जनसंख्या वृद्धि - आपदा अथवा अवसर
- 03 Jan, 2023 | हर्ष कुमार त्रिपाठी
कुछ दिनों पहले मैं अपने विद्यालय में आठवीं कक्षा में एक स्थानापन्न कालांश में गया था. वह कालांश शायद सामाजिक विज्ञान विषय का था. बच्चों से मैंने पूछा "कोई 5 कारण बताओ जिसके कारण यह देश तुमको बहुत अच्छा लगता है." छोटे बच्चों ने उत्साहपूर्वक कई जवाब दिये. फिर मैंने पूछा "अच्छा, देश की कोई 5 समस्याएं बताओ जो तुमको काफी बुरी लगती हैं और देश को भी बुरा बनाती हैं." मैंने एक बालक का नाम पूछा और उसे उठाया तो उसने पहली समस्या बतायी "सर, यहाँ आबादी बहुत ही ज्यादा है…..यह एक बहुत बड़ी समस्या है." इसके पहले कि मैं कुछ प्रतिक्रिया दे पाता, उस बच्चे के कुछ सीट पीछे बैठे एक दूसरे बच्चे ने कुछ चिढ़कर तेज आवाज में कहा "...तो क्या सबको मार कर फेंक दें क्या?"
वे दोनों ही बच्चे एक ही समुदाय के थे.
अब इस से मैं 3 बातें समझ पाया-
1. अधिक जनसंख्या एक समस्या है और यहाँ तक कि बच्चे भी इस बात को समझते हैं.
2. निश्चित तौर पर किसी को मार कर तो नहीं फेंक सकते, मतलब यह कि 'जनसंख्या प्रबंधन' जरूरी है.
3. जनसंख्या वृद्धि को किसी धर्म या जाति विशेष के चश्मे से न तो देखा जा सकता है, न ही ऐसा किया जाना चाहिये.
विश्व स्तर पर यदि हम जनसंख्या वृद्धि को देखें तो हमें 2 तस्वीरें नज़र आती हैं. एक तरफ तो जापान, नीदरलैंड, लक्जमबर्ग जैसे अति विकसित देश हैं जहाँ की अत्यल्प जनसंख्या वृद्धि उनके लिये चिंता का बहुत बड़ा कारण बन गयी है, क्योंकि वे देश "प्रजातीय संहार" की स्थिति से गुज़र रहे हैं. वहाँ के प्रतिष्ठानों में कार्य करने हेतु पर्याप्त श्रमबल ही उपलब्ध नहीं है, और वहाँ अनुत्पादक जनसंख्या (वृद्ध जन की आबादी) लगातार बढ़ रही है. वहाँ अधिक बच्चों को जन्म देने वाली महिला को पुरस्कार व अन्य सामाजिक लाभ दिये जाते हैं. वहीं दूसरी स्थिति भारत व चीन जैसे देशों की है, जहाँ अतिरेक जनसंख्या की स्थिति है और जहाँ भूमि व अन्य संसाधनों पर जनसंख्या का दबाव अत्यधिक है. यहाँ सरकारें बढ़ती आबादी पर लगाम लगाने के प्रयास कर रही हैं. UN द्वारा जारी "विश्व जनसंख्या अनुमान रिपोर्ट 2022" के अनुसार 2022 में विश्व की आबादी 8 अरब हो जायेगी जिसके 2050 तक 10 अरब तक पहुँच जाने का अंदेशा है. भारत के लिहाज से अहम बात यह है कि 2023 तक भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए विश्व की सर्वाधिक आबादी वाला देश बन जायेगा.
इसका सीधा अर्थ है कि जनसंख्या वरदान भी सिद्ध हो सकती है और समस्या भी. जनसंख्या के सकारात्मक पक्षों को यदि देखें तो भारत और चीन जैसे विकासशील देशों के सन्दर्भ में एक शब्द प्राय: प्रयोग में लाया जाता है - जनांकिकीय लाभांश. इसका तात्पर्य उस जनांकिकीय स्थिति से है, जब जनसंख्या में युवा उत्पादक वर्ग (20 से 45 वर्ष) की जनसंख्या सर्वाधिक हो जो अनुत्पादक वर्ग (नाबालिग बच्चे और वृद्ध जन) की कुल जनसंख्या से अधिक हो तथा वृद्धजनों की जनसंख्या सबसे कम हो. इस स्थिति में उस देश के पास सबसे अधिक, और सबसे सक्षम व ऊर्जावान मानव संसाधन मौजूद होगा जो दीर्घकालिक सन्दर्भों में देश की प्रगति को बल देने में सक्षम होगा. विश्व की कई प्रतिष्ठित कंसल्टेंसी फर्म व रेटिंग एजेंसियां, शोध संस्थान भारत व चीन के लिये इस जनांकिकीय लाभांश की अवधि 2015 से 2050, अर्थात इन्हीं 35 वर्षों की विंडो को मानतीं हैं, और उसमें भी भारत को वरीयता देती हैं.
डेलॉयट इंटरनेशनल के अनुसार 2018 में भारत का कार्यकारी श्रमबल (20 से 60 वर्ष आयु वर्ग) 885 मिलियन था जो 2038 तक 1.08 बिलियन तक हो जायेगा. सी.आई.आई (CII) के अनुसार भारत के सम्मुख लगभग 30 वर्षों का समय है जिसमें यदि भारत की कार्यकारी उत्पादक जनसंख्या का उचित प्रकार से प्रबंधन किया गया तो 2047 तक भारत लगभग 40 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बन जायेगा. इस गणितीय समीकरण के अलावा जो बात भारत को आगे रखेगी वह होगी लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था, बहुदलीय प्रजातंत्र, देश में अंकीय विभाजन (Digital divide) का लगातार कम होते जाना और तेजी से बढ़ता नगरीकरण. चीन के बारे में इन सभी संस्थाओं का यह मानना है कि लंबे समय तक अपनायी गयी "वन चाइल्ड पॉलिसी" के कारण और लोकतांत्रिक मूल्यों के अभाव, अति केंद्रीकृत शासन व्यवस्था, हुकोउ रजिस्ट्रेशन जैसी कठोर व प्रतिगामी प्रणाली आदि के कारण चीन अब अपने पराभव के मुहाने पर खड़ा है. वहाँ वृद्धजनों की आबादी लगातार बढ़ रही है और जनसंख्या का कार्यकारी उत्पादक वर्ग निकट भविष्य में अधिक संकट का सामना करेगा जब जनसंख्या का निर्भरता अनुपात अधिक हो जायेगा. इसका बुरा प्रभाव चीन की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर पड़ना तय है.
लेकिन लगातार बढ़ती हुई अपनी इस कार्यकारी उत्पादक जनसंख्या का प्रबंधन वास्तव में भारत के लिये एक गंभीर चुनौती होगी, और यदि समय रहते इस पर काम न किया गया तो यह जनांकिकीय लाभांश की बजाय जनांकिकीय विपदा (Demographic disaster) का मार्ग खोल देगी. सिंगापुर, ताईवान, दक्षिण कोरिया जैसे देश इस बात का उदाहरण हैं कि कैसे भविष्योन्मुखी और ठोस नीतियां बनाकर जनांकिकीय लाभांश का सही मायनों में फायदा उठाया जा सकता है. इसलिये इस बात को दृष्टिगत रखते हुये मजबूत कदम लेने की जरूरत है, जैसे-
1. स्वास्थ्य पर अधिक खर्च बढ़ाने की जरूरत– वर्तमान में देश की कुल जी.डी.पी. का मात्र 1.5% तक ही सरकारें सार्वजानिक स्वास्थ्य हेतु खर्च कर रही हैं जबकि विश्व के अग्रणी देशों में यह प्रतिशत लगभग 6% से 10% के बीच है. अतः भारत को स्वास्थ क्षेत्र में भारी सरकारी निवेश की जरूरत होगी. इसमें भी महिलाओं, किशोरवय के बच्चों और नवजात बच्चों पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये.
2. उच्च शिक्षा, कौशल विकास व उद्यमशीलता पर अधिक निवेश की जरूरत - यह एक ऐसा क्षेत्रक है जो किसी स्थान विशेष की जनसंख्या को क्षमतावान व मूल्यवान मानव संसाधन के रूप में तब्दील करने की सामर्थ्य रखता है. दक्षिण कोरिया यहाँ पर एक आदर्श प्रस्तुत करता है. भारत में युवा, कार्यकारी उत्पादक जनसंख्या में अपेक्षाकृत जल्दी शामिल हो जाते हैं, ऐसे में द्वितीयक शिक्षा स्तर (6th से 12th कक्षा) से तृतीयक शिक्षा स्तर, कौशल विकास (skill development) व उद्यमशीलता में आबादी का जल्दी और तेजी से संक्रमण (transition) होना चाहिये, जिसके लिये बड़े पैमाने पर उच्च शिक्षा और कौशल विकास में निवेश की आवश्यकता होगी. दक्षिण कोरिया व जापान में जी.डी.पी. का 8% से 10% तक हिस्सा सरकारें शिक्षा पर खर्च करतीं हैं. भारत में यही प्रतिशत 2% से 2.5% के बीच है.
3. प्रजनन सम्बन्धी मामलों पर महिलाओं की अधिकारिता - भारत एक पितृसत्तात्मक समाज है तथा प्रजनन सम्बन्धी मामलों पर महिलाओं की अधिकारिता न के बराबर ही है जबकि गर्भावस्था और उसके बाद की शारीरिक और मानसिक समस्याओं का सामना महिलाओं को ही करना होता है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS-5, 2019-21) के अनुसार देश की कुल प्रजनन योग्य महिलाओं में 9.4% महिला आबादी की पहुँच किसी गर्भनिरोधक साधन तक नहीं है. चीन में यह प्रतिशत 3.3% व दक्षिण कोरिया में 6% है. इसलिये ऐसे मामलों पर महिला का निर्णय ही अंतिम होना चाहिये.
4. शिक्षा व रोज़गार में महिलाओं की अधिक भागीदारी हो - भारत में द्वितीयक व तृतीयक शिक्षा स्तरों में पुरुषों की भागीदारी, महिलाओं की तुलना में अभी भी काफी अधिक है. अपने अनुभव से अगर मैं कहूँ तो निम्न आय वर्ग या निम्न-मध्यम वर्ग जो बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजता है, वहाँ लड़कियां 9th या 10th के बाद अक्सर पढ़ाई छोड़ देती हैं, और यदि 12th पूरी की भी तो भी स्नातक स्तर पर दाखिला नहीं लेतीं. चीन, फिलीपींस में यही स्थिति उल्टी है और महिलाओं की भागीदारी शिक्षा में काफी अधिक है.
अब जब शिक्षा ही नहीं होगी तो रोज़गार में भी उनकी भागीदारी सम्भव नहीं होगी.
5. अर्थव्यवस्था व सामाजिक क्षेत्रक में महिलाओं की भूमिका - 2003-04 में 34.1% महिलाएं भारत के जॉब मार्केट में रोज़गार की तलाश में थीं, जो 2019-20 में 20.3% रह गईं. दक्षिण कोरिया की वर्तमान श्रमशक्ति का 50% महिलाएं ही हैं. वहाँ उनके लिये जेंडर बजटिंग, पार्ट-टाइम कार्य हेतु अतिरिक्त कर लाभ, बालिका कल्याण से जुड़े सामाजिक लाभों, आदि की व्यवस्था है.
6. भोजन व पोषण सुरक्षा - यह भारत की एक दुखती रग हैं. पिछले 75 वर्षों में तमाम उपलब्धियों के बावजूद देश की एक विशाल आबादी भोजन व पोषण सुरक्षा से वंचित है, जिसमें सबसे बड़ी संख्या छोटे बच्चों, किशोरवय महिलाओं तथा वयस्क महिलाओं की है. NFHS-3, NFHS-4 व NFHS-5 तीनों से ही इस बात की पुष्टि बार-बार होती है.
7. संघवाद व विविधतापूर्ण व्यवस्था को सम्मान देना - देश में अलग-अलग राज्यों में जनांकिकीय स्थितियां अलग-अलग हैं और हर राज्य ने अपने यहाँ जनसंख्या प्रबंधन के अलग-अलग प्रयास किये हैं. दक्षिण भारत के राज्य निश्चित रूप से अब तक इसमें काफी आगे रहे हैं परंतु वर्तमान स्थिति ऐसी है कि उत्तर भारत के राज्य देश की कार्यकारी उत्पादक जनसंख्या के प्रमुख केंद्र बन रहे हैं. इस लिहाज से राज्य वार विविधता को सम्मान दिया जाना और राज्यों के बीच आपसी समन्वय व सद्भाव विकास की इस यात्रा की धुरी होंगे.
उपरोक्त कदम उठाने में भारत को शीघ्रता दिखानी होगी अन्यथा अधिक (कुप्रबंधित) आबादी के कारण उत्पन्न होने वाली निम्न समस्यायें देश की प्रगति को अवरुद्ध कर देंगी–
1. अधिक आबादी संसाधनों पर, विशेष रूप से भूमि व कृषि संसाधनों पर बोझ साबित होगी.
2. बेरोजगारी की एक भयावह तस्वीर सामने आयेगी जिससे दुष्परिणामों से आँखें चुराना असम्भव होगा. अभी ही चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की भर्ती हेतु B.Tech. व Ph.D. पास लोगों को आवेदन करते देखना कष्टप्रद है.
3. आधारभूत संरचना की कमर टूट जायेगी. आवासीय क्षेत्रक, स्कूलों, अस्पतालों, परिवहन व्यवस्था पर काफी बुरा असर होगा. सरकारी विद्यालयों में अभी ही बुरा हाल है जहाँ 50 लोगों के बैठने लायक कक्षा में 80-85 बच्चों के एडमिशन हैं.
4. सीमित संसाधनों के बीच विशाल जनसंख्या होना अर्थात महँगाई इसका एक अन्य दुष्प्रभाव होगा, तथा इसका असर यह होगा कि आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति प्रभावित होगी और सीमांत गरीब, निरपेक्ष गरीब परिवारों की जनसंख्या में भी वृद्धि हो जायेगी.
5. अशिक्षित, बेरोजगार, दिशाहीन युवाओं की बड़ी आबादी होगी जो एक सामाजिक आपदा की तरह होगी. कुशल प्रबंधन के अभाव में यह असामाजिक गतिविधियों की ओर बढ़ेगी जो दूसरी कई प्रकार की समस्याएं पैदा करेगी.
6. बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय व पारिस्थितिकी समस्याएं सामने आयेंगी जिन्हें नज़रंदाज करना असंभव होगा.
इस प्रकार प्रबंधन के अभाव में विशाल आबादी 'जनांकिकीय लाभांश' की बजाय 'जनांकिकीय अभिशाप' की स्थिति ला सकती है. फोस्टर व मैडोज़ ने 1972 में जारी "Limits to Growth" मॉडल का एक प्रमुख आधार 'लगातार तेजी से बढ़ती जनसंख्या' को भी बताया था.
हर्ष कुमार त्रिपाठीहर्ष कुमार त्रिपाठी ने पूर्वांचल विश्वविद्यालय से बी. टेक. की उपाधि प्राप्त की है तथा DU के दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनोमिक्स से भूगोल विषय में परास्नातक किया है। वर्तमान में वे शिक्षा निदेशालय, दिल्ली सरकार के अधीन Govt. Boys. Sr. Sec. School, New Ashok Nagar में भूगोल विषय के प्रवक्ता के पद पर कार्यरत हैं। |