लखनऊ शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 23 दिसंबर से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



दृष्टि आईएएस ब्लॉग

शैलेश मटियानी- भारत का अभागा गोर्की

एक बच्चा जिसने महज 12 वर्ष की उम्र में ही अपने माता-पिता को खो दिया है और उसे दो जून की रोटी के लिये बूचड़खाने में काम करना पड़ रहा है, उस बच्चे में लिखने का ऐसा जुनून है कि वो 13 बरस की उम्र में ही कविता लिख डालता है। इतना ही नहीं 15 बरस की उम्र में वो अपनी पहली किताब भी लिख देता है। इस हतभाग्यनायक का नाम है शैलेश मटियानी जिन्हें साहित्य की दुनिया का अभागा गोर्की भी कहा जाता है। शैलेश मटियानी के कृतित्व के संदर्भ में लेखक व संपादक राजेंद्र यादव की ये टिप्पणी मानीखेज है-

"मटियानी हमारे बीच वह अकेला लेखक है जिसके पास दस से भी अधिक नायाब और बेहतरीन ही नहीं, कालजयी कहानियाँ हैं। जबकि अमूमन लेखकों के पास दो या फिर तीन हुआ करती हैं। कोई बहुत प्रतिभाशाली हुआ तो हद से हद पाँच।"

शैलेश मटियानी का लेखन जितना उजला था उनकी निजी ज़िन्दगी में उतना ही अंधेरा था। बचपन मे ही माँ-बाप को खोने के बाद उन्हें अपनी भूख और छत का जुगाड़ करने के लिये दर-बदर की ठोकरें खानी पड़ी। उनका अतीत उनसे इस तरह चिपका था कि एक लेखक के रूप में वे जब स्थापित हो रहे थे तब भी लोगबाग उनकी प्रतिभा को उनके अतीत से जोड़ कर ही शाब्दिक पारितोषिक देते थे- बिशुन्वा (पिता का नाम - विष्णु) जुआरी और शेरसिंह (चाचा) बूचड़ का लौंडा कवि–लेखक बन गया है। अतीत के अपने इन्हीं अनुभवों पर उन्होंने 'जुआरी का बेटा' और 'बूचड़ का भतीजा' नामक कहानियाँ भी लिखीं।

जब उन्हें यह महसूस हुआ कि अब उनका लेखन कर्म व निजी जीवन उनकी जन्मभूमि अल्मोड़ा में पुष्ट न हो पाएगा तो उन्होंने अल्मोड़ा से प्रयागराज, प्रयागराज से मुज़फ्फरनगर , मुज़फ्फरनगर से दिल्ली और दिल्ली से अंततः मुम्बई की यात्राएँ की। उन्हें बार-बार रहने के लिये जगहें इस वजह से भी बदलनी पड़ रही थी कि न तो इन जगहों पर उनकी ज़रूरतें पूरी हो रही थी और न ही उन्हें जीवन रस अर्थात लेखन का उचित आनंद मिल रहा था। इन यात्राओं के अनुभवों को उन्होंने अपने यात्रा संस्मरण 'पर्वत से सागर तक' में भी बयान किया है।

इस यात्रा संस्मरण में वे लिखते हैं कि उन्होंने बूचड़खाने में माँस काटने से लेकर बम्बई के श्रीकृष्णपुरी हाउस में झूठे बर्तन उठाने का काम भी किया है। मुज़फ्फरनगर में उन्होंने एक सेठ के घर पर घरेलू नौकर का काम भी किया। इतना ही नहीं उन्होंने कुलीगिरी भी की। पैसे की एक बार इतनी तंगी थी कि उन्होंने अपना खून तक भी बेचा। बेचे गए खून के पैसे में दलाल का हिस्सा भी था। वो जानबूझकर मुम्बई की गलियों में रात में घूमते ताकि गश्ती पुलिसकर्मी उन्हें पकड़कर हवालात मे बंद कर दें। इससे उन्हें जेल में खाना, रहने की छत और किये गए काम के बदले भत्ता भी मिल जाता था। उन्होंने मुम्बई में चाट हाउस में काम किया, ढाबे पर जूठे बर्तन धोए, ग्राहकों को चाय भी दिया। वे रेलवे स्टेशन और फुटपाथ पर भी सो जाया करते थे।

उनके जीवन में घटित होने वाली इन घटनाओं का प्रभाव उनके लेखन में भी परिलक्षित होता है। मुम्बई में रहने के दौरान उन्होंने अपराध और अपराधियों को नज़दीक से देखा था। अपने इन्हीं अनुभवों को उन्होंने 'बोरीवली से बोरीबंदर तक' उपन्यास की शक्ल दी है। इस उपन्यास का एक अंश प्रस्तुत है-

"सेठ लोग हज़ार मनुष्यों का रक्त निचोड़कर, कुछ चाँदी के टुकड़े 'पशुओं के लिये गोशाला-धर्मशाळा बनाने को दे दें, तो उनकी दया, धर्म-कीर्ति की दुन्दुभि चारों दिशाओं में गूँजने लगती है। पर, गरीब अपने प्राणों की आहुति देकर भी मानवता के आदर्शों की रक्षा करता है, तो कहीं चर्चा तक नहीं होती। सेठ हज़ारों के गले में स्वार्थ की छुरी फेर देते हैं, सरेआम इंसानियत को कत्ल कर देते हैं, वह केवल रोज़गार दिखाई देता है। गरीब गंजी-फ्रॉक बेचकर चार आने कमाने की कोशिश करे, वह कानून की दृष्टि में अपराधी है। सेठ के पुण्य और गरीब के पाप दोनों तिल से ताड़ बनकर समाज के सामने आते हैं।"

शैलेश मटियानी ने अपने भोगे हुए यथार्थ को ही अपने लेखन का विषय बना लिया। उनके लेखन का मज़बूत पक्ष 'कथ्य और संवेदना' है। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि आप स्वयं उस रचना के पात्र है। स्त्रियों के लिये भी उनके मन मे गहरी संवेदना थी। यूँ तो स्त्रियों पर बहुत लोग लिखते है मगर ज़्यादातर लेखक प्रेयसी और उनके प्रेम को केंद्र में रखकर लिखते है। लेकिन शैलेश मटियानी ने अपनी पत्नी को केंद्रबिंदु मानकर ‘अर्धांगिनी’ जैसी शाहकार कहानी रची है। इस कहानी का एक अंश प्रस्तुत है-

"सारा बंटाढार गाड़ी ने किया था, नहीं तो दीया जलने के वक्त तक गाँव के ग्वैठे में पाँव होते। ट्रेन में ही अनुमान लगा लिया था कि हो सकता है, गोधूली में घर लौटती गाय-बकरियों के साथ-साथ ही खेत-जंगल से वापस होते घर के लोग भी दूर से ही देखते कि ये नैनसिंह सूबेदार-जैसे चले आ रहे हैं? ख़ास तौर पर भिमुवा की माँ तो सिर्फ़ धुँधली-सी आभा-मात्र से पकड़ लेती कि कहीं रमुवा के बाबू तो नहीं? 'सरप्राइज भिजिट' मारने के चक्कर में ठीक-ठाक तारीख भले ही नहीं लिखी'' मगर महीना तो यही दिसंबर का लिख दिया था? तारीख न लिखने का मतलब तो हुआ कि वह कृष्णपक्ष, शुक्लपक्ष -- सब देखे।"

शैलेश मटियानी निर्मल वर्मा के बाद ऐसे दूसरे रचनाकार हैं जो रचना छापने से पूर्व प्रकाशकों से सीधे ही पैसे की बात कर देते थे। इस संदर्भ में एक घटना का ज़िक्र मौजूद है। दरअसल हिंदी अकादमी द्वारा 'बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानी' प्रोजेक्ट के लिये कहानियों का चुनाव करना था। इसी सिलसिले में इस प्रोजेक्ट का राजेन्द्र यादव व अर्चना वर्मा के साथ हिस्सा रही लेखिका कविता ने शैलेश मटियानी से उनकी अंश में छपी कहानी अर्धांगिनी को प्रोजेक्ट में छापे जाने के लिये अनुमति मांगी। इस पर शैलेश मटियानी ने अपने पत्र के माध्यम से उनसे एक सवाल पूछा -

"पैसे कितने मिलेंगे, मिलेंगे भी या नहीं?"

दरअसल शैलेश मटियानी ने अपने जीवन मे बहुत संघर्षो को देखा था और उन्हें रूपये-पैसे की कीमत का बखूबी पता था। जिस मैक्सिम गोर्की से उनकी तुलना की जाती है, उन्होंने भी लेखक-पाठक-धन के संदर्भ में अपना पक्ष रखा है-

"लेखक हवा में महल खड़े करता है, पाठक उस महल में रहते हैं मगर उस महल का किराया प्रकाशक वसूलता है।"

अगर शैलेश मटियानी के लेखन कर्म की बात करें तो उन्होंने लगभग 30 कहानी संग्रह, 30 उपन्यास, 13 वैचारिक संबंध कृतियाँ, 2 संस्मरण और 3 लोककथाएँ लिखी है। संघर्षों के साथ अपने जीवन की शुरूआत करने वाले शैलेश मटियानी का अंत भी बेहद पीड़ा में ही हुआ। अपने छोटे बेटे की भू माफियाओं द्वारा हत्या किए जाने के बाद वे अवसाद में चले गए। वे मानसिक रूप से विक्षिप्त रहने लगे, उन्हें मानसिक दौरे भी पड़ने लगे, उन्हें स्थायी रूप से सिर दर्द भी रहने लगा। अंततः सिर दर्द की एक रहस्यमयी बीमारी से 24 अप्रैल 2001 को उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन अपनी मृत्य के लगभग दो दशक बाद भी वो पाठकों की स्मृति में ताजा है। साहित्यकार प्रकाश मनु अपने संस्मरण में ठीक ही लिखते है-

"मटियानी जी अब नहीं हैं, उन्हें गुजरे कोई बीस बरस हो गए। पर इसके बावजूद हिंदी कथा-जगत में एक शिखर कथाकार के रूप में मटियानी जी का होना यह साबित करने के लिये काफी है कि कथा-साहित्य में अब भी 'पाठक' की सत्ता 'आलोचक' से कहीं बड़ी है।"

  संकर्षण शुक्ला  

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।

स्रोत

1. https://amp.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%86%E0%A4%B0._%E0%A4%95%E0%A5%87._%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%A3

2. https://youtu.be/kaAQPLYZ8vY


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2