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दृष्टि आईएएस ब्लॉग

जलियाँवाला हत्याकांड और ब्रिटिश नैतिकता : सवाल माफी का

भारत और इंग्लैंड के वर्तमान संबंध भले ही मधुर हों पर दोनों के कटु संबंधों का एक विशाल अतीत भी रहा है। भारत लंबे समय तक ब्रिटिश सत्ता के अधीन रहा और इस दौर की पीड़ा भारतीय चेतना में गहरे धंसी है। जब भी ब्रिटिश दमन के किसी वीभत्स प्रसंग का किसी बहाने स्मरण हो आता है तो यह पीड़ा और गहरी हो जाती है साथी ही हम आज की ब्रिटिश सत्ता से यह नैतिक अपेक्षा रखते हैं कि वो ऐसे अपराध के लिए क्षमा प्रकट करे। ऐसी अपेक्षा इसलिए भी जायज है कि आज जब दोनों देश बराबरी से स्वतंत्रता का अनुभव कर रहे हैं ऐसे में गुलामी के उस दुष्चक्र के प्रति क्षमा प्रकट करना ही चाहिए जहाँ एक देश को सिर्फ इसलिए गुलाम बनाया गया था कि दूसरे देश का अवैध हित सध सके।

जलियाँवाला हत्याकांड भी एक ऐसा ही अवसर है जो ब्रिटिश सरकार से ऐतिहासिक दमन के एवज में औपचारिक क्षमा प्रकट करने की अपेक्षा रखता है। 13 अप्रैल 1919 की वह दुखद घटना जब सैंकड़ों लोगों को अंग्रेज़ी शासन के सनक के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी थी, को अब सौ से अधिक वर्ष हो गए हैं। बीते वर्षों में ऐसा भी हुआ कि ब्रिटिश संसद में ही यह मांग उठी कि इस दुखद घटना के प्रति ब्रिटिश प्रधानमंत्री माफी मांगे। दुर्भाग्य से तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री थेरेसा मे ने इस घटना के प्रति 'गहरा खेद' तो व्यक्त किया किंतु 'औपचारिक क्षमा' प्रकट करने से इंकार कर दिया।

अगर यहाँ संक्षेप में जलियाँवाला बाग की घटना को दुबारा याद करने की कोशिश करें तो सन 1917 ई. में ब्रिटिश सरकार ने सर सिडनी रौलट की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इसी समिति के सुझावों के आलोक में फरवरी 1919 में केंद्रीय विधायिका में दो विधेयक प्रस्तावित किए गए जिसके प्रावधान 'न वकील,न अपील न दलील' वाली संकल्पना पर आधारित थे।इस प्रस्तावित 'रोलेट एक्ट' के विरोध में देश भर से आवाजें उठने लगीं।इस राष्ट्रवादी भावना के दमन के लिए पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइक ओ डायर ने पंजाब में सार्वजनिक सभाओं के आयोजन को प्रतिबंधित कर दिया और डॉक्टर सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू,जो उस समय पंजाब में आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे, को पंजाब से गिरफ्तार कर बाहर भेज दिया। इसी के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया जिसमें आसपास के गांव से भी भारी संख्या में लोग भाग लेने के लिए आए थे।जनरल डायर ने इस आयोजन को ब्रिटिश सरकार की अवहेलना समझा और बिना किसी पूर्व चेतावनी के उस निहत्थी भीड़ पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई।आधिकारिक स्तर पर मृतकों का आंकड़ा तो 379 बताया गया, लेकिन कांग्रेस के अनुसार यह आँकड़ा एक हज़ार से भी ज्यादा था। क्या इस वीभत्स हत्याकांड के लिए सिर्फ खेद प्रकट कर देना पर्याप्त है?

थेरेसा मे का खेद प्रकट करना दरअसल उसी ब्रिटिश रस्म की पूर्ति भर है जिसे कभी 1997 में क्वीन एलिजाबेथ तथा एडिनबर्ग के ड्यूक द्वारा पूरा किया गया था जब उन्होंने जलियाँवाला बाग की यात्रा तो की पर विजिटिंग रजिस्टर पर कोई प्रायश्चित मूलक टिप्पणी नहीं लिखी। इसी प्रकार 2013 में तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने भी इस घटना को 'शर्मनाक' तो कहा पर औपचारिक क्षमा प्रकट करना मुनासिब नहीं समझा। यह ब्रिटिश सत्ता का एक अनुचित आचरण है क्योंकि दुनिया भर में ऐसे उदाहरण देखने को मिल रहे हैं जब किसी राष्ट्र ने किसी दूसरे राष्ट्र के प्रति की गई बर्बरता के लिए माफी मांगी हो। यहाँ कनाडा के प्रधानमंत्री 'जस्टिन ट्रूडो' का उल्लेख करना समीचीन होगा जब 2016 में उन्होंने भारतीयों से 'कामागाटामारू प्रकरण' के लिए पूरे कनाडा की तरफ से माफी मांगी। कामागाटामारू प्रकरण दरअसल 1914 की वह घटना है जब प्रवासी भारतीय आंदोलनकारियों का एक जत्था कनाडा के बैंकुवर तट पर उतरना चाह रहा था पर उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया गया। इसमें अनेक भारतीयों की जान गई थी। एक और बेहद चर्चित उदाहरण की बात करें तो 1970 में जर्मनी के चांसलर विली ब्रांट ने वार्सा में घुटनों के बल बैठकर पौलेंड के यहूदियों के नरसंहार के लिए पौलेंडवासियों से माफी मांगी। दिलचस्प बात है कि उस समय पौलेंड में गिनती के ही यहूदी शेष रह गए थे फिर भी ब्रांट ने ऐसा किया क्योंकि ऐतिहासिक भूल का प्रायश्चित करना एक नैतिक दायित्व है। ऐसे में ब्रिटिश सत्ता द्वारा भारतीयों के प्रति की गई ऐतिहासिक बर्बरता के विरुद्ध क्षमा प्रकट करना एक वैध नैतिक अपेक्षा है।

यहाँ यह तर्क दिया जा सकता है जैसा कि कई ब्रिटिश विद्वान समय समय पर देते भी हैं कि पुरानी पीढ़ी कीभूल के प्रायश्चित की नैतिक अपेक्षा आज की पीढ़ी से क्यों की जाए जबकि उसमें इनकी कोई भूमिका नहीं रही है? यह तर्क दरअसल बचाव का एक असफल मार्ग भर है क्योंकि एकतरफ यह राष्ट्रीय अस्मिता की निरंतरता की अवेहलना करता है तो साथ ही यह उस 'जीवित पीड़ित पीढ़ी' के प्रति भी निष्ठुरता व्यक्त करता है जो उस पीड़ा के साक्षी रहे हैं। अगर आज की ब्रिटिश पीढ़ी अपने पूर्वजों के ऐतिहासिक भूल से खुद को अलग करती है क्या वो खुद को पूर्वजों के गौरवशाली अतीत से भी अलग करेगी?क्या ब्रिटिश राष्ट्र स्वयं को अपनी निरंतरता से काट कर प्रस्तुत कर सकता है? दोनों ही सवालों का जबाव 'ना' ही है।फिर, आज भारत में ऐसे बहुतायत लोग हैं जिन्होंने ब्रिटिश सत्ता के दमन का प्रत्यक्ष अनुभव किया है। जलियाँवाला बाग कांड की बात करें तो ऐसी पीढ़ी आज भी जीवित है जिन्होंने अपने माता पिता से इसके दर्दनाक किस्से सुने हैं। ऐसे दमन के लिए प्रायश्चित का भाव निश्चित ही उन्हें संतोष देगा। यह एक बेहतर वातावरण निर्मित करेगा जहाँ अतीत की कड़वाहट कुछ कम हो जाएगी और वर्तमान की मधुरता बढ़ जाएगी। अफसोस की बात है कि जलियाँवाला बाग इस प्रायश्चित का प्रतीक न बन सका।

सन्नी कुमार

(लेखक इतिहास के अध्येता हैं तथा दृष्टि आईएएस में प्रोग्राम व कंटेंट हेड, मीडिया के रूप में कार्यरत हैं)

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