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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

पिता होने का अर्थ

भगवान स्वरूप कटियार की कविता की एक पंक्ति है “पिता के पास लोरियाँ नहीं होतीं”। असल में पिताओं के पास होती हैं थपकियाँ, जिससे बच्चा मीठी नींद में सोता है। ये थपकियाँ ही पिता का रूप हैं। थपकियाँ बच्चा देख नहीं पाता लेकिन माँ की लोरी के साथ इन्हें महसूस करता है। पिता होने का अर्थ है महसूस करना। पिता होने का अर्थ है जो दिखाई न दे फिर भी शामिल रहे। मैंने पिता को हमेशा बैकस्टेज पर काम करने वाले क्रू के रूप में पाया है। वे कभी सामने नहीं आते लेकिन आपके जीवन को सुंदर बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत करते हैं। जो हमें कभी थपकियों से तो कभी बैक स्टेज क्रू बनकर सहारा देते हैं। चंद्रकांत देवताल की पिता पर लिखी एक सुंदर कविता यहाँ दृष्टव्य है-

तुम्हारी निश्चल आँखें

तारों-सी चमकती हैं मेरे अकेलेपन की रात के आकाश में

प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता

ईथर की तरह होता है

ज़रूर दिखाई देती होंगी नसीहतें

नुकीले पत्थरों-सी

दुनिया-भर के पिताओं की लम्बी कतार में

पता नहीं कौन-सा कितना करोड़वाँ नम्बर है मेरा

पर बच्चों के फूलोंवाले बग़ीचे की दुनिया में

तुम अव्वल हो पहली कतार में मेरे लिए

मुझे माफ़ करना मैं अपनी मूर्खता और प्रेम में समझा था

मेरी छाया के तले ही सुरक्षित रंग-बिरंगी दुनिया होगी तुम्हारी

अब जब तुम सचमुच की दुनिया में निकल गई हो

मैं ख़ुश हूँ सोचकर

कि मेरी भाषा के अहाते से परे है तुम्हारी परछाई

माता-पिता को जीवन के सबसे मजबूत रिश्ते के रूप में माना जाता है। धर्म ग्रंथों में ईश्वर से भी ऊपर इन्हें रखा गया है। हमने कटी पतंग देखी है। पतंग कट जाने पर रास्ताविहीन हो जाती है, लेकिन जब तक डोर से बँधी रहती है आसमान पर राज करती है। पिता जीवन में वही डोर हैं। पतंग की वह डोर अनुशासन का प्रतीक है जो कि पिता ही हमें सिखाते हैं। जीवन में अनुशासन किसी को अच्छा नहीं लगता, लेकिन सच्चाई यह भी है कि बिना अनुशासन के जीवन कुछ नहीं।

पिता पर चर्चा हमारे पुराने साहित्य में है। पिता होने का अर्थ, दायित्व सबका ज़िक्र है। शास्त्रों और वेदों में पिता को प्रभु के तुल्य माना गया है। ऋषि यास्काचार्य प्रणीत ग्रन्थ ‘निरुक्त’ के सूत्र 4/21 में कहा गया है-

‘पिता पाता वा पालयिता वा” ।

निरुक्त 6/15 में कहा है-

‘पिता-गोपिता”

अर्थात् पालक, पोषक और रक्षक को पिता कहते हैं।

सिर्फ आधुनिक जीवन में ही पिता बच्चे की रीढ़ बनने का कार्य नहीं करते बल्कि पौराणिक समय से पिताओं ने इस भूमिका को निभाया है। श्री राम के पिता दशरथ, भले ही वचनबद्ध होकर राम को वनवास के लिए कहना पड़ा लेकिन राम के अभाव में उन्होंने अपना जीवन त्याग दिया। श्री कृष्ण देवकी और वासुदेव की आठवीं संतान थे। कंस के आतंक से बचाने के लिए वासुदेव अपनी जान की फिक्र न करते हुए कृष्ण को गोकुल नंद के पास छोड़कर आए। राह में आई सभी कठिनाईयों को उन्होंने हँसते हुए पार किया। नंद जो कि कृष्ण के पालन पिता हैं, उन्होंने भी कृष्ण को भरपूर प्रेम दिया और उनके जीवन को सुंदर बनाया।

महाभारत के वनपर्व में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी माता-पिता के विषय में प्रश्नोत्तर हुए हैं। यक्ष युधिष्ठिर से प्रश्न करते हैं कि-

‘का स्विद् गुरुतरा भूमेः स्विदुच्चतरं च खात्।

किं स्विच्छीघ्रतरं वायोः किं स्विद् बहुतरं तृणात्।।

अर्थात् पृथ्वी से भारी क्या है? आकाश से ऊँचा क्या है? वायु से भी तीव्र चलने वाला क्या है? और तृणों से भी असंख्य (असीम-विस्तृत) एवं अनंत क्या है? इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने यक्ष को बताया कि

‘माता गुरुतरा भूमेः पिता चोच्चतरं च खात्। मनः शीघ्रतरं वाताच्चिन्ता बहुतरी तृणात्।।’

अर्थात् माता पृथ्वी से भारी है। पिता आकाश से भी ऊँचा है। मन वायु से भी अधिक तीव्रगामी है और चिंता तिनकों से भी अधिक विस्तृत एवं अनन्त है। यहाँ आसमान से भी ऊँची संज्ञा पिता को दी गई है।

चाणक्य नीति में लिखा है कि -

जनिता चोपनेता च, यस्तु विद्यां प्रयच्छति।

अन्नदाता भयत्राता, पंचैते पितरः स्मृताः॥

अर्थात् इन पाँच को पिता कहा गया हैः जन्मदाता, उपनयन करने वाला, विद्या देने वाला, अन्नदाता और भयत्राता।

हम पिता को बहुत ही कम मौकों पर भरपूर ख़ुश होते हुए देख पाते हैं। ऐसा लगता है मानो वे अपनी ख़ुशियां अग्रिम जीवन के लिए फिक्स्ड डिपॉज़िट की तरह जमा कर रहे हों। ताकि समय आने पर उन्हें अपने प्रियजनों पर लुटा सकें। ख़ुशियों को धन की तरह व्यय करते और संभाल कर रखने वाले पिता ही होते हैं। ज्ञानरंजन की कहानी ‘पिता’ का यह दृश्य देखिए, आम भारतीय जीवन का पिता ऐसा ही होता है, वे लिखते हैं-

“चौक से आते वक़्त चार आने की जगह तीन आने और तीन आने में तैयार होने पर, दो आने में चलनेवाले रिक्शे के लिए पिता घंटे-घंटे खड़े रहेंगे। धीरे-धीरे सबके लिए सुविधाएं जुटाते रहेंगे, लेकिन ख़ुद उसमें नहीं या कम से कम शामिल होंगे।’’

हम पिताओं को आदर्श में बाँध देते हैं। यदि कोई पिता है तो हम मान लेते हैं कि बच्चे पर सबकुछ न्यौछावर कर देना ही उसके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। यदि वह अपने लिए या अपने अनुसार कुछ कार्य करें तो हम उन्हें ‘बुरे पिता’ की संज्ञा देने में बिल्कुल देर नहीं करते। अपने उस आदर्श रूप को बनाए रखने के लिए और बच्चे का हीरो बनने के लिए कई बार पिता ऐसे कार्य भी कर डालते हैं जो मनुष्यता के विरुद्ध हैं। ‘ब्रेथ’ नाम की एक बेव सीरीज में पिता अपने बच्चे को बचाने के लिए लगभग पाँच लोगों का खून कर देता है। वह यह अंजाने में नहीं जानबूझकर करता है। वह प्लान करके यह कार्य करता है और अपने बच्चे को ख़ुश देखना चाहता है। पिता के मन के मुताबिक यह सही है लेकिन दूसरों की जान के बदले अपने बेटे को नया जीवन देना भी सार्थक नहीं। लेकिन कहीं न कहीं उस पर लगातार पिता बनने का प्रेशर बना हुआ है। हम भूल जाते हैं कि पिता बनना भी एक प्रक्रिया है। कोई भी आदमी पिता धीमे-धीमे ही बनता है। माता यदि जन्मदात्री है तो पालक पिता है। पिता भी जीवन जीना सिखाते हैं।

मनुष्य बनने का भी एक सलीका है, एक तरीका है। पिता ही सिखाते हैं कि पहले व्यक्ति को मनुष्य बनना चाहिए, बाद में पिता या कोई अन्य रिश्ता। मेरे पिताजी ने मुझसे बस एक दफ़ा कहा था कि बेटा ज़िंदगी में ख़्वाहिशें उतनी ही रखना जितनी ईमानदारी से कमाई जा सकें।

अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण करने का खेल मेरे पिता ने मुझे बचपन से ही सिखाना शुरू कर दिया था। उन से मैंने सबसे बड़ी सीख ली है- खुद पर नियंत्रण और प्रयोग करने की। जब से अपने आस-पास को महसूसना शुरू किया, तब से आज तक पिता को अपने जीवन पर प्रयोग करते देख रही हूँ। अब अपने पिता की पूरी जीवन यात्रा को महसूस करती हूँ मैं। सिर्फ माता-पिता ही नहीं देखते बच्चों के विकास को, कभी-कभार बच्चे भी देखते हैं माँ-बाप को बढ़ते हुए। पिता निरंतर इस प्रक्रिया में लगे रहते हैं। इस प्रक्रिया को हमें समझना चाहिए।

यूँ तो हमारे समक्ष हमेशा पिता का श्रेष्ठ रूप ही परोसा जाता है लेकिन पौराणिक समय में कुछ ऐसे भी पिता रहे जिन्होंने अपने बच्चों का हमेशा अनर्थ ही सोचा। पिता चाहे तो अपने बच्चों को गलत रास्ते पर जाने से रोक सकते हैं लेकिन धृतराष्ट्र इतिहास के उन पिताओं में से हैं जिन्होंने पुत्रमोह में सारे वंश और राष्ट्र का सर्वनाश कर दिया। पांडवों के साथ गलत होते देखने पर धृतराष्ट्र चाहते तो अपने पुत्र को समझा सकते थे लेकिन उन्होंने पुत्र को गलती करने की अप्रत्यक्ष छूट दे दी थी। धृतराष्ट्र अगर न्याय की दृष्टि रखते तो महाभारत युद्ध टाला जा सकता था। वहीं दूसरी ओर भागवत पुराण और विष्णु पुराण में हिरण्यकश्यप-प्रह्लाद की कथा का वर्णन मिलता है। हिरण्यकश्यप एक राक्षसी प्रवृत्ति का व्यक्ति था और उसके कुल में दैवीय प्रवृत्ति के बच्चे ने जन्म लिया। प्रह्लाद उसका नाम हुआ। प्रह्लाद विष्णु भगवान का भक्त था। हिरण्यकश्यप को इस बात से घृणा थी। प्रह्लाद ईश्वर में यकीन न करे इसके लिए उसने प्रह्लाद को मरवाने के प्रयास किए। वह अपने पुत्र से निराश था चूंकि वह विष्णु की आराधना करता था। यहाँ तक कि हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन होलिका के साथ उसे जलवाने का भी प्रयत्न किया। इस उदाहरण से हम जान सकते हैं कि वह किस तरह का पिता था। भागवत पुराण और विष्णु पुराण में ही एक और कथा भी काफ़ी चर्चित है। बालक ध्रुव की जीवन में एक ही लालसा थी अपने पिता का प्रेम पाना। जो कि उसे अपने पिता उत्तानपाद से प्राप्त नहीं हुआ। उत्तानपाद की दो रानियाँ थीं सुनीति और सुरुचि। दोनों ही रानियों से उन्हें पुत्र रत्न प्राप्त था। एक बार ध्रुव अपने पिता की गोद में बैठे थे और राजा की प्रिय रानी सुरुचि ने उसे वहाँ से हटा दिया। जब ध्रुव ने अपने पिता के स्नेह का दावा किया तो उसने कहा जाकर अपने ईश्वर से पूछो। उत्तानपाद ने भी रानी सुरुचि की ही मानी। ध्रुव ने जंगल में जाकर तपस्या की और उन्हें ईश्वर ने स्नेह स्वरूप सबसे बड़ा पद प्रदान किया। आज जिस ध्रुवतारे को हम आकाश में देखते हैं, वे वही ध्रुव हैं। यदि उत्तानपाद अच्छा पिता होता तो अपने बच्चों में कभी भेदभाव नहीं करता।

ऐसे उदाहरण केवल हिंदू पौराणिक कथाओं में ही नहीं हैं बल्कि पिताओं के भीतर यह विकृत भावना प्राचीन यूनानियों में भी पायी जाती है। क्रोनोस ने अपने सभी बच्चों को खा लिया, जब तक कि उसके अंतिम जन्म वाले ज़ीउस ने उसे मार डाला। पुराने बाइबिल के नियमों से परिचित व्यक्ति जानते होंगे कि एली, शमूएल और डेविड पिता के रूप में कितने असफल थे। हालाँकि इतिहास में ऐसे पिता कम ही हैं जिन्होंने अपने बच्चों का अनर्थ चाहा।

पिता का प्रेम दिखाई नहीं देता लेकिन, उसे महसूस किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि पिता का अर्थ तय करना बेहद ही नामुमकिन सा कार्य है। वे किसी परिभाषा में नहीं बाँधे जा सकते। पिता वह भाव है जिसे व्यक्ति बयां नहीं कर पाता केवल महसूस ही करता है।

मंगलेश डबराल की कविता ‘पिता की तस्वीर’ से शायद उनका अर्थ समझ आए।

पिता की छोटी छोटी बहुत सी तस्वीरें पूरे घर में बिखरी हैं,

उनकी आँखों में कोई पारदर्शी चीज़ साफ़ चमकती है

वह अच्छाई है या साहस

तस्वीर में पिता खाँसते नहीं व्याकुल नहीं होते

उनके हाथ पैर में दर्द नहीं होता

वे झुकते नहीं, समझौते नहीं करते।

  श्रुति गौतम  

असिस्टेंट प्रोफ़ेसर
दिल्ली विश्वविद्यालय


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