सफलता के मायने !
- 03 Feb, 2021 | प्रवीण झा
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मैं अक्सर सोचता हूँ कि टॉपर होने के आखिर क्या मायने हैं? मेडिकल कॉलेज का एक विद्यार्थी था, जिसके पास एक एलबम था। उस एलबम में पहले से बारहवीं कक्षा तक की एक जैसी तस्वीरें लगी हुई थीं। सभी में वह मुस्कुराते हुए प्रथम आने का पुरस्कार ले रहा था। लेकिन, मेडिकल कॉलेज में वह कभी पहले पचास में भी नहीं रहा। और संभव है कि जितने अन्य विद्यार्थी थे, उनके पास भी ऐसे ही मिलते-जुलते एलबम रहे हों; सभी अपने-अपने स्कूल, गाँव या ज़िले के टॉपर रहे हों!
हमने देखा कि कॉलेज में ऐसा विद्यार्थी टॉप करने लग गया, जो इससे पहले एक औसत दर्जे के स्कूल में पढ़ कर धीरे-धीरे इस मंज़िल तक पहुँचा था। उसने कहा कि वह स्कूल में अच्छा था, लेकिन कभी टॉप नहीं कर सका। सिर्फ इस नए मैदान और नए माहौल में वह दूसरों से बेहतर सिद्ध हुआ। कॉलेज से निकलने के बाद उसकी स्थिति फिर से औसत हो गई। वहाँ अलग मिज़ाज के लोग बाज़ी मार गए, जो कभी टॉप करने के फेर में पड़े ही नहीं, जिन्हें दुनियादारी की बेहतर समझ थी या जिनके लिये सफलता के मायने ही कुछ और थे।
नब्बे के दशक के मशहूर गायक कुमार सानू ने पाँच बार लगातार फ़िल्मफेयर पुरस्कार जीता। वह गायकी के शहंशाह माने जाते थे। उनकी आवाज़ हर गली-कूचे, हर पान की दुकान, हर बस-टेम्पू में सुनाई देती। लेकिन, धीरे-धीरे वह गुम हो गए। फिर कभी यह पुरस्कार नहीं जीत सके। ऐसा नहीं कि उनकी आवाज़ कमज़ोर हो गई, या उनके गायकी में दम नहीं रहा। आज भी उनका अपना फ़ैन-क्लब है, लेकिन बाज़ार में उनका अवमूल्यन हो गया। ज़रूरत घटने लगी। यह किसी के साथ भी हो सकता है। दुनिया हर वक्त एक टॉपर ढूँढ रही है, दूसरे स्थान पर आना किसी को पसंद नहीं। लेकिन, हर व्यक्ति टॉप तो नहीं कर सकता। कोई यदि वहाँ पहुँच भी जाए, तो वह हमेशा इस दबाव में रहेगा कि यह उपलब्धि आखिर कब तक कायम रहेगी। उससे कहीं बेहतर स्थिति तो उनकी है जो वहाँ हैं ही नहीं, जो इस दबाव से मुक्त अपने को सँवारने में लगे हैं। जिनका एक ही प्रतिद्वंद्वी है— वह स्वयं। उनका एक ही लक्ष्य है कि खुद को अपनी वर्तमान अवस्था से बेहतर कैसे बनाएँ। उनकी प्रतिस्पर्धा दूसरों से नहीं है।
मेरी बेटी एक दिन स्कूल से आई, तो उसने कहा कि आज अर्धवार्षिक परीक्षा थी। मैं चौंक गया कि मुझे तो इसकी खबर ही न थी। उसने कहा कि उसे भी खबर नहीं थी। अब मैं और भी हैरान हुआ। उस वक्त मैं भारत से नया-नया नॉर्वे आया था और परीक्षा के महत्त्व से परिचित था। यूँ भला कैसी परीक्षा हो गई कि न विद्यार्थी को खबर है, न अभिभावक को! तैयारी का तो वक्त ही नहीं मिल सका! मैंने स्कूल जाकर शिक्षक से बात की कि कहीं कोई संप्रेषण में ग़लती तो नहीं हो गई? उन्होंने कहा, “नहीं! ऐसी कोई बात नहीं। यहाँ तो इसी तरह परीक्षा होती है। हम कोई तारीख नहीं निश्चित करते। तारीख निश्चित करने से छात्र दबाव में आ जाते हैं। कुछ छात्र इस दबाव में बेहतर कर जाते हैं, कुछ इसके उलट अपने स्तर से नीचे का प्रदर्शन दिखाते हैं।” खैर, मैंने बुझी-सी सहमति दिखाई क्योंकि मैं ऐसी शिक्षा-व्यवस्था से सशंकित था।
उसके बाद मैं परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा। परिणाम तो आया और मुझे दिखाया भी गया। लेकिन, यह नहीं बताया गया कि पूरी कक्षा में वह किस स्थान पर है। शिक्षक ने मुझे फिर से समझाया, “हम दूसरे विद्यार्थियों का परिणाम आपको नहीं बता सकते। इससे ईर्ष्या, अभिमान और दबाव बढ़ जाते हैं।” यह बात ग़लत न थी। अगर मेरी पुत्री कक्षा में प्रथम आती तो उसे घमंड आ सकता था, दूसरे स्थान पर आती तो ईर्ष्या, और आखिरी स्थान पर आती तो अवसाद। किंतु ऐसा भी नहीं कि तुलना नहीं हुई। उस परीक्षा और आने वाली परीक्षाओं में तुलना हुई, लेकिन स्वयं से ही।
एक व्यक्ति अपनी कमज़ोरियाँ या अपनी शक्ति जान ले, तो वह उसे नियंत्रित कर सकता है। किंतु दूसरों की शक्ति पर उसका सीधा नियंत्रण नहीं रहता। हम अपने विद्यार्थी जीवन में अक्सर यह ताक-झाँक करते रहे कि दूसरा क्या पढ़ रहा है। अगर वह फलाँ किताब पढ़ रहा है, तो हम भी पढ़ने लग गए। इससे कहीं बेहतर होता कि हम इस पर ध्यान देते कि हम क्या पढ़ रहे हैं और क्या नहीं पढ़ रहे। इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरों का सहयोग नहीं लेना चाहिये बल्कि अवश्य लेना चाहिये। दूसरों से किताबों की जानकारी भी लेनी चाहिये। किंतु इसका ध्येय यह न हो कि हमें उसे इस प्रतिस्पर्धा में हराना है। कितना अच्छा हो कि साथ चल कर एक साथ शिखर पर पहुँचा जाए। जब दूसरों से उसके अध्ययन की जानकारी ली जाए, तो उससे भी अपना अध्ययन बाँटा जाए। एक शिक्षक भी आखिर यही चाहता है कि आखिरी बेंच पर बैठा विद्यार्थी भी उतने ही अंक लाए, जितना पहले बेंच पर बैठा विद्यार्थी।
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[प्रवीण झा] |