ईरानी हिजाब क्रांति
- 03 Oct, 2022 | शालिनी बाजपेयी
इस लेख में हम जानेंगे कि आखिर ईरान में महिलाएँ आज़ादी की माँग क्यों कर रही हैं?
धर्म के नाम पर स्त्रियों को पुरुषों से कम आँकने व उनकी आज़ादी छीनने की प्रवृत्ति शुरू से ही रही है। धर्मों ने महिलाओं पर सबसे ज़्यादा बेड़ियाँ लादीं हैं क्योंकि प्रत्येक धर्म कहीं न कहीं पुरुष सत्ता का ही प्रतीक है। इसी के नाम पर स्त्रियों पर ऐसे प्रतिबंध लगाए गए कि उनकी स्थिति घर तक ही सीमित रहे। ऊपर से इज़्ज़त का प्रश्न बनाकर उनके सार्वजनिक रूप से बाहर निकलने व काम करने पर तरह-तरह से बंदिशें लगाई जाती रही हैं। आज 21वीं सदी में भी अधिकांश देशों में स्त्रियों को मात्र एक वस्तु समझा जाता है। उन्हें क्या पहनना है; क्या करना है...ये सब हमारे शासक या घर के पुरुष मुखिया तय करते हैं और कई बार तो उनके नियमों में थोड़ी सी भी ढिलाई इन्हें मौत के मुँह तक पहुँचा देती है। हालिया उदाहरण के तौर पर ईरान में 22 वर्षीय महसा अमीनी की मौत के मामले को लिया जा सकता है।
मॉरल पुलिस (धार्मिक मामलों की पुलिस) महसा को हिजाब ठीक से न पहनने का हवाला देकर हिरासत में ले जाती है; कुछ समय बाद महसा कोमा में चली जाती है और उसकी मौत हो जाती है। चश्मदीदों के मुताबिक, पुलिस वैन में उसे बुरी तरह से पीटा गया था। इस घटना के बाद ईरान की महिलाएँ हिजाब के विरोध में सड़कों पर आ गईं। कुछ महिलाएँ अपने हिजाब उतारकर उनमें आग लगा रही हैं तो कुछ अपने बाल काटकर विरोध दर्ज करवा रही हैं। वे आज़ादी की माँग कर रही हैं। कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली सहित दुनिया के अलग-अलग देशों के लोग ईरानी महिलाओं के समर्थन में उतर आए हैं। ऐसे में हमें यह जानना बेहद ज़रूरी है कि आखिर ईरान में महिलाओं पर क्या-क्या प्रतिबंध लगाए गए हैं; क्या ईरान में शुरू से ही महिलाओं पर कड़े प्रतिबंध लागू रहे हैं? आइये जानते हैं-
पश्चिमी देशों से भी ज़्यादा आधुनिक था 1979 से पहले का ईरान
दरअसल, 1979 से पहले ईरान में मोहम्मद रेजा पहलवी का शासन था, जो कि एक पढ़े-लिखे, धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक विचारों वाले व्यक्ति थे। उन्होंने आज़ादी के पक्ष में कई बड़े कदम उठाए, जिसमें बहुविवाह पर प्रतिबंध और विवाह की न्यूनतम सीमा बढ़ाकर 18 साल कर देने जैसे फैसले शामिल थे। उस समय ईरान में पश्चिमी संस्कृति का भी जबरदस्त असर था। यहाँ का समाज बहुत खुले विचारों वाला था और लोग धार्मिक पाबंदियों से दूर थे। वहाँ की महिलाओं के पास पुरुषों की तरह ही आज़ादी थी; वे अपनी मर्जी से हर तरह के कपड़े पहन सकती थीं; अपनी जिंदगी के फैसले ले सकती थीं। इसके अलावा, औद्योगीकरण और आर्थिक विकास भी प्रगति पर था।
इस्लामिक क्रांति के बाद महिलाओं पर लगाई गईं पाबंदियाँ
बता दें कि, साल 1979 में ईरान के शासक मोहम्मद रेजा को सत्ता से बेदखल कर दिया गया था। हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बीच रेजा को केवल अपनी गद्दी ही नहीं, बल्कि देश भी छोड़ना पड़ा था। इसके बाद 14 साल के निर्वासन के बाद देश में वापस लौटे ईरान के धार्मिक नेता अयातुल्लाह खमैनी के नेतृत्व में इस्लामिक राज्य की स्थापना हुई और शरिया कानून लागू हो गया। उन्होंने सत्ता संभालते ही ईरान के कई कानूनों को बदल दिया, जिसका सीधा प्रभाव वहाँ की महिलाओं पर पड़ा। मार्च 1979 में एक नया कानून पास किया गया कि सार्वजनिक जगहों पर औरतों को सिर ढकना होगा।
इस कानून के पास होने के बाद हज़ारों महिलाओं ने विरोध प्रदर्शन किये, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। बल्कि साल 1981 में मैनडेटरी हिजाब लॉ पास होने के बाद उनकी स्थिति और भी खराब हो गई। इस कानून के अनुच्छेद 638 के तहत, औरतों के लिये सार्वजनिक जगहों पर बिना हिजाब के जाना गुनाह माना गया है। इसके अलावा, पहले लागू किये गए बहुविवाह पर प्रतिबंध और आयु की न्यूनतम सीमा को 18 साल करने वाले कानूनों को भी बदल दिया गया। खमैनी के शासन में महिलाओं पर लगाई गई पाबंदियाँ इस प्रकार हैं-
- सिर को चादर या हेड-स्कार्फ से ढककर रखना ज़रूरी। इतना ही नहीं, गर्दन, कंधें व बालों को भी अच्छी तरह से ढककर रखना अनिवार्य।
- इस्लामिक तौर-तरीके वाले कपड़े पहने जाएँ।
- मेकअप लगाने पर भी मनाही।
- ऊँची हील्स और स्टाकिंग पहनने पर रोक।
- तलाक फ़ाइल करने का हक वापस।
- स्टेडियम में बैठकर खेल देखने पर भी रोक।
आज के दौर में ईरान में महिलाओं पर कई कड़े नियम लागू हैं। पुलिस के मुताबिक, सार्वजनिक जगहों पर हिजाब न पहनने पर 10 साल तक की सज़ा हो सकती है।
सालों से महिलाएँ हिजाब के विरोध में कर रहीं प्रदर्शन
ऐसा नहीं है कि ईरान में यह हंगामा पहली बार हो रहा है। सालों से महिलाएँ हिजाब के विरोध में प्रदर्शन करती आ रही हैं। महिलाओं द्वारा चलाए गए 'नो टू हिजाब', 'माई स्टेल्थी फ्रीडम', और 'व्हाइट वेडनेस्डे' जैसे अभियान इनके संघर्ष की दास्तां बयाँ करते हैं। इसलिये यह कहना गलत न होगा कि महसा अमीनी की मौत ने केवल उस आग की चिंगारी को भड़काने का काम किया है, जो पहले से ही लगी हुई थी। जिसके चलते आज हिजाब और उस पर नज़र रखने वाली मॉरल पुलिस से तंग आकर महिलाएँ सड़कों पर उतरी हैं और 'डेथ टू द डिक्टेटर' और 'वूमेन लाइफ फ्रीडम' के नारे लगाकर अपनी आज़ादी की माँग कर रही हैं।
भारत में भी हिजाब को लेकर विवाद
कुछ समय पहले भारत में भी हिजाब को लेकर विवाद शुरू हुआ था। कर्नाटक के उडुपी ज़िले के एक सरकारी कॉलेज में हिजाब को लेकर शुरू हुआ विवाद धीरे-धीरे अन्य शहरों में भी फैल गया। मसला तब शुरू हुआ जब स्कूल प्रबंधन ने मुस्लिम लड़कियों को हिजाब पहनकर स्कूल आने से रोका और इसे यूनिफॉर्म कोड के खिलाफ बताया। जब यह मामला कर्नाटक उच्च न्यायालय में पहुँचा तो न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि हिजाब इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है; विद्यार्थी स्कूल या कॉलेज की तय यूनिफॉर्म पहनने से मना नहीं कर सकते। जिसके बाद मुस्लिम छात्राओं ने आपत्ति जताई और सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। फिलहाल यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में लंबित है।
सतही तौर पर देखने पर हमें लग सकता है कि ईरान और भारत का हिजाब मामला बिल्कुल अलग-अलग है, लेकिन गहराई से देखेंगे तो हम पाएंगे कि दोनों ही मुद्दों का आधार कहीं न कहीं एक ही है। ईरान में महिलाएँ हिजाब न पहनने की आज़ादी माँग रही हैं तो भारत की महिलाएँ हिजाब पहनने की आज़ादी माँग रही हैं।
निष्कर्ष
ईरान में जिस तरह से निडर होकर महिलाएँ अपने अधिकारों की माँग कर रहीं हैं वह नारी शक्ति को दिखाने के लिये अपने आप में काफी है। हालात ऐसे हो गए हैं कि जिस नारी को निम्नवर्ग में रखा गया, कमज़ोर समझा गया; आज उस नारी की आवाज़ को दबाने का साहस वहाँ का प्रशासन भी नहीं जुटा पा रहा है। निहत्थी नारियों की आवाज़ को दबाने के लिये गोलियों और हथियारों का सहारा लिया जा रहा है। यहाँ पर यह समझना ज़रूरी है कि नारी मुक्ति का संघर्ष लंबा है और इसे खुद नारी को ही लड़ना है। इसलिये विरोध-अवरोध, तिरस्कार-बहिष्कार को नकारते हुए उसे आगे आना होगा। तभी वह अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकती है। समाज व अपनी संस्कृति से जुड़ी वर्तमान परिवेश की चुनौतियाँ स्वीकार करके ही महिला सृजन सफल हो रहा है और आगे भी होगा।
शालिनी बाजपेयी
शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।
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