इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

दृष्टि आईएएस ब्लॉग

समलैंगिक विवाह एवं विभिन्न अधिकार

वर्ष 2010-12 का समय था। पहली बार घर से लगभग 400 किलोमीटर दूर रहकर पढ़ने आई थी शहर। हॉस्टल ही नया घर हुआ उसपर भी ये कि हॉस्टल में 2 सबसे जूनियर लड़कियों में थी एक मैं और दूसरी मेरी रूममेट। लेकिन अच्छी बात थी कि कभी रैगिंग जैसी चीज नहीं हुई और सीनियर ने सपोर्ट ही किया। लगभग सारे रूम 2 बेड वाले थे और पार्टिशन प्लाई पर था।

एक दिन रूममेट ने बताया कि बगल के कमरे में रहने वाली दोनों दीदियाँ आपस में प्यार करती हैं। हमने कहा अच्छी बात है, सबको करना चाहिये एक दूसरे से। लेकिन या तो केवल मुझे ही पूरी बात समझ नही आई या हमदोनों ही के बालमन में बहुत कुछ नहीं आया। क्योंकि ये वो समय था जब अंतर्जातीय विवाह भी कहीं-कहीं ही सुनने को मिलता था और जो ऐसा करते थे वो सारे समाज की दृष्टि में 'गिर' जाते थे। एक राजपूत औरत हमारे गाँव में 'पंडी जी टोला' में ब्याह कर आई थी। लोग ब्राह्मण की पत्नी होने के नाते साथ बिठा तो लेते थे लेकिन व्यंग्य करने से बाज नहीं आते थे कि "बाभन से बिहा हो जैतय त कि बाभनी हो जैतय" (ब्राह्मण से शादी कर लेने से ब्राह्मणी नहीं हो जाएगी)... तो ऐसे ही किसी गाँव फिर छोटे कस्बे से निकल कर हम बड़े शहर में पढ़ने आए थे। इसलिये अंतर्जातीय विवाह तो फिर भी समझ आता था लेकिन एक लड़की का दूसरी लड़की को इस तरह प्रेम करना, इसका दिमाग के किसी भी कोने में कोई अस्तित्व ही नहीं था। अतः बात आई-गई हो गई।

कुछ दिन बाद बगल के कमरे से गुज़रते हुए खिड़की पर नज़र पड़ी तो एक सीनियर ने दूसरी की गोद में सर रखा हुआ था। बात मेरे लिये ये भी सामान्य थी क्योंकि कई बार सहेली के गोद में सर रख कर सो/जग चुके थे और वो बेचारी उतनी देर हिलती भी नहीं थी कि कहीं मेरी नींद न खुल जाए। फिर एक दिन देर रात को केयर टेकर की चिल्लाने की आवाज़ आने लगी। आँख खुली और रूम से निकलने पर देखा कि दोनों के सामान बाहर बिखरे पड़े हैं, दोनों रोए जा रही थीं, केयर टेकर दोनों को अपने गार्जियन को बुलाने और कमरा खाली करने के लिये कह रही थी। बाद में रूममेट से पता चला कि किसी लड़की ने खिड़की से कुछ देखा और केयर टेकर को बुला कर दिखाया जो उनकी नज़र में आपत्तिजनक था।

तब पहली बार जुगुप्सा उठी मन में कि ऐसा कैसे हो सकता है! ये कितना बुरा है!... धीरे-धीरे विज्ञान की दुनिया से निकल कर साहित्य की दुनिया में प्रवेश लिया, किताबें और दूसरी पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने लगी, दुनिया को और अधिक, और करीब से देखा फिर मन के कोने में लगे जाले साफ होने लगे और भूली घटनाएँ मन में साफ होने लगीं, उनका अर्थ समझ में आने लगा और मन ने कहा कि क्या ही समस्या है अगर कोई अपने ही जेंडर में प्रेम कर बैठे, किसी को अपने ही जेंडर में अपना सोलमेट मिल जाए। कहाँ लिखा है कि सोलमेट किसी दूसरे ही जेंडर का हो। और ये किसी का निजी अधिकार है कि वो क्या पसंद करता है/किसे पसंद करता है। क्या प्रेम विवाह/अंतर्जातीय विवाह गलत थे जिनका अधिकार पहले से नहीं प्राप्त था। लोगों ने लड़कर अपना अधिकार लिया और न केवल अधिकार बल्कि अपनी पसंद से विवाह करने का अधिकार अब तो अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार में शामिल है तो समान लिंग में विवाह करने का अधिकार क्यों नहीं प्राप्त किया जा सकता है।

फिर बात आती है अधिकारों के प्रकार की। अधिकार भी कई तरह के होते हैं। संवैधानिक/ वैधानिक/ आर्थिक/ सामाजिक। जैसे पिता की संपत्ति में पुत्रियों के हिस्से को कानूनी अधिकार प्राप्त है लेकिन सामाजिक नहीं। आप लेने जाएँ वो अधिकार तो आपको कोई मना करे या ना करे लेकिन उसके बाद मायके में लड़कियों को बहुत इज्जत की नज़र से नहीं देखा जाता। लोग अपनी बेटियों और बहनों को उस अमुक लड़की का उदाहरण खराब/गलत लड़की के रूप में देते हैं जिसने पिता की संपत्ति में हिस्सा लिया है। उनके बारे में कहा जाता है कि "बाप/भाई को कंगाल बना दी", "शूर्पणखा जैसी बहन है।" आदि आदि। उसी तरह समलैंगिकता को भारत में न्यायालय ने अपराध की श्रेणी से बाहर किया है लेकिन इसे संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत "जीवन और गरिमा के मौलिक अधिकार" के हिस्से के रूप में स्वीकार नहीं किया। साथ ही इसे अभी तक कानूनी दर्जा प्राप्त नहीं है, न ही समाज में इसके लिये सहमति है।

इसे कानूनी या सामाजिक अधिकार मिलना चाहिये या नहीं, इस पर बात करने से पहले जानते हैं कि सेक्स और जेंडर में क्या अंतर है। ज़्यादातर समय हम दोनों को एक ही तरह से इस्तेमाल करते हैं जैसा कि मैंने ऊपर भी किया है। जबकि सेक्स और जेंडर (gender) दोनों दो चीजें हैं। सेक्स हमारे जन्म लेने के समय ही तय हो जाता है- 'पुरुष/ महिला/ अन्य' जबकि जेंडर की समझ बड़े और समझदार होते-होते आती है। सेक्स एक जैविक अथवा शारीरिक संरचना है और जेंडर एक मानसिक संरचना है। जेंडर का जुड़ाव सामाजिक पक्ष से है परंतु सेक्स शरीर के रूप और आकार का प्रतिनिधित्व करता है। जेंडर मनोवैज्ञानिक है और इसकी अभिव्यक्ति सामाजिक है, परंतु सेक्स संरचनात्मक प्रारूप को धारण किये हुए है। इसलिये ये संभव है किसी का सेक्स पुरुष हो लेकिन जेंडर महिला अर्थात् शरीर पुरुष का हो लेकिन अभिव्यक्तियाँ या प्रकृति महिलाओं जैसी या इसके विपरीत भी।

ऐसे में समलैंगिक विवाह के पक्ष में सोचे तो लगता है कि कोई भी व्यक्ति किससे प्रेम करता है, किससे विवाह करता है या किसके साथ खुश रहता है, किसके साथ परिवार बसाता है यह उसका निजी मामला है और इसके लिये उसे स्वयं फैसला लेने का अधिकार है। उन्हें भी विपरीत लिंगी जोड़ों के समान कानूनी अधिकार प्राप्त होने चाहिये साथ ही, समाज में उन्हें भी इज्जत की नज़रों से देखा जाना चाहिये। लेकिन वहीं दूसरी तरफ यदि इस तरह के विवाह को कानूनी दर्जा प्राप्त होता है तो कई तरह के और सवाल पैदा होते हैं। जैसे विवाह का प्राथमिक कारण जब संतान की उत्पत्ति है जो प्राकृतिक रूप से भी समर्थित है और सामाजिक स्तर पर भी तब समलैंगिक जोड़े प्रजनन में कैसे सक्षम होंगे? हालाँकि सारे विपरीत लिंगी जोड़ों को संतान हो ऐसा आवश्यक नहीं है लेकिन यह अपवाद स्वरूप ही होता है। इसके अलावा यदि दोनों में तलाक होता है तो एलिमनी राशि का फैसला कैसे होगा? दोनों यदि किसी बच्चे को गोद लेते हैं तो माता-पिता का निर्णय कैसे होगा? दोनों में से किसके विरासत का अधिकार किसे और कैसे प्राप्त होता? आज जबकि समलैंगिक विवाह की संख्या लगभग नगण्य ही है तो ऐसे में सारे कानूनों में संशोधन कितना सही है? कहा भी जाता है कि नियम और कानून अपवाद को देखते हुए नहीं बनाए जाते हैं।

वैश्विक स्तर पर देखें तो विश्व के कई देशों में समलैंगिक विवाह की कानूनी मान्यता प्राप्त है, और एक लोकतांत्रिक समाज में व्यक्तियों को इस अधिकार से वंचित करना वैश्विक सिद्धांतों के खिलाफ है। भारत सहित 133 देशों में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है लेकिन उनमें से केवल 32 देशों में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता प्राप्त है। भारत की बात करें तो भारत विभिन्न धार्मिक और सामाजिक मूल्यों के साथ सांस्कृतिक विविधता वाला देश है जहाँ इतने सारे धर्म, जाति, समुदाय के लोग रहते हैं वहाँ समलैंगिक जोड़ों को भी बिना किसी डर के रहने का अधिकार मिलना ही चाहिये। साथ ही, हमें उनके साथ सामान्य व्यवहार करने के लिये लोगों को जागरूक करना चाहिये, कम-से-कम अपने परिवार को तो इसके लिये मनाया जा सकता है। लेकिन इसे कानूनी दर्ज़ा प्राप्त करने एवं पूरी तरह से सामाजिक स्वीकृति हासिल करने में एक लंबा सफर तय करना होगा।

  नेहा चौधरी  

नेहा चौधरी, बिहार के मुंगेर ज़िले से हैं। इन्होंने बिज़नेस स्टडीज़ से स्नातक एवं हिंदी से स्नातकोत्तर करने के बाद "दृष्टि आईएएस" के साथ 4 साल से अधिक समय तक कार्य किया। फिलहाल विभिन्न प्लेटफॉर्म से जुड़कर स्वतंत्र रूप से कंटेंट लेखन का कार्य करती हैं। विश्व स्तर पर चल रहे विभिन्न मुद्दों के साथ नारी अधिकारितावाद के लिए मुखर हैं। विश्व-साहित्य एवं मनोविज्ञान में रुचि रखती हैं।

-->
close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2