बॉलीवुड में LGBTQIA+ का प्रतिनिधित्व
- 30 Jun, 2022 | शालिनी बाजपेयी
LGBTQIA+ क्या है?
समलैंगिकों सहित विभिन्न कामुकता वाले लोग खुद को LGBTQIA+ समुदाय के रूप में संदर्भित करते हैं। इंटरनेट पर इससे संबंधित कईं प्रकार की परिभाषाएं देखने को मिलती हैं, जो इसके संपूर्ण सार को समझाने की कोशिश करती हैं। हालांकि, साधारण शब्दों में कहा जाये तो LGBTQIA+ एक विशेषण है जो "सामूहिक रूप से समलैंगिक (lesbian, gay), उभयलिंगी ( (bisexual), ट्रांसजेंडर (Transgender), क्वीर (अपनी यौन उन्मुखता या लिंग पहचान से अनजान व्यक्ति), इंटरसेक्स (intersex) और अलैंगिक (Asexual) समुदाय के लोगों से संबंधित है।''
LGBTQIA+, यह संक्षिप्त नाम अपने भीतर कामुकता के कई रंगों को इंगित करती है। इस समुदाय में आने वाले सभी लोगों को विभिन्न प्रकार की पहचानों में वर्गीकृत करना कठिन है इसलिए लिंग फ्लूइड (किसी व्यक्ति की लिंग अभिव्यक्ति या लिंग पहचान, या दोनों में समय के साथ परिवर्तन) होना सामान्य बात है। लेकिन इसे समाज द्वारा स्वीकार न किये जाने के कारण LGBTQIA+ समुदाय के लोग अपनी पहचान बताने से कतराते हैं।
इन मानसिक प्रतिबंधों और समाज द्वारा अलग राय बनाये जाने के कारण ऐसे लोग अपनी कामुकता के साथ खुलकर नहीं जी पाते हैं। इतना ही नहीं, भारतीय सिनेमा ने भी इस समुदाय को कलंकित करने और रूढ़ियाँ फैलाने में प्रमुख भूमिका निभाई है।
मजेदार तथ्य
“भारतीय दंड संहिता की धारा 377 का एक अजीब इतिहास है, जो इसकी मौलिक अस्थिरता को प्रकट करता है। अंग्रेजी शासन के दौरान साल 1860 में इसके तहत समलैंगिकता को अपराध घोषित किया गया था। यह कानून इस प्रकार के यौन कृत्यों को "प्रकृति के आदेश के खिलाफ" अपराध मानता था, लेकिन अक्सर उन अधिकारियों द्वारा भ्रष्टाचार को बढ़ावा देता था जो भारत में यौन अल्पसंख्यकों और यौन कर्मियों को परेशान किया करते थे: उन्हें ब्लैकमेल करने के साथ-साथ उनसे जबरन वसूली किया करते थे। इस कानून को लेकर फैले भ्रम के अलावा, "प्राकृतिक" गठन पर इसकी संदिग्ध निर्भरता और समानता के घोर उपहास ... के बारे में अभी तक कुछ नहीं लिखा गया है।
समाज द्वारा लगाये गये इस कलंक में बॉलीवुड की भूमिका
सिनेमा के जरिये आमजन के बीच प्रचलित लैंगिक रूढ़ियों में बदलाव लाया जा सकता है क्योंकि हम वही देखते हैं जिसे हम आमतौर पर सही और सामान्य मानते हैं। हर साल लाखों भारतीय कुशलता से निर्मित फिल्में देखने के लिये सिनेमाघरों में जाते हैं। ये फिल्में उन व्यक्तियों पर गहरा असर छोड़ती हैं और लोगों को महसूस कराये बिना उनका नजरिया बदलने की ताकत रखती हैं।
बॉलीवुड अपने सिनेमाघरों में अजीबो-गरीब दिखावा कर बदलते समय के साथ खुद को ढालने की कोशिश करने वाला प्रदर्शित करता आया है। दुनिया में सबसे बड़ा फिल्म उद्योग होने के बावजूद, बॉलीवुड इस समुदाय के वास्तविक सार को पकड़ने में लगातार विफल रहा है। उसने अपनी फिल्मों में इस समुदाय का उचित चरित्र-चित्रण करने के बजाय इन्हें हास्य-पात्र के रूप में दर्शाया है।
इसके अलावा, इस विषय को लेकर बातचीत वर्जित होने के कारण, बॉलीवुड अभिनेता भी अक्सर अपनी कामुकता या इस समुदाय से संबंधित सवालों से कतराते रहे हैं। लेकिन समय के साथ-साथ क्वीर समुदाय के विषय को लेकर झिझक और अलगाव धीरे-धीरे कम हो रहा है। वहीं, क्वीर थीम पर आधारित फिल्में भी बहुत कम बनाई गई हैं। वर्तमान में आयुष्मान खुराना जैसे अभिनेता आगे आ रहे हैं और इन विषयों पर आधारित फिल्मों में अभिनय के जरिये समाज में बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन फिल्मों में जो दिखाया जा रहा है वह वास्तव में सच्चाई का एक छोटा सा हिस्सा है। अगर हम हिंदी सिनेमा में गलत तरीके से दिखाई जा रहीं LGBTQIA+ समुदाय से जुड़ी कहानियों की बात करें तो यह सूची बहुत लंबी और परेशान करने वाली होगी।
बॉलीवुड फिल्मों में LGBTQIA+ समुदाय के बारे में दिखाये जाने वाले आम मिथक
ऐसे कई उदाहरण हैं जहां बॉलीवुड के द्वारा किया गया इस समुदाय का चरित्र-चित्रण त्रुटिपूर्ण रहा है। जिसके चलते कुछ मिथक बहुत प्रचलित हो गये हैं। पुष्पिंदर कौर द्वारा लिखे गए एक शोध पत्र में उन मिथकों को शामिल किया गया है। जो कि इस प्रकार हैं-
- पीडोफाइल्स या यौन शिकारी ( क्वीर लोग बच्चों के प्रति आकर्षित होते हैं)।
- परिस्थितिजन्य समलैंगिकता (एक बंद जगह में महिलाओं की कमी होने कि स्थिति के कारण ही पुरुष एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं)।
- स्त्री या पुरुष के लक्षण (समलैंगिक पुरुष हमेशा स्त्री की तरह और समलैंगिक महिलाएँ टॉमबॉय यानी पुरुष की तरह व्यवहार करती हैं)।
- हिजड़े अप्राकृतिक हैं (यह एक 'जन्म दोष' है और उन्हें समाज द्वारा त्याग दिया जाना चाहिये)।
- गैर-बलात्कार-योग्य (क्वीर लोगों का बलात्कार या यौन उत्पीड़न नहीं किया जा सकता है)।
- सामाजिक-आर्थिक वर्ग के मुद्दे (क्वीर व्यवहार केवल एक उच्च या निम्न वर्ग की घटना है)।
- मानसिक विकार (लोग अक्सर समलैंगिक होने को मानसिक विकार के समान देखते हैं)।
गलती कहाँ हुई?
हम सभी ने अभिषेक बच्चन के बारे में सुना है जो धारा 377 को खत्म करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करने वाली शुरुआती हस्तियों में से एक थे। दुर्भाग्य से, उनकी पिछली फिल्मों, जैसे 'दोस्ताना' और 'हाउसफुल', में समलैंगिक समुदाय को बेहद आक्रामक तरीके से दिखाया गया है।
इसके अलावा, अभी तक की एक और प्रसिद्ध फिल्म 'हमशकल्स' है, जिसमें बेवजह ही अभिनेताओं को ‘क्रॉस-ड्रेसिंग’ करते हुये दिखाया गया था।
'कल हो ना हो' फिल्म की प्रसिद्ध कांता बेन द्वारा होमोफोबिक (समलैंगिकों के प्रति डर) प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करना, होमोफोबिया और सामुदायिक संकट को दर्शाता है।
बेशक इनमें से प्रत्येक फिल्म, कई अन्य फिल्मों की तरह होमोफोबिया और हमारे आस-पास के गलत कामों को प्रदर्शित करती है, लेकिन समस्या यह है कि इन दृश्यों को हास्य रूप में चित्रित किया गया है। अगर चुटकुले हमारे आस-पास के लोगों की भावनाओं को आहत करते हैं, तो वे मजा़किया नहीं माने जा सकते।
क्लीशे दृश्य जहां किसी बड़े व्यक्ति द्वारा दो अभिनेताओं को लज्जाजनक स्थिति में पाया जाता है; समलैंगिक अभिनेता का साथी की खोज में किसी भी अनजान व्यक्ति के साथ फ्लर्ट करता हुआ दिखाया जाना; चुनरी और कर्कश आवाज में अभिनेता का एक अजीबोगरीब तकिया कलाम का कवर-अप, ये कुछ ऐसे तरीके हैं जो इस समुदाय को अक्सर भारतीय फिल्मों में जनता के सामने पेश करने के लिये प्रयोग किये जाते हैं।
भारत में इस तरह के चित्रण दर्शकों को हंसाते हैं, यही कारण है कि लोग 'वह समलैंगिक है' की बजाय 'वह एक समलैंगिक व्यक्ति है' कहते हैं। काफी समय से एक 'सामान्य' मानव और LGBTQIA+ समुदाय के किसी व्यक्ति के बीच के भेदों को सांस्कृतिक अंतर का रूप दे दिया गया है। ऐसा लगता है कि यह संस्कृति पीढ़ियों से चली आ रही है। आज भी कुछ लोग जब अपने आस-पास "लिंग-संदिग्ध" लोगों को देखते हैं तो कहते हैं 'ये तो वो है'।
लेकिन कुछ फिल्में ऐसी भी हैं, जिन्होंने इस समुदाय को सिनेमाई न्याय देने और अपने सिनेमा के माध्यम से उनका उचित चरित्र-चित्रण करने की पूरी कोशिश की है। जिनमें से कुछ फिल्मों के नाम नीचे दिये गये हैं-
फायर
साल 1996 में आई फिल्म ‘फायर’ की निर्देशक दीपा मेहता पहली भारतीय निर्देशकों में से एक हैं, जिन्होंने दो महिला प्रमुखों के इर्द-गिर्द घूमती इस फिल्म को निर्देशित किया था। इसमें दो महिलाओं को अपने जीवनसाथी से एक ही समस्या होती है। फिर आगे चलकर उन्हें एक-दूसरे से प्यार हो जाता है। ये घटना पर्दे पर महिलाओं के समलैंगिक रिश्ते को प्रदर्शित करती है। इस प्रतिबंधित ब्रेकिंग फिल्म ने पितृ सत्तात्मक विचारों पर भी ज़मकर प्रहार किया था। आज भी ऐसा माना जाता है कि इस फिल्म ने अपने समय के आगे की समस्याओं को दिखाया था।
हालांकि, कई आलोचकों ने इस बात पर सहमति जताई कि अगर वे दोनों एक-दूसरे के साथ आनंद पाने से पहले अपनी कामुकता का पता लगातीं तो फिल्म और बेहतर होती। ऐसा लग रहा था जैसे उनकी असफल शादियों ने उन्हें एक-दूसरे की ओर आकर्षित किया हो।
माई ब्रदर निखिल
साल 2005 में रिलीज़ हुई फिल्म 'माई ब्रदर निखिल' ने दर्शकों के दिल पर गहरी छाप छोड़ी थी। इसमें निखिल नाम के एक प्रसिद्ध तैराक को एचआईवी/एड्स की बीमारी हो जाती है। इस बीमारी की घोषणा के बाद वह लोगों के बीच उपहास का पात्र बन जाता है और उसकी कीर्ति कम हो जाती है। हर किसी को यह फिल्म कम से कम एक बार ज़रूर देखना चाहिये।
मेमोरीज़ इन मार्च
यह फिल्म साल 2010 में रिलीज़ हुई थी। इसमें एक कार दुर्घटना में बेटे की मृत्यु के बाद माँ को पता चलता है कि यह शराब के नशे में गाड़ी चलाने का मामला था। इस बात से आहत होकर वह अपने बेटे की मौत से जुड़ी अन्य बातों को जानने के लिये निकल पड़ती है। इसी दौरान पता चलता है कि उसके बेटे का अपना एक गुप्त जीवन था। अपने बेटे की मौत और उसकी कामुकता का सामना करने के लिये वह निरंतर संघर्ष करती है। ऑन-स्क्रीन पर एक माँ की यह संघर्ष भरी यात्रा दर्शकों के दिलों और जीवन को गहराई छू जाने वाली है।
मार्गरीटा विद ए स्ट्रॉ
साल 2014 में रिलीज़ हुई फिल्म 'मार्गरीटा विद ए स्ट्रॉ' को शोनाली बोस द्वारा निर्देशित किया गया है। यह फिल्म सेरेब्रल पाल्सी से पीड़ित एक किशोरी के जीवन को दर्शाती है। इसमें विदेशी भूमि में लैला के कारनामों के दौरान उसकी कामुकता की खोज की यात्रा को दिखाया गया है। लैला की यह यात्रा लोगों के भीतर सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण पैदा करती है। यह फिल्म आपको याद दिलाने में मदद करती है कि आप अकेले नहीं हैं और आपको वह आश्वासन देती है जिसके आप हकदार हैं।
अलीगढ़
बॉलीवुड की प्रसिद्ध फिल्म ‘अलीगढ़’ साल 2015 में रिलीज़ हुई थी। इसमें एक मराठी प्रोफेसर और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शास्त्रीय आधुनिक भाषा संकाय के प्रमुख रामचंद्र सिरस के जीवन की कहानी को दिखाया गया है। समलैंगिक होने के चलते प्रोफेसर को निलंबित कर दिया जाता है। यह फिल्म टियर-2 शहरों में क्वीर समुदाय पर प्रकाश डालती है और यह भी दिखाती है कि सामाजिक कलंक किसी व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य पर कितना गहरा असर डालता है।
शुभ मंगल ज़्यादा सावधान
साल 2020 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘शुभ मंगल ज्यादा सावधान’ मेें मुख्य किरदार के रूप में आयुष्मान खुराना और जितेंद्र कुमार हैं। इसमें वे भारतीय परिवारों में होमोफोबिया और इसे लेकर फैली रूढियों पर चर्चा करते हैं। इस फिल्म ने हल्के हास्य के साथ होमोफोबिया के आस-पास के सभी कठिन विषयों को छूने का प्रयास किया है। सही मात्रा में चुटकुलों ने फिल्म की वास्तविक थीम और प्रकृति को खोए बिना फिल्म को मनोरंजक बना दिया।
भले ही इन फिल्मों ने LGBTQIA+ समुदाय के कम-ज्ञात पहलुओं पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया हो, फिर भी बॉलीवुड को यह दावा करने से पहले कि इस समुदाय का अब और अनुचित प्रतिनिधित्व नहीं किया जाता है, एक लंबा सफर तय करना होगा। हम केवल यह आशा करते हैं कि समाज में LGBTQIA+ समुदाय के लोगों को भी सम्मान मिले और लोग उनका उपहास करना बंद करे। आशा करते हैं कि भविष्य में इस समुदाय के लोग भी बेझिझक होकर अपनी पहचान बता सकेंगे।
लेखक: जेस दोशी
अनुवादक: शालिनी बाजपेयी