सकारात्मक सोच की शक्ति: कैसे विचार हमारी वास्तविकता को आकार देते हैं
- 13 Jan, 2025
सकारात्मक सोच का आशय, चीज़ों के सकारात्मक पक्ष पर ध्यान केंद्रित करने के अभ्यास से है। यह मनोविज्ञान के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। नब्बे के दशक में यह विचार व्यापक रूप से लोकप्रिय हुआ और तेज़ी से लोगों के जीवन में अपनी जगह बना ली। हालाँकि, सकारात्मक सोच की अवधारणा का उल्लेख इससे पहले भी होता रहा है।
ग्रीक दार्शनिकों ने "यूडेमोनिया" की बात कही। यूडेमोनिया, खुशी की एक विशिष्ट अवधारणा है, जो सुख, प्रसन्नता और व्यक्तिपरक कल्याण जैसे पहलुओं को महत्त्वपूर्ण मानती है। मध्य युग में, सिख धर्म गुरुओं ने भी प्रसन्नता और संतोष के साथ जीवन जीने का उपदेश दिया। इसे चढ़दीं कलां कहा जाता है जिसका अर्थ है- हमेशा आशा बनाए रखना। एक सिख के जीवन में निष्क्रियता, उदासी, निराशा या अवसाद का कोई स्थान नहीं है और वह हमेशा ही उज्ज्वल और सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने का प्रयास करता है। सिख क्रोध, दुख और पछतावे को पीछे छोड़ देता है और घटनाओं के सकारात्मक हिस्से पर ही ध्यान केंद्रित करता है, फिर चाहे वह जीत हो या फिर हार।
सकारात्मक सोच, एक ऐसा भावनात्मक और मानसिक दृष्टिकोण है जो अच्छे पक्ष पर ध्यान केंद्रित करके लाभ पहुँचाने वाले परिणामों की अपेक्षा करता है। इसका आशय समाधान तलाशने और उन्हें पाने की आशा से है। यह क्षमता किसी भी परिस्थिति में बुरे के बजाय अच्छे की अपेक्षा करने और सफलता की संभावना पर विश्वास बनाए रखने से जुड़ी है। अधिक व्यापक रूप से, सकारात्मक सोच कल्याणकारी होने के साथ-साथ आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान को बेहतर बनाने तथा तनाव के स्तर को कम करने में मदद करती है। जितनी अधिक सकारात्मक चीज़ों की तलाश की जाएगी, उतनी ही आसानी से उसे पाया जा सकेगा।
सकारात्मक सोच की सबसे बड़ी शक्ति यह है कि यह संतुष्टि की भावना को बढ़ाती है और अवसाद एवं तनाव को कम करती है। यह विचार करने के तरीके को बदलकर स्पष्टता, रचनात्मकता और समस्या समाधान की क्षमता को बेहतर बनाती है। यह आवेग को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने और समस्याओं का सामना बेहतर ढंग से करने में सहायता करती है। जब दृष्टिकोण नकारात्मक के बजाए सकारात्मक हो, तो कार्य सुचारु ढंग से होता है और साथ ही बेहतर तनाव प्रबंधन, कठिनाइयों का आसानी से सामना करने, अधिक रचनात्मक ढंग से सोचने तथा समस्या-समाधान गुणवत्तापूर्वक होता है।
यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि सकारात्मक सोच कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो तुरंत प्रसन्नता ला सके या असफलता और सफलता के डर को पूरी तरह मिटा सके। वास्तव में सकारात्मक विचार, कठिन समय में संभलने में मदद करती है न कि सपनों को प्राप्त करने में। सफलता पाने के लिये कठिन मेहनत भी करनी होती है, उसके लिये केवल सकारात्मक सोच का होना पर्याप्त नहीं है।
सकारात्मक सोच को मज़बूत करने के लिये, अच्छी चीज़ों पर ध्यान केंद्रित करना, सकारात्मक पलों का आनंद लेना, कृतज्ञता व्यक्त करना, दूसरों को धन्यवाद देना, सकारात्मक घटनाओं को याद रखना, सफलताओं का उत्सव मनाना, जीवन और काम में हास्य शामिल करना, सकारात्मक आत्म-वार्ता का अभ्यास करना और वर्तमान में जीने जैसी आदतें अपनाई जा सकती हैं। जब जीवन के सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है तो अधिक सकारात्मक अनुभव होते हैं। इसके लिये सकारात्मक मनोविज्ञान के गुणों का अभ्यास आवश्यक है। साहस, कृतज्ञता, आशा, हास्य, ज्ञान और प्रोत्साहन जैसे गुणों को अपनाने से नकारात्मकता को दूर किया जा सकता है।
सकारात्मक सोच की शक्ति, वास्तविकता को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह ध्यान रखने की बात है कि सकारात्मक और नकारात्मक, दोनों ही विचार शक्तिशाली होते हैं लेकिन उनके परिणाम विपरीत निकलते हैं। सच तो यह है कि हम सभी के मन में नकारात्मक विचार आते ही हैं और उनको रोका नहीं जा सकता। ये विचार कई श्रेणियों में आते हैं और जागरूकता से ही उनको समझा जा सकता है एवं उससे ही वास्तविकता को आकार मिलता है। एक बार जब जागरूकता का संचार हो जाता है, तो नकारात्मक विचारों पर नियंत्रण करना आसान हो जाता है, जिससे उनका प्रभाव घट जाता है तथा तब उनका समाधान सरलता से निकलता है। नकारात्मक विचारों की पहचान होने पर उनको चुनौती देना अधिक आसान हो जाता है। इसका उपाय यह है कि जब कोई विचार आता है तो प्रश्न करना चाहिये कि क्या यह हमारे लिये मददगार है, क्या यह साक्ष्यों पर आधारित है और क्या यह तर्कसंगत है? अगर वह विचार, इन तीनों में किसी एक की भी कसौटी पर खरा नहीं है, तो यह नकारात्मक हो सकता है। इससे हमें वास्तविकता क्या है, उसे समझने में मदद मिलती है।
वास्तविकता को सही ढंग से समझने के लिये नकारात्मक सोच के विभिन्न स्वरूपों को पहचानना और समझना आवश्यक है। इसके लिये छह मुख्य बातें हैं- पहला, सकारात्मक चीज़ों को अनदेखा करना; दूसरा, सब कुछ या कुछ भी नहीं सोचना; तीसरा, विनाशकारी सोच; चौथा, भविष्य को लेकर असहज बातें कहना; पाँचवाँ, मन को अनुचित तरीके से पढ़ना; और अंतिम, चीज़ों को व्यक्तिगत बनाना। व्यक्तियों के रूप में, सभी लोग इनमें से किसी-न-किसी बिंदु का कभी-न-कभी अनुभव करते हैं। तथापि यह हो सकता है कि कोई बिंदु अपनी तीव्रता में शेष से कुछ अधिक या कम हो।
वास्तविकता के प्रति जब नकारात्मक विचार आता है तो उसे सकारात्मक विचार से बदलने की कोशिश होनी चाहिये। तब ऐसे विचार ढूँढने चाहिये जो मददगार, तार्किक और साक्ष्य आधारित हों। नकारात्मक विचारों को चुनौती देने का एक तरीका है- नए सकारात्मक विचारों के साथ आया जाए। इसमें एक तरीका शब्दों के चुनाव का है। इसके लिये चीज़ों को नाम देना और शब्दों का इस्तेमाल करना बहुत शक्तिशाली साबित होता है। जैसे "मुझे करना है" एक नकारात्मक कथन है। जबकि, "मैं करना चाहता हूँ" सकारात्मक है, भले ही इन दोनों वाक्यों के अर्थ समान हैं। अगर इस तरह से भाषा बदली जा सके तो ज़्यादा सकारात्मक विचार आ सकते हैं। इसी तरह, विचारों को बदलने का एक और तरीका यह है कि नकारात्मक विचारों को ज़्यादा मददगार, सकारात्मक तरीकों से फिर से ढाल दिया जाए।
वास्तविकता के आकार को लेकर नकारात्मक भावनाएँ और विचार, मस्तिष्क की क्षमता पर सीमाएँ लगाते हैं। जब किसी विनाशकारी भावना, जैसे- भय, का सामना होता है, तो डर उत्पन्न करने वाली चीज़ के अलावा कुछ और सोचा नहीं जा सकता। इसी तरह खतरनाक स्थिति में डरकर भागने का विचार आता है ताकि सुरक्षा बनी रहे। लेकिन यह डर तब हानिकारक होता है जब यह कुछ ऐसा नया करने से रोकता है जो जीवन को बेहतर बना सकता है। जब डर इस बात का होता है कि समुदाय, मित्र या समाज मज़ाक बनाएगा, बात या दावे को अस्वीकार करेगा, या असफल घोषित कर देगा। यही बात क्रोध, ईर्ष्या, उदासी, अकेलापन, झुंझलाहट, अपराध बोध, हताशा और अन्य नकारात्मक भावनाओं के लिये भी है।
जो लोग सकारात्मक विचार की शक्ति का प्रयोग नहीं करते, वे ग्लास को आधा भरा हुआ नहीं बल्कि आधा खाली देखते हैं। उनके पास जो कुछ है उसके प्रति आभारी होने के बजाय, वे इस बात पर ध्यान लगाते हैं कि उनके पास क्या नहीं है। उनका विचार इस बात ओर अधिक होता है कि क्या गलत हो रहा है, बजाय इसके कि क्या सही हो रहा है।
सकारात्मक विचार की शक्ति के विपरीत, नकारात्मक विचार आगे बढ़ने और खुश रहने में रुकावट डालते हैं। निराशावादी दृष्टिकोण और अधिक नकारात्मकता को आकर्षित करता है। शिकायत करना, संदेह करना, भरोसा न करना और दोषारोपण करने जैसी बातें निराशाजनक चीज़ों के आने की संभावना को बढ़ाती हैं। नकारात्मक रवैया होने का एक संकेत यह है कि जब बिना किसी तथ्य के यह अनुमान लगाया जाता है कि अब सबसे बुरा होने वाला है। तब ऐसा लग सकता है कि पूरी दुनिया खिलाफ हो गई है और अच्छे से ज़्यादा बुरी चीज़ों का सामना करना पड़ रहा है। नकारात्मक दृष्टिकोण का प्रभाव यह होता है कि जब बुरी चीज़ें होती हैं तो स्वतः ही खुद को दोषी मान लिया जाता है। विचारों या भावनाओं की ज़िम्मेदारी लेने के बजाय दूसरों को दोष देने और छोटी-छोटी समस्याओं को बहुत बड़ी नकारात्मक घटनाओं के रूप में देखा जाने लगता है। सकारात्मक सोच में भविष्य की बजाय अतीत के अनुभवों और गलतियों से सीखने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इसमें छोटी-छोटी बातों पर फोकस करने की बजाय बड़ी तस्वीर को समझना महत्त्वपूर्ण होता है। इस दृष्टिकोण से वास्तविकता को सही रूप में समझने और आकार देने में आसानी होती है।
महात्मा गांधी ने भी कहा था कि हमारा विश्वास, ही विचार का रूप धारण करता है। यही विचार शब्द रूप में सामने आते हैं और शब्द व्यवहार में परिवर्तित होते हैं। यही व्यवहार आदत में और आदत, मूल्यों में बदल जाती है। ये मूल्य हमारे जीवन की दिशा को निर्धारित करते हैं। इसी तरह सकारात्मक सोच ही सकारात्मक भावनाएँ, सकारात्मक दृष्टिकोण एवं सकारात्मक परिणाम को उत्पन्न करती है, जबकि नकारात्मक सोच अस्थिरता लाती है। यह कहना कि, “मैं ऐसा नहीं करूँगा, मैंने पहले कभी ऐसा नहीं किया,” के बजाए यह कहना चाहिये कि, “मैं कोशिश करता हूँ क्योंकि मैं कुछ नया सीख सकता हूँ।” यह सोचने के बजाय कि, “मैं इसमें कभी बेहतर नहीं हो पाऊँगा,” यह कहना चाहिये “मैं जब तक समझ नहीं लेता, मैं फिर से प्रयास करूँगा।” कई बार हम अपने प्रति कठोर होते हैं, लेकिन हमें स्वयं का सबसे बड़ा प्रशंसक बनना चाहिये। इसलिये जब लगे कि कोई गलती हुई है या किसी काम में असफल हुए हैं, तो यह विचार करना चाहिये कि, “मैं इससे क्या सीख सकता हूँ ताकि मैं और अधिक सफल हो सकूँ।” यह नहीं सोचना चाहिये कि अगर असफल हुए तो क्या होगा, बल्कि यह सोचना चाहिये कि अगर सफल हो गए तो क्या-क्या होगा।
सकारात्मक सोच की शक्ति विकसित करना वास्तव में अपने जीवन और अपने आस-पास की दुनिया के प्रति अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण रखना है। जब कोई प्रतिकूल घटना घटित होती है, तो याद रखना होगा कि प्रतिक्रिया ही वास्तव में परिणाम को निर्धारित करती है। ऐसी घटनाएँ होने पर हमेशा सकारात्मक प्रतिक्रिया या आशावादी बात कहने का प्रयास किया जाना वांछित होता है। दुनियाभर की गलतियाँ निकालने से पहले अच्छाई की तलाश करनी चाहिये। आशावादी लोग अपनी समस्याओं से निपटने के लिये जो तरीके अपनाते हैं, वही उन्हें औसत लोगों से अलग कर देता है। आशावादी लोग हर समस्या या कठिनाई में अच्छाई की तलाश करते हैं। जब चीज़ें गलत हो जाती हैं, तो वे कहते हैं, "यह अच्छा है!" फिर वे स्थिति के बारे में कुछ सकारात्मक खोजते हैं। समस्या के बारे में चिंता करने के बजाय समाधान ढूँढने पर ध्यान केंद्रित करना और नई चीज़ें सीखने के अवसर तलाशने चाहिये। परिवर्तन को जीवन का स्वाभाविक हिस्सा मानकर स्वीकार करते हुए यह समझना होगा कि कुछ चीज़ें नहीं बदल सकतीं। चुनौतियों को नज़रअंदाज़ करने या उनके दूर हो जाने की कामना करने के बजाय उनका सीधे सामना करना वास्तविक संसार का सामना करना है। इसलिये किसी स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर न देखकर सही परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिये और अपने लक्ष्यों के बारे में स्पष्टता बनी रहनी चाहिये, जिससे वास्तविकता की समझ बढ़ सके।
आशावादी लोग अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखते हैं और उसे पाने के तरीके खोजते रहते हैं। वे अपने लक्ष्यों के बारे में स्पष्ट होते हैं और उन्हें पूरा विश्ववास होता है कि वे उसे पा ही लेंगे। जीवन से क्या लेना है, इस पर ध्यान केंद्रित करते हुए वास्तविकता की ओर बढ़ने की योजना बनानी चाहिये। असफलता जीवन का एक हिस्सा है और इसे लेकर निराशा नहीं होनी चाहिये। इसके बजाय, हमें यह याद रखना चाहिये कि हर परिस्थिति से कुछ सकारात्मक सीख मिल सकती है और इसलिये अपनी तुलना दूसरों से नहीं करनी चाहिये। ध्यान रखना चाहिये कि हर व्यक्ति अद्वितीय है और हर किसी के पास अपनी एक विशेष कहानी है।
सफल लोग यह स्पष्ट करते हैं कि उनके लिये सबसे महत्त्वपूर्ण क्या है और वे अपनी दैनिक गतिविधियों को प्राथमिकता देते हैं, ताकि वे कठिन परिस्थितियों, बाहरी दुनिया से भटकाव, या दूसरों के नकारात्मक विचारों के बावजूद अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सकें। लक्ष्य निर्धारण, जीवन को अर्थ देता है इसलिये जब लक्ष्य या उस मील के पत्थर तक पहुँचने के बाद आत्म-सम्मान और प्रेरणा बढ़ती है, जो और अधिक सकारात्मक विचार लाने को प्रेरित करती है तथा तब वास्तविकता सही ढंग से साकार रूप में आती है।