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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

शिक्षा में नैतिक मूल्यों की प्रासंगिकता

जॉन डेवी का मानना है “शिक्षा जीवन की तैयारी नहीं है; शिक्षा स्वयं जीवन है।” दरअसल शिक्षा हासिल करते हुये मनुष्य अवगुणों को त्याग रहा होता है व सद्गुणों को आमंत्रित कर रहा होता है। इस प्रक्रिया में खामियाँ दूर हो रही होती हैं और मनुष्य खूबियों से लद रहा होता है। जीवन के असल आनंद की अनुभूति शिक्षा से ही हो रही होती है बशर्ते शिक्षा के उद्देश्यों में तथ्यों का नहीं, बल्कि नैतिक मूल्यों का समावेश हो।

किताब, कागज़, स्याही, चॉक, ब्लैकबोर्ड और शिक्षक से आगे निकलकर शिक्षा कंप्यूटर व प्रोजेक्टर यानी ऑनलाइन अथवा डिजिटल माध्यम में प्रवेश कर चुकी है। भारत का पहला एआई शिक्षक रोबोट ‘आइरिस’ केरल के विद्यालय में लांच हो चुका है। यह दौर शिक्षा के लिए संभावनाओं व चुनौतियों का दौर है। यदि विद्यार्थी और शिक्षक इस दौर में संभलते हुये क़दम न बढ़ाएंगे तो शिक्षा के असल उद्देश्य पूर्ण नहीं हो पायेगा। इसलिए इस दौर में शिक्षक की भूमिका पहले से ज्यादा संवेदनशील हो जाती है, और विद्यार्थियों के कर्तव्य बढ़ जाते हैं। “बुद्धिमत्ता और चरित्र का सही विकास सच्ची शिक्षा का मूल लक्ष्य है।”

यदि शिक्षा मनुष्य को सँवारती है तो शिक्षण-अधिगम के दौरान यह नैतिक जवाबदेही के प्रति भी संकेत करती है। भारतीय प्राचीन गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था, नालंदा विश्वविद्यालय, तक्षशिला विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय और शांति निकेतन की सूची को संपूर्ण विश्व आज भी आशा भरी निगाहों से देख रहा है। यहाँ की शिक्षा गुणवत्तापूर्ण तो थी ही साथ में यहाँ मनुष्य को सही मायने में इंसान बनाया जाता था। आज मनुष्य आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर तो हो रहा है लेकिन संवेदनाओं के स्तर पर खोखला होता जा रहा है। यदि शिक्षक, सिलेबस, किताबों व परीक्षाओं के द्वारा विद्यार्थियों में संवेदनाओं का उचित विकास न हो तो समस्याएँ विकराल होती चली जाती है। समाज में अपराधों के बढ़ते स्तर, संवेदना-विहीन नजरिया और सोशल मीडिया पर पढ़े-लिखे लोगों के द्वारा असंसदीय भाषा का प्रयोग से साबित होता है कि शिक्षा की दिशा को नैतिक मूल्यों की ओर मोड़ना अतिआवश्यक है।

शिक्षक और विद्यार्थी ठान ले तो शिक्षा में नैतिक मूल्यों की वापसी भलीभाँति हो सकती है। शिक्षक को शिक्षण के दौरान ऐसी भाषा शैली का प्रयोग करना चाहिए जिससे भारत की विविधता, एकता और अखंडता को चोट न पहुँचे। शिक्षक राष्ट्र निर्माण में डटे रहते हैं, नई पीढ़ि को सँवारने की जिम्मेदारी काफी संवेदनशील होती है। शिक्षक से विद्यार्थी प्रेरित होते हैं, उनका अनुकरण करते हैं इसलिए शिक्षक के व्यक्तित्व, वेश-भूषा, खान-पान, व्यवहार और विचार का शानदार होना चाहिये। शिक्षक बच्चे को क्या पढ़ाते हैं इससे ज़्यादा ध्यान देने वाली बात है कि कैसे पढ़ाते हैं। शिक्षण शैली ही शिक्षा की आत्मा है; जब तक यह विद्यार्थी अनुकूल न होगा, शिक्षा हासिल करना नीरस लगता रहेगा।

शिक्षक स्वयं में ताउम्र सकारात्मक बदलाव लाते हैं, वही बदलाव अपने विद्यार्थियों में हो- इसके लिए वे प्रयत्नशील रहते हैं। यह केवल सिलेबस और परीक्षाओं से संभव नहीं होता है। हर इंसान कम से कम नियम को मानना चाहता है, अनुशासन और नैतिकता सच पूछिये तो बहुत कम को पसंद है। सभी को लगता है कि वही सबसे अधिक नैतिक है। यहीं नैतिकता और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा जरूरी हो जाती है। शिक्षा सभी प्रकार के पेशेवरों को नैतिकता समझाती है। सही-गलत, सच-झूठ, अच्छा-बुरा इन सबका ज्ञान हमें शिक्षा के द्वारा ही हासिल होता है। इन्हीं ज्ञान के सहारे मनुष्य कभी स्वयं को रोकता है तो कहीं स्वयं को टोकता है। अतः शिक्षा में नैतिक मूल्यों की उपयोगिता बढ़ जाती है। इसलिए कहा जाता है - “शिक्षा वह है जो स्कूल में सीखी गई बातों को भूल जाने के बाद भी बची रहती है।”

विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास से लेकर देश के आर्थिक विकास तक में शिक्षा के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। हम क्या हैं और क्या हो सकते हैं यह हमें प्राप्त हो रही शिक्षा से तय होता है। पाठ्यपुस्तकों की विषयवस्तु, शिक्षण-अधिगम सामग्री, शिक्षकों की शिक्षण शैली, पाठ्यक्रम व पाठ्यचर्या ये सब नैतिक मूल्यों के कारण ही मानक हो रहे होते हैं। परिणामस्वरूप शिक्षा उत्तरोत्तर गुणवत्तापूर्ण होती चली जाती है। व्यक्तिगत हित से ज्यादा जरूरी है परिवार का हित, परिवार के हित से ज्यादा जरूरी है समाज का हित, और सबसे ज्यादा जरूरी है देशहित व मानवहित! शिक्षा जब नैतिकता के तमाम मापदंडों को स्वयं में समाहित कर ले तब वसुधैव-कुटुंबकम और सत्यमेव जयते की अवधारणा मूर्त हो रही होती है। और इसी से सबका कल्याण हो रहा होता है।

मनुष्य जीवनभर सीखता है। अपनी गलतियों को दूर करना मनुष्य की सबसे प्रासंगिक प्राथमिकता होनी चाहिये। “नैतिक मूल्यों के बिना शिक्षा का वही महत्व है जो महत्व नाविक के बिना नाव का है।” नैतिक मूल्य के सहारे ही शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को परम् लक्ष्य तक पहुँचाया जाता है। मनुष्य की सामाजीकरण की प्रक्रिया बगैर नैतिक मूल्यों के संभव नहीं है। नैतिक मूल्य ही हैं जिससे नई पीढ़ी अतीत के प्रति श्रद्धा, वर्तमान के प्रति तर्क और भविष्य को लेकर चिंता करना सीख रही होती है। शिक्षा में स्व-मूल्यांकन के तत्व नैतिक मूल्यों से ही प्रगाढ़ हो रहे होते हैं। नैतिकता हमें जिम्मेदार नागरिक बनाती है। जब शिक्षा व्यक्ति को शिक्षित करती है तब सीखने-सिखाने में नैतिक मूल्यों का सक्रिय होना अतिआवश्यक हो जाता है। “शिक्षा का उद्देश्य खाली दिमाग को खुले दिमाग से बदलना है।”

शिक्षा का आधुनिकीकरण और कंप्यूटरीकरण कर देने से इनका प्रभाव बढ़ नहीं जाता है क्योंकि नैतिक मूल्यों के बिना शिक्षा को प्रभावी बनाना असंभव है। शिक्षक का व्यवहार, शिक्षण-शैली, वेश-भूषा, लेशन प्लान, भाषा शैली और शिक्षण-अधिगम सामग्री की तैयारी नैतिक मार्ग से होकर ही परिपूर्ण होते हैं। विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास के लिए नैतिक मूल्यों का सही से विकास होना जरूरी है। बगैर नैतिक विकास के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और भावनात्मक विकास का टिकाऊ लाभ न तो व्यक्ति को पहुँचता है और न ही राष्ट्र को!

शिक्षकों के नैतिक मूल्य -

  1. कक्षा में पढ़ाते हुये शिक्षकों को विभिन्न विविधताओं का सम्मान करना चाहिये। जाति, धर्म, लिंग, भाषा, रंग, क्षेत्र इत्यादि के आधार पर विद्यार्थियों के बीच भेदभाव नहीं करना चाहिये।
  2. शिक्षा का अंतिम उद्देश्य विद्यार्थियों के व्यवहार में सकारात्मक परिवर्तन लाना होता है इसलिए शिक्षक को सबसे पहले अपना व्यवहार बेहतरीन करना चाहिये ताकि बच्चे उनसे प्रेरित हो सके।
  3. व्यक्तिगत राजनीतिक विचारधारा अथवा पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर शिक्षण-अधिगम के दौरान गलत उदाहरण पेश करने से बचना चाहिये।
  4. शिक्षक नई पीढ़ी को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाते हैं यानी सत्य से दर्शन कराते हैं। इसलिए शिक्षकों में सत्यनिष्ठा जैसे नैतिक मूल्य की जरूरत पड़ती है ताकि विद्यार्थी जागरूक, समझदार और बौद्धिक रूप से आत्मनिर्भर हो पाये।
  5. एक शिक्षक अपने सेवाकाल में हजारों विद्यार्थियों के भविष्य को निर्धारित करते हैं। वे बालक को नवाचार, रचनात्मकता और मौलिकता से भर रहे होते हैं इसलिए शिक्षकों का अपने कार्य के प्रति ईमानदार होना आवश्यक है।
  6. शिक्षा देश को नया आकार देती है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति उदार रास्ते से ही संभव है। आजाद भारत के सभी शिक्षा नीतियों से यही परिलक्षित होती है कि शिक्षकों को उत्तरोत्तर उदार होते रहना चाहिये। मूर्त से अमूर्त, ज्ञात से अज्ञात और लर्निंग बाय डूइंग के द्वारा विद्यार्थियों को पढ़ाना सबसे प्रासंगिक मुद्दे हैं। कक्षा में डाँटने, पीटने व चिल्लाने से विद्यार्थियों में शिक्षा और शिक्षकों के प्रति डर का माहौल बनता है। शिक्षा डरना नहीं बल्कि निडर होना सिखाती है। इसलिए शिक्षक उदार हृदय के होने चाहिये। विद्यार्थियों को उनकी गलतियों से भी सीखने का मौका देते रहना चाहिये।
  7. विद्यार्थियों की जरूरतों और भावनाओं के प्रति शिक्षकों में उचित समझ और करुणा होनी चाहिये। विद्यार्थियों से शिक्षण से संबंधित फीडबैक लेते रहना चाहिये, तत्पश्चात् स्वयं के शिक्षण शैली को निखारते रहना चाहिये।
  8. विद्यार्थियों के सभी अंतःक्रियाओं में निष्पक्षता, न्याय व समान अवसर सुनिश्चित करना चाहिये। बच्चों की भलाई के लिए दया, देखभाल और चिंता सच में दिखाना चाहिये।
  9. चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में भी समझदारी और शांत व्यवहार का होना शिक्षकों के लिए जरूरी है। विद्यार्थियों की सफलता के लिए वास्तविक उत्साह और समर्पण के भाव का होना अतिआवश्यक है।
  10. विद्यार्थियों के विकास और कल्याण में शिक्षकों को वास्तविक रुचि रखना चाहिये। इसके लिये शिक्षक को मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक, राह के सुगमकर्ता व अभिभावक की भूमिका में आ जाना चाहिये।
  11. शिक्षकों को शिक्षण और मूल्यांकन में तटस्थ और निष्पक्ष दृष्टिकोण बनाए रखना चाहिये।

विद्यार्थियों के भी नैतिक मूल्य निर्धारित किये गये हैं। ईमानदारी, सम्मान, सहानुभूति और दया जैसे नैतिक मूल्य विद्यार्थियों के समग्र विकास के लिए आवश्यक हैं। नैतिक मूल्य विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण में मदद करता है; उनके विचार, व्यवहार और कार्यों को प्रभावित करता है। शिक्षा में नैतिकता के कारण जिम्मेदार नागरिक का निर्माण होता है जो समाज में सकारात्मक योगदान देते हैं। विद्यार्थियों में सामाजिक कौशल, सहानुभूति, समानुभूति और समझ को बढ़ाने के लिए जरूरी है कि उन्हें साहित्य, समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, इतिहास और मनोविज्ञान से जोड़ें। विद्यालय में विभिन्न एक्टिविटी कराकर भी मानवीय गुणों का उचित विकास विद्यार्थियों में हो सकता है। “किसी विद्यार्थी का प्रतिभावान बनने का कारण विद्यालय में हमेशा अच्छे ग्रेड का होना नहीं है, बल्कि दुनिया को देखने और सीखने का एक अलग नजरिया का होना है।”

अक्सर देखा गया कि मजबूत नैतिक मूल्यों वाले विद्यार्थी शैक्षणिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करता है। नैतिक मूल्यों से सहायक, समावेशी और सम्मानजनक विद्यालय संस्कृति का निर्माण होता है। इस माहौल में विद्यार्थी जीवन की असल चुनौतियों का ईमानदारी व उदारता के साथ सामना करने के लिए तैयार हो रहा होता है। जिससे उनमें आत्म-जागरूकता, आत्म-चिंतन और आत्म-अनुशासन का विकास होता है। “ज्ञान ही शक्ति है। सूचना व जानकारी मुक्तिदायक है। नैतिकता असली साथी है। शिक्षा हर समाज, हर परिवार में प्रगति का आधार है।”

नैतिक मूल्य अकादमिक शिक्षा का पूरक है। नैतिक मूल्य के कारण ही विद्यार्थियों का समग्र विकास और कल्याण हो रहा होता है। विद्यार्थी जितना ज्यादा नैतिक होंगे सामंजस्यपूर्ण समाज का निर्माण उतना ही बेहतर तरीके से होगा। विद्यार्थियों को धोखाधड़ी और परीक्षा में नकल करने से बचना चाहिये। शिक्षकों, सहपाठियों व औरों की राय, विश्वास और विविधताओं को महत्व देना जरूरी है। असफलताओं और कठिनाइयों के बावजूद दृढ़ रहना समय की माँग है। विद्यार्थियों को अपने व्यवहार, भावनाओं और समय प्रबंधन को विनियमित करना चाहिये। साथियों की भलाई के लिए दया और चिंता से युक्त होना विद्यार्थी जीवन के सबसे प्रासंगिक मुद्दे हैं।

यदि शिक्षा इस दुनिया को निखार रही है तो विभिन्न नैतिक मूल्य इन्हें लगातार सभ्य कर रहे हैं। मनुष्य से इंसान बनने की राह शिक्षा और नैतिक मूल्य दोनों से होकर जाती है। शिक्षक और विद्यार्थी दोनों में नैतिक मूल्यों का विकास जरूरी है। विद्यार्थी में नैतिक मूल्यों को स्थापित करने से उनका चरित्र मजबूत होता है, वे जिम्मेदार नागरिक बनते हैं, जिससे उनका और राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल होता है। शिक्षक युवा दिमाग को आकार देने, उनके बौद्धिक, सामाजिक व भावनात्मक विकास को बढ़ावा देने और उन्हें उनके भविष्य के प्रयासों के लिए तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यदि शिक्षक और विद्यार्थी लोकतांत्रिक माहौल में संवैधानिक मूल्यों, मानवीय सद्गुणों, देशप्रेम की भावनाओं से प्रभावित होकर शिक्षण-अधिगम करेंगे तो विविध नैतिक मूल्य स्वतः ही शिक्षा में शामिल हो रहे होंगे। संपूर्ण शैक्षणिक जगत जिन समस्याओं व चुनौतियों से जूझ रहा है उनका समाधान नैतिक राहों पर चलकर ही मिल सकता है। शायद इसीलिए आजाद भारत के सभी शिक्षा नीतियों और शिक्षा आयोगों ने शिक्षा में नैतिक मूल्यों की वकालत किये हैं।

विद्यालय में शिक्षक एक साथ कई भूमिकाओं को निभा रहे होते हैं। शिक्षक शिक्षण कार्य के साथ-साथ मार्गदर्शक, पथप्रदर्शक और मार्ग के सुगमकर्ता होते हैं। सही मायने में अभिभावक के अधिकतर कार्य शिक्षक ही कर रहे होते हैं। यही वजह है कि “डॉक्टर की गलती कब्र में दफन हो जाती है, इंजीनियर की गलती नींव में दब जाती है, लेकिन शिक्षक की गलती पूरे समाज में उभरकर आती है।” अतः शिक्षकों को अपने कार्य के प्रति संवेदनशील होना चाहिये। विद्यार्थियों को भी सीखने के लिए हमेशा विनम्रतापूर्वक तैयार रहना चाहिये। शिक्षकों और विद्यार्थियों को स्वीकार करना होगा कि आत्म-अनुशासन, आत्म-मूल्यांकन और आत्म-अवलोकन के द्वारा ही मानव सभ्यता को सतत सभ्य किया जा सकता है। इसलिए नेल्सन मंडेला कहते हैं - “शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है, जिसका उपयोग आप दुनिया को बदलने के लिए कर सकते हैं।”

  राहुल कुमार  

(राहुल कुमार, बिहार के खगड़िया जिला से हैं। ये बिहार के गवर्नमेंट इंटर स्कूल में भूगोल विषय के शिक्षक हैं। इन्होंने भूगोल, हिंदी साहित्य और मास कम्युनिकेशन में स्नातकोत्तर, भूगोल में स्नातक, हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा तथा बीएड किया है। फ़िलहाल ये इग्नू से एजुकेशन विषय में स्नातकोत्तर कर रहे हैं। इनकी कुल दो किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं।)

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