ज़िंदगी की सबसे अच्छी चीज़ें मुफ्त हैं
- 16 Jan, 2020 | हिमांशु सिंह
मेरा निजी अनुभव है कि जब तक हम घटिया और दिखावटी चीज़ों को ऊँची कीमत पर खरीद नहीं लेते, तब तक हम यह समझ ही नहीं पाते कि दुनिया की सबसे खूबसूरत और अच्छी चीज़ें तो दरअसल मुफ्त होती हैं।
इस अनुभव से जुड़ी सबसे ख़ास बात यह है कि इस अनुभव को पाने का कोई शॉर्टकट नहीं है। हालाँकि यह एक दौर का अंतिम निष्कर्ष भले ही हो, पर उम्र भर इसी निष्कर्ष से जुड़े रहना भी असंभव है।
तो आखिर क्या हैं दुनिया की सबसे अच्छी और खूबसूरत चीज़ें? यह एक ऐसा सर्वकालिक प्रश्न है जिससे हम सभी को कभी-न-कभी दो-चार होना ही पड़ता है और जो संसार के सभी चिन्तनों का मूल है। इस प्रश्न का कोई सर्वमान्य उत्तर पाना उतना ही कठिन है, जितना कठिन एक ऐसा व्यंजन ढूंढना है, जो सभी को सर्वाधिक प्रिय हो।
ऐसे में हमारे लिये यह मान लेना ज़रूर तात्कालिक राहत दे सकता है कि हमारे अस्तित्व के लिये ज़रूरी चीज़ें मसलन- हवा, पानी, धूप, धरती, वृक्ष, फल, पुल, पहाड़, झरने, नदियाँ, प्रेम और दोस्तों का साथ इत्यादि ही सर्वाधिक अच्छी चीज़ें हैं, पर इस विचार से ऊब होना तय है।
ऐसे में प्रथम दृष्ट्या हम इस विचार से सहमत हो सकते हैं कि हाँ, ज़िंदगी की सबसे ज़रूरी चीज़ें मुफ्त हैं, पर यह तो विमर्श की शुरुआत भर है। समझने की बात है कि अगर हवा, पानी, धूप, धरती, वृक्ष, फल, वनस्पतियाँ इत्यादि प्रकृत्ति प्रदत्त चीज़ें ही ज़िंदगी की सबसे अच्छी चीज़ें हैं और अगर ये मुफ्त हैं तो क्या ये विश्व के सभी जीवों के लिये सुलभ हैं? क्या प्रत्येक व्यक्ति बिना कोई मूल्य चुकाए ज़िंदगी की इन सबसे अच्छी और तथाकथित मुफ्त चीज़ों को प्राप्त कर सकता है? उत्तर है नहीं।
अगर ऐसा होता तो मुंबई की संकरी गलियों में लोग खुली हवा और धूप के बिना ज़िंदगी न गुज़ार रहे होते और समुद्र किनारे की ज़मीन शहर भर की ज़मीनों से दुगुने दामों पर न मिल रही होती। महानगरों की संकरी गलियों और तहखानों में प्रदूषित हवा और पानी के सहारे धूप के अभाव में जीवन गुज़ारने वाले अगर चाहें तो ये चीज़ें ज़रूर पा सकते हैं, पर इसकी कीमत महानगर में उनका रोज़गार होगा। बाकी संपन्न लोग अच्छी लोकेशन पर खुली हवा और धूप वाले घरों के लिये ज़्यादा कीमत चुकाते ही हैं।
अमेरिकी मनोवैज्ञानिक अब्राहम मेस्लो ने सभी मानवीय आवश्यकताओं का अध्ययन किया और मानवीय आवश्यकताओं के पिरामिड का सिद्धांत दिया। उन्होंने सभी मानवीय ज़रूरतों को क्रमानुसार पाँच स्तरों पर विभाजित किया। शरीर की ज़रूरतें अर्थात् स्वास्थ्य, भोजन, पानी, निद्रा और आवास को उन्होंने पिरामिड में सबसे नीचे रखा और इंसान की मूलभूत ज़रूरत बताया। नीचे से दूसरे स्थान पर सुरक्षा, तीसरे स्थान पर प्रेम और सामाजिक संबंध, चौथे स्थान पर आत्मसम्मान, स्वतंत्रता इत्यादि को रखा। इस पिरामिड में शीर्ष पर अध्यात्म (आत्म-सिद्धि) को रखा गया।
ध्यातव्य है कि मेस्लो के पिरामिड सिद्धांत में वर्णित प्रथम स्तर से पंचम स्तर तक मौजूद कोई भी चीज़ बिना मूल्य चुकाए पाना असंभव है। संभव है, ये मूल्य मौद्रिक न हों, पर भुगतान तो करना ही पड़ता है। रस्किन बांड की पुस्तक ‘ए फ्लाइट ऑफ पिजन्स’ का नायक जावेद खान अपने जीवन की सबसे अच्छी चीज़ को पाने के लिये ऐसा ही भुगतान करता है।
जावेद खान का अंत उसी दिन तय हो गया था, जिस दिन उसने उस अंग्रेजन रुथ को देखा था। पूरी उम्मीद थी कि रुथ का अफसर बाप उसे सूली चढ़वा देता। गिरिजाघर में बागी सिपाहियों के खून-खराबे से बची रुथ और उसकी माँ को पनाह देने के बदले बागी सिपाही जावेद को अपना साथी होने पर भी मार डालते, पर जावेद डरा नहीं।
बागी सिपाही दिल्ली हार चुके थे। फिरंगी फौजें शहर में दाखिल हो रही थीं। लोग देहातों की ओर भाग रहे थे और जावेद........जावेद को बस एक बार रुथ को देखना था। मौत ऐसे ही तो आती है न दुनिया फिरंगी फौजों से दूर भाग रही थी और जावेद उनके करीब जा रहा था; वह भी पैदल नहीं, घोड़े पर। जावेद की मंशा पूरी हुई। वह रुथ को देख पाने में सफल रहा। जैसा कि तय था, जावेद मारा गया। स्पष्ट है, रुथ जावेद को दुनिया में सबसे ज़्यादा प्रिय थी और जावेद जीवन में सबसे ज़्यादा महत्त्व प्रेम को देता था जिसकी कीमत उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ी।
प्रेम के अतिरिक्त आज़ादी और आत्मसम्मान के लिये सब कुछ दाँव पर लगाने वालों के भी तमाम उदाहरण मौजूद हैं। परमानुभूति अर्थात् पंचम स्तर की ज़रूरतों के लिये भी सब कुछ त्यागने वालों के उदाहरण मिल जाएंगे।
ऐसे में एक अधपका-सा निष्कर्ष हम निकाल सकते हैं कि ज़िंदगी की सबसे अच्छी चीज़ें दरअसल पूरी तरह मुफ्त नहीं हैं पर यह तब की बात है, जब हमने ज़िंदगी की सबसे अच्छी चीज़ों का चुनाव अपनी ज़रूरतों को आधार बनाकर किया। असल बात यह है कि जब तक हम घटिया या कमतर चीज़ों को ऊँची कीमत देकर नहीं खरीद लेते और ठगे जाते हैं, तब तक हम यह आभास ही नहीं कर पाते कि असल में सबसे अच्छी चीज़ तो हमारी अपनी खुशी है, जिसको हम कभी प्रेम में देखते हैं और उसे पाने के लिये जान पर खेल जाते हैं तो कभी स्वतंत्रता में देखते हैं और आज़ादी की लड़ाई लड़ जाते हैं। सच्चाई तो यह है कि विषम और विपरीत परिस्थितियों में खुशी की खोज में ही व्यक्ति खुदकुशी को भी खुशी का एक विकल्प मान कर चलने लगता है।
इन सभी बौद्धिक विमर्शों से बाहर अगर हम सुख और खुशी से जुड़ी सामाजिक मान्यताओं और समझ पर विचार करें तो हमें कुछ बने-बनाए लोकप्रिय सिद्धांत मिलते हैं, जैसे-
पहला सुख निरोगी काया, दूजा सुख घर में हो माया
तीजा सुख सुलक्षणा नारी, चौथा सुख पुत्र आज्ञाकारी
पंचम सुख स्वदेश में वास, छठवाँ सुख राज हो पास
सातवाँ सुख संतोषी जीवन, ऐसा हो तो धन्य है जीवन।
हमारी परंपरा में मोटे तौर पर इन्हें ही जीवन की सबसे अच्छी चीज़ें माना गया है। सूक्ष्म और गहन विश्लेषण के पश्चात् हम समझ सकते हैं कि यहाँ वर्णित सभी सुख सम्मिलित रूप से हमारी खुशियों की चाभी हैं, पर मूल्यों से मुक्त ये भी नहीं हैं। ऐसे में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि सुख की अपनी एक कीमत होती ही है। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हमारे लिये सुख क्या है और उस सुख को प्राप्त करने के लिये हम किस सीमा तक कीमत चुकाने के इच्छुक हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो कभी भी स्वतंत्रता की लड़ाई में महात्मा गांधी या भगत सिंह ने आज़ादी के सुख की कीमत अपनी जान से न आँकी होती और न ही मदर टेरेसा तथा ज्योतिबा फुले ने मानवता की सेवा को अपना सुख मानकर अपना समस्त जीवन न्योछावर किया होता।
विमर्श जारी रहेगा, फिलहाल इतना ही।
[हिमांशु सिंह]
हिमांशु दृष्टि समूह के संपादक मंडल के सदस्य हैं। हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं और समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ विविध विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं।