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ग्रामीण भारत के विकास की राह

इस लेख में हम ग्रामीण भारत की विकास यात्रा के बारे में जानेंगे।

करीब साढ़े छह लाख गाँवों के समृद्ध ताने-बाने से बुने भारत के सामाजिक-आर्थिक परिवेश में ग्रामीण क्षेत्रों और ग्रामीण जनों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। आज भी हमारे देश की 68.84 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में ही निवास करती है इसलिए भारत की रीढ़ कहे जाने वाले इन गाँवों के विकास के बिना देश के संपूर्ण विकास की कल्पना भी निरर्थक है। फिर भी अपने पहलू में अनमोल सांस्कृतिक विरासत और विविधता को समेटने वाले भारत के गाँवों को शहरों की तुलना में हमेशा ही अधिक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। आज, जब देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है तब यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि आज़ादी के समय भुखमरी, अशिक्षा, बेरोज़गारी और बीमारियों का प्रकोप झेल रहा ग्रामीण भारत आज के इस डिजिटल युग में विकास के किस मोड़ पर खड़ा है और हमारी सरकारों ने ग्रामीण विकास के लिये क्या-क्या कदम उठाए हैं?  

ग्रामीण भारत का इतिहास एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य

वर्तमान में, ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक परिवर्तन का दायरा परंपरागत विकास से काफ़ी व्यापक है। इसमें विकास के विभिन्न आयामों के साथ समावेशी व सतत विकास, भौतिक व डिजिटल कनेक्टिविटी, गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिये न्यूनतम ज़रूरतों की पूर्ति जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण पहलू शामिल हैं। ग्रामीण भारत की इस विकास यात्रा को समझने के लिये उसके इतिहास को जानना होगा क्योंकि इतिहास को जाने बिना वर्तमान के मूल्य को नहीं समझा जा सकता है। तो चलिये निम्नलिखित आयामों के जरिये ग्रामीण भारत की स्थिति को समझने का प्रयास करते हैं-

कृषि की स्थिति

आज़ादी से पहले ग्रामीण भारत की जनसंख्या लगभग 85 फीसदी थी, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपनी आय  के लिये कृषि पर निर्भर थी। एक बड़ी जनसंख्या का व्यवसाय होने के बाद भी कृषि क्षेत्र की स्थिति अत्यंत खराब थी। इसका मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा लागू की गई जमींदारी, रैयतवारी जैसी भू-व्यवस्था प्रणालियाँ थीं। इसके साथ ही, प्रौद्योगिकी का निम्न स्तर, सिंचाई सुविधाओं का अभाव और उर्वरकों का नगण्य प्रयोग भी कृषि उत्पादकता में गिरावट के लिये जिम्मेदार था। जानकर दुख होगा कि पूरे ब्रिटिश शासन के दौरान अधिकतर भारतीय भुखमरी की कगार पर रहते थे। गरीबी और भुखमरी की जड़ें भारत में कितनी गहरी हो गई थीं, इसका अंदाजा 19वीं सदी के उत्तरार्ध में पड़े अकालों से लगाया जा सकता है। एक ब्रिटिश लेखक ‘विलियम डिग्बी’ ने हिसाब लगाया है कि 1854 से 1901 तक कुल मिलाकर 2,88,25000 से अधिक लोग अकाल से मरे थे। 

कृषि व्यवस्था इस हाल में पहुँच गई थी कि स्वतंत्रता के समय तक देश अनाज की कमी से जूझ रहा था। आज़ादी के बाद भारत को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिये भूमि सुधार, कृषि सुधार, हरित क्रांति, प्रौद्योगिकी नवाचार, मशीनीकरण समेत अनेक कदम उठाए गए। वर्तमान में, खाद्यान्न उत्पादन के क्षेत्र में भारत का दूसरा स्थान है। आज भी 58 प्रतिशत से अधिक ग्रामीण परिवार अपनी आजीविका के लिये कृषि पर निर्भर हैं और आर्थिक सर्वे 2020-21 के अनुसार कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 20 प्रतिशत का योगदान है।

शिक्षा का स्तर

ब्रिटिश शासन के दौरान लागू शिक्षा प्रणाली में आम जनता की शिक्षा की उपेक्षा की गई थी। अंग्रेजों ने उच्च और मध्यम वर्गों के कुछ भारतीयों को ही शिक्षित करने पर ध्यान दिया था। परिणाम यह हुआ कि 1911 में 94 प्रतिशत और 1921 में 92 प्रतिशत भारतीय निरक्षर थे। इसके अलावा, अंग्रेजों ने प्रारंभिक शिक्षा नीति में लड़कियों की शिक्षा के लिये भी धन की कोई व्यवस्था नहीं की थी। जिसके चलते 1921 में केवल 2 प्रतिशत भारतीय स्त्रियाँ ऐसी थीं जिन्हें पढ़ना-लिखना आता था। कंपनी के प्रशासन ने वैज्ञानिक और तकनीकी शिक्षा के विकास पर भी बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। यहाँ तक कि स्वतंत्रता के समय यानी वर्ष 1947 में महिलाओं की समग्र साक्षरता दर 6 प्रतिशत थी। वहीं, आज ग्रामीण भारत की साक्षरता दर लगभग 73.5 प्रतिशत है जिसमें पुरुषों की साक्षरता दर 81 प्रतिशत और महिलाओं की 65 प्रतिशत है। 

स्वास्थ्य व्यवस्था

19वीं सदी में भारत सफाई, जन स्वास्थ्य, जल-आपूर्ति जैसी सामाजिक सेवाओं के क्षेत्र में अत्यधिक पिछड़ा था क्योंकि ब्रिटिश सरकार अपनी आय का अधिकांश भाग सेना, युद्धों और प्रशासकीय सेवाओं पर खर्च कर रही थी। सामाजिक सेवाओं के लिये खर्च होने वाला बजट इतना कम होता था कि कोविड जैसी महामारी से निपटने वाला भारत उस समय हैजा, चेचक जैसी मामूली बीमारियों के सामने घुटने टेक देता था। इन बीमारियों का प्रकोप सबसे अधिक ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को ही झेलना पड़ता था। इंपीरियल गजट ऑफ इंडिया के अनुसार, साल 1881-90 के बीच भारत में हैजा, चेचक, ज्वर, अतिसार एवं अन्य बीमारियों से देश के विभिन्न हिस्सों में 49,86,950 लोग मरे। आंकड़ों की बात करें तो साल 1886 में सरकार ने अपने कुल 47 करोड़ रुपये के राजस्व में शिक्षा, चिकित्सा और जन-स्वास्थ्य पर 2 करोड़ रुपये से भी कम खर्च किया था। इस प्रकार 20वीं सदी के चौथे दशक के दौरान, एक भारतीय की औसत जीवन प्रत्याशा केवल 32 वर्ष थी। 

वहीं, आज़ादी के समय देश में सरकारी अस्पतालों की संख्या सात हजार, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों की संख्या 725 थी तो निजी अस्पतालों की संख्या केवल 10 हजार के करीब थी। समय के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुँच पर ध्यान केंद्रित किया गया और वर्तमान में सभी ग्रामीणों तक विशेषज्ञ डॉक्टरों की पहुँच सुनिश्चित करने, हर व्यक्ति की सेहत का डाटा एकत्र करने, रोग के पूर्व निदान में स्वास्थ्य सेवाओं का डिजिटल अवतार कारगर साबित हो रहा है। स्वास्थ्य सेवाओं की प्रगति का ही नतीजा है कि आज एक भारतीय की जीवन प्रत्याशा 70 साल हो गई है। 

परिवहन प्रणाली

औपनिवेशिक भारत में यातायात के साधन बहुत पिछ़ड़े हुए थे। यातायात बैलगाड़ी और तांगों तक ही सीमित था। हालांकि बाद में ब्रिटिश शासकों ने अपने फायदे के लिये ही सही, देश में यातायात की एक सस्ती और आसान प्रणाली का विकास किया था। उन्होंने नदियों में स्टीमर चलाए और सड़कों को सुधारना आरंभ किया लेकिन यातायात में वास्तविक सुधार रेलों के आरंभ के बाद हुआ। भारतीय में पहली रेल 1853 में मुंबई से थाड़े के बीच (34 किलोमीटर लंबी रेल लाइन) चलाई गई थी। लेकिन ग्रामीण एवं सुदूर क्षेत्रों से सड़कों एवं रेलों का संपर्क लगभग न के बराबर था। वहीं आज़ादी के बाद साल 1950-51 में ग्रामीण सड़कों की लंबाई 2,06,408 किलोमीटर थी जो कि साल 2018-19 में बढ़कर 45,41,631 किलोमीटर हो गई है। 

आज, भारत के पास दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा सड़क जाल है। बुनियादी सुविधाएँ और ज़रूरी बाज़ार मुहैया कराने के लिये लगातार ग्रामीण समुदायों को जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है।  

औद्योगिक क्षेत्र

अंग्रेज़ी शासन के दौरान भारत में परंपरागत उद्योगों का पतन हुआ, किंतु आधुनिक मशीन उद्योगों का विकास नहीं हुआ। जिससे हस्तशिल्पी और दस्तकार तबाह हो गए और गाँवों में आर्थिक जीवन असंतुलित हो गया। साल 1946 के दौरान कारखानों में काम करने वाले 40 प्रतिशत मजदूर सूती कपड़ा और जूट उद्योगों में लगे हुए थे। भारत के औद्योगीकरण की शून्यता इस तथ्य से स्पष्ट होती है कि 1951 में 35 करोड़ 70 लाख की कुल जनसंख्या में से केवल 23 लाख लोग आधुनिक औद्योगिक उद्यमों में लगे थे। 

वहीं आज 6.3 करोड़ एमएसएमई (लघु उद्योग) कार्यरत हैं, जिनमें से 20 प्रतिशत एमएसएमई का केंद्रण गाँवों में हैं। लघु उद्योगों की एक विशेषता यह है कि इसका बड़ा हिस्सा 6000 संभावित समूहों, 1157 पारंपरिक औद्योगिक समूहों, 3091 हस्तशिल्प समूहों और 563 हथकरघा समूहों के इर्द-गिर्द केंद्रित है। यह कृषि के बाद कम पूंजी लागत पर सबसे अधिक रोजगार देने वाला दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। यह क्षेत्र गैर कृषि आजीविका, संतुलित क्षेत्रीय विकास, लिंग और सामाजिक संतुलन तथा स्थायी समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

ग्रामीण विकास के लिये सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाएँ 

देश में व्याप्त सामाजिक व आर्थिक विषमताओं की खाई को कम करने के लिये ग्रामीण क्षेत्रों के विकास पर जो़र दिया जा रहा है। ग्रामीण विकास को लेकर सरकार द्वारा शुरू की गई योजनाएँ इस प्रकार हैं- 

पंचवर्षीय योजनाएँ

देश में आर्थिक विकास को गति देने के लिये प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने साल 1951 में पंचवर्षीय योजना शुरू की थी। इनका लक्ष्य संवृद्धि, आधुनिकीकरण, आत्मनिर्भरता और समानता लाना था। इन योजनाओं के सतत क्रियान्वयन का ही परिणाम है कि आज भारत खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है। हालांकि 31 मार्च 2017 से पंचवर्षीय योजनाओं को समाप्त कर दिया गया है। 

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (MGNREGA), 2005

मनरेगा कार्यक्रम के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक परिवार के अकुशल श्रम करने के इच्छुक वयस्क सदस्यों को एक वित्तीय वर्ष में कम-से-कम 100 दिन का गारंटीयुक्त रोज़गार प्रदान किया जाता है। इसके अलावा, इस योजना का उद्देश्य परिसंपत्तियों की गुणवत्ता में सुधार करना, उद्यमशीलता के लिये श्रमिकों का कुशल विकास और जीआईएस मैपिंग जैसे कार्यों हेतु युवाओं की नियुक्ति करना है। कोविड के दौरान मनरेगा श्रमिकों के लिये वरदान बना। इसके तहत 2019 में करीब 260 करोड़ व्यक्ति कार्यदिवस सृजित किए गए जबकि 2021 में यह संख्या बढ़कर करीब 390 करोड़ व्यक्ति कार्यदिवस हो गई।

दीनदयाल अंत्‍योदय योजना-राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (DAY-NRLM)

इस योजना की शुरुआत जून 2011 में हुई थी। इसका उद्देश्य देशभर में ग्रामीण निर्धन परिवारों के लिये विभिन्न आजीविकाओं को बढ़ावा देना है। इस मिशन में स्वयं सहायता के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये सामुदायिक पेशेवरों के माध्यम से सामुदायिक संस्थाओं के साथ कार्य किया जाना शामिल है। वित्त वर्ष 2021 में लगभग 56 करोड़ रुपए का रिवॉल्विंग फंड और कम्युनिटी इनवेस्टमेंट फंड महिला स्वयं सहायता समूहों को जारी किया गया था। 

प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना

इस योजना की शुरुआत 25 दिसंबर 2000 को हुई। इसको शुरू करने का प्रमुख उद्देश्य 500 से अधिक आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों में और 250 से अधिक आबादी वाले पहाड़ी क्षेत्रों में सभी मौसमों के अनुकूल सड़क संपर्क उपलब्ध कराना था। इसके तहत अब तक 713,307 किलोमीटर लंबाई की कुल 171,313 सड़कें बनाई जा चुकी हैं। 

प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण

PMAY

1 अप्रैल 2016 को पहले से चल रही इंदिरा आवास योजना का पुनर्गठन कर उसका नाम प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण (PMAY-G) कर दिया गया था। इसका उद्देश्य 2022 तक ग्रामीण परिवारों के आवासहीन, कच्चे तथा जर्जर घरों में रहने वाले लोगों को बुनियादी सुविधाओं के साथ पक्के घर उपलब्ध कराना है। इस योजना के तहत अब तक 1,95,87,717 आवासों को पूरा कर लिया गया है। 

सांसद आदर्श ग्राम योजना

SAGY

इस योजना की शुरुआत 11 अक्टूबर 2014 को हुई थी। इसका मुख्य उद्देश्य गाँवों का विकास करना है। इसके पहले चरण (2014-2019 ) में 1509 और दूसरे चरण (2019-2024) में 1435 ग्राम पंचायतों का चयन किया गया है। इसके तहत चयनित गाँवों के विकास की ज़िम्मेदारी संसद सदस्य (सांसद) लेते हैं।

उपर्युक्त योजनाओं के अलावा सभी गाँवों एवं बस्तियों में निर्बाध बिजली आपूर्ति के उद्देश्य से शुरू की गई दीन दयाल उपाध्याय ग्राम ज्योति योजना, श्यामा प्रसाद मुखर्जी रुर्बन मिशन, प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना, नीरांचल राष्ट्रीय वाटरशेड परियोजना, प्रधानमंत्री ग्रामीण डिजिटल साक्षरता अभियान, मिशन अंत्योदय जैसी योजनाओं के द्वारा गाँवों को मुख्यधारा से जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है।

ग्रामीण भारत के विकास में तेजी लाने के लिये उठाए गये अन्य ज़रूरी कदम

कृषि विपणन- 14 अप्रैल 2016 से शुरू राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) के द्वारा कृषि उत्पादों के लिये बेहतर कारोबारी अवसर उपलब्ध हो रहे हैं। इसके अंतर्गत वे सभी सेवाएँ सम्मिलित की जाती हैं जो कृषि उपज को खेत से लेकर उपभोक्ता तक पहुँचाने के दौरान करनी पड़ती हैं। 

डिजिटल क्रांति-  गाँवों में डिजिटल अवसंरचना को गति मिलने से स्वास्थ्य, शिक्षा, स्थानीय शासन तंत्र और बैंकिंग सेवाओं आदि का दायरा बढ़ा है। डिजिटल पेमेंट, कैश ऑन डिलीवरी और गाँव की चौपाल तक डिलीवरी बॉय की पहुँच ग्रामीण भारत में डिजिटल पदचिन्हों के बढ़ने के ही परिणाम हैं।

ग्रामीण पर्यटन-  गाँव के प्राकृतिक परिवेश और सरल जीवन में पर्यटकों को आत्मिक आनंद मिलता है। ग्रामीण पर्यटन को बढ़ावा मिलने से रोज़गार व आमदनी के साथ-साथ गाँव का सांस्कृतिक व सामाजिक विकास भी होता है। वर्तमान में, इस क्षेत्र में सभी संभावनाओं को तलाशने का प्रयास किया जा रहा है। 

द्वितीयक क्षेत्र की प्राथमिक क्षेत्र पर निर्भरता- 1991 में उदारीकरण के बाद निर्माण क्षेत्र का दायरा बढ़ा और विभिन्न उत्पादों को बनाने के लिये प्राथमिक क्षेत्र के उत्पादों की मांग में इज़ाफा हुआ। इससे गाँवों के विकास को और गति मिली। अनुबंध खेती (Contract Farming) इसका एक प्रमुख उदाहरण है।

निष्कर्ष

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि ग्रामीण भारत के विकास के लिये आज़ादी के बाद से अब तक कई प्रयास किये गए हैं जिसके चलते ग्रामीण क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक ढांचे में आमूल-चूल बदलाव देखने को मिला। लेकिन ये बदलाव पर्याप्त नहीं हैं। आज भी देश के कई गाँवों को सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा तकनीकी एवं औद्योगिक समृद्धि का समुचित लाभ नहीं मिल रहा है। अत: यह आवश्यक है कि सरकार को अपनी योजनाओं में ग्रामीण क्षेत्रों को प्राथमिकता देने के साथ उन्हें धरातल पर लागू करना चाहिये। जब प्रत्येक गाँव गरीबी से मुक्त, उन्नत आजीविका के साथ सामाजिक रूप से सक्षम बनेगा तभी देश का विकास संभव होगा। 

शालिनी बाजपेयी

(शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।)

 

स्रोत

1- आधुनिक भारत का इतिहास (विपिन चंद्र)
2- कुरुक्षेत्र (जनवरी 2022)
3- ग्रामीण विकास मंत्रालय (https://rural.nic.in/)
4- करुक्षेत्र (मई 2022)
5- कुरुक्षेत्र (दिसंबर 2021)


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