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इच्छा का दमन

  • 06 Oct, 2018

महान दार्शनिक अरस्तु ने कहा है कि "शत्रुओं पर विजय पाने वाले की अपेक्षा मैं अपनी इच्छाओं का दमन करने वाले को अधिक साहसी मानता हूँ।

उनका यह विचार दूरदर्शी महत्त्व का है। निस्संदेह मनुष्य के मन में इच्छाओं का अनंत प्रवाह होता रहता है। इनमें से कुछ की पूर्ति करने में वह सक्षम होता है और कुछ की पूर्ति कर भी लेता है लेकिन बहुत कुछ की पूर्ति या तो अधूरी रह जाती है या फिर वह इनके लिये प्रयास करने में असमर्थ हो जाता है।

यह विचारणीय है कि इच्छा को शत्रु माना जाए या मित्र! इस परिप्रेक्ष्य में इच्छा की उत्पत्ति को समझने की आवश्यकता है। इच्छा एक ऐसा मनोभाव है जो किसी के मन में किसी वस्तु विशेष, व्यक्ति आदि के प्रति सृजित हो सकता है। उदाहरण के लिये एक भिक्षुक की प्राथमिक इच्छा अपना भूख मिटाना होगी जबकि एक भ्रष्टाचारी अधिकारी की प्राथमिक इच्छा अपना स्वार्थ सिद्ध करना।  

अतः इच्छा के विविध आयाम हैं। इनमें से कौन-सा आयाम तार्किक रूप से सही है और कौन-सा गलत, यह बहुतांशतः परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। सामान्य तौर पर, प्रत्येक व्यक्ति अपने सर्वांगीण विकास के लिये प्रयत्न करता है। यह प्रयत्न उसकी इच्छा का ही क्रिया रूप होता है। अन्यथा यह इच्छारहित होने पर कोई भी प्रयत्न करना निरर्थक समझ सकता है।

इच्छा उद्दीपक का कार्य करती है। यह व्यक्ति को अनुभूति कराती है कि वह अपने जीवन की वांछनीय आवश्यकताओं के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर भी अपनी भूमिका निभाए। ऐसी स्थिति में इच्छा मित्र की भाँति कार्य करती है। जिस प्रकार एक मित्र स्थितियों से अवगत होकर अपने मित्र को उचित कार्य करने का परामर्श देता है ताकि उसे हानि न हो उसी प्रकार इच्छा भी व्यक्ति से सही कार्यशैली अपनाने का आग्रह रखती है। लेकिन शत्रु की अपेक्षा धोखेबाज मित्र कहीं अधिक घातक होता है।

एक शत्रु पर विजय पाने वाला व्यक्ति रण कौशल युक्त, अधिक बलशाली और बेहतर कूटनीतिज्ञ हो सकता है लेकिन जब धोखेबाज मित्र शत्रु के रूप में हो तो स्थिति जटिल हो जाती है। इसी प्रकार, जब व्यक्ति के अन्तःकरण में अनैतिक और अमानवीय इच्छा भ्रमण करने लगती है तब इसे नियंत्रित करना सरल नहीं होता।

ऐसे में जब वह सामाजिक-वैधानिक नियमों को दरकिनार करते हुए विध्वंसक रूप अपना लेता है तब उसकी इच्छाओं का घातक परिणाम सामने आता है। उदाहरण के लिये, हाल के समय में भारत के विभिन्न स्थानों पर दुष्कर्म की घटनाएँ देखने को मिली हैं। एक पुरुष अपनी अमानवीय यौन इच्छा की पूर्ति करने के लिये एक स्त्री का जीवन नष्ट कर देता है। यदि ऐसी इच्छाओं का ही सृजन करना मनुष्य का ध्येय है तो बेहतर हो कि मनुष्य जाति का अस्तित्व न रहे।

ऐसी अमानवीय इच्छा का दमन क्षणिक प्रयास से संभव नहीं है। इसके लिये एक साधना की आवश्यकता होती है जो व्यक्ति में विभिन्न सकारात्मक प्रवृत्तियों का संचय करती है। इन स्थितियों पर नियंत्रण करने के लिये दृढ़ निश्चय, संयम, मन की शुचिता, सहिष्णुता, समानुभूति और संतोष जैसे प्रहरियों की आवश्यकता जान पड़ती है। ये ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं जो व्यक्ति को उचित कर्त्तव्य करने को मार्गदर्शित करती हैं। इससे वह अपने मन में उठने वाली अनैतिक और अमानवीय इच्छा का दमन करने में सक्षम हो पाता है।

अतः व्यक्ति को नैतिक पथ का अनुकरण करने के लिये इच्छा के अनंत प्रवाह को एक सही दिशा और एक सकारात्मक स्वरूप देने की आवश्यकता होती है।

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