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पारसी एक अनूठा समुदाय

पारसी एक अनूठा समुदाय

ये कहानी ईरान के अंतिम सासानिद शाशक यज्देगर्ड की 641 ईसवी में नेहावंद के युद्ध में अरब सेना के हाथों हार के साथ शुरू होती है। अरब सेना द्वारा किए जाने वाले नर संहार से बचने के लिए वहां के लोगों ने खोरासन की पहाड़ियों में शरण ली। कुछ समय तक हारमुज में रहने के बाद भी जब इनके साथ अत्याचार कम नहीं हुआ और अंतिम ज़रथ्रुष्ट्र राजकुमार की भी हार हो गयी तो मजबूरन इन्हें अपनी ज़मीन तलाशने के लिए निकलना पड़ा। ये बहादुर फारसी शरणार्थी समुद्र के रास्ते एक अंजान सफर पर निकल पड़े। अंततः ये भारत के समुद्र तटीय द्वीप दीव पर पर पहुंचने में सफल रहते हैं जहां वह उन्नीस साल तक रहे। यही फारसी लोग भारत में बसने के बाद पारसी कहलाए। इसके बाद पारसी समुदाय के लोगों ने गुजरात की वलसाड रियासत के राजा जदी राणा से वहां बसने की इजाज़त मांगी। जिसके बाद इन्होंने वहां संजान नाम का एक शहर बसाया। पारसी लोगों के ईरान से भारत आने तक का यह वृतांत हमें 'किस्सा-ए-संजान' नाम के ग्रन्थ से मिलता है जिसे दस्तूर बहमन कैकोबाद ने सन 1599-1600 ईसवी के आस-पास लिखा था। कैकोबाद पारसी धर्म के उन मूल पुजारियों के वंशज थे जिन्होंने पवित्र अग्नि ईरानशाह जलाई थी।

लंबे समय तक संजान में रहने के बाद वे भारत के अन्य भागों में बसते गए और फलते-फूलते रहे और इस तरह घुल मिल गए जैसे दूध में शक्कर मिल जाती है। आज हम इस लेख में पारसी समुदाय की संस्कृति, त्यौहार, रीति-रिवाज और खान-पान के बारे में जानने के साथ भारत की विकास यात्रा उनके योगदान को भी जानेंगे-

धर्म और आस्था

पारसी या जरथुस्त्र धर्म विश्व के प्राचीन धर्मों में से एक है। इस्लाम के आने से पहले ईरान में जरथुस्त्र धर्म का ही प्रचलन था। इस धर्म की स्थापना पैगंबर जरथुस्त्र ने ईरान में करीब 3500 साल पहले की थी। उन्हें ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है परन्तु ऋग्वेदिक ऋषियों के विपरीत जरथुस्त्र ने एक संस्थागत धर्म की शुरुआत की। माना जा सकता है कि है कि जरथुस्त्र किसी संस्थागत धर्म के प्रथम पैगम्बर थे। इस धर्म के लोग एक ईश्वर को मानने वाले हैं, और वे अहुरमज्दा भगवान में आस्था रखते हैं। यद्यपि अहुरमज्दा उनके सर्वोच्च भगवान हैं पर दैनिक जीवन के अनुष्ठानों व कर्मकांडों में ‘अग्नि’ उनके प्रमुख देवता के रूप में दिखाई देते हैं। पारसियों का धर्मग्रंथ 'जेंद अवेस्ता' है और यह ऋग्वैदिक संस्कृत की ही एक प्राचीन शाखा अवेस्ता भाषा में लिखा गया है। यही कारण है कि ऋग्वेद और अवेस्ता में बहुत से शब्दों की समानता है। आज इस ग्रंथ का सिर्फ पाँचवा भाग ही उपलब्ध है।

मान्यता

पारसी धर्म में दो शक्तियों स्पेन्ता मैन्यू और अंग्र मैन्यू को मान्यता दी गयी है। जिसमें स्पेन्ता मैन्यू को विकास और प्रगति की जबकि अंग्र मैन्यू को विघटन और विनाश की शक्ति माना जाता है। इस धर्म में सात देवदूतों पर आस्था व्यक्त की गयी है जो सूर्य, चंद्रमा, तारे, पृथ्वी, अग्नि तथा सृष्टि के अन्य तत्वों पर शासन करते हैं। और इस समुदाय के लोगों का मानना है कि इन देवदूतों की वंदना करके अहुरमज्दा को भी प्रसन्न किया जा सकता है। इसके अलावा, वे अग्नि को प्रकाश, गर्मी, ऊर्जा और जीवन का निर्माता मानते हैं, इसलिए इनके प्रत्येक अनुष्ठान और समारोह में अग्नि को जरूर शामिल किया जाता है। वे एक अदृश्य ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं और अपने मंदिरों में अग्नि की पूजा करते हैं। भारत में आठ अताश बेहराम (विजय अग्नि) मंदिर हैं। गुजरात के उदवाड़ा में स्थित ईरानशाह अताश बेहराम सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हैं। माना जाता है कि यहां जल रही अग्नि को करीब 1240 साल पहले जलाया गया था। इस स्थान की यात्रा के बिना कोई धार्मिक अनुष्ठान या शादी- ब्याह पूर्ण नहीं माना जाता।

प्रमुख त्यौहार

पारसी धर्म में तीन प्रकार के कैलेंडर माने जाते हैं। भारतीय पारसी शहंशाही कैलेंडर का पालन करते हैं। पारसी समुदाय के लोग अपने त्यौहार कैलेंडर के अनुसार मनाते हैं। गहम्बर, खोरदाद साल, पतेती, जमशेद-ए-नवरोज़ इनके प्रमुख त्यौहार हैं। आइए इन त्योहारों के बारे में जानते हैं-

गहंबर - गहंबर का मतलब पूर्ण समय या उचित मौसम के लिए किया जाता है। पारसी कैलेंडर के अनुसार छह ऋतुएँ होती हैं और प्रत्येक ऋतु का एक गहंबर होता है। इस त्यौहार में पारसी लोग अनुष्ठान करके दुनिया के निर्माण के लिए जिम्मेदार चरणों या तत्वों को श्रद्धांजलि देते हैं। और फिर खाने के लिए इकट्ठा होते हैं जो उनमें सामुदायिकता की भावना बढ़ाता है। भोजन में धनसाक चावल और सूखे मेवे और एक विशेष व्यंजन पपेटा मा गोश्त परोसा जाता है। प्रत्येक त्यौहार पांच दिनों का होता है और ऐसा माना जाता है कि गहंबर ही पारसियों की पवित्र पुस्तक अवेस्ता में वर्णित एकमात्र त्योहार है।

खोरदाद साल- यह पारसी महीने के छठे दिन मनाया जाता है जो अगस्त/सितंबर के आस-पास होता है। इस दिन जरथुस्त्र का जन्मोत्सव मनाया जाता है। दिन भर विशेष प्रार्थना और जश्न का आयोजन किया जाता है जिसमें मंदिर में धन्यवाद प्रार्थना शामिल है। वे दान-पुण्य भी करते हैं क्योंकि पारसी धर्म में अच्छे कर्मों और दान को बहुत महत्व दिया जाता है।

पतेती- पतेती एक फ़ारसी शब्द है जिसका अर्थ है पश्चाताप। इस दिन पारसी पवित्र अग्नि के सामने पिछले साल जाने-अनजाने में किए गए गलत कार्यों के लिए पश्चाताप करते हैं। इस रस्म के बाद वे एक-दूसरे को 'पतेती मुबारक' कहते हैं।

जमशेद-ए-नवरोज़-यह पारसी शासक जमशेद के नाम पर होने वाले सबसे महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक है। पारसी मानते हैं कि नवरोज के दिन फारस के राजा जमशेद सिंहासन पर बैठे थे। यह पारसियों के शहंशाही कैलेंडर के पहले महीने का पहला दिन है जो कायाकल्प और पुनर्जन्म का प्रतीक है। यह वसंत विषुव की शुरुआत और सर्दी से गर्मी की ओर संक्रमण का भी प्रतीक है। यह पारसियों का सबसे बड़ा त्यौहार माना जाता है।

विवाह की रस्म पसंदे कदम

इस रस्म में शादी करने जा रहे लोगों को आमने-सामने बिठाया जाता है और तीन बार पसंदे कदम कहा जाता है। पहले लड़की और फिर लड़के से पसंदे कहकर पूछा जाता है कि आप मानते हो कि इससे शादी करनी है। यदि लड़का और लड़की राज़ी है तो तीन बार सिर हिलाकर अपनी सहमति देते हैं। इससे यह पुष्ट होता है कि लड़की और लड़के दोनों को यह शादी मंज़ूर है। इस धर्म की खास बात यह है की अंतरधार्मिक शादी करने वाले पारसी पुरुषों की संताने पारसी ही मानी जाती हैं जबकि अंतरधार्मिक शादी करने वाली पारसी स्त्रियों से पैदा होने वाली संतानों को पारसी का दर्जा नहीं मिलता है।

पारसी धर्म में समुदाय के बाहर विवाह को सही नहीं माना जाता है। इस नियम के कारण पारसियों की आबादी बहुत तेजी से घटी है। आकंड़ों को देखें तो साल 1941 में भारतीय पारसी आबादी 1,14,000 के करीब थी जो साल 2011 की जनगणना करीब 57,264 रह गई। तेजी से घट रही आबादी को ध्यान में रखते हुए सरकार द्वारा वर्ष 2013 से जियो पारसी योजना का क्रियान्वयन किया जा रहा है। इसमें दंपत्ति की काउंसलिंग के साथ प्रजनन मुद्दों की जाँच और उपचार के लिये वित्तीय सहायता भी प्रदान की जाती है।

अंतिम संस्कार का अनोखा तरीका

अन्य धर्मों के इतर पारसियों के अंतिम संस्कार का तरीका बिल्कुल अलग है वे न तो हिन्दुओं व सिखों की तरह शवों को जलाते हैं और न ही ईसाईयों और इस्लाम धर्म को मानने वाले लोगों की तरह शवों को दफनाते हैं। वे मृत्यु के बाद शव को आकाश को सौंप देते है या टावर ऑफ साइलेंस जिसे दखमा भी कहते हैं, में ले जाकर रख देते हैं जिसे बाद में गिद्ध खाते हैं। पारसी धर्म में पृथ्वी, जल और अग्नि तत्व को बहुत ही पवित्र माना गया है। इसलिए शवों को जलाना या दफनाना धार्मिक नजरिये से पूरी तरह से गलत माना जाता हैं। हालांकि, बीते कुछ सालों में गिद्धों की संख्या में भारी कमी आने के कारण पारसी धर्मावलम्बियों को अपने रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है।

ईरान से शरणार्थी के रूप में यात्रा शुरू कर भारत पहुंचने वाला पारसी समुदाय आज शिखर तक की यात्रा तय कर चुका है। बात चाहे स्वंत्रतता आंदोलन कि हो या भारत में परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत की हो, परोपकारिता हो या समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की हो, पारसी समुदाय ने हर जगह अपनी छाप छोड़ी है। भारत की इतनी बड़ी आबादी में 0.006 प्रतिशत जैसा मामूली प्रतिनिधित्व रखने के बावजूद इस समुदाय ने देश की विकास यात्रा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। वे अपने धर्म के मूल सिद्धांत ''अच्छे शब्द बोलना, अच्छी चीजें सोचना और अच्छी चीजें करना, यही बुराई को हरा सकता है'' को सिर्फ मानते ही नहीं बल्कि आत्मसात करते दिखते भी हैं। बस जरूरत है इस समुदाय की अनूठी संस्कृति और विरासत को सहेजे जाने की।

  अनुज कुमार वाजपेई  

अनुज कुमार वाजपेई, उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के रहने वाले हैं। स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से करने के बाद इन्होंने IIMC DELHI से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा किया है। कई संस्थानों में काम करने के बाद आजकल ये अनुवादक का कार्य कर रहे हैं।

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