न्याय का दर्शन: प्राचीन विचारों से आधुनिक न्याय प्रणाली तक
- 26 Nov, 2024
"न्याय का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति को वह देना जिसका वह हकदार है। यह अधिकार, ईमानदारी, समानता और कानून के पालन की पुष्टि से जुड़ा है।" न्याय के अन्य निकटवर्ती अर्थ हैं - ईमानदारी, समानता, अधिकार की पुष्टि, कानून का प्रशासन आदि। न्याय अति महत्तवपूर्ण नैतिक और राजनीतिक अवधारणाओं में से एक है जिसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा तो नहीं है पर न्याय होने की बात विशिष्ट परिस्थितियों और सांस्कृतिक संदर्भों में निकल कर आती है।
न्याय की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितनी कि हमारी सभ्यता है। हम किसी ऐसे समाज की कल्पना नहीं कर सकते जहां न्याय की उपस्थिति ही नहीं हो। कोई भी समुदाय या समाज बिना न्याय के नहीं बना रह सकता। ऐतिहासिक साक्ष्यों से भी इस तथ्य का पता चलता है कि एक सभ्य समाज अपनी प्रशासनिक व्यवस्था में न्याय के अस्तित्व के बिना नहीं रह सकता। जिन सभ्यताओं में न्यायपूर्ण व्यवस्था की उपस्थिति नहीं थी, वे समय के साथ लुप्त हो गईं। संक्षेप में न्याय किसी भी समाज, समुदाय एवं राष्ट्र के सबसे खास स्तंभों एवं समतापूर्ण विकास की आधारशिला है।
न्याय का आशय यह भी है, 'न्याय संबंधी कानूनों का सही तरीके से लागू होना। अगर न्याय देने वाले कानूनों, व्यवस्थाओं का समुचित क्रियान्वयन किया जा रहा है तो उसे एक न्यायपूर्ण समाज कहा जाता है। समाज में न्याय को केवल कानूनों की सही व्याख्या और उनके पर्याप्त पालन से ही प्राप्त किया जा सकता है। हमें यह भी समझना होगा कि न्याय एवं निष्पक्षता निकट से जुड़े हुए शब्द हैं जिन्हें कभी-कभी एक दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त कर लिया जाता है।
न्याय का एक तीसरा एवं महत्तवपूर्ण अर्थ, मूल्यांकनपरकता के संदर्भ में प्रयुक्त होता है। इसका तात्पर्य यह है कि सही या गलत की एक न्यूनतम सीमा लागू होनी चाहिए। किसी कार्य को इस आधार पर देखा जाना चाहिए कि उससे संबंधित मूल्य क्या हैं और वह उस मूल्य की कसौटी पर कितना खरा उतरता है।
यह स्वीकार किया गया है कि न्याय एक विकासवादी अवधारणा है। किसी न किसी तरह से न्याय का विचार हमेशा राजनीतिक विचारधारा, धर्म, सांस्कृतिक असहिष्णुता, गरीबी और अभाव, लैंगिक भेदभाव, मानवाधिकारों का उल्लंघन, असमानता, अन्य सामाजिक बाधाओं के बीच से विकसित होता आया है। इसलिए यह आसानी से देखा जा सकता है कि जिन समाजों में समय के साथ-साथ प्रगति हुई है वहां प्रशासनिक व्यवस्था में न्याय को शामिल करने की आवश्यकता को महसूस किया गया और सत्ता में बैठे लोगों का दृष्टिकोण अधिक सतर्क और व्यवस्थित होता गया।
न्याय के प्राचीन भारतीय संदर्भों को देखें तो यह कहा जा सकता है कि प्राचीन काल का न्यायशास्त्र कानून के शासन पर आधारित था और राजा स्वयं कानून के अधीन था। भारतीय राजनीतिक सिद्धांत और न्यायशास्त्र में मनमानी शक्ति का अस्वीकार करके, शासन करने का अधिकार कर्तव्यों के पालन के अधीन रखा गया। कर्तव्य के उल्लंघन का परिणाम राजत्व के हनन के रुप में देखा समझा गया।
प्राचीन ग्रंथ महाभारत में कहा गया है कि "जो राजा अपनी प्रजा की रक्षा करने की शपथ लेने के बाद भी उसकी रक्षा करने में असफल रहता है, उसे पागल कुत्ते की तरह मार डालना चाहिए।" इसी ग्रंथ में आगे कहा गया है कि "लोगों को उस राजा को मार डालना चाहिए जो उनकी रक्षा नहीं करता, उन्हें उनकी संपत्ति और परिसम्पत्तियों से वंचित करता है और जो किसी से कोई सलाह या मार्गदर्शन नहीं लेता। ऐसा राजा, राजा नहीं बल्कि दुर्भाग्य है।" ये प्रावधान संकेत देते हैं कि यदि राजा न्यायिक कर्तव्यों का उल्लंघन करता था, तो वह अपना राजत्व खो देता था।
मौर्य साम्राज्य के ऐतिहासिक समय में, कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजा के कर्तव्यों का वर्णन इस प्रकार किया है: "अपनी प्रजा की प्रसन्नता में राजा की प्रसन्नता निहित है; उनकी भलाई में उसकी ही भलाई है; जो कुछ भी उसे अच्छा लगता है, उसे वह अच्छा नहीं मानेगा, लेकिन जो उसकी प्रजा को अच्छा लगता है, उसे वह अच्छा मानेगा।" इसी किताब के अनुसार न्यायिक प्रशासनिक व्यवस्था के लिए राज्य को कुछ इकाइयों में विभाजित किया गया। इन इकाईयों में न्यायालय स्थापित किए गए और इनमें न्यायविद (धर्मस्थ) और मंत्री (अमात्य) नियुक्त होते थे। महान न्यायविदों मनु, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, बृहस्पति आदि एवं बाद के समय में वाचस्पति मिश्र और अन्य टीकाकारों ने प्राचीन काल से लेकर मध्य युग के अंत तक भारत में प्रचलित न्यायिक प्रणाली और कानूनी प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन किया है।
प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण में, न्याय का संबंध अधिकारों की धारणा से अधिक अपने बताए गए कर्तव्यों के पालन से था। प्राचीन भारतीय परंपरा में, न्याय से संबंधित दो दृष्टिकोण थे पहना दंडनीति और और दूसरा था धर्म या कर्तव्य। 'दंडनीति' न्याय की दंड संबंधी आधुनिक धारणाओं के बहुत निकट थी। इसने न्याय के कानूनी पहलू पर बल दिया। धर्म, वर्णाश्रम संबंधी कर्तव्यों की संहिता का दूसरा नाम था और इस तरह से न्याय, धर्म के साथ सद्गुणी आचरण के साथ संयुक्त होकर विकसित हुआ।
मध्ययुग में मुगल साम्राज्य के तहत देश में शासन की एक कुशल प्रणाली थी जिसके परिणामस्वरूप न्याय की प्रणाली आकार ले चुकी थी। न्यायिक प्रशासन की इकाई काजी थी। प्रत्येक प्रांतीय राजधानी का अपना काजी होता था और न्यायिक प्रशासन का मुखिया साम्राज्य का सर्वोच्च काजी (काजी-उल-कुजात) होता था। इसके अलावा, प्रत्येक शहर और हर बड़ा गांव या कस्बा में अपना काजी होता था। मुगल बादशाह जहांगीर के दरबार में लोहे की जंजीरें लगाईं गईं ताकि कोई भी व्यक्ति किसी भी समय बादशाह से न्याय पाने का अनुरोध कर सके। इससे मध्ययुग में भी न्याय की अवधारणा और राजत्व के घनिष्ठ संबंध का पता चलता है।
आधुनिक समय में भी कई भारतीय विचारकों ने भी न्याय पर अपनी बात कही है। महात्मा गांधी के अनुसार, ‘‘सच्चा न्याय सिर्फ कानूनी प्रक्रियाओं और अदालतों द्वारा नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय, नैतिकता और आत्म-नियम के माध्यम से प्राप्त होता है।‘’ अंबेडकर की सामाजिक न्याय की अवधारणा सभी मनुष्यों की स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए है। वह एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था के पक्षधर थे जो जीवन के सभी क्षेत्रों में मनुष्य और मनुष्य के बीच उचित संबंधों पर आधारित हो। एक तर्कवादी और मानवतावादी के रूप में, उन्होंने धर्म के नाम पर मनुष्य द्वारा मनुष्य के किसी भी प्रकार के पाखंड, अन्याय और शोषण को अस्वीकार किया।
पश्चिमी दार्शनिक आम तौर पर न्याय को पारस्परिक संबंधों को व्यवस्थित करने और एक स्थिर राजनीतिक समाज की स्थापना एवं उसे बनाए रखने के लिए सभी गुणों में सबसे आवश्यक गुण में एक मानते हैं।
प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो के अनुसार, न्याय एक ऐसा गुण है जो तर्कसंगत व्यवस्था को स्थापित करता है। इस व्यवस्था का प्रत्येक भाग अपनी उचित भूमिका निभाता है और अन्य भागों के कामकाज में अनुचित हस्तक्षेप नहीं करता है। प्लेटो के ही शिष्य और महान ग्रीक दार्शनिक अरस्तू ने कहा कि न्याय में वही तत्व शामिल होते है जो कि वैध और निष्पक्ष हैं। न्याय में निष्पक्षता का व्यवहार हो और समान वितरण की भावना के साथ जो असमान है, उसका सुधार होना शामिल है।
मध्ययुग के दार्शनिक संत ऑगस्टीन ने कहा कि न्याय के मुख्य गुण की आवश्यकता यही है कि हम सभी लोगों को उनका अधिकार देने का प्रयास करें। मध्ययुगीन एक अन्य प्रसिद्ध दार्शनिक संत एक्विनास ने कहा कि न्याय विपरीत प्रकार के अन्याय के बीच का वह तर्कसंगत माध्यम है, जिसमें आनुपातिक वितरण और पारस्परिक लेन-देन शामिल है।
आधुनिक युग के राजनीतिक विचारक हॉब्स का मानना था कि न्याय एक कृत्रिम गुण है, जो नागरिक समाज के लिए आवश्यक होता है। न्याय, सामाजिक अनुबंध के स्वैच्छिक समझौतों का एक कार्य है;
आधुनिक युग के अनुभववादी दार्शनिक ह्यूम ने न्याय के बारे में कहा कि न्याय अनिवार्य रूप से संपत्ति की रक्षा करके उसे एक सार्वजनिक उपयोगिता प्रदान करता है और न्याय का व्यापक रूप से यही कार्य समझा जाता है।
महान दार्शनिक कांट ने कहा कि न्याय एक ऐसा गुण है जिसके द्वारा हम दूसरों की स्वतंत्रता, स्वायत्तता और गरिमा का सम्मान करते हैं। न्याय तब होता है जब लोगों के स्वैच्छिक कार्यों में तब तक कोई हस्तक्षेप नहीं हो जब तक कि वे किसी दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करते हैं।
मिल ने कहा कि न्याय वास्तव में सबसे खास सामाजिक उपयोगिताओं का एक सामूहिक नाम है, जो मानव स्वतंत्रता को बढ़ावा देने और उसकी रक्षा करने के लिए अनुकूल है।
न्याय संबंधी अवधारणा के सबसे चर्चित समकालीन विचारक रॉल्स ने न्याय का विश्लेषण समाज के सभी सदस्यों के लिए बुनियादी अधिकारों और कर्तव्यों के संबंध में अधिकतम समान स्वतंत्रता के संदर्भ में किया है। ऐसा समाज जिसमें सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के हल के लिए सभी के लिए समान अवसर और लाभकारी परिणामों के संदर्भ में नैतिक औचित्य की आवश्यकता होती है। एक अन्य समकालीन विचारक माइकल सैंडल ने न्याय को कार्य को सही ढंग से करने के रुप में परिभाषित किया है।
न्याय की अवधारणा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित है। भारतीय संविधान के निर्माता देश में न्याय की स्थापना की आवश्यकता के बारे में जानते थे, इसलिए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि इसे भारतीय संविधान में शामिल किया जाए। प्रस्तावना के अलावा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16 और 17 भी संविधान की प्रस्तावना में निहित न्याय के विचार को दर्शाते हैं। ये सभी अनुच्छेद संविधान के भाग तीन के अंतर्गत शामिल किए गए हैं जो प्रत्येक नागरिक को मौलिक अधिकार प्रदान करते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39क के अंतर्गत 'समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता' से संबंधित प्रावधान निहित हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 38 और 39 में न्याय की अवधारणा मिलती है।
भारतीय संविधान में न्याय के तीन प्रकार परिभाषित किये गये हैं:-सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय और राजनीतिक न्याय।
सामाजिक न्याय का अर्थ है अधिक से अधिक लोगों का कल्याण और असमान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को उसकी जाति, मूलवंश या लिंग के आधार पर किसी भी भेदभाव के बिना अपने व्यक्तिगत विकास के लिए समान सामाजिक अवसर उपलब्ध हों। सामाजिक न्याय की यह अवधारणा सामाजिक समानता के अभ्यास पर आधारित है। सामाजिक न्याय ऐसी व्यवस्था है जहां, मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं किया जाता है।
आर्थिक न्याय का तात्पर्य है आर्थिक अवसर प्रदान करना, आर्थिक समानता देना और आर्थिक अक्षमता को दूर करना। इसे हमेशा सामाजिक न्याय के तहत लागू किया जाता है। सभी के बीच आर्थिक समानता होनी चाहिए। आर्थिक स्थिति के आधार पर व्यक्तियों के बीच कोई असमानता नहीं होनी चाहिए। किसी को भी उसकी आर्थिक स्थिति के कारण किसी भी अवसर से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
राजनीतिक न्याय का आशय है राजनीतिक मनमानी से मुक्त व्यवस्था। सरकार के कामकाज में राजनीतिक निष्पक्षता होनी चाहिए। किसी भी व्यक्ति की राजनीतिक स्थिति को देख कर कोई लाभ नहीं पहुंचाना चाहिए और उसके साथ हर दूसरे नागरिक की तरह व्यवहार किया जाना चाहिए। हर कानून हर व्यक्ति पर समान रूप से लागू होना चाहिए, चाहे उसकी राजनीतिक स्थिति कुछ भी हो।
आज के समय में न्यायपालिका नागरिक अधिकारों की रक्षक है, यह मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करती है। यह भारतीय संविधान के तहत दिए गए तीनों प्रकार के न्याय को लागू करने में खास भूमिका निभाती है।
देश में न्याय की स्थापना और संविधान की प्रस्तावना में दी गई न्याय की अवधारणा को साकार करने में न्यायपालिका ने खास भूमिका निभाई है। इस संबंध में न्यायपालिका का दृष्टिकोण प्रगतिशील रहा है और इसने अपने निर्णयों के माध्यम से यह दर्शाया है कि न्याय एक विकसित और कानून का पालन करने वाले समाज का एक अनिवार्य घटक है।
निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि न्याय का प्रवर्तन किसी राष्ट्र के बेहतर राजनीतिक जीवन के लिए उत्प्रेरक का काम करता है। एक समावेशी और निष्पक्ष न्याय प्रणाली के बिना लोकतांत्रिक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। हमें सामाजिक समानता, आर्थिक अवसर, और राजनीतिक निष्पक्षता को बढ़ावा देने के लिए न्याय को सशक्त करना होगा। न्याय का क्रियान्वयन मानव कल्याण और राष्ट्र के समग्र विकास के लिए अनिवार्य है। इसलिए इसे ध्यान में रखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने इस अवधारणा को संविधान की प्रस्तावना के साथ-साथ भाग 3 और 4 में भी शामिल किया। यह सही है कि न्याय के तीनों रुप आदर्श रुप में हैं और इन्हें प्राप्त करने का लक्ष्य कठिन है लेकिन मानव कल्याण के लिए इनको अपनाना अनिवार्य है।