भारत में दीपावली को लेकर प्रचलित मान्यताएँ
- 22 Oct, 2022 | शालिनी बाजपेयी
इस लेख में हम जानेंगे कि विविधताओं वाले देश भारत में दिवाली मनाने को लेकर क्या-क्या मान्यताएँ प्रचलित हैं?
हर्षोल्लास का पर्व दिवाली बस चंद दिनों की दूरी पर है जिसके चलते हर घर में सफाई और खरीददारी का काम जोरों से चल रहा है। कार्तिक मास की अमावस्या को मनाया जाने वाला यह महापर्व अँधेरी रात को असंख्य दीपों की रोशनी से भर देता है। वैसे तो पूरे देश में दिवाली बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है लेकिन हिंदू धर्म में इसका विशेष महत्त्व है। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान राम, रावण को मारकर और 14 वर्षों का वनवास काटकर अयोध्या नगरी वापस लौटे थे; उनके आने की खुशी में अयोध्या के लोगों ने घी के दीप जलाए व जश्न मनाया था और तब से भारत में दिवाली की शुरुआत हुई। हम में से अधिकांश लोग दिवाली मनाने के पीछे यही कहानी सुनते चले आ रहे हैं। यही कारण है कि हम यह सोचते हैं कि पूरे भारत में दिवाली इसी कारण से मनाई जाती है। लेकिन ऐसा नहीं है, आपको यह जानकर हैरानी होगी कि देश के विभिन्न धर्मों व विभिन्न स्थानों पर दिवाली मनाने के पीछे अलग-अलग मान्यताएँ और अलग तौर-तरीके हैं।
हालाँकि, सब का मकसद एक ही है और वह है आपसी सद्भाव, समभाव और भाईचारे के संदेश का प्रसार करना। लेकिन हमें अपने देश के त्यौहारों और वहाँ रहने वाले लोगों को भलीभाँति समझने के लिये ज़रूरी है कि हम यह जानें कि आखिर अलग-अलग धर्मों व स्थानों पर क्या मान्यताएँ प्रचलित हैं और हम सब एक-दूसरे से इतने अलग होते हुए भी एक समान कैसे हैं? तो चलिये हम आपको बताते हैं दिवाली मनाने को लेकर प्रचलित विभिन्न मान्यताओं व तरीकों के बारे में-
उत्तर भारत की दिवाली
उत्तर भारत के अंतर्गत उत्तर प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और दिल्ली के क्षेत्र आते हैं। उत्तर भारत में दिवाली का त्यौहार भगवान राम की विजयी गाथा और श्री कृष्ण द्वारा शुरू की गई नई परंपरा व उत्सव से जुड़ा हुआ है। यहाँ पर दिवाली का पर्व पाँच दिनों तक मनाया जाता है, जिसमें पहला दिन धन के देवता कुबेर और भगवान धन्वंतरि से जुड़ा है, जिसे धनतेरस कहते हैं; दूसरा दिन नरक चतुर्दशी का दिन है, इसे छोटी दिवाली भी कहते हैं। इस दिन श्री कृष्ण ने नरकासुर नाम के राक्षस का वध किया था; तीसरा दिन माता सीता और श्री राम के अयोध्या वापस आने से जुड़ा है। इसे बड़ी दिवाली कहते हैं। बड़ी दिवाली के दिन सभी लोग नए कपड़े पहनकर अपने-अपने घरों में शाम के समय गणेश और लक्ष्मी का पूजन करते हैं। फिर दीप जलाने के बाद पटाखे जलाते हैं। चौथा दिन गोवर्धन पूजा यानी श्री कृष्ण की लीलाओं से जुड़ा है तो वहीं पांचवा दिन भाई दूज के रूप में मनाया जाता है। असल में उत्तर भारत में इस त्यौहार की शुरुआत दशहरे के साथ ही हो जाती है।
राम के बजाय गणेश और लक्ष्मी की क्यों होती है पूजा?
हमारे मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब राम के अयोध्या वापस लौटने की खुशी में दिवाली का पर्व मनाया जाता है तो उस दिन विशेष रूप से राम, सीता और लक्ष्मण की पूजा होनी चाहिये, जबकि उत्तर भारत में विशेष रूप से गणेश और लक्ष्मी की पूजा की जाती है। इसका क्या कारण है? आपको बता दें कि हिंदू धर्म में ऐसा माना जाता है कि जब माता लक्ष्मी समुद्र मंथन से प्रकट हुईं और बैकुंठ जाकर भगवान के गले में माला पहनाई तो बैकुंठवासियों ने अपने-अपने घरों में दीप जलाकर के लक्ष्मी-नारायण के विवाह का उत्सव मनाया था। उसके बाद जब वही बैकुंठवासी मृत्युलोक में आए तो दिवाली का पर्व मनाना शुरू किया। तब से दिवाली का पर्व मनाया जाता है और दिवाली के दिन लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है। वहीं, गणेश भगवान की पूजा के पीछे की मान्यता यह है कि जिस व्यक्ति के पास ज्ञान होता है उसी के पास धन भी आता है। इसलिये सबसे पहले गणेश जी का पूजन करके फिर लक्ष्मी जी की पूजा की जाती है।
दक्षिण भारत की दिवाली
दक्षिण भारत के अंतर्गत आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी, लक्षद्वीप और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह के क्षेत्र आते हैं। दक्षिण भारत में दिवाली का पर्व केवल दो दिनों तक मनाया जाता है, जिसमें पहले दिन मनाए जाने वाले नरक चतुर्दशी का विशेष महत्त्व है। नरक चतुर्दशी के दिन यहाँ के लोग पारंपरिक तरीके से स्नान यानी तेल से स्नान करते हैं। तेल से स्नान इसलिये शुभ माना जाता है क्योंकि यहाँ के लोगों का मानना है कि इस दिन भगवान श्री कृष्ण ने नरकासुर राक्षस को मारने के बाद खून के धब्बे हटाने के लिये तेल से स्नान किया था। वहीं, दूसरे दिन दीप जलाकर, रंगोली बनाकर दिवाली मनाते हैं। यहाँ पर लक्ष्मी और नारायण की पूजा होती है।
दक्षिण में दिवाली वाले दिन एक अनोखी परंपरा मनाई जाती है जिसे ‘थलाई दिवाली’ कहते हैं। थलाई दिवाली के अनुसार, नवविवाहित जोड़े लड़की के घर जाते हैं जहाँ उनका भव्य स्वागत किया जाता है और घर के सभी बड़े-बुजुर्ग उन्हें आशीर्वाद एवं उपहार देते हैं। फिर वह जोड़ा दिवाली के शगुन के लिये एक पटाखा जलाता है और सभी लोग मिलकर मंदिर में भगवान के दर्शन के लिये जाते हैं।
इसके अलावा, आंध्रप्रदेश में हरिकथा का संगीतमय बखान होता है और सत्यभामा की मिट्टी की मूर्तियों की पूजा होती है। वहीं कर्नाटक में पहला दिन अश्विजा कृष्ण चतुर्दशी (जिसे हम नरक चतुर्दशी कहते हैं) और दूसरा दिन पदयमी बाली के नाम से प्रचलित है। वहाँ पर दूसरे दिन राजा बली से संबंधित कहानियों का उत्सव होता है और महिलाएं गोबर से घर को लीपकर, रंगोली बनाकर दियों से सजाती हैं।
पूर्वी भारत की दिवाली
पूर्वी भारत में पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार एवं झारखंड राज्य शामिल हैं। इन राज्यों में भी दिवाली की कुछ अनोखी परंपराएँ देखने को मिलती हैं। पश्चिम बंगाल में दिवाली पर गणेश और लक्ष्मी की नहीं बल्कि देवी काली की पूजा का ज़्यादा महत्त्व है। यहाँ के लोग दिवाली पर घरों व मंदिरों में माँ काली की पूजा-अर्चना करते हैं और प्रसाद के रूप में मिठाई, दाल, चावल और मछली चढ़ाते हैं।
ओडिशा में दिवाली के अवसर पर लोग कौरिया काठी करते हैं। यह एक ऐसा अनुष्ठान है जिसमें लोग अपने मृत पूर्वजों की पूजा करते हैं और उनका आशीर्वाद लेने के लिये जूट की छड़ें जलाते हैं। यहाँ के लोग दिवाली के पर्व पर लक्ष्मी, गणेश और काली की पूजा करते हैं।
वहीं, बिहार और झारखंड में दिवाली के पर्व पर पूजा के साथ-साथ पारंपरिक गीत और नृत्य को भी बहुत महत्त्व दिया जाता है। इसके अलावा असम, मणिपुर, नगालैंड, मेघालय, त्रिपुरा, अरुणाचल, सिक्किम और मिज़ोरम जैसे उत्तर-पूर्वी राज्यों में भी काली पूजा का विशेष महत्त्व है।
पश्चिमी भारत की दिवाली
पश्चिम भारत के अंतर्गत गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दादरा एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव के क्षेत्र आते हैं। उत्तर भारत की तरह पश्चिम भारत में भी दिवाली का त्यौहार पाँच दिनों तक मनाया जाता है लेकिन महाराष्ट्र मे यह पर्व केवल चार दिनों तक मनाया जाता है। दक्षिण के लोग पहले दिन वसुर बरस मनाते हैं जिसमें गाय और बछड़े की पूजा की जाती है; दूसरे दिन धनतेरस मनाते हैं जिसमें व्यापारी वर्ग बही-खाते का पूजन करते हैं; तीसरे दिन नरक चतुर्दशी होती है जिसमें उबटन कर सूर्योदय से पहले स्नान करने और स्नान के बाद परिवार सहित मंदिर जाने की परंपरा है। फिर चौथे दिन दिवाली मनाई जाती है जिसमें शाम के समय मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है। इस दिन यहां पर करंजी, चकली, लड्डू, सेव जैसे पारंपरिक व्यंजन भी बनाए जाते हैं। गुजरात में दिवाली को नए साल के रूप में भी मनाया जाता है।
वहीं, गोवा जैसे शहर में भी दिवाली की बहुत धूम देखने को मिलती है। यहां पारंपरिक रूप से नृत्य और संगीत पर काफी ज़ोर दिया जाता है। यहाँ की दिवाली भी भगवान राम और श्री कृष्ण के सम्मान में मनाई जाती है। दिवाली से एक दिन पहले यानी नरक चतुर्दशी के दिन यहाँ पर राक्षस के विशाल पुतले बनाए और जलाए जाते हैं।
मध्य भारत की दिवाली
मध्य भारत के अंतर्गत प्रमुख रूप से दो राज्य मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ आते हैं। यहाँ भी दीपावली का त्यौहार पाँच दिनों तक मनाया जाता है। यहाँ के आदिवासियों में भी दीपावली के त्यौहार को लेकर काफी उत्साह रहता है। इस दिन स्त्री-पुरुष सभी नृत्य करते हैं और एक दूसरे के बीच दीपदान की भी परंपरा को निभाते हैं। मध्य भारत में रंगोली की बजाय मांडना बनाने की परंपरा है। यहाँ दियों और मोर के पंखों से घर को सजाया जाता है।
इन सबके बीच यह जानकर हैरानी होगी कि, जब पूरा देश दिवाली मना रहा होता है तब छत्तीसगढ़ के बस्तर के ग्रामीण इलाकों में इसका जिक्र तक नहीं होता। यहाँ के रहने वाले आदिवासियों में इस त्यौहार को मनाने की कोई परंपरा नहीं है। शहरी क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदाय ने ज़रूर वक्त के साथ दिवाली मनाना शुरू कर दिया लेकिन कई ग्रामीण क्षेत्र के आदिवासियों की मान्यताएँ और परंपराएँ अब भी बरकरार हैं।
बौद्ध धर्म की दिवाली
बौद्ध धर्म में दिवाली इसलिये नहीं मनाई जाती कि इस दिन भगवान राम अयोध्या वापस लौटे थे, बल्कि इसलिये मनाई जाती है कि इस दिन गौतम बुद्ध अपनी जन्मभूमि कपिलवस्तु में 18 वर्षों के पश्चात वापस लौटे थे। बौद्ध धर्म की मान्यताओं के अनुसार, जब गौतम बुद्ध कपिलवस्तु वापस आए तो वहाँ के स्थानीय निवासियों ने लाखों दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। उसी समय बुद्ध ने अपने शिष्यों को “अप्पो दीपो भवः” का उपदेश दिया था और तब से ही उनकी याद में दिवाली का त्यौहार मनाया जाता है।
दिवाली वाले दिन बौद्ध मंदिरों व घरों को दीपक से सजाया जाता है। आज भी बौद्ध धर्म के अनुयायी दिवाली के दिन अपने स्तूपों पर असंख्य दीप जलाकर भगवान बुद्ध को याद करते हैं।
जैन धर्म की दिवाली
जैन धर्म के लोगों की दिवाली मनाने के पीछे यह मान्यता है कि, इसी दिन जैन धर्म के 24वें तीर्थकर भगवान महावीर को बिहार के पावापुरी में निर्वाण प्राप्त हुआ था। जैन लोग दिवाली के त्यौहार को भगवान महावीर के निवार्ण दिवस के रूप में मनाते हैं। जैन धर्म के लोग इस दिन विधि-विधान से महावीर स्वामी की पूजा करते हैं और निर्वाण लाडू (नैवेद्य) का प्रसाद चढ़ाते हैं। उसके बाद मंदिरों को दीपकों से सजाया जाता है। इसके अलावा, सायंकाल के समय मंदिर में दीपमालिका की जाती है। दीपमालिका करते समय मन में यह भावना होती है कि हम सभी को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो और जीवन में अंधकार का नाश हो।
जैन धर्म में भी दिवाली के दिन माँ लक्ष्मी व माँ सरस्वती की पूजा की जाती है। इन दोनों माताओं का जैन धर्म में प्रमुख स्थान हैं क्योंकि माँ लक्ष्मी को निर्वाण अर्थात मोक्ष की देवी जबकि माँ सरस्वती को कैवल्यज्ञान अर्थात विद्या की देवी माना जाता है।
आर्य समाज की दिवाली
आर्य समाज के लोगों की दिवाली मनाने के पीछे की मान्यता यह है कि, कार्तिक मास की अमावस्या के दिन आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद को निर्वाण की प्राप्ति हुई थी। इसी कारण आर्य समाज के लोग दिवाली का पर्व अति उत्साह के साथ मनाते हैं।
तो हमनें देखा कि एक ही त्यौहार को मनाने के पीछे पूरे भारत में अलग-अलग धारणाएँ और तौर-तरीके हैं, लेकिन हमें इस बात पर भी गौर करना चाहिये कि इतनी विविधताओं के बावजूद कुछ चीजें जैसे अपने घर को दीपों से सजाना, अपने परिवार और दोस्तों को दिवाली कार्ड व उपहार देना, अपने प्रियजनों के साथ समय बिताना व उनके साथ में स्वादिष्ट भोजन का आनंद लेना और अपने अराध्य का स्मरण करके जीवन को बेहतर बनाने का संकल्प लेना इत्यादि सभी धर्मों व सभी स्थानों पर समान है यानी हम भिन्न होते हुए भी एक हैं। भारत में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों ही दृष्टि से बहुत महत्त्व है। असत्य पर सत्य की विजय का यह त्यौहार हम सबको अंधेरे से उजाले की ओर जाने की प्रेरणा देता है अर्थात यह पर्व उपनिषदों में कहे गए ‘तमसो मा ज्योतिर्ग्मय’ का आह्वान करता है।
शालिनी बाजपेयीशालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं। |