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मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक कलंक

  • 28 Apr, 2025

कहते हैं कि मानव शरीर की पीड़ा को समाज तुरंत पहचान लेता है, लेकिन मन की पीड़ा प्रायः मौन में डूब जाती है। मानसिक स्वास्थ्य केवल रोग की अनुपस्थिति की स्थिति नहीं, बल्कि भावनात्मक संतुलन, विचारों की स्पष्टता और जीवन में अर्थ की अनुभूति का होना भी है। आज के युग में यह विषय न केवल व्यक्तिगत अस्तित्व का, विशेष रूप से युवाओं और छात्रों के बीच, अपितु राष्ट्रीय सामाजिक-आर्थिक प्रगति का भी आधार बन गया है। छात्र जीवन वह संवेदनशील कालखंड है जिसमें एक ओर आकांक्षाएँ चरम पर होती हैं तो दूसरी ओर प्रतिस्पर्द्धा, सामाजिक अपेक्षाएँ, पारिवारिक दबाव, करियर की अनिश्चितता और डिजिटल व्याकुलता का बोझ भी बढ़ता जाता है। इन सबके बीच जब कोई छात्र मानसिक तनाव से जूझता है तो वह सहज रूप से सहायता की मांग नहीं कर पाता और इसका एक प्रमुख कारण सामाजिक कलंक है। मानसिक अस्वस्थता को अब भी समाज में एक व्यक्तिगत दुर्बलता, आलस्य या ढोंग के रूप में देखा जाता है। यह सामाजिक कलंक छात्रों को आत्म-अस्वीकृति, संकोच और आत्मग्लानि की दिशा में ढकेलता है। परिणामस्वरूप, वे न तो संवाद कर पाते हैं और न ही समय रहते आवश्यक सहायता प्राप्त कर पाते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य – अवधारणा और छात्रों के संदर्भ में स्थिति

मानसिक स्वास्थ्य की परिभाषा समय और समाज के साथ बदलती रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, मानसिक स्वास्थ्य सेहत की वह स्थिति है जिसमें कोई व्यक्ति अपने सामर्थ्य को समझता है और जीवन के आम तनावों का सामना कर सकने में सक्षम होता है। इस परिभाषा से प्रकट होता है कि मानसिक स्वास्थ्य केवल मानसिक विकारों से मुक्त होना ही नहीं है, बल्कि उस आंतरिक सामर्थ्य का प्रतीक भी है, जो व्यक्ति को जीवन की जटिलताओं का सामना करने योग्य बनाता है।

  • छात्रों के संदर्भ में मानसिक स्वास्थ्य विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि यह वह समय होता है जब उनके व्यक्तित्व, आत्म-छवि और भविष्य की नींव रखी जा रही होती है। बदलते पाठ्यक्रम, निरंतर परीक्षा-आधारित मूल्यांकन, सामाजिक तुलना और डिजिटल माध्यमों की आक्रामकता ने छात्र-मानस को अधिक अस्थिर बना दिया है।
  • एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण (NIMHANS, 2016) के अनुसार, भारत में लगभग 13% किशोर और युवा मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित किसी-न-किसी समस्या से ग्रस्त हैं। NCRB के आँकड़े बताते हैं कि हर वर्ष आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो मानसिक स्वास्थ्य संकट की गंभीरता का संकेत है।
  • शहरी क्षेत्रों में छात्रों में प्रतिस्पर्द्धात्मक, आत्म-केंद्रित और प्रदर्शन-उन्मुख भावनाओं से मानसिक स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न होती है, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण और अर्द्ध-शहरी छात्रों में सामाजिक पूर्वाग्रह, आर्थिक संघर्ष और संसाधनों की कमी उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।
  • कोविड-19 महामारी ने छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को और जटिल बना दिया। ऑनलाइन शिक्षा, सामाजिक एकाकीपन, तकनीकी थकान और अनिश्चितता ने मानसिक थकावट को जन्म दिया।
  • स्पष्ट है कि छात्र समुदाय आज एक मनोवैज्ञानिक संक्रमण-काल से गुजर रहा है, जहाँ मानसिक स्वास्थ्य केवल चिकित्सा का विषय नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक संवाद और नीति-निर्माण का केंद्रीय मुद्दा बन गया है।

सामाजिक कलंक – प्रकृति और स्वरूप

सामाजिक कलंक (Social Stigma) का अर्थ है किसी व्यक्ति या समूह के प्रति नकारात्मक सामाजिक दृष्टिकोण, जो उसे ‘अलग’, ‘कमज़ोर’ या ‘अस्वीकृत’ मानता है। मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कलंक को इरविंग गोफ़मैन (Erving Goffman) ने ‘a deeply discrediting attribute’ की संज्ञा दी—यानी एक ऐसा ठप्पा जो व्यक्ति की सामाजिक पहचान को विकृत कर देता है।

  • कलंक के प्रकार:
    • सार्वजनिक कलंक : समाज की यह धारणा कि मानसिक रोगी ‘असामान्य’, ‘अविश्वसनीय’ या ‘खतरनाक’ होते हैं।
    • संस्थागत कलंक: शिक्षा संस्थानों, कार्यस्थलों या स्वास्थ्य व्यवस्था में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता या भेदभाव।
    • स्व-कलंक: जब व्यक्ति स्वयं को ही दोषी, अयोग्य या कमतर मानने लगता है।
    • सांस्कृतिक कलंक: धार्मिक विश्वास या पारंपरिक मान्यताएँ, जैसे ‘यह पाप का फल है’ या ‘भूत-प्रेत का साया है।’
  • छात्रों पर प्रभाव:
    • ‘कमज़ोर’ कहलाने का भय उन्हें चुप रहने को विवश करता है।
    • सहपाठियों और शिक्षकों की प्रतिक्रियाओं का भय।
    • मदद मांगने पर ‘असफल’ मान लिये जाने का जोखिम।
    • परिवार की अस्वीकृति: ‘हमारे घर में ऐसा कैसे हो सकता है?’
  • मीडिया और लोकप्रिय संस्कृति की भूमिका:
    • मानसिक रोगी पात्रों को प्रायः नकारात्मक, भयावह या हास्यप्रद रूप में चित्रित किया जाता है।
    • सोशल मीडिया पर ‘toxic positivity’—जहाँ उदासी या थकान भी अस्वीकार्य बन जाती है।
  • अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण:
    • जापान जैसे देशों में मानसिक रोगों के लिये कोई स्पष्ट शब्द नहीं है, ताकि संबद्ध कलंक को टाला जा सके।
    • स्कैंडिनेवियाई देशों में खुले संवाद को प्राथमिकता दी जाती है।

छात्रों द्वारा सहायता की मांग में संकोच के कारण 

छात्रों द्वारा मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित सहायता नहीं मांगने का सबसे बड़ा कारण कलंक से भय  है। हालाँकि इसके अन्य सूक्ष्म और सामाजिक-मनौवैज्ञानिक कारण भी होते हैं।

  • कमज़ोर दिखने की छवि से भय:
    • छात्र सोचते हैं कि मदद मांगना ‘हार मानना’ है।
    • कई बार शिक्षकों या सहपाठियों द्वारा मज़ाक उड़ाया जाना उन्हें और अधिक चुप करा देता है।
  • समझ और भाषा की कमी:
    • छात्र प्रायः पैनिक अटैक, एंग्जायटी या बर्न-आउट जैसे शब्दों से परिचित ही नहीं होते कि अपने अनुभव को अभिव्यक्त कर सकें।
    • भारतीय भाषाओं में उपयुक्त मानसिक स्वास्थ्य शब्दावली का अभाव पाया जाता है।
  • सहायता तंत्र की अनुपस्थिति या अविश्वास:
    • विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित काउंसलर्स की कमी है।
    • जो सुविधाएँ हैं, वे प्रायः छात्र-अनुकूल नहीं हैं।
    • गोपनीयता भंग होने का भय होता है कि माता-पिता को पता न चल जाए।
  • वर्तमान शैक्षिक संस्कृति की कठोरता:
    • ‘फेल’ होने की छूट नहीं है; भावनात्मक संघर्ष को प्रायः श्रम से बचने का बहाना मान लिया जाता है।
    • परीक्षा, प्लेसमेंट और CGPA की दौड़ में भावनाएँ गौण हो जाती हैं।
  • डिजिटल संस्कृति और तुलना का दबाव:
    • सोशल मीडिया पर व्याप्त मिथक भावना कि सभी ख़ुश हैं।
    • छात्र दूसरों की सफलता से अपने संघर्ष की तुलना कर और भी अधिक हीनता का अनुभव करते हैं।
    • इन कारणों से छात्र मानसिक संघर्षों के बावजूद भी मौन बने रहते हैं, जो अंततः गंभीर मानसिक विकारों, एकाकीपन और आत्मघाती प्रवृत्तियों को जन्म देता है। इसके समाधान की पहली सीढ़ी यही है कि सहायता मांगना कमज़ोरी नहीं बल्कि साहस माना जाए और यह परिवर्तन छात्रों में नहीं, समाज की सोच में लाना होगा।

भारत में मौजूदा मानसिक स्वास्थ्य अवसंरचना

भारत में मानसिक स्वास्थ्य प्रणाली का ढाँचा विविध, बहु-स्तरीय और संक्रमणशील है। हालाँकि नीतिगत स्तर पर कई महत्त्वपूर्ण पहलें की गई हैं, फिर भी यह ढाँचा सुलभता, दक्षता और संवेदनशीलता के मामले में कई चुनौतियों से जूझ रहा है।

  • राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (NMHP – 1982):
    • मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा में समाहित करने का प्रयास।
    • लेकिन छात्र-विशिष्ट उपखंडों या किशोर-मानसिक स्वास्थ्य की संरचनात्मक योजनाओं की कमी बनी हुई है।
  • मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम (MHCA – 2017):
    • व्यक्ति की गरिमा और अधिकारों को कानूनी संरक्षण।
    • छात्र-हितैषी परिप्रेक्ष्य में इसका प्रभाव अब भी सीमित, विशेषकर छोटे शिक्षण संस्थानों में।
  • राष्ट्रीय टेली-मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (Tele-MANAS – 2022):
    • टोल-फ़्री हेल्पलाइन (14416) और परामर्श सेवाएँ।
    • डिजिटल माध्यम से पहुँच का विस्तार, लेकिन इंटरनेट एवं भाषाई बाधाओं के कारण सीमित प्रभाव।
  • विश्वविद्यालय एवं विद्यालय स्तर पर ढाँचा:
    • कुछ प्रतिष्ठित संस्थानों (जैसे IIT, DU) में काउंसलिंग सेंटर मौजूद हैं, लेकिन उनका सकल योगदान सीमित रहा है।
    • अधिकतर कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की भारी कमी।
    • स्कूलों में  ‘वेलनेस एंबेसडर’ या ‘लाइफ स्किल ट्रेनिंग’ के प्रयास अभी आरंभिक चरण में ही हैं।
  • गैर-सरकारी संगठनों (NGOs) और निजी प्रयासों की भूमिका:
    • The Mind Clan, iCall, Sangath, YourDOST जैसे प्लेटफ़ॉर्म जागरूकता प्रसार में योगदान कर रहे हैं।
    • लेकिन इनकी पहुँच शहरी और अंग्रेज़ी भाषी छात्रों तक सीमित रह जाती है।

इस प्रकार भारत में छात्र मानसिक स्वास्थ्य के लिये मूलभूत ढाँचा मौजूद है, किंतु वह सामाजिक-सांस्कृतिक अनुकूलन, क्षेत्रीय पहुँच और संस्थागत दक्षता के अभाव में पूर्ण रूप से प्रभावशाली नहीं बन पाया है।

छात्रों को सबल बनाने की रणनीतियाँ 

छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य के संदर्भ में सहायता मांगने के लिये सबल बनाना एक बहु-आयामी कार्य है, जिसमें नीति, शिक्षा, परिवार, तकनीक और समाज को एकजुट रूप से सक्रिय भूमिका निभानी होगी।

  • शिक्षा पद्धति में समावेशन:
    • मानसिक स्वास्थ्य को नैतिक शिक्षा, जीवन कौशल और नागरिकता की तरह पाठ्यक्रम में जोड़ा जाए।
    • भावनात्मक साक्षरता (emotional literacy) विकसित की जाए, ताकि छात्र अपने अनुभवों को शब्द दे सकें।
  • संस्थागत संरचना का सुदृढ़ीकरण:
    • विश्वविद्यालयों और स्कूलों में प्रशिक्षित मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ अनिवार्य किये जाएँ।
    • छात्रों की सुविधा के अनुसार परामर्श समय, निजता की सुरक्षा और अनौपचारिक पहुँच सुनिश्चित की जाए।
  • सकारात्मक संवाद और रोल मॉडल:
    • प्रतिष्ठित हस्तियों, शिक्षकों और वरिष्ठ छात्रों द्वारा मानसिक स्वास्थ्य पर खुले संवाद आयोजित किये जाएँ।
    • ‘It’s okay to ask for help’ जैसे अभियानों को नियमितता मिले।
  • डिजिटल और तकनीकी नवाचार:
    • भारत में बढ़ती मोबाइल पहुँच का उपयोग कर क्षेत्रीय भाषाओं में मानसिक स्वास्थ्य ऐप्स और चैटबॉट विकसित किये जाएँ।
    • VR और AI आधारित तनाव प्रबंधन टूल्स, जैसे गाइडेड मेडिटेशन, जर्नलिंग स्पेसेस आदि उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।
  • समुदाय और परिवार की भागीदारी:
    • माता-पिता को मानसिक स्वास्थ्य विषयक प्रशिक्षण दिया जाए कि वे लक्षणों को समझें, न कि उसे नकारें।
    • सामुदायिक पुस्तकालय, काउंसलिंग कैंप और युवा समूहों को ‘safe spaces’ के रूप में विकसित किया जाए।
    • छात्रों को सबल बनाना केवल सुविधा प्रदान करना भर नहीं है बल्कि छात्रों के बीच भरोसे का निर्माण करना भी है। 

केस स्टडीज़ और सफल उदाहरण

सकारात्मक परिवर्तन के उदाहरण पुष्टि करते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य पर सार्थक और सक्षम समाधान पाया जा सकता है। नीचे कुछ प्रेरक केस स्टडीज़ और सफल मॉडलों का विश्लेषण किया गया है, जिनसे भारत को सीखना चाहिये।

  • IIT बॉम्बे – स्वस्थ IITian पहल:
    • छात्रों की आत्महत्या की घटनाओं में वृद्धि को देखते हुए संस्थान ने 24x7 हेल्पलाइन, प्रशिक्षित काउंसलर्स और पीअर-सपोर्ट ग्रुप्स जैसे प्रयास लागू किये हैं।
    • खुले संवाद को प्रोत्साहन देने के लिये ‘Talk to Me’ अभियान शुरू किया गया।
    • मानसिक स्वास्थ्य को ‘CGPA’ जितनी ही प्राथमिकता दी गई है।
  • केरल – स्कूल काउंसलिंग मॉडल:
    • ‘Jeevani’ परियोजना के तहत सभी सरकारी कॉलेजों में मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर नियुक्त किये गए हैं।
    • हर छात्र के लिये नियमित मानसिक स्वास्थ्य आकलन और समयबद्ध परामर्श का आयोजन किया जाता है।
    • यह मॉडल UGC द्वारा अनुशंसा-योग्य माना गया।
  • YourDOST – डिजिटल मानसिक स्वास्थ्य मंच:
    • छात्रों के लिये गुप्त, ऑनलाइन परामर्श सुविधा।
    • IIM-B, BITS Pilani आदि संस्थानों के साथ गठजोड़।
    • विभिन्न भारतीय भाषाओं में उपलब्ध सेवा।
  • TISS Mumbai – पीअर सपोर्ट सर्किल्स:
    •  छात्रों के लिये सेफ स्पेसेस (safe spaces) का निर्माण, जहाँ बिना किसी पूर्वाग्रह के अनुभव साझा किये जाते हैं।
    • प्रशिक्षित काउंसलर्स द्वारा समूह काउंसलिंग की सुविधा।
  • अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर: यूके का “Time to Talk” अभियान:
    • हर साल फ़रवरी में मानसिक स्वास्थ्य पर सार्वजनिक संवाद आयोजित किया जाता है।
    • विश्वविद्यालयों और कॉर्पोरेट जगत को एकत्र कर कलंक मिटाने संबंधी पहलें की जाती हैं।

इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि इच्छाशक्ति, नीतिगत समर्थन और नवाचार से मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्थायी परिवर्तन लाया जा सकता है। भारत के शिक्षण संस्थानों को इन प्रयासों से प्रेरणा लेकर स्थानीय संदर्भों में समाधान खोजने चाहिये।

चुनौतियाँ और आलोचनात्मक दृष्टिकोण

मानसिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता की वृद्धि के बावजूद व्यवहार में व्यापक परिवर्तन लाना अभी भी एक बड़ी सामाजिक, सांस्कृतिक और संस्थागत चुनौती है। 

  • संरचनात्मक असमानताएँ:
    • मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ शहरी, अंग्रेज़ी माध्यम और उच्च-शिक्षण संस्थानों तक सीमित हैं।
    • ग्रामीण, सरकारी या छोटे संस्थानों में इनकी अपर्याप्तता प्रकट है।
    • डिजिटल डिवाइड की स्थिति पाई जाती है, जहाँ टेली-मेंटल हेल्थ का लाभ सीमित वर्ग तक उपलब्ध है।
  • नीति क्रियान्वयन में खामियाँ:
    • मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम (MHCA 2017) का अनुपालन राज्यों में व्यापक रूप से असमान है।
    • ज़िला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम कई ज़िलों में केवल काग़ज़ों पर सीमित है।
    • संसाधनों की भारी कमी है, जहाँ भारत में प्रति 1 लाख जनसंख्या पर केवल 0.75 मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं।
  • कलंक की गहरी सांस्कृतिक जड़ें:
    • ‘पागल’ जैसे शब्द अब भी आम बोलचाल में शामिल हैं।
    • मानसिक संघर्षों को चरित्र की कमज़ोरी या धार्मिक-आध्यात्मिक दोष मान लिया जाता है।
    • पुरुष छात्रों के लिये मानसिक स्वास्थ्य और भी वर्जित है, जहाँ ‘मर्द रोते नहीं’ जैसी धारणाएँ प्रचलित हैं।
  • प्रशिक्षण और मानव संसाधन की कमी:
    • स्कूल शिक्षकों या विश्वविद्यालय कर्मियों को मानसिक स्वास्थ्य का कोई औपचारिक प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है।
    • अधिकतर संस्थान ‘काउंसलर’ की भूमिका को प्रशासनिक स्तर पर ही सीमित कर देते हैं।
  • मनोवैज्ञानिक सेवाओं का व्यावसायीकरण और अव्यवस्था:
    • निजी क्षेत्र में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएँ महँगी, असंगठित और अपारदर्शी होती हैं।
    • कई ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म बिना लाइसेंस या सटीक प्रोटोकॉल के सक्रिय नज़र आते हैं।

इसलिये आलोचनात्मक रूप से समझना ज़रूरी है कि समाधान केवल 'नीति बनाने' से नहीं, बल्कि सोच और समाज की संरचना में बदलाव लाने से आएगा।


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