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मृदुला गर्ग: जन्मदिन विशेष

सामान्य परिचय

साहित्य की दुनिया में ख्याति प्राप्त मृदुला गर्ग 25 अक्टूबर 1938 को कलकत्ता में जन्मीं। शुरुआती तीन वर्षों तक उनका बचपन कलकत्ता में बीता, इसके पश्चात उनका परिवार दिल्ली आकर बस गया। मृदुला गर्ग का बचपन कुछ शारीरिक पीड़ा में बीता जिसके कारण उन्हें आरंभिक वर्षों तक विद्यालय के बजाय घर पर ही शिक्षा ग्रहण करनी पड़ी। आगे चलकर उन्होंने अपनी रुचि अर्थशास्त्र में बढ़ाई और दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स से परास्नातक किया। मृदुला गर्ग को बचपन से ही साहित्य अध्ययन में रुचि रही, उन्होंने अपने एक साक्षात्कार में इस बात की पुष्टि करते हुए कहा भी है कि-

“साहित्य पठन से मेरा लम्बा लगाव रहा, बचपन से … साहित्य ही मेरा एक मात्र आसरा था। वह मेरे खून में समा गया, मेरे दिलो-दिमाग का हिस्सा बन गया। चूँकि उसने मेरे जीवन में बहुत जल्द प्रवेश कर लिया था, इसलिए बड़े नामों से मुझे डर नहीं लगता था।”

साहित्य की दुनिया से जितनी जल्दी राब्ता हो जाए, आगे चलकर वह दुनिया उतनी ही जल्दी खुलने लगती है। साहित्य से लगाव ही उन्हें बचपन में नाटकों में अभिनय के क़रीब लाया। अपने विद्यालय में नाटकों में वे अभिनय भी किया करती थीं। स्कूल में नाटक और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में वे भाग लिया करती थीं और जीतती भी थीं |

साहित्य से बचपन में लगाव के कारण ही अल्पावधि में उनका परिचय परिपक्व साहित्य से हो चुका था। जिस समय उनकी उम्र लगभग 32 वर्ष की थी, उस समय उन्होंने साहित्य लेखन प्रारंभ किया। उन्होंने अपने आरम्भिक वर्षों में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य भी किया।

साहित्यिक लेखन

अध्यापन कार्य के साथ-साथ ही उन्होंने साहित्य लेखन में भी कदम रखा। उन्होंने उपन्यास, कहानी संग्रह, नाटक, निबंध, व्यंग्य इत्यादि विधाओं पर अपना लेखन जारी रखा। साहित्य लेखन के अलावा वे स्तंभकार के रूप में भी काफी चर्चित रह चुकी हैं। उन्होंने इंडिया टुडे के हिंदी संस्करण में कटाक्ष नामक स्तम्भ के लिए लगातार कई वर्ष तक लेखन किया। उनका प्रारम्भिक लेखन अर्थशास्त्र से जुड़ा हुआ था, लेकिन उसके उपरांत वे सृजनात्मक लेखन की ओर अग्रसर हुईं |

हिंदी साहित्य में उन्होंने अपना नाम अपनी कहानी “रुकावट” (1971) के माध्यम से करवाया। उनकी यह कहानी कमलेश्वर जी के सम्पादन के ‘सारिका’ पत्रिका में छपी। हिंदी साहित्य लेखन की शुरुआत से पहले मृदुला जी ने अपनी कई कहानियाँ और कविताएं अंग्रेजी भाषा में रची हैं। हिंदी भाषा के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा में उनका समान अधिकार है। ‘सारिका’ पत्रिका में ही उनकी कुछ कहानियाँ और प्रकाशित हुईं जैसे ‘हरी बिंदी’, ‘लिली ऑफ वैली’, ‘दूसरा चमत्कार’ आदि। इस तरह उन्होंने हिंदी साहित्य लेखन आरंभ किया और 1972 में उनकी कहानी ‘कितनी कैदें’ को कहानी पत्रिका द्वारा सम्मानित किया गया। 1974 में उनका पहला उपन्यास ‘उसके हिस्से की धूप’ साहित्य जगत के समक्ष आया।

मृदुला गर्ग ने साहित्य के क्षेत्र में अपना जो स्थान बनाया इसके केंद्र में मुख्य रूप से दो विषय रहे- पहला स्त्री विषयक और दूसरा मध्यवर्गीय जीवन। मृदुला गर्ग से पूर्व हिन्दी साहित्य में स्त्रियों के लेखन की समृद्धशाली परंपरा रही है। हिन्दी के आरंभिक स्त्री कहानीकारों में बंग महिला, शारदा कुमारी आदि नाम आते हैं।

इसके बाद की पीढ़ी में सुभद्रा कुमारी चौहान, उषा मित्रा, कमल चौधरी जैसे नाम आते हैं। लेकिन स्त्रियों से जुड़े हुए पहलू यहाँ पूरी तरह से उभर कर नहीं आते। इसके बाद का जो स्त्री लेखन है, वह विपुल है। अपने तेवर में तीखा भी है। यहाँ से नारीवाद का जो स्वरूप पश्चिम में दिखाई देता है, वैसा स्वरूप हमें देखने को मिलता है। इसके पीछे की वजह यह भी है कि आजादी से पूर्व की सामाजिक- राजनीतिक परिस्थितियाँ अलग रहीं।

उस समय समाज सुधार, आजादी का आंदोलन और सामाजिक-पारिवारिक समस्याएं ही प्रमुख हुआ करती थीं। आजादी के बाद परिवेशगत बदलाव के कारण इसमें बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है। अब स्त्री जागरूक और अपने-अपने अधिकारों के लिए लड़ती हुई दिखने लगी, स्त्री अस्मिता एक बड़ा मुद्दा बना, पूंजीवाद ने स्त्रियों के स्वरूप को किस रूप में देखा इसका विशद वर्णन देखने को मिला, बाजार में स्त्रियों को उत्पाद के रूप में देखा गया। अब इन सवालों से स्त्री लेखन मजबूत होने लगा था।

नई कहानी के दौर में मन्नू भण्डारी, ऊषा प्रियंवदा व कृष्णा सोबती ने नारी मन के विविध प्रसंगों को अपने साहित्य में उठाकर एक नया आयाम दिया। मृदुला गर्ग के पास हिन्दी साहित्य की ऐसी समृद्ध परंपरा रही जिसका विकास उनके साहित्य में देखने को मिलता है। उन्होंने ‘सत्ता और स्त्री’ नामक निबंध लिखा जिसमें उन्होंने स्त्रियों के शोषण के लिए शक्ति और सत्ता को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में इस ओर भी इशारा किया है कि पति पर निर्भरता या आर्थिक रूप से स्वावलंबी न होना उनके लिए अभिशाप बन जाता है। उनका लेखन स्त्रियों के सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक व राजनैतिक सभी पहलुओं पर देखने को मिलता है।

उपन्यास

‘चित्तकोबरा’ और ‘कठगुलाब’ उनके सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यास हैं। ‘कठगुलाब’ उपन्यास की पृष्ठभूमि काफी अलग है। उसमें वे भारतीय व पश्चिमी संदर्भों के माध्यम से यह कहती हैं कि किस प्रकार दोनों ही जगहों पर स्त्री होने के अपने दर्द समाज में विद्यमान हैं। इस मामले में पूर्व और पश्चिम एक से ही हैं। ‘चुकते नहीं सवाल’ में वे कहती हैं-

“स्त्री है तो मादा..... समस्या है तो शील की, शील के रक्षा की और शील पर आक्रमण की।”

नारी की शुद्धता के जिस पैमाने को समाज ने तय किया है वे बेहद घटिया हैं। उन्हें पूरी तरह से बदल दिए जाने की जरूरत महसूस करती हैं।

यही नहीं उनके अन्य उपन्यासों में स्त्री-पुरुष के मध्य संबंधों का मानसिक विश्लेषण किया गया है। स्त्री और पुरुष के मध्य संबंध केवल शारीरिक नहीं होते अपितु मूल संबंध मानसिक है। मन में जो खालीपन है, वह खालीपन भरने वाला संबंध न बन पाने की वजह से समस्याएं उत्पन्न होती हैं। उनके सर्वाधिक चर्चित उपन्यास ‘चित्तकोबरा’ का प्रमुख पात्र मनु अपने मन के खालीपन को कभी दूर नहीं कर पाता।

‘एक और अजनबी’ और ‘उसके हिस्से की धूप’ में भी ऐसी ही समस्याएं देखने को मिलती हैं। आधुनिक जीवन जिस हिसाब से जटिल होता जा रहा है, उसमें ऐसी समस्याएं होना स्वाभाविक है जिसका सुंदर चित्रण इन रचनाओं में देखने को मिलता है। ‘वंशज’ मृदुला जी एक अन्य उपन्यास है जिसमें स्त्री-पुरुष के संबंधों के चित्रण का एक अलग रूप दिखाई देता है।

बैंगलोर लिटरेचर फेस्टिवल 2019 में मृदुला गर्ग

‘अनित्य’ और ‘मैं और मैं’ उपन्यास में स्त्री-पुरुष संबंधों का जितने खुले मन से मृदुल गर्ग ने विश्लेषण किया है, वैसा अन्यत्र कम ही देखने को मिलता है। इन में संबंधों की एक-एक परत के सीवन को मृदुल जी ने उधेड़ कर रख दिया है। मृदुला गर्ग ने अपने साहित्य में यौन दृश्यों से परहेज नहीं किया है। ‘चित्तकोबरा’ उपन्यास इसी वजह से काफी विवादित भी रहा लेकिन इन विषयों पर वे अपनी स्पष्ट राय रखती हैं। वे कहती हैं कि श्लीलता या अश्लीलता का प्रश्न साहित्य के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं, महत्वपूर्ण है उन्हें हम जिन मुद्दों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।

कहानी लेखन

‘कितनी कैदें’, ‘टुकड़ा-टुकड़ा आदमी’, ‘ग्लेशियर से’, ‘डेफोडिल जल रहे हैं’, ‘समागम’, ‘अवकाश’, ‘अगर यों होता’, ‘तुक’, ‘खरीदार’ व ‘रुकावट’ जैसी कहानियाँ हिन्दी साहित्य में अपने अलग रूप के करण पहचानी जाती हैं। उनके अधिकांश कहानियों में प्रेम का तीव्रता से आना, यौन व वर्जित माने जाने वाले दृश्यों व प्रसंगों का खुलकर विवेचन व विवाहेत्तर संबंधों का खुला चित्रण मिलता है।

इनके यहाँ बहुत सी स्त्रियाँ स्वावलंबी हैं। अपने बोध के स्तर पर वे आधुनिक हैं। वे स्वतंत्र-स्वच्छंद हैं। अपना प्रेमी-पति होने के बावजूद अन्य पुरुषों के प्रति भी उनके मन में आकर्षण है। इस प्रकार के प्रश्न और चित्रण जहाँ भी, जिस भी साहित्य में होंगे वहाँ नैतिक मूल्यों के पतन का प्रश्न उठना स्वाभाविक है। उनके साहित्य के संदर्भ में ऐसे प्रश्न खूब उठे।

मध्यवर्गीय जीवन व समस्याएं

स्त्री विषयों से हटकर मध्यवर्गीय जीवन को उन्होंने बखूबी चित्रित किया है। ‘वंशज’, ‘लौटना और लौटना’, ‘अलग-अलग कमरे’, ‘चित्तकोबरा’, ‘कठगुलाब’, ‘बंजर’, ‘उलटी धारा’ आदि रचनाओं में एकल परिवार के द्वन्द्व, अकेले रहने की समस्याएं, पुरानी व नई पीढ़ियों के मध्य मूल्यों व नैतिकता को लेकर संघर्ष, बुढ़ापे के तमाम पहलुओं को उन्होंने अपनी रचनाओं में उकेरा है। एक ओर वृद्ध परिवार को अपने अनुसार देखते हैं तो नई पीढ़ी अपने अनुसार। यहीं पर मूल्यों के मध्य संघर्ष के सटीक चित्रण भी देखने को मिलता है। यहाँ ये संघर्ष केवल पीढ़ियों के संघर्ष न होकर मूल्यों के संघर्ष के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं।

अन्य विधाओं में लेखन

उनके नाटकों में स्त्री-पुरुष संबंधों व ‘जादू का कालीन’ में बंधुआ मजदूरों के बच्चों के त्रासदी का विवेचन हुआ है। उन्होंने ‘रंग – ढंग’ तथा ‘चुकते नहीं सवाल’ नाम से दो निबंध संग्रह भी लिखे। मृदुला जी ने व्यंग विधा में भी अपनी कलम चलाई।

नारीवाद का स्वरूप

नारीवाद एक ऐसा विषय रहा है जिसकी धुरी तो एक दिखाई देती है लेकिन उसकी परिधियाँ कई हैं। इसलिए आगे चलकर इसके कई स्वरूप देखने को मिलते हैं। जाहिर सी बात है अलग-अलग समाज स्त्रियों को अलग-अलग रूप में देखता है। इसलिए शोषण के अलग-अलग रूप भी हो सकते हैं। पश्चिम में जिस प्रकार का नारीवाद दिखाई देता है, मृदुला गर्ग उसके हू-ब-हू अनुकरण पर विश्वास नहीं करतीं। उनका मानना है कि भारत और पश्चिम में बहुत सी समानताएं हैं लेकिन इसके अलावा भिन्नताएं भी बहुत हैं इसलिए नारीवाद का वैसा ही स्वरूप यहाँ भी हो यह आवश्यक नहीं। यहाँ उसकी समस्याएं अलग हैं इसलिए उसका उसी ढंग से हल निकालने की कोशिश एक व्यर्थ कोशिश ही मानी जाएगी।

पुरस्कार

मृदुला गर्ग की बहुत सी रचनाओं का अंग्रेजी, जर्मन, चेक, जापानी भाषाओं के साथ-साथ हिन्दी की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। ‘कितनी कैदें’ कहानी को सन 1972 में ‘कहानी’ नामक पत्रिका द्वारा सर्वश्रेष्ठ कहानी का पुरस्कार, मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् द्वारा ‘उसके हिस्से की धूप’ उपन्यास को ‘महाराजा वीरसिंह पुरस्कार’, मृदुला गर्ग के नाटक ‘एक और अजनबी’ को आकाशवाणी द्वारा 1978 में पुरस्कार, बाल-नाटक ‘जादू का कालीन’ को मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् द्वारा 1993 में ‘सेठ गोविन्ददास पुरस्कार’, समग्र साहित्य के आधार पर सन 1988-89 का हिंदी अकादमी द्वारा ‘साहित्यकार सम्मान’,‘मिलजुल मन’ उपन्यास के लिए सन 2013 के ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है|

अनुराग सिंह

अनुराग सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय के श्यामा प्रसाद मुखर्जी महिला महाविद्यालय में सहायक आचार्य के रूप में कार्यरत हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक व साहित्यिक मुद्दों पर इनके लेख दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला आदि हिंदी के प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।

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