न्यू ईयर सेल | 50% डिस्काउंट | 28 से 31 दिसंबर तक   अभी कॉल करें
ध्यान दें:



दृष्टि आईएएस ब्लॉग

फणीश्वरनाथ रेणु: एक दूरदर्शी रचनाकार

अंग्रेजों से आजादी मिलने के बाद देश के सामने असल समस्या यह थी कि इतने वर्षों से रुकी पड़ी विकास की गाड़ी को पटरी पर कैसे लाया जाए? साहित्य के ऊपर भी ये बड़ी जिम्मेदारी थी कि वो जनप्रतिनिधियों, नागरिक समाज और जनता को लगातार उनके कर्तव्यों, अधिकारों और विकास के संबंध में जागरूक करते रहें। साहित्यकारों ने विकास के लिये अपनी कलम तो उठाई लेकिन उनकी रचनाएँ सिर्फ शहर केंद्रित विकास तक ही सीमित रहीं। साहित्य में गाँवों-अंचलों के लिये रिक्त पड़े इस स्थान की पूर्ति की फणीश्वरनाथ रेणु ने।

ग्रामीण अंचल का चित्रण

गाँव-जंवार की भाषा में ही अपनी बात लिखने वाले रेणु को हिंदी साहित्य में आंचलिकता को एक महत्त्वपूर्ण स्थान दिलाने के लिये जाना जाता है। लोकगीत, लोकोक्ति, लोक संस्कृति, लोक भाषा और लोक नायक उनके कथा संसार के प्रमुख अंग हैं। उनके कथा साहित्य में आंचलिकता इस कदर घुली-मिली रहती है कि उनकी कथाओं का नायक अंचल ही हो जाता है। वर्ष 1954 में प्रकाशित उनकी कालजयी रचना ‘मैला आंचल’ का नायक मेरीगंज गाँव ही जान पड़ता है जिसके वातावरण में ये उपन्यास रचा गया है।

‘मैला आंचल’ उपन्यास में कोई केंद्रीय चरित्र या कथा नहीं है। ये घटनाप्रधान उपन्यास है। आजादी के तुरंत बाद के भारत के गाँवों की सामाजिक, आर्थिक समस्याओं को इसमें दिखाया गया है। नाटकीयता और किस्सागोई शैली में रचा गया यह उपन्यास हरेक बिंदु पर अंचल की कहानी कहता है-

"हुजूर, यह सुराजी बालदेव गोप है। दो साल जेहल खटकर आया है; इस गाँव का नहीं चन्नपट्टी का है। यहाँ मौसी के यहाँ आया है। खध्धड़ पहनता है, जौहिन्न बोलता है।"

मैला आंचल के पात्र अपनी जुबान में फक्कड़पने के साथ बातें करते हैं। इसके चरित्र अपने सिरजनहार के बंधे-बंधाए कानूनों और नियमों को तोड़कर बाहर निकल आते हैं और अपने जीवन को अपने मन के मुताबिक गढ़ने लगते हैं। इस तरह से रेणु के चरित्र लेखकों के द्वारा तय किये गए सींखचों में कसे न होकर आजाद तबियत के हैं। इसीलिये रेणु की रचनाओं को पढ़ते समय आपको यह लगता है कि आप उस कहानी के वातावरण का हिस्सा हैं और आप भी कहानी के साथ आगे बढ़ते जा रहे हैं।

रेणु का कथा संसार इसलिये भी ग्रामीण परिवेश और आजाद तबियत का था क्योंकि उन्हें गाँवो और आंदोलनों; दोनों ही चीजों से प्रेम था और वो उसे जीते भी थे। एक बार उन्होंने यह कहा भी था-

सामाजिक समस्याओं पर लेख

"मैं हर दूसरे या तीसरे महीने शहर से भागकर गाँव चला जाता हूँ। जहाँ मैं घुटने से ऊपर धोती या तहमद उठाकर; फटी गंजी पहने गाँव की गलियों में, खेतों में, मैदानों में घूमता रहता हूँ।"

इसके अलावा वे आंदोलनों में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने के लिए रेणु ने अपनी पढ़ाई को बीच में ही छोड़ दिया था। जय प्रकाश नारायण द्वारा चलाए जा रहे छात्र आंदोलन में भी उनकी खूब हिस्सेदारी रहती थी। छात्र आंदोलन के समर्थन में ही उन्होंने भारत सरकार द्वारा दिये गए पद्मश्री पुरस्कार को पापश्री पुरस्कार कहते हुए लौटा दिया था।

रेणु सामाजिक समस्याओं पर सिर्फ चिंतन ही नहीं करते थे बल्कि उन सामाजिक समस्याओं के खिलाफ होने वाले आंदोलनों में हिस्सा भी लेते थे और उस आंदोलन के पक्ष में अपनी कलम भी चलाते थे। भारत के पड़ोसी राज्य नेपाल में राणाशाही के खिलाफ आंदोलन हो रहा था। रेणु ने इस आंदोलन में कोईराला समुदाय का साथ दिया और उन्होंने इसी मुद्दे पर 'नेपाली क्रांति कथा' नामक रिपोतार्ज भी लिखा।

किसानों की व्यथा का वर्णन

किसान भी रेणु के साहित्य का अहम हिस्सा थे। 'परती परिकथा' में उन्होंने किसानों की समस्याओं के साथ ही आंचलिक प्रेम को भी चित्रित किया है। वैसे तो इस उपन्यास का नायक परानपुर गाँव ही है। फिर भी इस नायक के इर्द गिर्द कुछ महत्त्वपूर्ण पात्र हैं जिनके माध्यम से न सिर्फ कहानी आगे बढ़ती है बल्कि ग्रामीण समाज की विभिन्न समस्याएँ भी सामने आती हैं। इस उपन्यास में मलारी नामक एक दलित महिला है जिसे ऊँची जाति के एक पुरुष सुमंत से प्यार हो जाता है। दोनों शादी भी करते है मगर उन्हें शादी करने के बाद गाँव छोड़कर जाना पड़ता है।

मारे गए गुलफाम!

रेणु की एक कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फिल्म भी बनी। राजकपूर और वहीदा रहमान के अभिनय से सजी इस फिल्म के निर्माता मशहूर गीतकार शैलेन्द्र थे। उन्होंने इस फ़िल्म में अपनी कमाई का अधिकांश हिस्सा लगा दिया था। मगर ये फिल्म फ्लॉप हो गई थी और ये भी कहा जाता है कि इसी फ़िल्म के फ्लॉप होने की वजह से शैलेन्द्र की जान गई। रेणु की कहानी पर आधारित एक दूसरी फिल्म 'डागडर बाबू' की आधी फ़िल्म की रील बनकर तैयार हो गई थी, फिर इसे रोक दिया गया और वह कभी रिलीज ही नहीं हो पाई।

समय से आगे चलने वाले रेणु

रेणु जी न सिर्फ एक कुशल रचनाकार थे बल्कि वह एक युगबोधी और दूरदर्शी व्यक्ति भी थे। रेणु आज से पाँच दशक से भी पहले चुनावों में पेड न्यूज और मीडिया-राजनीतिक दल गठजोड़ की बात करते थे। रेणु ने 17 फरवरी 1967 को बिहारी तर्ज नामक एक लेख लिखा था। इस लेख में उन्होंने लिखा-

"अ- राजनीतिक लोगों का कहना है कि चुनाव के समय पत्रकार की पाँचों उंगलियाँ घी में रहती हैं।"

रेणु जी एक जातिविहीन समाज की कल्पना करते थे और उन्होंने अंतरजातीय विवाह भी किया था। कहा जाता है कि उनके परती परिकथा उपन्यास की मलारी का किरदार उनके गाँव औराही हिंगना की ही एक महिला दुलारी से प्रेरित था। साल 2015 में इन्हीं दुलारी की पोती अमृता और फणीश्वरनाथ रेणु के पोते अनंत का प्रेम विवाह संपन्न हुआ।अनंत-अमृता के प्रेम विवाह से रेणु के जातिविहीन समाज के सपने को मुकम्मल उड़ान भी मिलती है।

पिछले साल अर्थात 4 मार्च 2021 को फणीश्वरनाथ रेणु की जन्मशती थी। इस उपलक्ष्य पर बिहार सरकार द्वारा रेणु महोत्सव मनाने की बात कही गई थी मगर कोरोना के चलते ये महोत्सव मनाया न जा सका। आज जब गाँवो में सुशासन की बात चलती है और योजनाएँ बनती हैं तो ऐसे में रेणु को याद किया जाना लाजिमी है जिन्होंने आज से 68 साल पहले ही गाँवो को सुराज फल यानी स्वराज्य के फल का स्वाद चखाने के लिये वैचारिक क्रांति की थी।


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2