की क्षमता विकसित करनी चाहिये। हमें यह विचार करना होगा कि प्रकृति के प्रति हमारा दृष्टिकोण वास्तव में क्या है? यह सवाल पूछने की आदत हमें वर्तमान स्थिति को गहराई से समझने में मदद करती है और समस्या के लक्षणों पर प्रतिक्रिया करने के बजाय उसके मूल कारणों का समाधान खोजने का मार्ग प्रशस्त करती है। इसके अगले क्रम में यह सोचना होगा कि मानव केंद्रित सोच क्या है? हमें उसका मूल्यांकन करना होगा और यह विचार करना होगा कि क्या प्रकृति को पारिस्थितिकी-केंद्रित होने में परिवर्तित किया जा सकता है। यह मानना अब तर्कसंगत रूप से उचित नहीं है कि दुनिया और उसके सभी जीव, मनुष्यों के लिये बने हैं एवं मनुष्य ही पृथ्वी पर एकमात्र ऐसा है जो आंतरिक रूप से सर्वाधिक मूल्यवान है। जब हम ऐसा विचार करते हैं, तो प्रकृति के साथ संबंध के लिये एक विशिष्ट दृष्टिकोण विकसित होता है। विचारक इसे "आत्म-साक्षात्कार" के रूप में संदर्भित करते हैं। इसका सरल अर्थ है कि जितना संभव हो सके उतना व्यापक और गहरा आत्म-बोध प्राप्त किया जाए, अर्थात् स्वयं के अस्तित्व की गहरी भावना का अनुभव करना। आत्म-साक्षात्कार या आत्म-ज्ञान को अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य माना जाता है, जहाँ व्यक्ति अपने अहम से ऊपर उठकर अपने सर्वोच्च स्व या सच्चे स्वरूप के साथ अपनी पहचान बनाता है। आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया में गहराई से उतरने पर कुछ विशिष्टताएँ उभरती हैं जोकि चेतना में एक गहन प्रकार के परिवर्तन को शामिल करती हैं, जिससे जीवन के वास्तविक सार और उद्देश्य की बेहतर समझ विकसित होती है।

आत्म-साक्षात्कार इसलिये महत्त्‍वपूर्ण है क्योंकि यह प्रकृति के साथ संबंध को गहराई से समझने, अपनी सत्‍य इच्छाओं, शक्तियों और कमज़ोरियों को उजागर करने का अवसर देता है। इससे सार्थक लक्ष्य निर्धारित होते हैं और जीवन अधिक प्रामाणिक तथा पूर्ण होता है। यह प्रक्रिया हमें सक्षम बनाती है, जिससे व्यक्तिगत विकास के साथ-साथ उद्देश्य की प्राप्ति और संतोष की भावना भी बढ़ती है।

यहाँ प्रश्न यह है कि इस आत्म-साक्षात्कार को कैसे प्राप्त करें? आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के लिये आत्म-खोज, अनुशासन, धैर्य एवं प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है। आत्म-साक्षात्कार में बाहरी प्रभावों और सामाजिक अपेक्षाओं की परतों को हटाकर अपने अस्तित्व की मूल प्रकृति की खोज करना शामिल है। अपने एवं प्रकृति के साथ संबंध के बारे में गहरी समझ प्राप्त करने के लिये नियमित रूप से विचारों, भावनाओं तथा कार्यों पर चिंतन एवं आत्म-जागरूकता विकसित करनी होती है। आत्म-साक्षात्कार कोई सीधी प्रक्रिया नहीं है, अपितु यह विकास एवं सतत् अन्वेषण की प्रक्रिया है। यह आत्म-खोज की यात्रा है, जो व्यक्ति को उसके वास्तविक स्वभाव, उद्देश्य और दुनिया में उसके स्थान की गहरी समझ तक पहुँचाती है। जब एक व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करता है, तो उसे एक आंतरिक शांति का अनुभव होता है। उसकी स्वयं एवं प्रकृति के प्रति सहानुभूति एवं समझ बढ़ने लगती है। उसमें वर्तमान क्षण के प्रति जागरूकता आती है जो उसे प्रकृति की सुंदरता और सरलता की सराहना करने का अवसर प्रदान करती है। आत्म-जागरूकता से बिना किसी निर्णय या आसक्ति के चीज़ों को वैसी ही देखने की क्षमता विकसित होती है जैसी वे हैं। इसका संक्षेप में आशय यह है कि प्रकृति की चीज़ों को आत्म साक्षात्कार का अवसर मनुष्य को देना होगा तभी प्रकृति के साथ उसके संबंध सहजीवन के रूप में विकसित होंगे। इससे उसके खुद के आत्म साक्षात्कार का मौका होगा और वह अधिक सरल सरल जीवन जी सकेगा।


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