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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

सतत विकास लक्ष्य और शहरीकरण

इंदौर का रहने वाला मानस बेंगलुरु की एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है और टू बीएचके के फ्लैट में अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहता है। आज मानस ऑफिस से देर से घर पहुँचा है। दिन भर की थकान और ऑफिस की जद्दोजहद के बाद वह अपने किचन में जाता है जहाँ उसे पानी की खाली बोतलें दिखती हैं। पत्नी से पूछने पर पता चलता है कि दिन भर उपयोग के लिए मिला पानी खत्म हो गया है। मानस अपने बगल वाले फ्लैट में पानी मांगने जाता है लेकिन निराश होकर वापस आ जाता है क्योंकि उस परिवार की स्थिति भी वैसी ही है। यही हाल बेंगलुरु में रहने वाले हर परिवार की है जिनके लिए पानी पेट्रोल से भी ज़्यादा कीमती हो गया है। सोचने की बात यह है कि ये हाल बेंगलुरु जैसे शहर का है जिसे भारत की सिलिकन वैली कहा जाता है। बड़ी बड़ी इमारतों और कंक्रीट के जंगलों की चकाचौंध से गुलजार इस शहर में पैसा, रहने लायक घर और आराम की हर चीज है पर जीवन के लिए जरूरी जल नहीं है। फिर शहरीकरण का औचित्य ही क्या रह जाएगा जब जीवन की मूलभूत सुविधाएं ही न मिलें। तकनीकी और विकास की जुगलबंदी ने शहरीकरण को अनिवार्य आवश्यकता बना दिया है। पर जैसी तस्वीर मन मष्तिष्क में शहरों को लेकर उभरती है स्थितियां उससे उलट देखने को मिल रही हैं। आज के शहर अनियंत्रित विकास, हॉउसिंग की समस्या, बेरोजगारी, बेतरतीब प्रवासन, स्वास्थ्य सुविधाओं की असमान उपलब्धता और गरीबी से जूझ रहे हैं। मशहूर शायर खालिद इबादी की ये पंक्तियाँ उपर्युक्त परिस्थितयों पर सटीक बैठती हैं-

शहर का भी दस्तूर वही जंगल वाला
खोजने वाले ही अक्सर खो जाते हैं।

आसान शब्दों में कहें तो शहरीकरण का तात्पर्य ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में जनसँख्या की आवाजाही से है। शहरीकरण आर्थिक उन्नति का एक महत्वपूर्ण घटक बन गया है। दुनिया के अन्य देशों की तरह भारत में भी अवसरों की तलाश में बड़ी संख्या में लोग गाँवों और कस्बों से नगरों व शहरों में रहने आए हैं। शहर इतनी बड़ी युवा आबादी की आकांक्षाओं को पूरा करने के हॉट स्पॉट बन गए हैं। बात अच्छी शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की हो या ट्रांसपोर्टेशन और संचार की शहर हर मामले में गाँवों और कस्बों से बेहतर स्थति में होते हैं। आज दो तिहाई से ज्यादा योगदान देकर शहर देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी बन गए हैं जिन्हें ग्रोथ का इंजन कहना गलत नहीं होगा। इन सब खूबियों के चलते गाँवों और कस्बों से होने वाले प्रवासन से नगरों और शहरों पर दबाव बढ़ा है जिससे अनियोजित विस्तार को गति मिली है। जिसका परिणाम प्रदूषण, स्लम, भूजल दोहन, भूमि उपयोग पैटर्न में बदलाव ने शहरों को ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज दोनों तरह से प्रभावित किया है। वहीं, भारत में होने वाला शहरीकरण बेहतर आर्थिक आधार और जरूरी औद्योगिकीकरण के बिना हुआ है और कृषि में जड़ता व उसमें अस्थिर प्रवत्ति और क्षेत्रीय विविधीकरण (sectoral diversification) की कमी के कारण भी गाँव से शहरों की ओर लोगों का रुझान तेजी से बढ़ा है।

हमने ऊपर देखा कि बेहतर भविष्य के लिए मानस बेंगलुरु जैसे बड़े शहर में रहने आया पर अनियोजित शहरीकरण से उपजी भयावह स्थिति ने उसे अपने फैसले पर सोचने के लिए मजबूर कर दिया। अब हम सतत विकास को न अपनाने से शहरों में उत्पन्न होने वाली चुनौतियों और उनके समाधानों को जानेंगे-

बढ़ता प्रवासन और कमजोर अवसरंचना

प्रवासन के कारण शहरी आबादी में 40 प्रतिशत की वृद्धि देखने को मिली है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों की निर्धनता (rural poverty) शहरी क्षेत्रों की निर्धनता में बदल गयी है। प्रवासन में भी एक पैटर्न देखा गया हैं, लोग उन शहरों की ओर रुख करते हैं जहाँ उन्हें आर्थिक अवसर ज्यादा मिलते हैं। जिससे इन शहरों पर अवसरंचना और संसाधनों का इतना ज्यादा बोझ पड़ता है कि नए निर्माण की जगह मौजूदा अवसरंचना व संसाधनों का भी क्षरण होने लगता है, इसे 'अर्बन डिके' कहा जाता है। सयुंक्त राष्ट्र के संधारणीय विकास लक्ष्य 11 के तहत मानव बस्तियों को बसाते समय समावेशन, सुरक्षा, टिकाऊपन और उनकी प्रतिरोधकता का ध्यान रखा जाए। इन बिंदुओं पर ध्यान न देने के कारण अनियोजित तरीके से शहरीकरण हो रहा है जिससे असमानता, बेरोजगारी, गरीबी शोषण, गुणवत्तापूर्ण जीवन के आभाव के साथ बड़ी संख्या में झुग्गी बस्तियाँ शहरों में देखने को मिलती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक स्लम में रहने वाली 38 प्रतिशत जनसँख्या दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में है जो शहरी जनसँख्या का करीब 17.4 प्रतिशत है। कोविड के दौरान धारावी में स्थित स्लम में बड़ी संख्या में लोग प्रभावित हुए जिससे प्रशासन को कोविड प्रबंधन में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। कहना सही ही होगा भले ही शहरी क्षेत्रों को आज 'इकोनॉमिक पावरहाउस' कहा जाता हो पर अपर्याप्त हरित आवरण न होने के कारण वे 'इकोलॉजिकल ब्लैकहोल्स' जैसे हो गए हैं। खालिद सिद्द्की का यह शेर शहरों की स्थिति को संजीदगी से बयां करता है-

इक और खेत पक्की सड़क ने निगल लिया
इक और गाँव शहर की वसुअत में खो गया।

बेरोजगारी

शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी की समस्या बीते कुछ समय में काफी बढ़ी है। कृषि क्षेत्र में न खपने वाली आबादी शहरों के असंगठित क्षेत्र में कार्य करने वाले लोगों का एक बड़ा भाग है। शिक्षा और कौशल के निम्न स्तर के कारण बाजार में मौजूद अवसरों तक उनकी पहुँच नहीं हो पाती है। वहीं, व्यवसायों में ऑटोमेशन और मशीनों के इस्तेमाल से नौकरियों के अवसरों में कमी आयी है और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस व रोबोटिक्स ने नयी चुनौतियों को जन्म दिया है। अधिक संख्या में गाँवों से शहरों में आने वाली अकुशल आबादी को शहरी अर्थव्यवस्था संभाल पाने में सक्षम नहीं होती है, जिससे बेरोजगारी में बढ़ोतरी होती है। इससे शहर में होने वाले अपराध भी बढ़ते हैं। इस समस्या से पार पाने के लिए युवाओं को आज की बाजार माँग के हिसाब से कौशल प्रदान किए जाएं, जिससे देश की जननांकीय विविधता का लाभ उठाया जा सके और 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था के सपने को साकार किया जा सके।

गरीबी और भुखमरी

शहरों में बेहतर जीवन के लिए जरूरी आवश्यकताएँ भी समान रूप से सबको नहीं मिल पाती हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के अनुसार, ''शहरीकरण की प्रक्रिया से शहरी निर्धनता के मुकाबले ग्रामीण निर्धनता ज्यादा बढ़ी है।'' तेजी से बढ़ रही शहरी आबादी में कुछ ही लोग अवसरों का लाभ उठा पाते हैं बाकी को हाशिए की ज़िंदगी जीनी पड़ती है। पूरे भारत में शहरी जनसँख्या में गरीबी 25 प्रतिशत से भी ज्यादा है और शहरों में रहने वाले 8 करोड़ से ज्यादा लोगों की आय गरीबी रेखा से भी नीचे है। आज के शहरीकरण ने इंडिया और भारत की खाई को और चौड़ा कर दिया है।

बढ़ता कचरा

शहरों में हुई तीव्र जनसंख्या वृद्धि ने ठोस अपशिष्ट की मात्रा को कई गुना बढ़ा दिया है। और इस कचरे ने लोगों के समक्ष कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ पैदा की हैं। दिल्ली के गाजीपुर में कूड़े का पहाड़ इसका जीता जागता उदाहरण है। बेंगलुरु जैसे शहर में ही हर दिन 5000 टन ठोस अपशिष्ट उत्पन्न होता है, जबकि निपटान कुछ हजार टन का ही हो पाता है। इतनी बड़ी मात्रा में उत्पन्न अपशिष्ट का संग्रहण, परिवहन और निपटान ने नगर निगमों पर अतिरिक्त दबाव डाला है।

परिवहन

भारतीय शहर भीड़, जाम, प्रदूषण, रोड हादसों और परिवहन तक पहुँच में असमानता के लिए जाने जाते हैं। आय बढ़ने से लोगों की खरीद क्षमता में इजाफा हुआ है और खुद के वाहन होने से सार्वजनिक परिवहन में उनकी दिलचस्पी कम हो गयी है। वहीं, अच्छी सड़कों और बेहतर सार्वजनिक परिवहन सुविधाओं ने लोगों को काम के लिए शहरों में आना आसान कर दिया है, जिससे सार्वजनिक परिवहन में दबाव काफी बढ़ा है। इससे शहरों में ट्रैफिक जाम की समस्या आम हो गयी है। बेढंगे तरीके से हुए शहरीकरण के कारण निम्न आय वर्ग के लोग शहर की परिधि में रहने को मजबूर हो गए हैं, जिससे परिवहन तक पहुँचने में उन्हें समय और पैसा दोनों ज्यादा खर्च करना पड़ता है। इसके अलावा सार्वजनिक परिवहन में सुरक्षा सबसे बड़ा मुद्दा रहा है खासकर महिलाओं के संदर्भ में। इससे उनकी उत्पादकता और करियर पर नकारत्मक असर देखने को मिला है।

प्रदूषण और आपदाएँ

आए दिन खबरों में सुनने को मिलता है कि चेन्नई और दिल्ली जैसे शहरों में बाढ़ का पानी घर तक आ गया; सुनने में थोड़ा अजीब लगता है क्योंकि हमारे मन मस्तिष्क में इन शहरों की छवि एकदम अलग बनी हुई है। यह सब अनियोजित शहरीकरण का ही परिणाम है। इसके अलावा, कंक्रीटीकरण ने शहरों को हीट आईलैंड में बदल दिया है। वर्षा जल के संचयन में कमी, झीलों के अतिक्रमण और पेड़ों की अनियंत्रित कटाई ने शहरों में आपदाओं को बढ़ावा दिया है। साथ ही, अवैध खनन और आपर्टमेंट कल्चर के कारण झीलों और तालाबों पर अतिक्रमण करके निर्माण किया जा रहा है जिससे लोगों को पीने और आम जरूरतों के लिए पानी की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है। जोधपुर, बेंगलुरु, चेन्नई और कोल्लम जैसे शहर इसके जीते जागते उदाहरण हैं।

वहीं, अवैध फैक्ट्रियाँ, बढ़ते निजी वाहन और धूल कणों में बढ़ोतरी ने वायु प्रदूषण को अलग स्तर पर पहुँचा दिया है। आज प्रदूषण के मामले में विश्व के टॉप 20 शहरों में भारत के 14 शहर शामिल हैं। शिकागो विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उच्च वायु प्रदूषण के चलते दिल्ली के लोग अपने जीवन के औसतन 9.7 साल गंवा देते हैं।

मानवीय संबंध

आर्थिकी के इस दौर में आज मानवीय संबंध कहीं पीछे छूट गए हैं। इसका सबसे बड़ा प्रभाव सयुंक्त परिवार की व्यवस्था में टूटन के रूप में देखने को मिला है। इसके कारण बढ़ते उपभोक्तावाद और उच्च जीवनशैली की लालशा है जिससे व्यक्ति पर कार्य दबाव बढ़ा है और वह खुद से ही कट गया है। जिससे शहरों में अवसाद, नशा और अपराध बढ़ें हैं। और मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ गंभीर रूप ले रही हैं। किसी ने खूब लिखा है-

खामोश शहर की चीखती रातें
सब चुप हैं पर कहने को हजार बातें।

टिकाऊ शहरीकरण ही सतत विकास की कुँजी है। आने वाले वर्षों में शहरीकरण के प्रमुख रुझानों को समझना सतत विकास के लिए 2030 के एजेंडे के कार्यान्वयन के लिए महत्वपूर्ण है। आज जब विश्व में शहरीकरण तीव्र गति से हो रहा है तब शहरी विकास को सतत विकास के उचित प्रबंधन के जरिए ही साधा जा सकता है वरना इतनी बड़ी जनसँख्या की आकांक्षाओं को पूरा कर पाना मुश्किल होगा। वहीं, ऐसी नीतियाँ बनाए जाने की जरूरत है, जिसमें शहर और गाँवों में एक जुड़ाव बन सके जो तीव्र गति से हो रहे प्रवासन को रोकने में मदद करेगा। साथ ही शहरीकरण का फ्रेमवर्क ऐसा बनाया जाए जिसमें विकास का लाभ सब तक पहुँचे। सरकार को भी नगर पालिका और नगर निगमों को जरूरी वित्त उपलब्ध करवाना चाहिए जिससे विकास का लाभ शहर में रह रहे अंतिम व्यक्ति तक पहुँच सके। सतत विकास से हटकर जिस तरह से शहरीकरण हो रहा है उसने ग्रोथ और पर्यावरण के बीच संतुलन की बहस को फिर से केंद्र में ला दिया है। अगर विकास की कीमत जल जंगल और जमीन हैं जो इस धरती पर जीवन का आधार हैं तो हमें जल्द ही किसी निर्णायक नतीजे पर पहुँचकर सतत और अनियंत्रित विकास में से किसी एक को चुनना पड़ेगा जिससे आने वाली पीढ़ियों को हम हरे-भरे शहर सौंप सकें।

  शालिनी बाजपेयी  

(शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। मीडिया में काम करने के बाद वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ-साथ प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और विभिन्न मंचों के लिए लेखन कार्य कर रही हैं।)

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