खेलों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी
- 11 May, 2023 | शालिनी बाजपेयी
''मैं हमेशा ये सोच के रोता रहा कि छोरा होता तो देश के लिये गोल्ड लाता। ये बात मेरे समझ में न आई कि गोल्ड तो गोल्ड होता है, छोरा लावे या छोरी।'' साल 2016 में आई आमिर खान की फिल्म 'दंगल' का ये डायलॉग तो हम सभी ने सुना ही होगा। ये महज एक फिल्म का डायलॉग भर नहीं है जिसका आनंद लिया और छोड़कर आगे बढ़ गए, बल्कि ये बहुत गहरी बात है जिसे आज तक हमारा भारतीय समाज पूरी तरह से आत्मसात नहीं कर पाया है। जी हाँ, लिंग समानता को लेकर हम कितनी भी बड़ी-बड़ी बातें क्यों न कर लें, लेकिन वास्तविकता यह है कि आज भी भारत में लिंग असमानता बड़े पैमाने पर है जिसका एक जीता जागता उदाहरण खेल की दुनिया है। वैसे भी खेलों को लेकर भारत का रवैया हमेशा से सुस्ती भरा रहा है, उसमें भी महिलाओं को प्रोत्साहन मिलना तो बहुत दूर की बात है। ऐसे में पर्याप्त समर्थन के अभाव व सामाजिक वर्जनाओं को तोड़कर अपना परचम लहराने वाली मैरी कॉम, विनेश फोगाट, बबिता फोगाट, मानसी जोशी, दुति चंद, पी.वी सिंधु, हिमा दास जैसी महिला खिलाड़ियों को भूला नहीं जा सकता है। आज हम इस लेख में, अपनी प्रतिभा से खेल की दुनिया और समाज में मिसाल बनीं इन महिला खिलाड़ियों के बारे में तो जानेंगे ही, साथ ही यह भी जानेंगे कि आखिर इस क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी तुलनात्मक रूप से कम होने की क्या वजह है; क्यों आज भी अधिकाँश घरों के लोग अपनी बेटियों को खेल के क्षेत्र में करियर बनाने का समर्थन नहीं करते।
राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती दे रहीं इन महिला खिलाड़ियों के संघर्ष की दास्तां सुनकर आप भी यह कहने को मज़बूर हो जाएंगे कि ''म्हारी छोरियां छोरों से कम हैं के''।
हिमा दास- ढिंग एक्सप्रेस के नाम से मशहूर हिमा दास का जन्म 9 जनवरी 2000 को असम के नगांव जिले के ढिंग गाँव में हुआ था। उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। उनके पिता के पास मात्र दो बीघा जमीन थी जिस पर खेती करके वह आजीविका चलाते थे। शुरू में हिमा अपने धान के खेतों में ही अभ्यास करती थीं। पैसों की कमी की वजह से उनके पास अच्छे जूते भी नहीं थे। हिमा फुटबॉल में स्ट्राइकर बनना चाहती थीं। एक दिन उनके दौड़ने की क्षमता देखकर किसी ने उन्हें एथलीट बनने की सलाह दी और यहीं से शुरू हुआ उनके एथलीट बनने का सफर। बता दें कि, हिमा ट्रैक स्पर्धा में विश्व स्तर पर गोल्ड जीतने वाली पहली भारतीय खिलाड़ी हैं। हिमा के ज़ज्बे और प्रदर्शन को देखते हुए असम पुलिस में उन्हें उप अधीक्षक (डीएसपी) बनाया गया है। हिमा दास ने कई प्रतियोगिताओं में स्वर्ण पदक जीता है।
मैरी कॉम- बॉक्सर मैरीकॉम का जन्म 1 मार्च 1983 को भारत के पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर के एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनका बचपन भी बहुत गरीबी में गुजरा। बॉक्सिंग शुरू करने के बाद मैरी को पता था कि उनका परिवार उनके बॉक्सिंग में करियर बनाने के विचार को कभी नहीं मानेगा, जिस वजह से उन्होंने इस बात को अपने परिवार से छिपाकर रखा था। साल 1998 से 2000 तक वे अपने घर में बिना बताये इसकी ट्रेनिंग लेती रहीं। सन 2000 में जब मैरी ने मणिपुर में ‘वीमेन बॉक्सिंग चैम्पियनशिप’ में जीत हासिल की, और उन्हें बॉक्सर का अवार्ड मिला तब परिवार को उनके बॉक्सर होने का पता चला। बड़ी बात यह है कि, भारत में जहाँ शादी और बच्चों के बाद महिला खिलाड़ी का करियर खत्म माना जाता है, ऐसे में मैरीकॉम ने माँ बनने के बाद भी खेलना नहीं छोड़ा। तीन बच्चों की माँ बनने के बाद भी मैरीकॉम ने वर्ल्ड चैंपियनशिप जीती। वह दुनिया की एकमात्र बॉक्सर हैं जिन्होंने कुल आठ वर्ल्ड चैंपियनशिप मेडल जीते हैं।
विनेश फोगाट- पहलवान विनेश फोगाट का जन्म 25 अगस्त 1994 को भारत के हरियाणा राज्य में हुआ था, जो कि भारत के सबसे कम लिंगानुपात वाले राज्यों में से एक है। जब विनेश ने अपने गाँव में कुश्ती का अभ्यास शुरू किया तो लड़कों का खेल समझे जाने वाले खेल पहलवानी चुनने और कपड़ों की च्वाइस के लिये विनेश को बहुत कुछ झेलना पड़ा, लेकिन विनेश ने हार नहीं मानी और इस यात्रा में पिता के बाद उनका साथ उनके ताऊ ने दिया। खेल की इस दुनिया में विनेश ने वर्ल्ड चैंपियनशिप में कांस्य पदक और कॉमनवेल्थ गेम्स में स्वर्ण पदक जीतकर तिरंगे की शान बढ़ाई है। यह भी जानना ज़रूरी है कि, विनेश वर्ल्ड चैंपियशिप में दो पदक जीतने वाले देश की पहली महिला पहलवान हैं।
दुति चंद- विनेश फोगाट जैसी खिलाड़ियों ने जहाँ पुरुष प्रधान मानसिकता को चुनौती दी, वहीं दुति चंद ने गरीबी और जेंडर के इर्द-गिर्द बनी रूढ़ियों को तोड़ा। दुति का जन्म 3 फरवरी 1996 को उड़ीसा राज्य के जाजपुर जिले में हुआ था। इनके पिता एक बुनकर थे। इनकी मां भी बुनकर का काम करती थीं। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी लेकिन दुति की मेहनत को देखते हुए उनके घर और गाँव वाले सभी को यकीन था कि एक दिन वह बहुत आगे तक जाएँगी। एक कहावत 'होनहार बिरवान के चिकने पात' दुति पर पूरी तरह से लागू होती है। इतना ही नहीं, दुति को खेल में भाग लेने के लिये भी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी थी, लेकिन दुति ने यह लड़ाई भी जीती। आज दुति भारत की सबसे तेज भागने वाली एथलीट्स में से हैं।
पी.वी सिंधु- तेलंगाना में रहने वाली पीवी सिंधु भारत की पहली बैडमिंटन खिलाड़ी हैं जिन्होंने सिर्फ 21 साल की उम्र में रियो ओलंपिक में रजत पदक जीता है। वह दुनिया के टॉप-10 खिलाड़ियों में से हैं। महिला हो या पुरुष, सिंधु से पहले किसी भी भारतीय खिलाड़ी ने वर्ल्ड बैडमिंटन चैंपियनशिप नहीं जीती है।
खेलों में कितनी है महिलाओं की भागीदारी?
आँकड़ों की बात करें तो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बीते पाँच वर्षों में महिला खिलाड़ियों की संख्या में काफ़ी इज़ाफा देखने को मिला है। खेल मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2018 से 2020 की अवधि में खेलो इंडिया गेम्स में महिला खिलाड़ियों की भागीदारी में कुल 160 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। वहीं, ओलंपिक डेटाबेस के अनुसार, साल 2000 में ओलंपिक खेलों में कुल 38 फीसदी महिलाओं की भागीदारी देखी गई थी, जो कि साल 2016 में बढ़कर 45 फीसदी और साल 2020 में 47 फीसदी हो गई।
आखिर खेल में क्यों कम है महिलाओं की भागीदारी?
खेल में महिलाओं की पर्याप्त संख्या में भागीदारी न होने के कुछ कारण ये हो सकते हैं-
- एक रिसर्च के दौरान लोगों ने बताया कि स्कूलों द्वारा खेल पर ज़ोर न दिया जाना व सुविधाओं का अभाव इसकी बड़ी वजहें हैं।
- महिलाओं को रोज़मर्रा के आधार पर लिंगवाद के कई मुद्दों का सामना करना पड़ता है, चाहे वह कार्यस्थल हो या घर। उनके पहनावे, उनकी बातचीत व व्यवहार की निगरानी की जाती है और उसी आधार पर उनका आंकलन किया जाता है।
- अधिकतर लोगों का मानना है कि महिला एथलीटों को मातृत्व और खेल करियर के बीच संतुलन स्थापित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- इसके अलावा, पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में महिला खिलाड़ियों को कम धन मिलता है, जिससे उनके लिये प्रतिस्पर्द्धा करना एवं लंबे समय तक खेल में लिप्त रहना मुश्किल हो जाता है।
- खेल जगत में महिलाओं के अथक प्रयासों के बावजूद उन्हें अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में बराबर सम्मान या मान्यता प्राप्त नहीं होती है।
- कई बार कोई सुरक्षित विकल्प न होने के कारण अन्य परिवारों के साथ कारपूलिंग जैसी परिस्थिति या लड़की के पास परिवार के साथ घर पर रहने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होता है।
- हाल की प्रगति के बावजूद महिला एथलीटों के साथ वास्तविक या कथित यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान के आधार पर भेदभाव बना हुआ है।
- प्रशिक्षित एवं गुणवत्तायुक्त कोच की अनुपस्थिति भी एक बड़ा कारण है। कई बार कोच उन लड़कों के प्रशिक्षण पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं, जिनके पास प्रशिक्षण हेतु धन अधिक होता है।
- महिला खेलों को अक्सर मीडिया में कम दिखाया जाता है, जिससे महिला एथलीटों के लिये पहचान और प्रायोजन के अवसर प्राप्त करना कठिन हो जाता है।
सुझाव
- खेलों में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिये सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि उन्हें उनके परिवार का साथ मिले।
- इसके अलावा, राज्य सरकारों को खेलों में भाग लेने से संबंधित सेमिनार और शिविरों का आयोजन करवाना चाहिये ताकि महिलाओं के साथ-साथ उनके परिवार भी खेलों के प्रति ज़ागरूक हों।
- योजनाओं को थोड़ा और बेहतर तरीके से लागू किया जाए ताकि सभी ज़रूरतमंदों को उनका लाभ मिल सके।
- खिलाड़ी महिलाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने के साथ-साथ खेल से जुड़ी सुविधाएँ उपलब्ध करवाए जाने की आवश्यकता है।
- स्थानीय स्तर पर महिलाओं के लिये विभिन्न खेल प्रतियोगिताएँ आयोजित करवाई जानी चाहिये ताकि अच्छी खिलाड़ियों की पहचान हो सके और उनकी प्रतिभा को निखारा जा सके।
अंत में हम कह सकते हैं कि ओलंपिक और पैरालम्पिक में भारतीय महिलाओं का शानदार प्रदर्शन इस बात की ओर संकेत दे रहा है कि बदलाव की लहर चल पड़ी है जो दूर तक जाएगी। व्यावहारिक और सामाजिक बदलाव ही महिलाओं के आगे आने के द्वार खोलेगा। जैसे-जैसे महिलाएँ शिक्षा, करियर और अपनी ज़िंदगी के फ़ैसले स्वयं लेने में सक्षम होती जाएंगी, वैसे-वैसे लोग भी इसे स्वीकार करने लगेंगे और खेल जैसे क्षेत्रों में भी उनकी भागीदारी बढ़ती जाएगी। संक्षेप में कहें तो हम सभी को अपनी परंपरागत सोच से बाहर निकलना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि ‘’मेडलिस्ट पेड़ पर नहीं उगते, उन्हें बनाना पड़ता है, प्यार से..मेहनत से और लगन से।’’
शालिनी बाजपेयीशालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं। |