COP सम्मेलनों में भारत की भूमिका
- 11 Apr, 2025

जैवविविधता में पौधों, पशुओं और सूक्ष्मजीवों की सभी प्रजातियाँ तथा उनके बीच होने वाली पारिस्थितिक अंतःक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। इसे किसी पारिस्थितिकी तंत्र में प्रजातियों की संख्या, प्रत्येक प्रजाति आनुवंशिक विविधता का आकलन करके और अंततः पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न वातावरणों में प्रजातियों के वितरण से मापा जाता है। जैवविविधता इसलिये महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसे पृथ्वी पर जीवन की समृद्धि और स्वास्थ्य के रूप में परिभाषित किया जाता है। एक समृद्ध और विविध पर्यावरण, अपनी टिकाऊ प्रकृति के कारण, उसमें निवास करने वाले सभी जीवों — चाहे वे मनुष्य हों या अन्य प्राणी — के लिये पर्याप्त जीवन, सुरक्षा और समृद्धि सुनिश्चित करता है। पृथ्वी पर मौजूद प्रत्येक जीवन रूप पारिस्थितिकी तंत्र की स्थिरता और लचीलेपन में अपनी विशेष भूमिका निभाता है।
जैवविविधता, पारिस्थितिकी तंत्र एवं मनुष्यों को कई तरह के लाभ प्रदान करती है। पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को संरक्षित करने से प्राणियों के भोजन और अन्य प्रमुख संसाधनों तक पहुँच सुनिश्चित होती है। इसके अलावा, स्वस्थ और विविध पारिस्थितिकी तंत्र वायु एवं जल शोधन, जलवायु विनियमन तथा बाढ़ की रोकथाम में भी योगदान देते हैं। दुर्भाग्यवश, जैवविविधता आज अनेक कारणों से संकटग्रस्त है और इसके पीछे मुख्य रूप से विभिन्न मानवीय गतिविधियाँ ज़िम्मेदार हैं। जैसे- वनों की अंधाधुंध कटाई, प्रदूषण, वैश्विक तापन, पर्यावास विनाश और अन्य प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन आदि। इन घटनाओं को अगर अनियंत्रित छोड़ दिया जाए, तो समूचे पारिस्थितिकी तंत्र और उनमें मौजूद जीवों की विविधता को नुकसान हो सकता है इसलिये पर्यावरणीय स्थिरता तथा हमारी धरती के भविष्य को सुनिश्चित करने के लिये जैवविविधता का संरक्षण एक प्राथमिकता वाला क्षेत्र बन कर उभरा है।
इस संकट को ध्यान में रखकर ब्राज़ील के रियो डी जनेरियो में जून 1992, में पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसे रियो शिखर सम्मेलन या प्रथम पृथ्वी शिखर सम्मेलन भी कहते हैं। इसमें सभी प्रमुख देशों के बीच पर्यावरण की रक्षा के लिये सहमति बनी। इसे 'यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज' या यूएनएफसीसीसी कहते हैं। यह तय किया गया कि इसके सदस्य देश हर साल एक सम्मेलन आयोजित करके जलवायु के मामलों पर चर्चा करेंगे। इस सम्मेलन को कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (सीओपी या कॉप अथवा कोप) नाम दिया गया है। पहले कोप का आयोजन मार्च-अप्रैल 1995 में बर्लिन में हुआ। वर्ष 2024 के लिये कोप- 29, अज़रबैजान के बाकू में संपन्न हुआ और वर्ष 2025 के लिये कोप- 30 ब्राज़ील में प्रस्तावित है। यह कोप प्रत्येक वर्ष, सदस्य देशों की बैठक करता है और इसमें जलवायु परिवर्तन से निपटने, उत्सर्जन को कम करने तथा ग्लोबल वार्मिंग को सीमित करने के उपायों पर विचार विमर्श होता है। इसका मुख्य कार्य सदस्य देशों की राष्ट्रीय रिपोर्टों और उत्सर्जन सूचियों की जाँच करना है। ये रिपोर्ट प्रत्येक देश के बारे में आवश्यक जानकारी प्रदान करती हैं और तय किये गए व्यापक लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में की जाने वाली कार्रवाइयाँ तथा उनकी प्रगति के बारे में बताती हैं।
भारत ने अक्तूबर 2012 में हैदराबाद में जैवविविधता पर आयोजित ग्यारहवें सम्मेलन (कोप-11) तथा जैव सुरक्षा प्रोटोकॉल से संबंधित पक्षों की छठी बैठक की मेज़बानी की थी। यह उस समय का सबसे एक बड़ा सम्मेलन था। भारत ने इससे पूर्व दस साल पहले वर्ष 2002 में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के लिये कोप- 8 की मेज़बानी की थी, पर उस समय कोप का दायरा बहुत सीमित हुआ करता था।
दिसंबर 2015 में पेरिस में हुई कोप- 21 की बैठक में विश्व के देशों में जलवायु परिवर्तन को लेकर एक समझौता हुआ। इसे 'पेरिस समझौता' या ' कोप- 21 समझौता' कहा जाता है। इसमें प्रमुख तौर पर कहा गया है कि वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जाए और तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के प्रयासों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जाए। भारत ने वर्ष 2016 में पेरिस समझौते की पुष्टि की और वह ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने और स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को बढ़ाने वाली प्रतिबद्धताओं एवं रणनीतियों पर काम कर रहा है। तब भी, अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी या आईईए का अनुमान है कि वैश्विक कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन में भारत की हिस्सेदारी वर्ष 2021 की सात प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2030 में 10 प्रतिशत हो जाएगी।
पेरिस समझौते के हस्ताक्षरकर्त्ता के रूप में, भारत ने वर्ष 2016 में अपना पहला राष्ट्रीय स्तर पर आधारित योगदान अथवा एनडीसी प्रस्तुत किया जिसमें कई गुणात्मक और मात्रात्मक तत्त्व शामिल थे। इसमें कहा गया है कि वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म आधारित ऊर्जा संसाधनों से 40 प्रतिशत बिजली उत्पादन क्षमता का लक्ष्य तय किया गया है। इसमें अक्षय ऊर्जा उत्पादन क्षमता में 175 प्रतिशत की वृद्धि शामिल है। साथ ही सौर ऊर्जा का 100 गीगा वॉट तक विस्तार किया जाएगा और पाँच प्रतिशत बायोडीज़ल के उपयोग का लक्ष्य रखा गया है। वर्ष 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता को वर्ष 2005 के स्तर से 33-35 प्रतिशत कम करने की प्रतिबद्धता जताई गई। इसके साथ ही वर्ष 2018-19 तक ऊर्जा खपत में 10 प्रतिशत की बचत करने का लक्ष्य भी रखा गया, हालाँकि कटौती को मापने के लिये कोई आधार रेखा तय नहीं की गई है। वर्ष 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्ष आवरण के माध्यम से 2.5-3 बिलियन टन कार्बन डाई ऑक्साइड समतुल्य अतिरिक्त कार्बन सिंक बनाने या कार्बन हटाने का लक्ष्य भी रखा गया। वर्ष 2016 से भारत ने अपनी एनडीसी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति की है। जीडीपी लक्ष्य के अनुसार उत्सर्जन तीव्रता के लिये भारत ने वर्ष 2005 की तुलना में वर्ष 2016 में अपनी उत्सर्जन तीव्रता (कृषि को शामिल नहीं करते हुए) को पहले ही 24 प्रतिशत कम कर दिया था। भारत की सौर बिजली उत्पादन क्षमता बढ़कर 60.8 गीगावाट हो गई है। इसमें वर्ष 2016 से लगभग नौ गीगावाट प्रतिवर्ष की वृद्धि दर बनी हुई है।
ग्लासगो में वर्ष 2021 में आयोजित कोप- 26 में भारत ने अपनी शमन प्रतिबद्धताओं को पर्याप्त सीमा तक बढ़ाया और पाँच-बिंदु वाली ‘’पंचामृत’’ रणनीति को दुनिया के सामने रखा। इसमें वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म बिजली उत्पादन क्षमता को 500 गीगावाट तक बढ़ाना तथा वर्ष 2030 तक अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50 प्रतिशत नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा करना शामिल है। वर्ष 2030 तक कुल अनुमानित कार्बन तीव्रता को सकल घरेलू उत्पाद के 45 प्रतिशत तक या कार्बन उत्सर्जन को एक अरब टन तक कम करना तथा वर्ष 2005 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को कम-से-कम 45 प्रतिशत तक कम करना एवं वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य प्राप्त करना शामिल है।
वर्ष 2022 में शर्म अल शेख में आयोजित कोप- 27 के प्रमुख परिणामों में अन्य बातों के साथ-साथ हानि एवं क्षति कोष की स्थापना तथा कृषि में शमन, न्यायोचित परिवर्तन और जलवायु कार्रवाई के लिये कार्य कार्यक्रमों पर निर्णय शामिल रहे हैं। इस सम्मेलन में भारत के प्रयासों में समानता पर ध्यान केंद्रित करना, राष्ट्रीय परिस्थितियों को मुख्यधारा में लाना और कृषि में अनुकूलन के लिये चिंताएँ, शुद्ध शून्य और उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों पर किसी विशिष्ट परिणाम की प्राप्ति के लिये समानता की आवश्यकता, वैश्विक कार्बन बजट में उचित हिस्सेदारी का समर्थन करने को शामिल किया गया। भारत के प्रयासों से 'शर्म अल-शेख कार्यान्वयन योजना' में उत्पादन और उपभोग के स्थायी पैटर्न के साथ-साथ टिकाऊ जीवन शैली में परिवर्तन की आवश्यकता के संदर्भ को भी शामिल किया गया। इस सम्मेलन में भारत की वार्ताएँ समानता के मूलभूत सिद्धांत और विकसित देशों का ध्यान उनकी अधूरी प्रतिबद्धताओं की ओर आकर्षित करने पर आधारित थीं।
वर्ष 2023 में दुबई में आयोजित कोप- 28 में भारत ने कहा कि कार्बन क्रेडिट प्रणाली अपर्याप्त है क्योंकि इसमें सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना की कमी है। इसके साथ ही पृथ्वी के स्वास्थ्य कार्ड तैयार करने का सुझाव दिया और इसके लिये एक समग्र दृष्टिकोण वाली हरित ऋण पहल का प्रस्ताव भी रखा। ग्रीन क्रेडिट की यह संकल्पना जलवायु परिवर्तन की चुनौती का प्रभावी ढंग से सामना करने हेतु स्वैच्छिक पर्यावरण-अनुकूल कार्यों को प्रोत्साहित करने वाले एक तंत्र के रूप में प्रस्तुत की गई है। इसमें प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को पुनरुद्धार तथा बंजर/क्षरित भूमि एवं नदी जलग्रहण क्षेत्रों पर वृक्षारोपण के लिये ग्रीन क्रेडिट जारी करने की परिकल्पना की गई है। उद्योग प्रणाली में परिवर्तन के लिये समावेशी एवं न्यायसंगत उद्योग परिवर्तन पर ज़ोर दिया गया। कम कार्बन प्रौद्योगिकी के सह-विकास एवं हस्तांतरण तथा उद्योग परिवर्तन के लिये उभरती अर्थव्यवस्थाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने पर विशेष ज़ोर दिया गया है। इसमें बताया गया कि भारत ने वर्ष 2005 और वर्ष 2019 के बीच अपने सकल घरेलू उत्पाद की तुलना में उत्सर्जन तीव्रता को 33% तक सफलतापूर्वक कम कर दिया है। इसी प्रकार निर्धारित समय से 11 वर्ष पहले, 2030 के लिये प्रारंभिक राष्ट्रीय एनडीसी लक्ष्य को प्राप्त कर लिया गया है। भारत ने गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों के माध्यम से अपनी कुल विद्युत स्थापित क्षमता का 40% हिस्सा प्राप्त कर लिया है, जो वर्ष 2030 के निर्धारित लक्ष्य से नौ वर्ष पूर्व ही हासिल कर लिया गया है। वर्ष 2017 और वर्ष 2023 के बीच, भारत ने लगभग 100 गीगावाट विद्युत स्थापित क्षमता में वृद्धि की, जिसमें से लगभग 80% क्षमता गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित स्रोतों से प्राप्त हुई है।
वर्ष 2024 में बाकू में आयोजित कोप- 29 शिखर सम्मेलन के दौरान जलवायु वित्त पर उच्च स्तरीय मंत्रिस्तरीय बैठक में समान विचारधारा वाले विकासशील देशों की ओर से हस्तक्षेप करते हुए भारत ने यह उल्लेख किया कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव अब एक आपदा से दूसरी आपदा के रूप में तेज़ी से दिखाई देने लगे हैं। भारत में चरम मौसम घटनाओं की आवृत्ति और तीव्रता लगातार बढ़ रही हैं, जिसका विशेष प्रभाव वैश्विक दक्षिण के समुदायों पर पड़ रहा है। इसलिये जलवायु कार्रवाई पर महत्त्वाकांक्षओं को बढ़ाने की ज़रूरत है। अब कोप के जो भी निर्णय होंगे उससे सभी, खास तौर पर वैश्विक दक्षिण के समुदाय न केवल महत्त्वाकांक्षी शमन कार्रवाई करने में सक्षम होंगे, बल्कि जलवायु परिवर्तन के अनुकूल भी बनेंगे। भारत ने कहा कि ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियों और क्षमताओं में अंतर है और पेरिस समझौता जलवायु परिवर्तन के प्रति वैश्विक प्रतिक्रिया की परिकल्पना करता है, जिसमें समानता, साझा, विभेदित ज़िम्मेदारियों एवं क्षमताओं के सिद्धांतों का पालन किया जाता है। विभिन्न राष्ट्रीय परिस्थितियों, सतत् विकास लक्ष्यों और गरीबी उन्मूलन, विशेष रूप से वैश्विक दक्षिण के संदर्भ में, की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये।
इस कोप सम्मेलन में भारत ने अपने हस्तक्षेप के दौरान यह दोहराया कि विकसित देशों को अनुदान, रियायती वित्त और गैर-ऋण आधारित सहायता के माध्यम से वर्ष 2030 तक प्रतिवर्ष न्यूनतम 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की राशि उपलब्ध कराने और उसे जुटाने के लिये प्रतिबद्ध होना चाहिये। यह वित्तीय सहायता विकासशील देशों की उभरती आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं को पूरा करे और इसे ऐसे प्रतिबंधात्मक शर्तों के बिना उपलब्ध कराया जाए जो उनके विकास को बाधित कर सकती हैं। भारत ने जलवायु वित्त के नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्यों के महत्त्व पर ज़ोर देते हुए कहा कि इसे निवेश लक्ष्य में नहीं बदला जा सकता, क्योंकि यह विकसित देशों की तरफ से विकासशील देशों के लिये एकतरफा रूप से प्रदान और जुटाई जाने वाली वित्तीय सहायता से संबंधित हैं। पेरिस समझौते में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जलवायु वित्त किसे प्रदान करना और जुटाना है। यह स्पष्ट हो चुका है कि यह ज़िम्मेदारी पूरी तरह से विकसित देशों की ही है। भारत ने यह स्पष्ट रूप से रेखांकित किया कि किसी भी नए लक्ष्य में ऐसे तत्त्वों को शामिल करना, जो पेरिस समझौते के अधिदेश से परे हों, स्वीकार्य नहीं है। पेरिस समझौते और उसके प्रावधानों पर फिर से बातचीत की कोई गुंजाइश नहीं है। पारदर्शिता और विश्वास किसी भी बहुपक्षीय प्रक्रिया की रीढ़ हैं। भारत ने उल्लेख किया कि जलवायु वित्त की परिभाषा और इसमें शामिल तत्त्वों को लेकर अब तक कोई स्पष्ट सहमति नहीं बन पाई है। विकसित देशों का अपनी वर्तमान वित्तीय और तकनीकी प्रतिबद्धताओं के निर्वहन में प्रदर्शन अपेक्षाओं से काफी कम और निराशाजनक रहा है। यूएनएफसीसीसी और पेरिस समझौते के प्रावधानों के अनुरूप जलवायु वित्त की एक स्पष्ट परिभाषा न केवल पारदर्शिता को बढ़ावा देगी, बल्कि यह रचनात्मक विचार-विमर्श को आगे बढ़ाने और आपसी विश्वास स्थापित करने के लिये भी अत्यंत आवश्यक है।