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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

पितृसत्ता का पुरुषों पर नकारात्मक प्रभाव

आईआईटी की परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन न कर पाने के कारण रोहन बहुत उदास था। वह अपने माँ-बाप के गले लगकर जी भरकर रोना चाहता था और कहना चाहता था कि, वह उनकी इच्छाओं पर खरा नहीं उतर पाया; उससे नहीं हो पा रहा है। लेकिन गले लगना तो दूर, वह उन्हें यह तक नहीं बता पाया कि वह परीक्षा में फेल हो गया है। वह जितनी बार उन्हें बताने की कोशिश करता, उसे यह भय सताने लगता कि कहीं माता-पिता उसे कमज़ोर न समझ लें। कहीं परिवार और समाज की नज़र में उसका सम्मान न खतम हो जाए। कुछ दिन तक, रोहन यूँ ही मन ही मन कुढ़ता रहा और अंत में अपने प्राण त्यागना उचित समझा।

यहाँ पर रोहन कोई व्यक्ति विशेष नहीं है; यहाँ वह समाज के उन सभी पुरुषों का प्रतिनिधित्व कर रहा है, जो कभी जिम्मेदारियों के बोझ से तो कभी समाज व परिवार द्वारा उससे की जाने वाली उम्मीदों के बोझ तले दबे होते हैं और तनाव भरी जिंदगी जी रहे होते हैं। एक पुरुष का अपने मन की भावनाओं को खुले तौर पर व्यक्त न कर पाना; चाहते हुए भी सबके सामने न रो पाना, असल में पितृसत्ता की ही देन है। हमारा पितृसत्तात्मक समाज यह स्वीकार ही नहीं करता कि मर्द को भी दर्द होता है।

जी हाँ, पितृसत्ता औरतों का जितना नुकसान कर रही है, उससे कई गुना ज़्यादा पुरुषों का नुकसान कर रही है। अगर लड़की को रोका जाता है, तो लड़के को भी रोका जाता है। उससे बचपन से ही कहा जाता है कि, अरे लड़कियों की तरह रो रहे हो, तुम लड़के हो, तुम्हें रोना शोभा नहीं देता। एक चार साल के बच्चे को अँधेरे से डर लगता है, लेकिन उससे कहा जाता है कि तुम तो लड़के हो, तुम्हें डरना नहीं है। उसे हर पल ये अहसास कराया जाता है कि, तुम्हारा जन्म रोने या डरने के लिये नहीं बल्कि अच्छी नौकरी करने, हर परिस्थिति में निडर व कठोर बने रहने और अपनी पत्नी और बहनों की ज़िम्मेदारियाँ उठाने के लिये हुआ है।

इतना ही नहीं, हमारी फिल्में भी पितृसत्ता को बढ़ावा दे रही हैं। दबंग, डॉन, सुपरमैन और मर्द जैसी अनेक फिल्में हैं, जो हर दर्शक के दिमाग में यह बात बैठा देती हैं कि पुरुष ऐसे ही मजबूत, साहसी और कभी न हारने वाले होते हैं।
ऐसी ही फिल्मों ने लोगों के मन में मर्दानगी के उस परिभाषा की एक सुदृढ़ छाप छोड़ दी है जो पुरुषों को विनम्र होने की अनुमति नहीं देता है।

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वहीं, इसके उलट अगर कोई पुरुष अपने दुख बाँट लेता है; अपने पिता से गले लगकर रो लेता है; अपनी पत्नी की देखभाल करता है तो पितृसत्ता को लगता है कि ये तो उस पर चोट की जा रही है। अपनी पत्नी का सम्मान करने और उसका स्वामी बनने की बजाय एक जीवनसाथी की तरह उसका साथ देने वाले पुरुष को यह पितृसत्तात्मक समाज ज़ोरू का गुलाम कहकर बुलाता है। साथ ही, अगर कभी किसी लड़ाई में पुरुष आगे निकलकर न आए तो उसकी मर्दानगी पर सवाल उठाए जाते हैं और कहा जाता है कि,‘अरे इसने तो चूड़ियाँ पहन ली हैं।’ यह भावनात्मक ज़हर धीरे-धीरे एक पुरुष के पूरे व्यक्तित्व को कई बार नकारात्मक बना देता है।

एक और बात, जिस पर हम बहुत कम चर्चा करते हैं, वह है पुरुषों के यौन शोषण की। आज महिलाओं के यौन शोषण के मुद्दे पर जोर-शोर से चर्चा होती है, जो कि ज़रूरी भी है, लेकिन इसी समाज में बहुत सारे लड़कों के साथ यौन शोषण होता है और उसका ज़िक्र तक नहीं होता, क्योंकि अगर कोई लड़का ये बता देगा कि मेरा यौन शोषण हुआ है तो लोग उसकी मदद करने की बज़ाय उस पर हँसते हैं; उसे इज्ज़त बनाए रखने का हवाला देते हुए चुपचाप सहने की सलाह देते हैं; उसकी मर्दानगी पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करते हैं क्योंकि पितृसत्तात्मक समाज यह स्वीकार ही नहीं करता कि लड़कों के साथ भी यौन शोषण हो सकता है।

आँकड़ों की बात करें तो ‘इंडियन जर्नल ऑफ कम्युनिटी मेडिसिन’ के मुताबिक, 21 से 49 वर्ष के 53 प्रतिशत पुरुषों के साथ सिर्फ इसलिए हिंसा होती है क्योंकि वो पुरुष हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार,आत्महत्या करने वाले सात प्रतिशत पुरुष बेरोज़गारी और पैसे की कमी की वजह से आत्महत्या करते हैं। यहाँ किसानों की आत्महत्या के मुद्दे पर भी गौर करना चाहिए। जब कोई किसान आत्महत्या करता है तो कहीं न कहीं उसके पीछे भी पितृसत्तात्मक सोच ही ज़िम्मेदार होती है। उसे लगता है कि, मैं अपने परिवार की रक्षा नहीं कर पाया; उन्हें ज़रूरी सुविधाएँ मुहैया नहीं करा पाया इसलिए मुझे जीने का कोई हक नहीं है।

हालांकि अब, दशमलव मात्र ही सही लेकिन समाज में इन मुद्दों पर बात होने लगी है। आज के युवा अपने कठोर चोले को उतारकर अपनी भावनाएँ व्यक्त करना सीख रहे हैं। युवा कवि ज़ाकिर खान की कविता की ये पंक्तियाँ पुरुषों की भावनाओं को बेहतर तरीके से व्यक्त करती हैं-

कभी हमारी भी मर्दानगी का पर्दा हटाकर देखना,
कभी थामना हमारा भी हाथ,
कैसे हो तुम पूछना ?
क्योंकि हमारी भी सख्त शक्लों के पीछे
एक मासूम सा बच्चा है जी,
जिसकी ख्वाइशें घर, गाड़ी और आसमान नहीं,
अपनापन सच्चा है जी,
हमें भी डर लगता है,
अकेले अँधेरे कमरों में हम भी सो नहीं सकते,
और सच कहूँ तो झूठे हैं वो लोग,
जो कहते हैं की मर्द रो नहीं सकते।

वहीं, इससे हटकर पितृसत्ता का एक दूसरा पहलू भी है, जो अधिक प्रचलित है; जिस पर खूब चर्चा होती है- पितृसत्ता का महिलाओं पर नकारात्मक प्रभाव। सदियों से महिलाएं पुरुषों के रूढ़ व्यवहार के चलते महिलाओं को अनेक प्रकार की चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। गौर करने की बात यहाँ यह है की पुरुषों का ऐसा व्यवहार ऐसा क्यों है या फिर यूँ कहें कि समय के साथ-साथ हो गया। इसका उत्तर भी पितृसत्तात्मक सोच की गहराईयों में ही छिपा हुआ है।

मनुष्य अपने बालपन से ही अपने आस-पास के वातावरण से जीवन के बारे में सीखता है। अपने माता-पिता और बाकि पारिवारिक संबंधों के आधार पर ही अपने व्यवहार के गुणों को संचित करता है। यह देखा गया है की जिन परिवारों में वरिष्ठ पुरुष सदस्यों का आचरण सख्त होता है वहां सम्भवतः युवा पीढ़ी के पुरुषों में भी वैसा ही चलन स्वाभाव देखने को मिलता है। महिलाओं की भी कुछ ऐसी ही स्थिति है। कहीं न कहीं इसी के चलते पुरुषों को लगता है की उनको अपनी भावनाओं को खुले तौर पर व्यक्त नहीं करना चाहिए जिस वजह से एक उम्र के बाद वे अन्दर ही अन्दर घुटते रहते हैं।

दिलचस्प बात यह है की अभी का युवा स्टीरियोटाइप्स को ठुकरा कर संवेदनशीलता को अपना रहा है। वो खुल के अपनी भावनाओं को प्रकट करने को दोनों पुरुषों और महिलाओं को स्वीकार्य बना रहा है। शायद यह बदलाव ही पुरुषों को जैसा वे अपने अन्दर महसूस करते हैं वैसा ही बहार प्रकट करने में सहायता करेगा और उन्हें पितृसत्तात्मक समाज की धारणाओं का दृढ़ता से सामना करने का भी साहस देगा।

कुल मिलाकर निष्कर्ष के तौर पर हम यह कह सकते हैं कि पितृसत्ता महिलाओं के लिये जितनी घातक है, उतनी ही पुरुषों के लिये भी घातक है। पितृसत्ता के दुष्परिणाम दोनों को भुगतने पड़ते हैं, किसी को कुछ कम तो किसी को कुछ ज़्यादा। इसलिए सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि ये लड़ाई औरतों और पुरुषों के बीच की नहीं है, क्योंकि बहुत से पुरुष ऐसे हैं जो महिलाओं को सशक्त बनाने में पूरा सहयोग और समर्थन करते हैं और बहुत सी महिलाएँ ऐसी हैं, जो पितृसत्ता का घोर समर्थन करती हैं। ये दो विचारधाराओं की लड़ाई है।

दूसरी बात यह कि, पितृसत्ता को समाप्त करने का यह मतलब नहीं है कि मातृसत्तात्मक व्यवस्था लागू कर दी जाए। पितृसत्ता का उल्टा बराबरी है। हमें बराबरी लाना है। हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना है जहाँ लड़कियों के साथ-साथ पुरुष भी खुलकर अपनी भावनाएँ व्यक्त कर सकें, खुलकर रो सकें; जहाँ गृहस्थी की जिम्मेदारी की गठरी को पति और पत्नी बराबर उठाकर चल सकें। इसके लिये पितृसत्ता की मानसिकता से समाज को मुक्त करने के लिए महिलाओं और पुरुषों को एक साथ कदम उठाने होंगे।

  शालिनी बाजपेयी  

शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।

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