पुरानी पेंशन: विवाद क्यों?
- 04 Sep, 2024 | विमल कुमार
राज्य एक अमूर्त संस्था है और शासन उसका मूर्त रूप। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में शासन के तीन प्रमुख स्तंभ होते हैं– विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। साधारण शब्दों में, विधायिका का कार्य विधियों व नीतियों का निर्माण करना, कार्यपालिका का कार्य विधायिका द्वारा बनाए गए नियमों एवं कानूनों को लागू करना जबकि न्यायपालिका का कार्य सभी तरह के विवादों का निपटारा करना होता है। शासन का संचालन अपने कार्मिकों के माध्यम से किया जाता है। कोई भी शासन व्यवस्था तभी सुचारू रूप से संचालित हो पाती है जब उसके कार्मिकों को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा प्राप्त हो। भारतीय संविधान के अनुसार राज्य का मुख्य उद्देश्य ‘लोक कल्याण’ हेतु कार्य करना है। 21वीं सदी के दौर में लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया ने ‘सुशासन’ की अवधारणा को गति दी जो कि ‘नागरिक केंद्रित’ शासन के रूप में जमीनी स्तर पर अभिव्यक्त होती है। सुशासन की स्थापना हेतु देशभर में आज तमाम मुद्दों पर एकरूपता लाने की कोशिश की जा रही है जिससे एक ही संवर्ग में हो रहे भेदभाव को भी खत्म किया जा सके।
पिछले दो दशक से पेंशन के मुद्दे को लेकर लगातार देश भर से आवाजें उठती रही हैं। कोई भी लोकतांत्रिक देश या समाज किसी भी उठने वाली आवाजों का सम्मान करता है और उस पर सकारात्मक पहल की कोशिश भी करता है। सन 2004 में पुरानी पेंशन व्यवस्था (ओपीएस) को खत्म करके नई पेंशन व्यवस्था (एनपीएस) लाई गई। सरकारों द्वारा नई पेंशन योजना (एनपीएस) को कर्मचारियों के लिए लाभकारी बताया गया लेकिन कर्मचारियों ने नई पेंशन योजना (एनपीएस) से संबंधित प्रावधानों से सदैव असहमति प्रकट की। पिछले दो दशक से देश भर में लगातार पुरानी पेंशन (ओपीएस) की बहाली को लेकर सरकारी कर्मचारी आंदोलनरत हैं। इसी के मद्देनजर 24 अगस्त, 2024 को भारत सरकार की कैबिनेट ने एक नई पेंशन योजना, जिसे एकीकृत पेंशन योजना (यूपीएस) नाम दिया गया है, को पास किया। इसे 1 अप्रैल, 2025 से लागू किया जाना है।
अब पेंशन से संबंधित प्रावधान के बारे में बहुत सारे सवाल सामने आ रहे हैं। कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था जनमत के माध्यम से चलती है और जो भी प्रावधान जनमानस के हित में रहता है उसे लागू किया जाता है और उसमें भी एकरूपता का ध्यान रखा जाता है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि यदि एनपीएस या यूपीएस को लागू किया जा रहा है तो इसे सिर्फ स्थाई कार्यपालिका के लिए ही क्यों? अस्थाई कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका पुरानी पेंशन से आच्छादित हैं तो स्थाई कार्यपालिका के सदस्यों के लिए यह गैर बराबरी क्यों? सरकारी कर्मी विभिन्न माध्यमों से सदैव सवाल उठाते रहे हैं कि यदि नई पेंशन योजना और एकीकृत पेंशन योजना इतनी ही अच्छी हैं तो देश के न्यायधीश एवं नेतागण इसे क्यों नहीं अपनाते हैं? तमाम अर्थशास्त्री और नौकरशाह पुरानी पेंशन को बोझ बताते हुए इसको अपनाये जाने पर असमर्थता जताते हैं। यह विडंबना है कि आज भी हमारे राजनीतिज्ञ और विशेषज्ञ सिर्फ कामकाजी आयु के मतदाताओं से संबंधित सामाजिक नीतियों पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं। सरकारी और संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के पेंशन कवरेज पर असमान ध्यान दिए जाने के अलावा हमारे राजनीतिज्ञ और मतदाता दोनों ही वृद्धों के लिए नीतियों को नजरअंदाज करके खुश हैं। कर्मचारियों की तरफ से यह सवाल सदैव पूछा जाता रहा है कि जो कर्मचारी जीवन भर देश के निर्माण हेतु अपना जीवन और सेवा देता है, सेवानिवृत्ति के पश्चात आखिर उसको बोझ क्यों समझा जाना चाहिए? यदि पुरानी पेंशन देश की अर्थव्यवस्था के लिए बोझ है तो इसे सभी को छोड़ देना चाहिए। लोक कल्याणकारी राज की अवधारणा पर काम करने वाला देश आखिर अपने कर्मचारी को सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा क्यों प्रदान नहीं कर सकता? पेंशन के मुद्दे पर सरकारों पर आर्थिक बोझ का तर्क दिया जाता है और दुनिया के अन्य देशों से इसकी तुलना भी की जाती है लेकिन यह सवाल भी लाजमी है कि दुनिया के अन्य देश अपने सरकारी कर्मी को भारत की अपेक्षा कितनी ज्यादा सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा मुहैया कराते हैं।
पेंशन के मुद्दे पर सरकार का रुख कितना लोकतांत्रिक है, इसपर विचार किया जाना चाहिए। क्योंकि जैसे एनपीएस को थोपा गया था, वैसे ही यूपीएस को थोपने का प्रयास किया जा रहा है। सरकार ने कभी भी लोकतांत्रिक तरीके से कर्मचारियों से जुड़े संगठनों से बातचीत ही नहीं की। डॉ सोमनाथ समिति की रिपोर्ट को आधार बनाकर यूपीएस को जारी किया गया है लेकिन अभी तक इस रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया।
एकीकृत पेंशन योजना में किए गए प्रावधान अंतिम वर्ष के वेतन के औसत का 50 प्रतिशत पेंशन का लाभ लेने के लिए यह जरूरी है कि कर्मचारी 25 साल की अवधि तक सेवा दें। चूंकि भारतीय सेना के अंतर्गत विभिन्न सेवाओं के लिए काम करने वाले सभी लोगों की सेवानिवृत्ति की आयु अलग-अलग होती है इसलिए भारतीय सेना के संदर्भ में यह प्रावधान अहितकारी है। इसके अतिरिक्त बहुत से संघर्षरत प्रतियोगी अधिक आयु सीमा के कारण 35 वर्ष के बाद भी नौकरी में आते हैं। यह प्रावधान पेंशन के संबंध में उन्हें असुरक्षा प्रदान करता है। पेंशन के लिए किसी भी सरकारी कर्मी द्वारा सेवा किए गए वर्ष की गणना पर सरकारी संस्थाओं की भर्ती प्रणाली पर भी सवाल उठता है, प्रतियोगी छात्र की आयु का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भर्ती परीक्षाओं की लेटलतीफी की वजह से भी खर्च हो जाता है। जिससे उन्हें नौकरी देर से मिलती है। यह पेंशन योजना आयु संबंधी छूट प्राप्त करने वाले आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों के हितों के भी प्रतिकूल है। एक प्रकार से हम कर सकते हैं कि यह पेंशन योजना सामाजिक न्याय की अवधारणा की स्थापना में भी विफल है।
एकीकृत पेंशन योजना में वेतन आयोग के संबंध में भी प्रावधान नहीं है। वेतन आयोग कर्मचारियों से संबंधित समस्याओं का न सिर्फ अध्ययन करता है बल्कि बदलती हुई परिस्थितियों के साथ कर्मचारियों की आवश्यकताओं का ध्यान रखते हुए सिफारिशें भी करता है। सरकारी कर्मचारियों को यह विकल्प देने की बात कही गई है कि वे ‘नई पेंशन योजना’ (एनपीएस) एवं ‘एकीकृत पेंशन योजना’ (यूपीएस) में से किसी को भी स्वीकार कर सकते हैं। एकीकृत पेंशन योजना के प्रावधानों को देखकर लग रहा है यह विकल्प नहीं बल्कि समन्वय स्थापित किया गया है। पुरानी पेंशन योजना में कर्मचारियों की तरफ से कोई अंशदान निर्धारित नहीं किया गया था और जीपीएफ की सुविधा थी लेकिन यूपीएस में एनपीएस की तरह ही अनिवार्य रूप से वेतन के 10 प्रतिशत की कटौती की जाएगी। जहां एनपीएस में कर्मचारियों एवं सरकार के सामूहिक अंशदान के बड़े हिस्से को कर्मचारियों को देने का प्रावधान किया गया था वहीं यूपीएस में अंशदान द्वारा सरकार अपनी झोली भरने की कोशिश में है। पुरानी पेंशन योजना में कर्मचारी अपनी पेंशन का एक हिस्सा बेच सकता था और अपनी अनिवार्य आवश्यकतायें पूर्ण कर सकता था लेकिन यूपीएस और एनपीएस में ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है।
पेंशन योजनाओं के संबंध में अस्पष्टता सदैव भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली रही है। एक निश्चित पेंशन योजना के प्रावधान न होने की वजह से एक आम कर्मचारियों के मस्तिष्क में भविष्य के प्रति आर्थिक अनिश्चितता का विचार जन्म लेता है जो कहीं न कहीं उसे अवैध रूप से धन संग्रह के लिए भी प्रेरित करता है। सामान्य व्यवहार में यह देखा गया है कि पेंशन के संदर्भ में अनिश्चिता ने भी भ्रष्टाचार एवं लूट की प्रवृत्ति को बढ़ाया है। आज यह सवाल जरूरी है कि अगर भारी-भरकम ऋण की माफी की जा सकती है तो अपने कर्मचारियों को आर्थिक सुरक्षा क्यों नहीं दी जा सकती? यूपीएस योजना के प्रकाश में आने के पश्चात असंतुष्ट कर्मचारी संगठन सदैव एनपीएस की तरफदारी करने वाली सरकार की मंशा पर भी सवाल उठा रहे हैं। एनपीएस लागू होने के 20 वर्षों पश्चात ओपीएस के बजाय यूपीएस जैसी पेंशन योजना लाने से कर्मचारियों के मन में सरकार की मंशा पर भी सवाल पैदा करते हैं। एकीकृत पेंशन योजना लागू होने के बाद देश भर के कर्मचारियों की तरफ से पुनः यह आवाज सामने आ रही है कि दुनिया के विशालतम लोकतंत्र और संविधान की दुहाई देने वाली सरकार द्वारा संविधान के आदर्शों को जमीन पर उतारने में आखिर क्या परेशानी है? दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं से कदमताल की घोषणा करके चलने वाली सरकार को हमारी पुरानी पेंशन योजना से आखिर परहेज क्यों है?
विमल कुमार(विमल कुमार, राजनीति विज्ञान के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। अध्ययन व अध्यापन के साथ-साथ विमल विभिन्न अखबारों और पत्रिकाओं में समसामयिक, सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर स्वतंत्र लेखन और व्याख्यान के लिए जाने जाते हैं। इनकी अभिरुचियों में पढ़ना-लिखना, वैचारिक चिंतन-मनन, वाद-विवाद व विमर्श और यात्राएं करना शामिल हैं।) |