डिजाइन के नए आयाम गढ़ता इंडिया हैबिटेट सेंटर
- 02 Aug, 2021 | विवेक शुक्ला
राजधानी में लोधी एस्टेट से गुजरते हुए इंडिया हैबिटेट सेंटर (आईएचसी) की भव्य और राजसी इमारत को दूर से देखकर ही मन प्रसन्न हो जाता है। बेशक, ये कोई सामान्य इमारत नहीं है। इधर राजधानी का एलिट कुछ पल सुकून से बिताने के लिये आता है। यहाँ पर बुक लांच से लेकर प्रमुख चित्रकारों के ताजा काम की प्रदर्शनियाँ भी लगी रहती हैं। इधर बहुत से सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं के दफ्तर भी हैं। इधर आकर अहसास होता कि मानो आप किसी शांत टापू में हों। आपको शायद ही राजधानी में इस तरह की कोई दूसरी बिल्डिंग मिले।
आईएचसी में देखा जाए तो कई इमारतें हैं, जो एक दूसरे से पांचवी मंजिल पर बने पुल से जुड़ जाती हैं। आप कह सकते हैं कि ये इमारतें अलग होने के बावजूद भी साथ हैं। इनका अस्तित्व एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। आईएचसी का निर्माण 1988 में चालू हुआ और 1993 में ये बनकर तैयार हो गई। दो इमारतों को जोड़ने वाले पुल के दोनों तरफ शीशें लगे हैं। वहाँ से बाहर के हरे-भरे मंजर को देखना अच्छा लगता है। इन पर खड़े होकर आप कभी आईएचसी परिसर की सुंदरता को निहारिये। आपका दिल खुश हो जाएगा। आईएचसी की दीवारों पर सीमेंट का लेप नहीं मिलता। इससे ये अप्रतिम और अलग सी हो जाती हैं।
आईएचसी का डिजाइन जोसेफ एलेन स्टाइन, प्रो.बी.वी.दोषी और जयनारायण भल्ला जैसे दिग्गज वास्तुकारों ने मिलकर तैयार किया था। दोषी साहब ने चंडीगढ़ के चीफ आर्किटेक्ट ली कार्बूजिए के साथ भी काम किया था। इन सबकी डिजाइन की गई इमारतों में सूर्य की रोशनी और ताजा हवा के झोंके आते रहते हैं।
दरअसल ये तीनों एसडीएम कन्सल्टन्ट नाम से एक आर्किटेक्ट फर्म चलाते थे। उस फर्म को आईएचसी के डिजाइन का काम मिला था। ये तीनों ही स्वतंत्र भारत के अति विशिष्ट वास्तुकार माने जा सकते हैं। इनका काम गवाही देता है इनकी महानता की और इस बात की कि इन्हें कुछ हटकर काम करने की जिद थी।
आगे बढ़ने से पहले बता दें कि जिधर अब इंडिया हैबिटेट सेंटर (आईएचसी) आबाद है, वहाँ पर लोधी रोड-जोर बाग के घरों में साफ-सफाई का काम करने वाली महिलाएँ झुग्गियों में सपरिवार रहती थीं। ये अधिकतर तमिलनाडू से थीं। उन झुग्गियों को 80 के दशक में हटाया गया था। राजधानी की कई बुलंद इमारतें, पार्क और होटल उधर आबाद हैं, जहाँ पर कभी होती थी मलिन या झुग्गी बस्तियाँ।
बहरहाल, आईएचसी की दीवारों में आप हरी, लाल और ग्रे रंगों की सेरेमिक टाइलें देखते हैं। इनसे इमारत को एक नया रूप मिलता है और चारों तरफ ईंटों को देखने से पैदा होने वाली नीरसता भी भंग होती है। आईएचसी के निर्माण के समय राजधानी की शुष्क जलवायु को जेहन में रखते हुए लैंड स्केपिंग पर बहुत फोकस दिया गया। आपको शायद ही राजधानी में कोई इतनी बड़ी और विशाल इमारत के चप्पे-चप्पे पर हरियाली मिले। जाहिर है, गर्मी के मौसम में हरियाली निश्चित रूप से राहत देती है। स्टाइन, भल्ला और दोषी की तिकड़ी ने आईएचसी की खिड़कियों के लिए बहुत बड़ा सा स्पेस रखा। यह बहुत सोच-विचार करने के बाद लिया गया फैसला था। खिड़कियों का इस तरह का डिजाइन देकर आईएचसी दिन में सूरज की रोशनी से नहाती है। इधर के कमरों में दिन में लाइट ना जलाने से भी काम चल जाता है। लेकिन, आईएचसी का पश्चिमी भाग लगभग बंद सा है। जाहिर है, आप इसकी वजह जानना चाहेंगे। वजह यह है कि पश्चिम भाग को बंद रखने से यह तब बच जाती है जब सूरज आग उगल रहा होता है। सूरज दिन में 12 बजे से तीनेक बजे तक पश्चिम दिशा की तरफ होता है। कहना ना होगा कि इसलिए जो भी तब सूरज की किरणों को झेलता होगा उसे कष्ट तो होता होगा। अमेरिकी एंबेसी की तरह आईएचसी में भी आपको कई जगहों पर जल कुंड मिलते हैं। ये भी सारे माहौल को शीतलता प्रदान करते हैं।
स्टाइन साहब मूल रूप से अमेरिकी थे और भारत में बस गए थे। क्या उन्होंने आईएचसी में जल कुंडों के लिए स्पेस अमेरिकी एँबेसी को देखकर निकाला? अमेरिकी एंबेसी के डिजाइनर एडवर्ड डुरेल स्टोन ने इसमें तबीयत से हरियाली और जलकुंड दिए थे। मुमकिन है कि स्टोन से प्रभवित हों स्टाइन। आखिर आर्किटेक्ट एक-दूसरे के काम से प्रभावित तथा प्रेरित होते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। अगर अन्य वास्तुकार भी हमारे शहरों-महानगरों में धड़ाधड़ बन रहे कंक्रीट के जगलों में जल कुंड के लिए स्पेस निकालते रहें तो अच्छा रहेगा।
भल्ला,स्टाइन और दोषी की वास्तुकला आधुनिकता और परम्परा का संगम मानी जा सकती है। जोसेफ स्टाइन ने लोधी रोड में आईएचसी के अलावा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, वर्ल्ड बैंक और दूसरी कई इमारतों के डिजाइन बनाए थे। उन्होंने ही लोधी गार्डन की लैंड स्केपिंग की। जिधर की हरियाली और गुलों से उठने वाली महक रोज की आपाधापी से मुकाबला करने के लिए जरूरी एनर्जी देती है।
ये तीनों प्रयोगधर्मी डिजाइनर रहे। इनके काम में गरिमामय भव्यता मिलती है। ये किसी बिल्डिंग का डिजाइन तैयार करते वक्त आगे के कई दशकों के बारे में सोचते थे। इसलिए उनकी इमारतें नई सी दिखाई देती है। यह बात आईएचसी के लिए बिल्कुल सच मानी जाएगी। इसे बने हुए लगभग तीन दशक हो रहे हैं पर ये अब भी शानदार लगती है। आईएचसी के भीतर आकर आपको लगता है कि मानो आप अमेरिका या यूरोप की किसी बिल्डिंग में हैं।
स्टाइन, भल्ला, दोषी की तिकड़ी मानती थी कि स्थानीय पर्यावरण के मुताबिक ही इमारतें और घर बनें। आपको आईएचसी में उद्यान पथ मिलेगा। यानी आप हरियाली के बीच बने रास्ते से इमारत के भीतर प्रवेश करते हैं। आपको इस तरह के प्रयोग कम ही वास्तुकारों के काम में ही मिलते हैं।
आईएचसी राजधानी की उन इमारतों में है जिधर दिव्यांग भी खुशी-खुशी जाना पसंद करते हैं। क्या हमारे इधर दिव्यांगों के मन-माफिक इमारतों का निर्माण हो रहा है ? इस सवाल का जवाब नकारात्मक ही मिलेगा। कारण ये है कि हमारे इधर दिव्यांगों के हितों को लेकर सरकार से लेकर समाज का रवैया ठंडा रहा है। अब लक्जरी होम, सी-फेसिंग फ्लैट, एलिट होम, आधुनिक इमारतों वगैरह के दौर में कितने बिल्डर और आर्किटेक्ट सोचते हैं दिव्यांगों की सुविधा के संबंध में। बेशक, बहुत कम। अफसोस कि हमारे यहाँ दिव्यांगों के लिए हाई-राइस बिल्डिंगों में पर्याप्त जरूरी सुविधाएँ उपलब्ध करवाने को लेकर गंभीरता से नहीं सोचा जा रहा। बात सिर्फ विकलांगों की ही नहीं,बल्कि बुजुर्गों की भी है। हमारे इधर इन दोनों की अनदेखी हो रही है। दिव्यांगों को लेकर रीयल एस्टेट कंपनियों और आर्किटेक्ट बिरादरी को ज्यादा संवेदनशील रुख अपनाना ही होगा। बुजुर्गों के संबंध में भी सोचने की जरूरत है। आईएचसी का निर्माँण दिव्यांगों तथा बुजुर्गों को ध्यान में रखकर किया गया। यहाँ पर दिव्यांगों की व्हीलचेयर को लिफ्ट के अंदर लेकर जाया जा सकता है। बाथरूम इतनी ऊंचाई में हैं कि दिव्यांग उनका इस्तेमाल कर लेते हैं। इंडिया हैबिटेट सेंटर का लाजवाब डिजाइन तैयार करके भल्ला, दोषी और स्टाइन ने दिल्ली पर एक तरह का बहुत बड़ा एहसान किया है।
[विवेक शुक्ला] |