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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

लेटरल एंट्री: तंत्र में सुधार का कदम

केंद्र सरकार ने 17 अगस्त, 2024 को यूपीएससी के माध्यम से भारत सरकार की सेंट्रल स्टाफ स्कीम में 45 उच्च पदों पर लेटरल एंट्री से भर्ती का विज्ञापन निकाला। इनमें 10 पद संयुक्त सचिव के थे जबकि 35 पद निदेशक और उपसचिव के पद थे। लेकिन अगले ही दिन विपक्ष समेत देश में विवाद खड़ा हो गया और तीन दिन के अंदर सरकार को अपना यह विज्ञापन वापस लेना पड़ा। आनन-फानन में कार्मिक मंत्रालय, जो ऐसी भर्तीयों के लिए ज़िम्मेदार होता है, ने यूपीएससी को इस विज्ञापन को वापस लेने और सरकार के आरक्षण या सामाजिक न्याय के दूसरे नियमों का पालन करने की सिफारिश की। इस ब्लॉग में हम लेटरल एंट्री पर ही विभिन्न दृष्टिकोणों से विस्तार से बात करने जा रहे हैं।

लेटरल एंट्री आखिर है क्या?

केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार और बैंकों समेत दूसरे उपक्रमों में ज्यादातर कर्मचारियों व अफसरों की भर्ती एक नियमित व्यवस्था व नियमो के तहत होती है। लगभग सभी पदों पर सीधी भर्ती में लिखित परीक्षा अनिवार्य है। नीचे के कुछ पदों पर साक्षात्कार को पिछले 10 सालों से बंद कर दिया है लेकिन ग्रुप-ए के पदों पर अभी साक्षात्कार की प्रक्रिया है। यद्यपि कि साक्षात्कार के अंक सुप्रीम कोर्ट के कुछ निर्णयों के बाद सीमित रखे गए हैं। लेकिन लेटरल एंट्री, जिसकी जिसका विज्ञापन निकाल गया, इस प्रणाली में जिन उम्मीदवारों ने आवेदन किया है, उन्हें उनके बायोडाटा या दूसरे सर्टिफिकेट के आधार पर सीधे साक्षात्कार के लिए बुलाया जाता है। निश्चित रूप से यह ध्यान रखा जाता है कि बुलाये गये उम्मीदवार जिन पदों के लिए साक्षात्कार दे रहे हैं, वो उसकी अर्हता को पूरा करते हैं या नहीं। मौजूदा सरकार ने लेटरल भर्ती की शुरुआत का निर्णय 2018 में किया था और जिसके तहत शुरुआत में 10 संयुक्त सचिव यूपीएससी द्वारा चुने गए और उसके बाद निदेशक, उप सचिव और संयुक्त सचिव के कुछ और पद भी भरे गए हैं, जिनकी संख्या अभी तक लगभग 60 के करीब है। यह पद विभिन्न मंत्रालयों में विशेष प्रयोजन के लिए तीन से 5 वर्ष के लिए भरे गए हैं। इन पदों पर मौजूदा नौकरशाही से बाहर के उस क्षेत्र विशेष के विशिष्ट लोगों को लाना सरकार ने बेहतर समझा है। ज्यादातर लेटरल एंट्री से आने वाले लोगों की अपना-अपना एक विशिष्ट योगदान उनके अपने-अपने क्षेत्र जैसे कि ऊर्जा, शिक्षा, जनसंख्या नियंत्रण, स्वास्थ्य, डिजिटल इकोनामी, विज्ञान व तकनीक जैसे विशिष्ट क्षेत्रों में रहा है।

लेटरल एंट्री का इतिहास

ऐसा नहीं है कि लेटरल एंट्री की शुरुआत मौजूदा सरकार के समय में ही हुई है। आजादी के तुरंत बाद ब्रिटिश शासन की समाप्ति के बाद 50 के दशक में भी प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी ने भी ऐसे विशिष्ट लोगों को सरकार में शामिल किया था, जिसे लेटरल एंट्री कह सकते हैं। 1954 में जाने-माने अर्थशास्त्री आईजी पटेल, जो आरबीआई के गवर्नर और सरकार में वित्तमंत्री भी बने, से लेकर लगभग सभी प्रधानमंत्रियों के समय में लेटरल एंट्री के माध्यम से सचिव और अतिरिक्त सचिव जैसे पदों पर नियुक्तियां होती रही हैं। इनमें एक तो मुख्य नाम है, प्रधानमंत्री रहे श्री मनमोहन सिंह जी, जिन्हें 1972 में इकोनामिक एडवाइजर के रूप में शामिल किया गया। एक और अर्थशास्त्री राजीव गांधी के टाइम पर स्पेशल सचिव बनाए गए मंटूक सिंह अहलूवालिया, जो बाद में कमर्स सेक्रेट्री भी बने। जाने-माने अर्थशास्त्री विमल जालान से लेकर कई चीफ इकोनामिक एडवाइजर लेटरल एंट्री से ही सरकार में शामिल हुए हैं। 1977 में भी इंडस्ट्री सेक्रेटरी लेटरल एंट्री से ही आए थे। केपीपी नांबियर, दीपक कपूर व मंटोश सोंधी से लेकर आधार कार्ड के जन्मदाता नंदन नीलकानी आदि लेटरल इंट्री के माध्यम से ही नियुक्त हुए थे। और इन सभी का देश के विकास और अपने-अपने क्षेत्र में विशिष्ट योगदान भी रहा है। अंतर केवल इतना है कि मौजूदा सरकार ने इनको विधिवत ढांचे के रूप में यूपीएससी से भर्ती करने का फैसला लिया है और सेंट्रल स्टाफिंग स्कीम के मध्य वर्ग के पद जैसे कि निर्देशक और उपसचिव की भर्ती भी लेटरल एंट्री से करने का निर्णय लिया।

यूपीएससी से करना क्यों जरूरी है?

पूरे देश में उच्च पदों पर सिविल सर्विसेज की भर्ती के लिए संघ लोक सेवा आयोग आजादी के बाद स्थापित किया गया जिसके अंदर अखिल भारतीय स्तर की परीक्षाएं पूरी भारत सरकार के लिए करने की जिम्मेदारी होती है। इनमें सिविल सेवा परीक्षा, भारतीय वन सेवा, इंजीनियरिंग सर्विसेज, डिफेंस सर्विसेज, इंडियन इकोनॉमिक सर्विस आदि प्रमुख सेवाएं शामिल हैं। यह परीक्षाएं हर साल नियमित रूप से होती है जिसमें प्रारंभिक, लिखित और साक्षात्कार शामिल हैं। यूपीएससी के अनुमति के बिना भारत सरकार के ग्रुप-ए के पदों पर किसी को नियुक्त नहीं किया जा सकता। ऐसा कार्मिक मंत्रालय का नियम है। क्योंकि यह सभी पद ग्रुप-ए के हैं और यह सेंट्रल स्टाफिंग स्कीम के अंदर आते हैं इसलिए यूपीएससी जैसी संवैधानिक संस्था के द्वारा ही किया जा सकता है और यह ठीक भी है। यहां यह भी बताना महत्वपूर्ण है कि राज्य की सेवाओं से भी जो आईएएस अथवा आईपीएस में प्रमोट किए जाते हैं, उनके लिए भी यूपीएससी ही अनुमोदन देती है और यह एक अच्छा कदम माना जा सकता है।

लेटरल एंट्री का विरोध क्यों?

मौजूदा विवाद से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विरोध का पहला कारण उभर कर आया कि इसमें सामाजिक न्याय यानी एससी-एसटी व ओबीसी के लिए आरक्षित पदों की घोषणा नहीं की गई है। पिछले 5 वर्षों में भी ऐसी घोषणा नहीं की गई थी लेकिन मौजूदा राजनीतिक विमर्श में राजनीतिक दलों ने इसे एक महत्वपूर्ण मुद्दा माना। यह रिजर्वेशन का नियम भी है कि यदि कोई पद 45 दिन से अधिक समय तक रहने की संभावना है तो उसमें आरक्षण के नियमों का पालन करना अनिवार्य है। लेटरल एंट्री से भरे जाने वाले पदों की अवधि 3 से 5 वर्ष है इसलिए इस नियम का पालन किया जाना जरूरी था और सरकार ने इसीलिए इसे तुरंत वापस कर लिया।

भर्ती में आरक्षण के नियम क्या हैं?

अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी के लिए सभी पदों पर जहां सीधी भर्ती होती है, वहां 15%, 7.5 प्रतिशत और 27 प्रतिशत और ईडब्ल्यूएस के लिए 10% रखा गया है। ओबीसी के 27% की शुरुआत मंडल कमीशन की सिफारिश के बाद 1994 से हुई। सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण निर्णय और दिशा निर्देश के अनुसार (इंदिरा साहनी केस) पहली बार क्रीमी लेयर की शुरुआत हुई। ओबीसी के लिए भी क्रीमी लेयर की शुरुआत भी इंदिरा साहनी केस ही हुई है, जिसे ईडब्ल्यूएस पर भी लागू किया गया है। अगस्त 2024 में ही एक महत्वपूर्ण निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के सात जजों ने आरक्षण के नियमों में को रिव्यू करने के लिए सरकार को कहा है, जिसके पहला तो राज्यों को आरक्षित श्रेणी में उप-वर्गीकरण करने का आदेश है और दूसरा यह कि एससी-एसटी के लिए भी ओबीसी की तरह क्रीमी लेयर लागू किया जाना चाहिए।

सरकार ने इस निर्णय के खिलाफ भी कहा है कि बाबा साहब द्वारा बनाए गए संविधान में क्रिमी लेयर शब्द का कहीं कोई जिक्र नहीं है इसलिए इसे लागू करना संभव नहीं है। इस पर सरकार का अंतिम निर्णय किसी अध्यादेश या रिव्यू के माध्यम से आना अभी बाकी है। मौजूदा पोस्टों में आरक्षण के नियमों को लागू न करने के पीछे भी आरक्षण का एक नियम है। नियम यह है कि जब किसी विभाग में केवल एक पोस्ट भरने का विज्ञापन होता है तो आरक्षण का नियम लागू नहीं होता। लेटरल एंट्री के पद किसी एक विशिष्ट के लिए निर्मित किये जाते हैं। अलग-अलग मंत्रालयों में अलग-अलग विभागों में, उसकी विशेषता और योग्यता को देखते हुए होते हैं। भारत सरकार में बहुत सारे ऐसे और भी पद हैं। विशेषतौर से वैज्ञानिक और शोध के ऐसे संस्थान जहां आपकी पुराने काम, अनुभव, शोध और मेरिट का ज्यादा महत्व है, जैसे विज्ञान तकनीक या और अकादमी क्षेत्र में अपेक्षित परिणाम या सफलता हासिल की जा सके। वैसे पूरी भारत सरकार में ऐसे पदों की संख्या अब लगभग नगण्य कही जाएगी। विश्वविद्यालय के प्रोफेसर या शोध संस्थानों में भी शायद ही कोई पद होगा जिस पर आरक्षण का नियम लागू नहीं होता हो! विरोध का दूसरा मुख्य कारण विपक्ष का यह आरोप है कि सरकार पिछले दरवाजे से अपनी विचारधारा के लोगों को संवैधानिक सभी पदों पर लाना चाहती है और यह देश के संविधान के खिलाफ है। तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि इससे पहले केवल सचिव और अतिरिक्त सचिव के पदों पर ही लेटरल एंट्री होती रही है, मध्यवर्ती पदों पर नहीं। लेकिन सरकार का जवाब यह है कि इससे पहले तो भर्ती बिना किसी विज्ञापन के गुपचुप होती थी। हमारी सरकार ने तो पारदर्शी ढंग से इसके नियम बनाए हैं और इस काम को यूपीएससी जैसी संस्था को सौपा है, जो पदों की योग्यता और विशिष्टता के अनुरूप भर्ती करेगी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि सरकार को और अधिक चुस्त व बेहतर बनाने के लिए लेटरल एंट्री की सिफारिश 2006 में छठें वेतन आयोग ने भी की थी। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री काल में सेकंड एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉर्म कमीशन में बहुत लंबी-चौड़ी प्रशासनिक सुधारो की रिपोर्ट तैयार की थी। इसके अध्यक्ष कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री रहे वीरप्पा मोइली थे। 2011 में उनकी सिफारिश लेटरल एंट्री के द्वारा नौकरशाही में बड़े सुधार की थी। उन्होंने भी संयुक्त सचिव आदि पदों के 10% पद लेटरल एंट्री से भरने की सिफारिश की थी.

आखिर लेटरल एंट्री की जरूरत क्यों है?

इस प्रश्न के उत्तर के लिए आजादी के बाद के पूरे सरकारी तंत्र पर नजर डालनी होगी। भारत सरकार की मौजूदा ब्यूरोकैसी ब्रिटिश सिस्टम की विरासत है। ‘मैकाले कमेटी’ ने 1854 में सिविल सेवा बनाने की सिफारिश की थी और 1858 से इंडियन सिविल सर्विस (ICS) की शुरुआत की गई। आजादी के बाद इसी का नाम बदलकर इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस (IAS) रखा गया और सरदार पटेल के शब्दों में, यह स्टील फ्रेम भारत में स्वच्छ और मजबूत प्रशासन देने के लिए अनिवार्य है। इसमें केंद्र सरकार के और लगभग 20 विभाग रेलवे, रिवेन्यू, पोस्ट डिफेंस भी जोड़े गए। कुछ दिनों के बाद इंडियन फॉरेन सर्विस भी इसका हिस्सा बन गई। इसमें सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन वर्ष 1979 में हुआ, जब ‘डॉक्टर दौलत सिंह कोठारी कमेटी’ की सिफारिश के अनुसार आईएएस, आईपीएस, आईएफएस समेत सभी परीक्षाओं को एक ही परीक्षा के तहत भर्ती करने की शुरुआत हुई। इससे पहले सभी परीक्षाओं के पैटर्न और उनके मार्क्स अलग-अलग होते थे।

‘कोठारी कमेटी’ की रिपोर्ट के अनुसार इस परीक्षा को अब सिविल सेवा परीक्षा के नाम से जाना जाता है जो तीन चरणों में होती है। पहले चरण- प्रारंभिक परीक्षा यानी प्रिलिंप्स (प्री), दूसरा- मुख्य परीक्षा यानी मेंस और तीसरा- साक्षात्कार यानी इंटरव्यू। इसकी सबसे महत्वपूर्ण बात आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय 22 भाषाओं में लिखित परीक्षा देने की सिफारिश है, जो अभी तक कायम है। लेकिन कुछ मामूली सुधार बीच में हुए हैं, जिसमें पहले दो वैकल्पिक प्रश्न पत्र होते थे और 2012 से केवल एक वैकल्पिक प्रश्न पत्र मुख्य परीक्षा में रखा गया है।

लेटरल एंट्री के संदर्भ में ज्यादा महत्वपूर्ण बात सिविल सेवा से आए हुए अधिकारियों की कार्यक्षमता पर उठने वाले प्रश्न का है! वैसे तो इन सेवाओं में लाल फीता शाही सत्ता का दुरुपयोग, पोस्टिंग ट्रांसफर के लिए आपाधापी, सिफारिशें और भ्रष्टाचार की बहुत सारी बातें सामने आती रही हैं लेकिन 1991 में उदारीकरण के बाद इस बात को विशेष रूप से रेखांकित किया गया कि इन सेवाओं से बाहर निजी क्षेत्र में अकादमिक क्षेत्र में जो प्रतिभाएं अपने-अपने क्षेत्र में बहुत सफल हैं और जिन्हें ग्लोबल स्तर पर पहचान गया है, उनका भी योगदान भारत सरकार में होना चाहिए। देखा जाए तो एक अर्थशास्त्री के रूप में मनमोहन सिंह, मंटूक सिंह अहलूवालिया, पेट्रोलियम सेक्रेटरी, केलकर, राकेश मोहन, अर्थ शास्त्री… इन सबको लेटरल एंट्री के माध्यम से ही राष्ट्र निर्माण की प्रगति से जोड़ा गया और पूरे देश का यह मानना है कि आजादी के बाद सिविल सेवाओं की भर्ती और उनके प्रशिक्षण या उनके करियर प्लानिंग में कुछ ना कुछ ऐसी कमी जरूर है, जिससे सामाजिक परिवर्तन या संविधान में दिए हुए उद्देश्यों को प्राप्त करने में कई तरह की कठिनाइयां आती है। उनकी प्रतिभा के साथ-साथ यूपीएससी के द्वारा जो लाखों के बीच से चुने जाते हैं, यदि बाहर की प्रतिभाओं को भी इनके साथ कुछ वर्षों के लिए जोड़ा जाए तो उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफलता मिलने में आसान होगी।

इसके अलावा परस्पर एक दूसरे से सीखने की प्रक्रिया भी तेज होगी। मौजूदा नौकरशाही के आलोचक यह भी कहते हैं कि एक बार यूपीएससी से चुने हुए यह लोग आरामतलब और सुविधाओं की होड़ में तो हो ही जाते हैं साथ ही सिविल सर्वेंट होने के दायित्व को भी भूल जाते हैं। 35 साल की पक्की नौकरी की गारंटी और संविधान के नियम 312 है और 311 के अंतर्गत मिली हुई सुरक्षा से वो धीरे-धीरे आलसी होते हो जाते हैं। उनके सामने चुनौती नहीं रहती। एक तर्क यह भी है कि जिस अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप की नौकरशाही से हमने बहुत सारी चीजें ली हैं वहां भी लेटरल एंट्री से ही विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिभाएं उन देशों के विकास में बड़ा योगदान दे रही है। जबकि हमारी नौकरशाही को तो दुनिया के जाने-माने दिग्गजों के जेके गैलब्रिथ आदि ने बहुत भ्रष्ट और लाल फीताशाही वाली सुस्त व्यवस्था तक कह दिया है, जिसे भारत जैसे देश का विकास में बड़ा रोड़ा समझा जाता है। लेकिन यह पूरा सच तो नहीं है। भारत सरकार में सैकड़ो ऐसे नौकरशाह हुए हैं, जिन्होंने विशिष्ट योगदान दिये हैं।

टीएन शेषन ने चुनाव प्रक्रिया में जो बदलाव किये, उसने हमारे पूरे लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत किया है। मेट्रो मैन कहे जाने वाले श्रीधर का योगदान कोंकण रेलवे से लेकर दिल्ली मेट्रो और देश के 30 शहरों में मेट्रो की शुरुआत है। इनके योगदान को रेखांकित करने के लिए वर्ष 2006 से ही प्रत्येक वर्ष 21 अप्रैल को ‘सिविल सेवा दिवस’ भी मनाया जाता है, जिसमें देश की विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले कलेक्टर, पुलिस अफसर, रेल अधिकारी को उनके योगदान के लिए प्रधानमंत्री पुरस्कृत करते हैं। लेकिन 21वीं सदी में बदलते वक्त की जरूरत के हिसाब से देश के ज्यादातर लोग उससे संतुष्ट नहीं है। बहुत लोग उसकी प्रशिक्षण प्रणाली पर भी उंगली उठाते हैं, जहां उनके दुख दर्द को उनकी भाषा में समझने की बजाय मानों उन्हें जनता से दूर रहने की शिक्षा ज्यादा दी जाती है। वक्त की जरूरत है कि इन सिविल सेवकों को यह भूलना होगा कि वह किस जाति, धर्म या क्षेत्र के हैं। इन सब का उद्देश्य जनता का कल्याण और सरकारी योजनाओं को पूरा करना होना चाहिए। लेकिन कहीं ना कहीं राजनीतिक हस्तक्षेप भी इन रुकावट में उतना ही ज़िम्मेदार कहा जाएगा।

निष्कर्ष

अंततः कोई भी व्यवस्था समाज और उसकी जनता के विकास के लिए ही होती है। और राज्य का कर्तव्य भी यही है। हमारे देश में यह दायित्व नौकरशाही को सौंपा गया है। इसे ‘स्टील फ्रेम’ भी कहते हैं। लेकिन यदि वह अपने दायित्वों को पूरा नहीं कर पाती तो किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को यह अधिकार होना चाहिए कि उसमें कैसे सुधार किया जाए। लेटरल एंट्री, इस अर्थ में एक कदम कहा जाएगा, जिससे मौजूदा सुस्त पड़ी नौकरशाही के सामने कुछ प्रतिभाशाली लोगों से सीखने, उनके साथ काम करने की कुछ चुनौतियां, अवसर और प्रेरणा हों। क्योंकि अपने ही तरह के लोगों की दुनिया में रहते हुए हम शायद परिवर्तन विरोधी हो जाते हैं। हमारी नौकरशाही को यह समझना होगा कि अंततः स्थाई तंत्र तो नौकरशाही का ही है। लेटरल एंट्री तो कुछ वर्षों के लिए है। सरकार को निश्चित रूप से भर्ती की संस्थाओं को मजबूत करना होगा। और वों संस्थाएं पारदर्शिता और ईमानदारी के साथ अपना रोल निभाएं ना कि सरकार के अनुरूप या उसके विचारधाराओं के अनुरूप भर्ती करें। जिन विशिष्ट पदों के लिए उन्हें चुना गया है, उन्हें चुनने में उनकी पूरी ईमानदारी हो। कोई राजनीतिक हस्तक्षेप बिल्कुल ना हो। यदि ऐसा हुआ तो यह देश के हित में होगा। हमारे देश के राजनीतिज्ञों को भी यह समझने की जरूरत है कि सिविल सेवा में योगदान करना ज्यादा महत्वपूर्ण है, बजाय कि उस अधिकारी विशेष की जाती, धर्म इत्यादि की शिनाख्त करना। एक अच्छे प्रशासक और राजा का कोई धर्म नहीं होता। एक सक्षम नौकरशाही, एक सक्षम अधिकारी ही बेहतर ढंग से जनता की समस्याों को हल कर सकता है। लोकतंत्र समूचे लोक के लिए होता है। उसे आप जाति, क्षेत्र अथवा विचारधारा के आधार पर बांटने की कोशिश करेंगे तो यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के खिलाफ होगा। संविधान को याद करें तो उसका लक्ष्य एक समान अवसर देना, गैर-बराबरी को दूर करना और पूरे देश का समावेशी विकास करना है।

  प्रेमपाल शर्मा  

(जाने-माने लेखक और शिक्षाविद प्रेमपाल शर्मा (पूर्व संयुक्त सचिव, भारत सरकार) वर्ष 1981 में सिविल सेवा की परीक्षा में चयनित हुए थे। अभी तक इनकी कुल 25 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले 30 से अधिक वर्षों में देश के लगभग सभी राष्ट्रीय अखबारों में इनके 1000 से अधिक लेख व स्तंभ प्रकाशित हो चुके हैं। ये वर्तमान समय में सिविल सेवा परीक्षार्थियों को पढ़ाने का कार्य करते हैं।)


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