हिंदी साहित्य में जादुई यथार्थवाद और विनोद कुमार शुक्ल की लेखनी
- 25 Mar, 2025

यथार्थ का आशय ‘सच’ से है। सच, जो वास्तव में बिना किसी बनावट, कल्पना या लागलपेट के उपस्थित होता है। सूरज का उगना या डूबना यथार्थ है, क्योंकि यह सच है और हम इसकी पुष्टि कर सकते हैं। किंतु यदि कोई कहे ‘मैं उड़ सकता हूँ’ तो यह यथार्थ नहीं, कल्पना है। इस तरह से यथार्थ सच की प्रस्तुति है। ‘यथार्थ’ शब्द संस्कृत भाषा का है और यह दो शब्दों से मिलकर बना है: यथा एवं अर्थ । यथा का मतलब है ‘जैसा’ या ‘जिस तरह’ और अर्थ का मतलब है ‘अर्थ’, ‘सचाई’ या ‘वास्तविकता’। तब यथार्थ का आशय हुआ ‘सच जैसा अर्थ’। जबकि इसके विपरीत जादू असाधारण या समझ से परे वाली घटना है। जादू में ऐसा लगता है कि कोई शक्ति या घटना, व्याख्या प्रकृति के नियमों से बाहर है हो, जैसे– कोई उड़ना, अदृश्य होना या चीज़ों को गायब करना। जो हमारी कल्पना में है, जादू उसे करके दिखाता है। जादू की इस अवधारणा का प्रयोग साहित्य में रहस्य, आश्चर्य या मनोरंजन और घटनाओं में मोड़ देने के लिये किया जाता है।
साहित्य में यथार्थवाद एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक धारा है, जो समाज की सचाई को बिना लागलपेट या कल्पना के प्रस्तुत करने का प्रयास करती है। यथार्थवाद जीवन को ‘जैसा है, वैसा ही’ दिखाने का समर्थक है। इसमें रोज़मर्रा की सचाई, समाज की अच्छाइयाँ-बुराइयाँ और मनुष्य के अकथ संघर्ष को सच के निकट रखा जाता है। यह धारा, भावनाओं या कल्पना से अधिक तथ्यों और वास्तविकता पर बल देती है। इसमें सामाजिक समस्याएँ, जैसे– गरीबी, शोषण, अन्याय और आम इंसान के जीवन में इनके प्रभाव को लिखा जाता है।
इस यथार्थवादी शैली की एक धारा जादुई यथार्थवाद है। जादुई यथार्थवाद ऐसी साहित्यिक विधा है जिसमें वास्तविकता और जादुई कल्पना या अलौकिक बातों को इस तरह मिलाया जाता है कि दोनों एक साथ सामान्य लगते हैं। इस तरह से यह न तो पूरी तरह कल्पना होती है, न ही सिर्फ सच। जादुई यथार्थवाद लेखन शैली यथार्थवादी विधि से हटकर अपने में प्रतीक, बिंब, कल्पना, स्वप्न, लोक विश्वास, लोक मान्यताएँ, मिथक, किस्सागोई, भूत-प्रेत आदि को समाविष्ट कर एक ऐसे लोक का चित्रण करती है, जो देखने में भले ही जादुई लगे मगर उसका कथ्य यथार्थ ही होता है। ऐसे साहित्य के पात्रों की रोज़मर्रा की दुनिया में जादुई घटनाएँ होती हैं और उन्हें असामान्य नहीं माना जाता। इस शैली की मदद से लेखक समाज, संस्कृति या इतिहास की गहरी सचाई को दिखाने का प्रयास करता है, जैसे– जादुई यथार्थवादी शैली में नायक उड़ने लगता है या मरे हुए लोग भी आम ज़िंदगी का हिस्सा होते हैं। यह शैली 20वीं सदी में लैटिन अमेरिका से शुरू हुई लेकिन अब दुनिया भर में फैल गई है। पाश्चात्य साहित्य में देखें तो गैब्रियल गार्सिया मार्केज़ का प्रसिद्ध उपन्यास ‘वन हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड’ में वर्णित एक गाँव में भूत, भविष्यवाणियाँ और असाधारण घटनाएँ सच की तरह चलती हैं। सलमान रुश्दी के ‘मिडनाइट्स चिल्ड्रन’ में नायक की अलौकिक शक्तियाँ भारत के इतिहास के साथ जुड़ी हैं।
किसी यथार्थवादी रचना में जब किसी किसान की फसल बर्बाद होती है, तो वह कर्ज़ में डूब जाता है जबकि जादुई यथार्थवाद वाली रचना में एक किसान की फसल बर्बाद होती है, लेकिन उसकी आत्मा फसल से बात करती है और उसे नई ज़िंदगी देती है। इस तरह से दोनों तरीके समाज को दिखाते हैं, लेकिन जादुई यथार्थवाद कल्पना से उसे नया रंग देता है, जबकि यथार्थवाद उसे स आईने की तरह पेश करता है। यहाँ पर हमें जादुई यथार्थवाद और रहस्यवाद में अंतर समझना होगा। प्रश्न है कि क्या यह कहा जा सकता है कि कबीर की उलटवाँसियाँ या फिर जायसी कृत ‘पद्मावत’ में जादुई यथार्थवाद के दर्शन होते हैं। इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि इन कवियों के रहस्यवाद में प्रतीकात्मकता और अलौकिक तत्त्व हैं। जादुई यथार्थवाद शैली की मदद से समाज की गहराई से दिखाना है, लेकिन सूफी कवियों या कबीर के काव्य में चीज़ो को प्रतीकों के माध्यम से समझाया गया है। रहस्यवाद एक आध्यात्मिक या दार्शनिक दृष्टिकोण है, जिसमें आत्मा का ईश्वर, प्रकृति या किसी अलौकिक सत्ता से मिलन होता है। यह गहरे अनुभव और प्रतीकों से भरा होता है। जबकि जादुई यथार्थवाद में सच को जादू से गहरा और काव्यात्मक बनाना होता है। इसमें सामाजिक सच को देखने का दृष्टिकोण है जबकि रहस्यवाद व्यक्तिगत और आध्यात्मिक अनुभव को समेटे है।
हिंदी साहित्य में यथार्थवाद 1920-30 के दशक में आना शुरू हुआ। यह पश्चिमी यथार्थवाद से प्रभावित तो था, लेकिन भारतीय समाज के हिसाब से ढला। भारतीय समाज में आधुनिक विचारों के आगमन, अंग्रेज़ी शिक्षा और पश्चिम की सामाजिक मूल्य प्रणाली के प्रवेश, स्वतंत्रता संग्राम, सामाजिक सुधार और औद्योगिक बदलाव ने यथार्थवाद को बढ़ावा दिया। इसी कारण लेखकों ने औपनिवेशिक शोषण, सामाजिक टकराव और सामंती व्यवस्था जैसी चीज़ों पर लिखा। हिंदी साहित्य में यथार्थवाद के समर्थक लेखकों ने सामाजिक सचाई, जैसे– गरीबी, जातिवाद, शोषण और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दों को उठाया है। उन्होंने साहित्य में पौराणिक चरित्रों और राजाओं के किस्सों को लिखने के बजाय आम इंसान के चित्रण पर ज़ोर दिया। इनके साहित्य में नायक शक्तिशाली एवं धनी लोग नहीं, अपितु किसान, मज़दूर या गृहस्थ होते हैं। इसलिये उनमें सादगी और सचाई दिखती है।
हिंदी साहित्य में जादुई यथार्थवाद शैली 20वीं सदी के मध्य और उत्तरार्ध (1950-60 के बाद) में तब दिखने लगी, जब वैश्विक साहित्य का प्रभाव बढ़ा और लैटिन अमेरिकी जादुई यथार्थवाद से भारतीय लेखकों का परिचय बढ़ा। इसके अलावा भारतीय लोक एवं दंतकथाओं में वर्णित जादुई कहानियों का संसार पहले से ही मौजूद था। हिंदी साहित्य में इसके प्रमुख उदाहरण उदय प्रकाश, कैलाश वाजपेयी, अलका सरावगी, राजेश जोशी, मनोहर श्याम जोशी और विनोद कुमार शुक्ल आदि हैं। मनोहर श्याम जोशी किस्से-कहानी, लोक-कथाओं, लोक-विश्वासों के माध्यम से हमें किसी दूसरे ही लोक में ले जाते है। उदय प्रकाश समाज में बढ़ती विसंगतियों के साथ कल्पना, फैंटेसी, भूत-प्रेत का साथ लेकर समाज की बुराइयों को और अधिक गहरा कर देते है। अलका सरावगी अपनी बातों में लोक के विश्वासों और लोक-मान्यताओं को आधार बनाते हुए किस्सा कहती हैं। राजेश जोशी की कहानियों में कल्पना के साथ बाल-सुलभ कल्पना तथा प्रतीक है, जिसके द्वारा वह गहरी बातें कह जाते है। विनोद कुमार शुक्ल द्वारा कल्पना को स्थान तो दिया गया है, लेकिन उनका कथ्य जादुई यथार्थवाद शिल्प के माध्यम से प्रकट हुआ है।
इन्हीं विनोद कुमार शुक्ल को हाल ही में ‘ज्ञानपीठ सम्मान’ देने की घोषणा की गई है। ज्ञातव्य है कि ज्ञानपीठ पुरस्कार, हाल की कुछ आलोचनाओं के बावजूद, भारतीय साहित्य के लिये सर्वोच्च श्रेणी का सम्मान माना जाता है। यह सम्मान विनोद कुमार शुक्ल की बतौर लेखकीय उपलब्धि को नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य की सहज, संवेदनशील और नवाचारी धारा को मिला है। शुक्ल हिंदी के उन विरले लेखकों में से हैं, जिन्होंने शब्दों को साधने के लिये शोर नहीं मचाया, बल्कि चुपचाप एक ऐसी दुनिया रची, जो अपनी मौलिकता, गहराई और मासूमियत में अनोखी है। उनकी रचनाओं में संवेदनशीलता का अनूठा जादू है, जो पाठकों को रोज़मर्रा की दुनिया को नए ढंग से देखने के लिए प्रेरित करता है। शुक्ल की सबसे बड़ी विशेषता उनकी भाषा की सादगी और गहरी अर्थवत्ता है। चाहे उनकी कविताएँ हों या उपन्यास—हर रचना में एक अनकही तरलता है, जो भीतर तक उतर जाती है। उनके पात्र आम आदमी की सहजता, सपने और संघर्ष के प्रतीक हैं। उनकी लेखनी में कल्पनाशीलता और यथार्थवाद का अनूठा संगम मिलता है। उनके यहाँ मामूली लगने वाली चीज़ें भी खास हो जाती हैं। उनकी कविताओं में एक अबूझ जादू होता है, जो ठहरकर सोचने को मजबूर करता है। उनके लेखन में गाँव, कस्बे, प्रकृति, चिड़ियाँ, बच्चे, घर-आँगन और खिड़कियों का खास महत्त्व है। ये प्रतीक बनकर हमारे भीतर तक ध्वनित होते हैं। उनकी लेखनी सरलता में गहराई ढूँढ़ती है। वह अपनी बात को भारी-भरकम विचारों से नहीं, बल्कि छोटे-छोटे जीवनानुभवों की बारीक अभिव्यक्ति से कहते हैं। उनका साहित्य केवल बौद्धिकता नहीं, बल्कि संवेदनशीलता को गहरे तक समेटे है।
वे अपने उपन्यासों ‘नौकर की कमीज़’, ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, ‘खिलेगा तो देखेंगे’ और कविताओं ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’, ‘लगभग जय हिंद’ में रोज़मर्रा की ज़िंदगी को असाधारण ढंग से प्रस्तुत करते हैं, जिसमें जादुई यथार्थवाद के तत्त्व दिखते हैं। शुक्ल के लेखन में वास्तविकता और जादुई या असाधारण तत्त्व इस तरह मिलते हैं कि वे सामान्य लगते हैं। यह जादू न तो पूरी तरह कल्पना है, न ही रहस्यवाद, बल्कि रोज़मर्रा के सच गहरा अनुभव है। उनकी सादगी में जादू है इसलिये ही आम चीज़ें, जैसे– कमीज़, खिड़की एक असाधारण अर्थ ले लेती हैं। उनका कथ्य सच और सपनों का मिश्रण है। उनकी वास्तविकता में कल्पना घुली रहती है और वे बिना उसे असामान्य बताए उजागर करते हैं। पर इस क्रम में मानवीय संवेदनाओं का धरातल नहीं छूटता। उनके साहित्य के जादुई तत्त्व समाज और इंसान की भावनाओं को लेकर आते हैं।
शुक्ल का उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ 1979 में प्रकाशित हुआ। इसमें एक छोटे शहर का क्लर्क अपनी ज़िंदगी को सादगी और मजबूरी में जीता है। उसकी कमीज़ कहानी का केंद्र बन जाती है, जो अलग-अलग लोगों के पास जाती है। वैसे तो कमीज़ एक साधारण वस्तु है, लेकिन यह कई किरदारों की ज़िंदगी को जोड़ती है और असाधारण अर्थ ले लेती है। यह सच की दुनिया में जादुई लगता है। नायक की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में छोटी-छोटी घटनाएँ, जैसे– कमीज़ का गायब होना सपनों की तरह चलती हैं। एक घटना में नायक की कमीज़ उसका बॉस पहन लेता है और यह सामान्य बात असामान्य ढंग से उसकी पहचान और संघर्ष को दिखाती है। यह प्रभाव के स्तर पर जादुई यथार्थवाद है, क्योंकि सच में एक जादुई सादगी है, जो समाज की सचाई को उजागर करती है। उनका एक अन्य चर्चित उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’, 1996 में प्रकाशित हुआ। इसमें एक गरीब अध्यापक राघव और उसकी पत्नी की साधारण ज़िंदगी, जिसमें एक खिड़की उनके सपनों और सच का प्रतीक बनती है। उनके यहाँ खिड़की सचमुच एक दीवार में है, लेकिन यह जादुई ढंग से उनके जीवन में उम्मीद और कल्पना लाती है। यह सच और सपनों का मिश्रण है। राघव की दुनिया में छोटी चीज़ें, जैसे– खिड़की से दिखने वाला दृश्य, असाधारण लगती हैं, बिना उन्हें अलौकिक बताए। खिड़की से बाहर का संसार बदलता रहता है, जैसे- वह जीवित हो ; यह जादुई लगता है, पर सच के करीब है। यह जादुई यथार्थवाद की तरह रोज़मर्रा को गहरा बनाता है। शुक्ल् की कविता ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ में साधारण चीज़ें पेड़, पानी, हवा असाधारण भाव पैदा करती हैं, जैसे– ‘पेड़ पर कमरा’ में एक पेड़ सचमुच घर बन जाता है। यह जादू सच की दुनिया में सामान्य की तरह चलता है, बिना उसे समझाने की कोशिश के। इस तरह से वे अपने साहित्य कर्म में सादगी का जादू बिखेरते हैं। वे छोटी चीज़ों कमीज़, खिड़की को असाधारण बनाते हैं, बिना उन्हें अलौकिक कहे। उनकी यह शैली पश्चिमी जादुई यथार्थवाद, जैसे– भूत या नायक के उड़ने से अलग है, क्योंकि यह भारतीय सादगी से प्रेरित है और उन पर भारतीय लोककथाओं का प्रभाव है, जो इसे हिंदी का खास जादुई यथार्थवाद बनाता है। उनकी कहानियाँ सच की ज़मीन पर चलती हैं लेकिन सपनों की छुअन है, जैसे– ‘नौकर की कमीज़’ में नायक की ज़िंदगी सच है, पर कमीज़ की यात्रा जादुई है। उनके लेखन में जादुई तत्त्व समाज या इंसान की भावनाओं को गहरा करते हैं, न कि सिर्फ़ कहानी को रोचक बनाने के लिये। उनका हालिया हिंदी उपन्यास ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ जादुई यथार्थवाद लेखन शैली का उल्लेखनीय उदाहरण है। इस उपन्यास को कल्पना और यहाँ तक कि जादुई यथार्थवाद का एक शानदार उदाहरण माना जा सकता है। इसमें शुक्ल की भाषा सरल है, फिर भी पर्यावरण के बारे में सुंदर ज्वलंत रूपक बनाती है। इसमें कविताएँ और गीत शामिल हैं जो कहानी को फिर से एक बीते युग की भावना से भर देते हैं। ऐसा लगता है जैसे पूरा उपन्यास एक बड़ी लोककथा हो। शुक्ल ने इस उपन्यास में जिज्ञासाओं से भरी एक विचित्र दुनिया बनाई है। यह वयस्कों और बच्चों दोनों के लिये एक खुशी की बात है कि वयस्क अपने बचपन में वापस चले जाएँगे और शायद उसी जिज्ञासा को फिर से जगा पाएँ। इस कहानी के माध्यम से बच्चे अपने कंप्यूटर स्क्रीन से दूर प्रकृति की जीवंत, साँस लेने वाली और मंत्रमुग्ध करने वाली दुनिया में चले जाएँगे।
शुक्ल के लेखक कर्म की आलोचना भी की गई है। यह कहा गया है कि हिंदी उपन्यास में दो दृष्टियों का टकराव आमने-सामने रहा है, एक दृष्टि भारतीय समाज के संश्लिष्ट यथार्थ से मुठभेड़ करती हुई बदलते सामाजिक परिदृश्य की साक्षी रही है तो दूसरी विश्व नागरिकता की ललक में भाषायी खिलंदड़ेपन से ऐसी कलात्मक चकाचौंध को जन्म देती है जो यथार्थ का दृश्य ओझल कर देती है। भाषायी खिलंदड़ापन अपनी अंतिम परिणतियों में त्रासद यथार्थ के साथ क्या सुलूक करता है विनोद कुमार शुक्ल की उपन्यास त्रयी 'नौकर की कमीज', ' खिलेगा तो देखेंगे' एवं 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' इसके ज्वलंत उदाहरण है। निम्न- मध्यवर्गीय जीवन की विडंबनाओं और विसंगतियों को अपनी कथावस्तु बनाने के बावजूद ये उपन्यास अपनी अंतिम परिणतियों में महज एक कलारूप बनकर रह जाते हैं। काल व परिवेश की कैद से मुक्त इन उपन्यासों का अपना एक स्वायत्त संसार है। इनके सभी पात्र सीमित क्रिया-प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लगभग एक ही भाषा बोलते हुए सम मानसिकता से ग्रस्त हैं। 'नौकर की कमीज' के मुख्य पात्र के निम्न-मध्यवर्गीय जीवन के प्रसंग विदुषकीय प्रस्तुत होते हैं, न कि त्रासद यथार्थ के रूप में। दरअसल शुक्ल औपन्यासिक संरचना में एक ऐसा लिखने का खेल खेलते हैं, जो शाब्दिक तो है, लेकिन भाषिक नहीं है। उनकी भाषा में बिंब और दृश्य शब्द-दर-शब्द पटे पड़े हैं। भाषा इन बिंबों व दृश्यों को चाक्षुष बनाने का एक माध्यम भर है। यह शाब्दिक खेल और भाषायी कौशल उनके बाद के दोनों उपन्यासों 'खिलेगा तो देखेंगे' और 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' में चरम पर है। यही नहीं, उनके उपन्यासों में राजनीति पूरी तरह निर्वासित है। राजनीति का यह निर्वासन और मूर्त स्थितियों का अमूर्तन ही उनके उपन्यासों की वह कलात्मक उपलब्धि है।
इन सीमाओं के बावजूद कहा जा सकता है कि विनोद कुमार शुक्ल का लेखन भारतीय लेखन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। उनके जादुई यथार्थवादी लेखन को न केवल भारतीय अपितु विश्व स्तर पर भी सराहना मिली है। शुक्ल के साहित्य में जादुई यथार्थवाद सादगी और सच की ज़मीन पर खिलता है। उनकी रचनाएँ रोज़मर्रा की चीज़ों को जादुई बनाती हैं, जो इंसान की भावनाओं और समाज को नया अर्थ देती हैं। यह पश्चिमी जादुई यथार्थवाद से अलग है, क्योंकि यह भारतीय जीवन की सादगी और लोक- परंपरा से जुड़ा है।