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राष्ट्रीय आकांक्षाएँ और सिविल सेवा

एक शाम नेहरू जब अपने दलान में बैठे हुए थे तो उनसे किसी पत्रकार ने पूछा कि आपको अपने कार्यकाल में ऐसी क्या कमी लगती है जिसको आप बदलना चाहेंगे। जवाब में नेहरू ने कहा कि मैं शायद इस देश की नौकरशाही के ढॉंचे को लोकतांत्रिक व कल्याणकारी राज्य के अनुकूल नहीं बना पाया। यह अभी भी 'कार्नवालिस का औपनिवेशिक तंत्र' ही बना हुआ है।इस तंत्र में 'कलेक्टर' वाली मानसिकता गहरे घर कर गई है। इसी मानसिकता को स्पष्ट करते हुए पूर्व ICS अधिकारी पेंडेरेल मून अपनी पुस्तक 'स्ट्रेंजर्स इन इंडिया' में बताते हैं कि स्वतंत्रता पूर्व ICS अधिकारी किस तरह लंदन के विश्वविद्यालयों में जाकर भारत की नौकरशाही की भव्यता और उसकी राजशाही प्रवृत्तियों  के गुणगान किया करते थे। स्पष्ट है कि आधुनिक भारत के शिल्पी नेहरू को भी अपने देश को सुगठित करने के लिये राष्ट्र की इन 'धमनियों' से और अधिक सुसंगत होने की अपेक्षा थी। नेहरू की इन अपेक्षाओं से ही हम सिविल सेवा के महत्व को समझ सकते हैं।

स्वतंत्रता के बाद जब भारत के निर्माण का कार्य सरदार वल्लभ भाई पटेल को सौंपा गया तो उन्होंने भी सिविल सेवा को आधार बनाकर ही इस कार्य को संपन्न करने का प्रयास किया। स्वतंत्र भारत की नौकरशाही को राष्ट्र की नवीन आकांक्षाओं और जिम्मेदारियों से अवगत कराने के लिये पटेल ने 21 अप्रैल 1947 को मेटकॉफ हाउस  के चेंबर में पहली बार सिविल सेवकों को 'स्टील फ्रेम ऑफ इंडिया' कहकर संबोधित किया और उनको संविधान की निष्ठा के साथ उन वचनों को याद कराया जो एक लोकतांत्रिक गणराज्य की नींव होते हैं, तो वह दिन अनायास ही भारत की राजनीतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक बेहतरी को तय करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण क्षण बन गया। इसी  दिन को याद करते हुए वर्ष 2006 से 21 अप्रैल को विभिन्न मंत्रालय के उच्च अधिकारियों द्वारा एक औपचारिक समारोह का आयोजन किया जाता है जो 'सिविल सर्विस डे' के नाम से जाना जाता है। इस दिन भले ही गोष्ठियों और संप्रेषण के माध्यम से खानापूर्ति की जाती हो परंतु यह दिन निश्चित तौर पर गांधी के अंतिम व्यक्ति की उत्कृष्टता तथा भलाई और उसके कल्याण को सुनिश्चित करने वाली मशीनरी के स्वयं के अवलोकन और अपने कर्तव्यों का  एहसास करने के साथ-साथ भविष्य की अपनी कार्यप्रणाली की बेहतरी के वादे वाला दिन होना चाहिये।

अगर हम इस प्रणाली की जड़ों को देखें तो ये  प्राचीन भारत के पहले व्यवस्थित साम्राज्य मौर्य प्रशासन तक जाती हैं। इस साम्राज्य के शिल्पी कौटिल्य ने अपने 'अर्थशास्त्र' में राज्य की जनता का कल्याण का आधार इसी तंत्र के माध्यम से होना सुनिश्चित किया था। उनके अनुसार ' जनता की खुशी में ही अधिकारी-तंत्र की खुशी निहित है'। समय दर समय विभिन्न साम्राज्यों की शासन प्रणाली, समाज की अपेक्षाओं और विभिन्न सांस्कृतिक प्रणाली के अंर्तगत प्रशासन की बुनावट और चरित्र में बदलाव होता रहा। राष्ट्रपिता गांधी भी अपनी सु-राज की अवधारणा में उत्तम अभिशासन हेतु 8 गुण बताते हुए कहते हैं कि उत्तम शासन सुनिश्चित करने हेतु प्रशासक को जवाबदेह, पारदर्शी, वस्तुनिष्ठ, करुणाशील, समावेशी, कुशल, भागीदारीपूर्ण और सर्व-सम्मति उन्मुख होना चाहिये। स्वतंत्रता के बाद से यह नौकरशाही लोकतांत्रिक ढॉंचे में ढलना शुरू हुई तथा राजनीतिक विकास क्रम के विभिन्न दौर में प्रतिबद्धता आधारित, लाइसेंस-राज, वैश्विक सरकार और नागरिक केंद्रित व बाजार आधारित प्रणाली के अनुरूप चरित्र धारण करती रही। वेबेरियन मॉडल से नवलोक प्रबंधन मॉडल तक की एक लंबी दूरी यह प्रणाली तय कर चुकी है।

निश्चित तौर पर नौकरशाही, ब्यूरोक्रेसी, सिविल सेवा, स्थायी कार्यपालिका, विभागीय सरकार आदि नामों से जाने वाली यह सेवा ही किसी लोकतांत्रिक सरकार का आधार होती है। यही वो मशीनरी है जिसके माध्यम से ना केवल नीतियों और कानूनों को क्रियान्वित किया जाता है वरन इसके द्वारा ही सामाजिक न्याय को सुनिश्चित किया जाता है। वर्तमान आपदा के दौर में तो इसकी भूमिका और ज्यादा महत्त्वपूर्ण दिखाई पड़ती है।

लेकिन,अपेक्षाओं के सापेक्ष यह प्रणाली अभी भी विभिन्न सीमाओं से ग्रसित रही है। समय समय पर इस पर राजनीतिक प्रतिबद्धता, भ्रष्टाचार, अकर्मण्यता और संवेदनहीनता के आरोप लगते रहे हैं। हाल में प्रधानमंत्री जी ने संसद में जब कहा कि 'सब कुछ बाबू ही करेंगे?...ये कौन सी बड़ी ताकत बना दी हमने!...' ,तब इसकी नैतिक कमजोरियां सतह पर दिखाई देने लगीं।

यह सही है कि यह व्यवस्था खुद भी कार्य बोझ, विभागीयकरण, इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी और राजनीतिक दबाव जैसी चुनौतियों से जूझ रही है; लेकिन,इनसे उबरने के क्रम में इस प्रणाली को अंतर्निहित सुधारों पर भी ध्यान देना होगा।

निष्पादन आधारित प्रणाली, कार्य संस्कृति में सुधार, सरल और सुलभ तकनीकी के प्रति लगाव, विशिष्टता हेतु प्रशिक्षण तथा नागरिक चार्टर,सूचना का अधिकार जैसी युक्तियों के प्रति तत्परता के माध्यम से ही यह अपने ध्येय के नजदीक पहुँच पाएगी। अंत में, यही कहा जा सकता है कि गण के इस तंत्र को एक बार रुक कर सोचना होगा कि उनकी इस यात्रा का साध्य क्या था? उनसे राष्ट्र की पवित्र पुस्तक क्या अपेक्षा रखती है?नागरिकों के लिये उनका दायित्व क्या है और ये अपनी नैतिक जिम्मेदारियों पर कितना खरा उतरें हैं? अगर इन सवालों का आत्म-विश्वास के साथ सकारात्मक उत्तर मिल जाता है तो निश्चित ही यह तंत्र गांधी के राम-राज्य के स्वप्न को साकार करने की महत्त्वपूर्ण कड़ी साबित होगा।

[आलोक कुमार ]

(लेखक उत्तर प्रदेश में प्रशासनिक अधिकारी हैं)

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