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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

प्रेम और रूमानियत भरे कवि, कैशोर्य मन के सर्जक- धर्मवीर भारती

उत्तर प्रदेश का इलाहाबाद शहर जो अब प्रयागराज के नाम से जाना जाता है, एक समय तक अपनी साहित्यिक प्रतिभा के लिए मशहूर रहा। निराला, महादेवी वर्मा, हरिवंशराय बच्चन से लेकर पंत जैसे बड़े रचनाकारों की कर्मस्थली रहे इलाहाबाद के साहित्यिक वातावरण ने हिंदी साहित्य को अनेक रचनाकार दिए। इलाहाबाद में ही जन्मे, उन्हीं साहित्यिक फ़िज़ाओं में साँस लेकर साहित्य को अपने अंतःस्थल तक ले जाने वाले धर्मवीर भारती हिंदी साहित्य के एक प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। ‘गुनाहों का देवता’ इनकी क्लासिक रचना है। इस रचना के बारे में यह अतिशयोक्ति बहुत प्रसिद्ध है कि इसे पढ़े बिना इलाहाबाद के बच्चे जवान नहीं होते। सुधा व चंदर की प्रेम कहानी को उन्होंने जिस तरह पिरोया है, वह अप्रतिम बन पड़ा है। धर्मवीर भारती का साहित्यिक अवदान बड़ा है। प्रेम और रूमानी कविताओं के सर्जक, क्लासिक उपन्यास के रचयिता, नाटकों में सिद्धहस्त, एक श्रेष्ठ विचारक जो समग्रता में समन्वय के भाव का आग्रही है, एक निबंधकार व सुयोग्य सम्पादक के रूप में वे हिंदी साहित्य में याद किए जाते रहे हैं।

विविध विधाओं में लिखने वाले रचनाकार को किसी एक विधा का रचनाकार बना देना उसे सीमित कर देना होता है। जिस प्रकार जयशंकर प्रसाद के साहित्यिक रूप में यह निर्धारित कर पाना मुश्किल होता है कि वे बेहतर कथाकार हैं, नाटककार हैं या कवि उसी धर्मवीर भारती के कवि, नाटककार, कथाकार या सम्पादक में से किस रूप को श्रेष्ठ मानें या किसे कमतर मानें, निर्धारित कर पाना मुश्किल होगा।

धर्मवीर भारती अपनी रूमानी व भावुकतापूर्ण कविताओं के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। ‘ठंडा लोहा’, ‘कनुप्रिया’ , ‘सात गीत वर्ष’, ‘देशांतर’, ‘सपना अभी भी’, ‘आद्यंत’ जैसे कृतियों से उन्होंने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई। अज्ञेय के संपादकत्व में निकले दूसरे सप्तक के प्रमुख कवि के रूप में धर्मवीर भारती ने हिंदी कविता के फलक पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। ‘ठंडा लोहा’ इनका प्रारम्भिक काव्य संग्रह है। आलोचकों ने इनकी रचनाओं को कैशोर्य भावुकता की रचनाएँ कहा है। प्रकृति के बहुत से तत्वों को लेकर उन्होंने अपनी कविताएँ रचीं। ‘ठंडा लोहा’ में वे लिखते हैं-

“सूरज और सितारे ठंडे
राहें सूनी
विवश हवाएँ
शीश झुकाए
खड़ी मौन है
बचा कौन है?”1

कितनी सुंदर अभिव्यक्ति है यह । यदि मन प्रफुल्लित है तो प्राकृतिक उपादान से सब कुछ सुंदर भी हो सकता है और यदि नैराश्य का भाव है तो वही प्राकृतिक उपादान विपरीत भाव देने लगते हैं। निराशा में डूबा मन प्रकृति को इस रूप में भी देख सकता है। राहें सूनी हो सकती हैं लेकिन सूरज का ठंडापन अपने प्रकृति के एकदम विपरीत व भाव के स्तर पर एकदम नवीन है। उनकी रूमानी कविताओं में प्रणय के दृश्य हैं।वे लिखते हैं-

“अधखुल ये, व्याकुल ये दो कँपते ओठ
रह रह दहकें जैसे फूल दो पलाश के
कटावदार
टेसू कैसे फूले चंदन की डार?
बन बन में उड़ी महक आग की
ओ मेरे प्यार?” 2

यहाँ ओठों का रंग गुलाबी नहीं है। जब ओठों में दहक देखा जा सकता है तो उसका रंग गुलाबी हो भी नहीं सकता था। वहाँ पलाश के फूल हैं। भारती जी दहकते हुए पलाश को देखकर झूमते हैं। प्रणय की विह्वलता, मिलन की आग, दहकता पलाश और आग की महक से इनकी कविताएँ विशिष्ट बन पड़ी हैं।

उनकी एक कविता देखिए

“बरबाद मेरी ज़िंदगी
इन फ़िरोज़ी होठों पर

गुलाबी पाँखुरी पर हल्की सुरमई आभा
कि ज्यों करवट बदल लेती कभी बरसात की दुपहर
इन फ़िरोज़ी होठों पर

तुम्हारे स्पर्श की बादल धुली कचनार नरमाई
तुम्हारे वक्ष की जादू भरी मदहोश गरमाई
तुम्हारी चितवनों में नर्गिसों की पाँत शरमाई
किसी की मोल पर मैं आज अपने को लुटा सकता
सिखाने को कहा
मुझसे प्रणय के देवताओं ने
तुम्हें आदिम गुनाहों का अजब सा इन्द्रधनुषी स्वाद
मेरी ज़िंदगी बरबाद” 3

फ़िरोज़ी होठ इनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक कविता है। प्रेम-प्रणय के दृश्य को इन्होंने जिस सुंदरता के साथ प्रस्तुत किया है, कविता जिस लय में चलती है, वह इन सबको और अधिक मोहक बना देती है। फ़िरोज़ी होठ पर कोई समूचा जीवन कैसे बरबाद कर सकता है, यहाँ बात केवल होठों की नहीं है। होठ के आगे भी बहुत कुछ है जिस भाव को कवि ने शब्द दिया है। ऐसी कविताएँ वजह भी रहीं हैं जहां इन्हें कैशोर्य भावुकता का कवि कहा गया।लेकिन वह इनकी कविता का एक रंग मात्र है, एकमात्र नहीं। एक अन्य कविता देखें-

“मुंह अंधेरे बौर की महक
और आँगन में जाड़े की बतियाती
दोपहरें
ख़त्म किताब की तरह मैंने बंद कर दी।” 4

उनकी कविताओं में प्रकृति, पुष्प और अन्य उपादान मह-मह करते नज़र आते हैं। वहाँ केवल दृश्य बिम्ब न होकर घ्राण बिम्ब भी देखने को मिलता है। उनकी ये अनुभूतियाँ कल्पना मात्र के सहारे नहीं आतीं है अपितु उनके अन्तस्थल में डूबी हुई संवेदनात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। उनकी कविताओं का कैनवास बड़ा है जिसमें बहुत से रंग बिखरे पड़े हैं। ऊपर जो वर्णन किया गया उसके अतिरिक्त व्यक्ति स्वातंत्र्य इनकी कविताओं का केंद्र बिंदु है।

कविता के अतिरिक्त कथा साहित्य वह क्षेत्र है जहां इन्होंने अपनी कलम से क्लासिक रचा। ‘गुनाहों का देवता’ प्रेमकथा के रूप में हिंदी साहित्य का एक अनिवार्य टेक्स्ट बन गया है। इस उपन्यास में भावुकतापूर्ण प्रेम का चित्रण है। सुधा और चंदर के माध्यम से प्रेम का आदर्श रूप प्रस्तुत करने के प्रयत्न में लेखक पूर्णतया सफल रहा है। इसका अंत सामान्य भारतीय परम्परा की तरह सुखद न होकर त्रासद है। अंत में पाठक एक गहरी टीस से भर जाता है। प्रेम अपने आदर्श रूप में ऐसा भी होता है, पाठक यह सोचने पर मजबूर होता है। इस उपन्यास में वर्णित प्रेम का स्वरूप ही इसे क्लासिक की संज्ञा से अभिहित करता है। वहीं इनका दूसरा उपन्यास ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ अपने विशिष्ट कहन की वजह से जाना जाता है। इसमें इलाहाबाद शहर के निम्नमध्यवर्गीय परिवार को केंद्र में रखा गया है। उन निम्नमध्यवर्गीय लोगों के जीवन की पीड़ाएँ व उनकी भविष्य की चिंताओं को केंद्र में रखकर यह उपन्यास आगे चलता है। इसपर इसी नाम से मशहूर निर्देशक श्याम बेनेगल ने एक फ़िल्म भी बनाई है। उनके साहित्य में रोमानी भावुकता तो है ही, साथ ही जीवन की वास्तविक सच्चाइयों का संघर्ष भी विद्यमान है। इस उपन्यास को शिल्प की दृष्टि से एक नए प्रयोग के रूप में देखा जाता है। युगीन परिस्थितियाँ शिल्प के पुराने ढाँचे को तोड़कर नया रचने को मजबूर करती हैं। इस उपन्यास के आख्यान की शैली या कहने का ढंग, चरित्रों की बुनावट युगीन परिस्थितियों की उपज है। उपन्यास का कहन किस्सागोई में चलता है जहाँ नायक माणिक मुल्ला अपने मित्रों को अपनी कहानियाँ सुनाते हुए कथा को आगे बढ़ाता है। अपनी किस्सागोई में, आख़िरी कहानी में वह ऐसे मिथकों का इस्तेमाल करता है जिससे पूर्व में सुनाई गयीं सभी कहानियाँ जुड़कर पूरी किस्सागोई को सार्थक कर देती हैं। लेखक अपनी मौलिक सर्जनात्मक शक्ति से इसे सार्थक करता है। सूरज का सातवाँ घोड़ा धर्मवीर भारती की प्रतिभा का शानदार उदाहरण है। इसी तरह ‘चाँद और टूटे हुए लोग’, ‘मुर्दों का गाँव’, ‘स्वर्ग और पृथ्वी’ और ‘बंद गली का आख़िरी मकान’ जैसी कहानियाँ हिन्दी कहानी में धर्मवीर भारती की प्रबल उपस्थिति दर्ज कराती हैं।

कथा साहित्य व कविताओं के अतिरिक्त नाटकों ने धर्मवीर भारती को हिंदी साहित्य में प्रसिद्धि दिलाई। ‘अंधा युग’ उनकी एक कालजयी कृति बन चुकी है। इस काव्य नाटक का आधार महाभारतक़ालीन युद्ध है। पाँच अंकों में विभक्त यह नाटक युद्ध की त्रासदी का चित्रण करता है। महाभारतक़ालीन मिथकों का प्रयोग इसमें उन्होंने आधुनिक संदर्भों में किया है। यह एक बड़ी वजह है कि इन्हें चरित्रों को गढ़ने में अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ा। महाभारत के कथानक की नई, मौलिक, वैचारिक और सैद्धांतिक निर्मिति है अंधा युग। उस मिथकीय कथा का पुनर्सृजन कर भारती जी ने अपने समय की ज्वलंत समस्याओं को उठाने का प्रयत्न किया है। नाटक के प्रारम्भ में ही वे लिखते हैं-

“युद्धोपरांत
यह अंधा युग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं” 5

युद्ध की विभीषिका को दर्शाते हुए ही यह नाटक आरम्भ होता है। युद्धों ने मानवता पर किस तरह से हमला किया है, इसका चित्रण इसमें बड़ी सूक्ष्मता से किया है। यह काव्य नाटक कर्म-भाग्य व आस्था-अनास्था के द्वंद्व को आरम्भ से अंत तक चित्रित करता है। नाटक में पात्रों की प्रतीकात्मकता ने इसके सौंदर्य में अभिवृद्धि की है।युयुत्सु, संजय, अश्वत्थामा, धृतराष्ट्र, गांधारी से लेकर प्रहरी तक अपनी प्रतीकात्मकता से वो सब सिद्ध करते हैं जो आधुनिक मनुष्य के संकट व पीड़ाएँ हैं। पहले ही अंक में नाटक का कथन देखिए -

“टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा
उनको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा
पांडव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज़्यादा”6

धर्मवीर भारती ने युद्ध की विभीषिका से लेकर आधुनिकताबोध के फलस्वरूप उपजे संकट को वाणी दी है। वहाँ एक प्रहरी कहता है-

“अंधे राजा की प्रजा कहाँ तक देखे” 7
********

“जीवन के अर्थहीन सूने गलियारे में
पहरा दे देकर
अब थके हुए हैं हम
अब चुके हुए हैं हम”8

प्रहरी के द्वारा कही गयी ये पंक्तियाँ अपने समय पर बहुत बड़ा व्यंग्य है, एक करारा प्रहार हैं। आधुनिकताबोध हमें कई बार निरर्थकता का भान कराता है। जीवन के गूढ़ अर्थों को हम पकड़ने की कोशिश करते हैं लेकिन उन्हें न पकड़ पाने की एक अजब बेचैनी व उत्तरदायी परिस्थियाँ हमारे सामने आ खड़ी होती हैं। युद्ध कभी भी, किसी भी परिस्थिति में कोई विकल्प नहीं हो सकता है इस बात का प्रमाण यह नाटक है। ‘नदी प्यासी थी’ उनकी प्रसिद्ध एकांकी है जिसमें मनोविज्ञान, अंतर्विरोध व विडम्बना की मदद से कथ्य को प्रस्तुत किया गया है।

धर्मवीर भारती का निबंधकार रूप भी हिंदी साहित्य में स्वीकृत है। ‘ठेले पर हिमालय’ उनका चर्चित और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले निबंध संग्रहों में से एक है। इस संग्रह में उन्होंने प्रकृति के शानदार चित्र अंकित किए हैं। इस संग्रह में शब्दचित्र, यात्रावृत्तांत व संस्मरण की छटाएँ भी देखने को मिलती हैं। ‘पश्यंती’ उनका दूसरा निबंध संग्रह है। इस संग्रह में उनके समीक्षात्मक लेख हैं। इन दो संग्रहों में प्रकृति के मोहक चित्र तो हैं ही साथ ही उनकी अनुरक्ति भी दिखाई पड़ती है। इन निबंधों में उनका कवि हृदय आलोड़ित होता हुआ नज़र आता है। यहाँ उनका भावात्मक और आत्मपरक रूप दृष्टिगत होता है। ‘कहनी-अनकहनी’ उनका एक प्रौढ़ विचारात्मक निबंध संग्रह है जो उनको श्रेष्ठ विचारकों में स्थापित करता है। एक श्रेष्ठ विचारक जड़वत नहीं होता व किसी ख़ास विचार मात्र का आग्रही नहीं होता। भारती जी पर यह बात एकदम लागू होती है। भारत के बारे में यह बात कही जाती रही हैं कि यहाँ का नायक वही हो सकता है जो समन्वय के भाव को लेकर चले। अपने विचारों में वे इसके प्रबल समर्थक जान पड़ते हैं। स्वामी विवेकानंद का जो चिंतन है उसका पूरा अनुकरण यहाँ देखने को मिलता है जब वे लिखते हैं कि “पश्चिम का अंधानुकरण करने की कोई ज़रूरत नहीं है, पर पश्चिम के विरोध के नाम पर मध्यकाल में तिरस्कृत मूल्यों को भी अपनाने की ज़रूरत नहीं है।”9 किसी विचार का आग्रही चिंतक केवल भारतीयता का समर्थन या केवल पश्चिमी विचारों का समर्थन करने लगता है। ऐसे में बहुत से आवश्यक तत्व उसके चिंतन की परिधि से बाहर हो जाते हैं। धर्मवीर भारती इनमें एक समन्वय का भाव विकसित करने की कोशिश करते हैं ताकि जो भी श्रेष्ठ हो उसे ग्रहण किया जा सके। यदि पश्चिम में अच्छे मूल्य हैं तो उन्हें भी ग्रहण किया जाए, भारत के श्रेष्ठ मूल्यों को भी आत्मसात् किया जाए। उन्हें भारतीय चिंतन पद्धति बहुत आकर्षित करती थी। भारतीय चिंतन से उपजे ग्रंथ उनके प्रिय ग्रंथ रहे। वहीं दूसरी ओर आर्थिक प्रक्रिया की बेहतर समझ के लिए वे मार्क्सवादी सिद्धातों की भी प्रशंसा करते थे क्योंकि उनके हिसाब से उनमें एक तार्किक धरातल है जिसे समझना आवश्यक है। उनके लिए कोई भी विचार अछूत नहीं था। शायद यही वजह है कि उनके वैचारिक लेखन में कोई आग्रह नहीं मिलता अपितु इसके बजाय इसी वजह से एक प्रौढ़ता नज़र आती है।

इसके साथ ही धर्मवीर भारती ने लगभग 27 वर्षों तक ‘धर्मयुग' पत्रिका का सम्पादन किया। अपने समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं जैसे ‘आलोचना’, ‘संगम', ‘अभ्युदय', ‘निकष’ आदि में सम्पादकीय लेख से लेकर अन्य वैचारिक लेखों के माध्यम से जुड़े रहे। रचनात्मक लेखक होना एक बात है और सम्पादक होना दूसरी। धर्मवीर भारती ने अपने साहित्यिक व्यक्तित्व को इस तरह साधा था जिसमें वे एक कुशल सर्जक के साथ योग्य सम्पादक की भूमिका का निर्वाह भी सफलतापूर्वक कर रहे थे।

अपने शुरुआती साहित्य पर रोमानी भावुकता का आरोप लिए हुए धर्मवीर भारती ने समय के साथ अपनी कला को माँजा। जीवन के द्वंद्व, जटिलताओं व समस्याओं को उन्होंने अपने साहित्य में यथोचित स्थान दिया। प्रगतिवाद आंदोलन से उनके साहित्य ने धरातल ग्रहण किया तो प्रयोगवाद से उर्वर शक्ति प्राप्त की। सामाजिक, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय घटनाएँ उनको शिल्प के नए धरातल के लिए तैयार कर रही थीं। बंगाली साहित्य व छायावाद के संस्कारों से सृजित व्यक्तित्व ने हिंदी साहित्य में शिल्प व भाव के स्तर पर नई सर्जना कर उसे अभिसिंचित किया।

संदर्भ ग्रंथ-

1- ठंडा लोहा- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 2
2-सपना अभी भी- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 16
3- फ़िरोज़ी होठ- धर्मवीर भारती, कविताकोश
4- सपना अभी भी- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 56
5- अंधा युग-धर्मवीर भारती, अंक 1
6- अंधा युग-धर्मवीर भारती, अंक 1
7-अंधा युग-धर्मवीर भारती, अंक 1
8-अंधा युग-धर्मवीर भारती, अंक 1
9-विकिपीडिया- धर्मवीर भारती

  अनुराग सिंह  

(असिस्टेंट प्रोफ़ेसर)

श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय


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