पद्म पुरस्कार : राष्ट्रीय नायकों का सम्मान और इसके निहितार्थ
- 12 Nov, 2021 | हिमांशु सिंह
सभ्यता के विकासक्रम में व्यक्तियों, समूहों और राज्यों ने निष्ठा, समर्पण और अच्छे प्रदर्शन की चाह में पुरस्कारों का आविष्कार किया। प्रारंभ में जहाँ राज्य की ओर से दिए जाने वाले पुरस्कारों का प्रमुख उद्देश्य घोषित तौर पर राजा के प्रति निष्ठा और समर्पण को प्रोत्साहित करना होता था, वहीं आधुनिक काल तक राज्य की संकल्पना बदलने के साथ ही पुरस्कारों के उद्देश्य भी बदल गए। लोकतान्त्रिक परिवेश में ऐसे पुरस्कारों की वैधता लोक के प्रति निष्ठा से तय की जाने लगी। स्वाभाविक ही है कि ऐसे में राज्य प्रदत्त पुरस्कारों के उद्देश्य और ज्यादा व्यापक हो गए। हालाँकि दुनियाभर के बुद्धिजीवियों में राज्य प्रदत्त पुरस्कारों को प्राप्त करने की अर्हता लंबे समय से एक बड़ा विमर्श रहा है। एक वर्ग इसे कार्यों और योगदान के प्रति मान्यता पुरस्कार के रूप में देखता है तो दूसरा इसे सामाजिक निष्ठा के राज्य या संस्था के प्रति रूपांतरित हो जाने के अंदेशे के रूप में चिन्हित करता है।
इसी सिलसिले में भारतीय सन्दर्भ के उदाहरण देखें तो देश के जाने-माने पत्रकार पी साईनाथ ने अपने लिए पद्म पुरस्कार की घोषणा होते ही इसे लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि सरकारों की ओर से दिए जाने वाले पुरस्कार पत्रकारों की स्वतंत्रता और निष्पक्षता को प्रभावित कर सकते हैं। ये पुरस्कार लोकतंत्र के चौथे खंभे को कमजोर कर सकते हैं। पी साईनाथ उन गिने-चुने पत्रकारों मे शामिल है जिन्होंने भारत के किसानों की समस्याओं और किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के मुद्दे पर पूरी दुनिया का ध्यान खींचा था और जिसके चलते सरकार में बड़ी ऋण माफी योजना लानी पड़ी थी। इसी सन्दर्भ में सुप्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर का विचार है कि शिक्षा-शास्त्रियों को अपने कार्यक्षेत्र से मिलने वाले पुरस्कार ही लेने चाहिये। इन्हे दो बार (1992 और 2005 में) पद्म पुरस्कार देने की घोषणा हुई थी, जिसे इन्होंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया था।
ऐसे नामों की एक लंबी सूची मौजूद है जिन्होंने नैतिक आधारो पर सरकारों से मिलने वाले पुरस्कारों को अस्वीकार किया है। इस संदर्भ में एक रोचक किस्सा प्रसिद्ध नाटककार सफ़दर हाशमी से जुड़ा है। 1984 में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में सिख विरोधी दंगे भड़क गए थे। उन दिनों सफदर हाशमी ने इस हिंसा के विरूद्ध पूरी दिल्ली में अपने जन नाट्य मंच (जनम) की टीम के साथ तमाम नुक्कड़ नाटक किए, जिनकी देशभर में बड़ी तारीफ हुई। कालांतर में एक संस्था द्वारा हाशमी के जन नाट्य मंच को पुरस्कार देने की घोषणा की गई जो तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री हरकिशन लाल भगत के हाथों दी जानी थी। मंत्री हरकिशन लाल भगत दिल्ली दंगो में अपनी भूमिका को लेकर संदिग्ध थे। ऐसे में सफ़दर हाशमी ने ये कहते हुए पुरस्कार लेने से इनकार कर दिया था कि यद्यपि जन नाट्य मंच इस पुरस्कार का ह़कदार है, पर पुरस्कार देने वाले हाथ इस लायक नहीं हैं कि जन नाट्य मंच को पुरस्कृत कर सकें। जाहिर है भारत में पुरस्कारों की घोषणा और उनके वितरण का मुद्दा पूरी तरह सरल नहीं रहा है। समय-समय पर सरकारों ने इनका प्रयोग अपने निजी हितों को साधने के लिए भी करना चाहा है, जिसमें वे कभी सफल तो कभी असफल रही हैं।
इस विशाल भूगोल वाले लोकतंत्र में राज्य द्वारा दिए जाने पुरस्कारों का वितरण प्रतिवर्ष सर्वाधिक सुर्खियों में रहता है। भारत रत्न देश का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार है, जिसके पश्चात पद्म पुरस्कारों का स्थान है। बीते 8 नंवबर को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने पद्म पुरस्कार प्रदान किए। इस सूची में कुल 119 नाम थे जिनमें पी वी सिंधु, आनंद महिंद्रा ओैर पंडित छन्नूलाल मिश्र सरीखे नामों को किसी परिचय की जरूरत नही हैं। पर इसी सूची में शामिल कुछ नाम ऐसे भी हैं जो इसे खास बनाते है। ये नाम ऐसे हैं जो इन पुरस्कारों का औचित्य सिद्ध करते हैं।
कर्नाटक की पर्यावरण सरंक्षक तुलसी गौड़ा, जोगम्मा की ट्रांसजेंडर लोकनर्तक और कर्नाटक जनपद अकादमी की पहली ट्रांसजेंडर अध्यक्ष मंजम्मा जोगाठी जैसे नाम सरकारों द्वारा पुरस्कारों को भेंट बना देने की परंपरा का प्रतिकार हैं। तो वहीं हरेकाला हजब्बी जैसे निरक्षर फलविक्रेता, जिन्होंने अपने दम पर वि़द्यालय की शुरुआत की या लावारिश लाशों के तारणहार मोहम्मद शरीफ जैसे लोग इस सूची के असली सितारे हैं। सूची में मौजूद ये नाम सरकार की इस मंशा पर मुहर हैं कि सरकार पद्म पुरस्कारों के माध्यम से देश की आम जनता की निष्ठा महज सरकार तक सीमित न करके मानवता और पर्यावरणीय मूल्यों को भी बढ़ावा देना चाहती है। पर इस परिदृश्य का एक स्याह पक्ष भी है। विचारणीय है कि जिन नागरिकों ने अपने बलबूते देश, समाज ओर पर्यावरण के लिए इतने बड़े काम किए क्या वो अपने पैरों में एक जोड़ी चप्पल के हक़दार नहीं हैं? राष्ट्रपति भवन में नंगेपांव पद्मश्री पाने वालों की तस्वीरें लोकतंत्र की रूमानियत ओर गर्व की विषयवस्तु ही नहीं, चिंताजनक प्रश्न भी हैं। हमारी व्यवस्था इतनी सजग तो है कि सवा अरब की भीड़ से मानवता के योद्धाओं को छांट कर राष्ट्रपति भवन आने का निमंत्रण दे सकती है, पर आखिर वो कौन सी वजहें हैं जिनसे उनके संघर्ष के दिनों में उनकी मूल आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पातीं। एक नागरिक के रूप में हमें और हमारी पूरी व्यवस्था को इस पक्ष पर ध्यान देने की भरपूर जरूरत है।
हिमांशु सिंह (लेखक दृष्टि आईएएस में वरिष्ठ कंटेंट संपादक हैं) |