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पर्यावास का महत्त्व

सुरक्षित आश्रय मनुष्य का एक बुनियादी अधिकार है। एक सामान्य मानव के लिये जितना ज़रूरी भोजन और कपड़ा है उतना ही ज़रूरी है रहने के लिये टिकाऊ और सुरक्षित ठिकाने का होना। आश्रय की इसी महत्ता को ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रतिवर्ष अक्टूबर के पहले सोमवार को विश्व पर्यावास दिवस के रूप में मनाया जाता है। प्रतिवर्ष एक नई थीम के साथ इस दिवस का आयोजन किया जाता है। वर्ष 2022 के लिये विश्व पर्यावास दिवस की थीम है- माइंड द गैप, लीव नो वन एंड प्लेस बिहाइंड।

यह दिवस एक स्मरणपत्र की भाँति हर साल हमें अपने कस्बों, मुहल्लों और आश्रय के सुरक्षार्थ ज़िम्मेदारियाँ याद दिलाता है। इसके साथ ही यह इस संबंध में भी जागरूक करता है कि सभी को सुरक्षित पर्यावास उपलब्ध कराना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। खासकर ऐसे समय मे जबकि बहुत से लोग बेघर जीवनयापन कर रहे है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार, विश्व की 55 फीसदी आबादी यानी 4.2 बिलियन लोग शहरों मे रहते हैं। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2050 तक यह संख्या दोगुनी हो जाएगी। इसका मतलब है कि वर्ष 2050 में हर 10 में से 7 व्यक्ति शहरों में रहेंगे। इसलिये हमें शहरों में सुरक्षित और टिकाऊ शहरी नियोजन की ज़रूरत पड़ेगी।

अगर आँकड़ो की बात करें तो कोरोना महामारी के पूर्व ही विश्व मे 1.8 बिलियन लोग झोपड़पट्टी और अनौपचारिक बस्तियों में रहते थे। कोरोना महामारी के बाद तो मानव को अपने कार्मिक आश्रयस्थलों से विस्थापित होकर अपने-अपने घर ही लौटना पड़ा। विस्थापन की इसी प्रवृत्ति को रिवर्स माइग्रेशन कहते है।

यदि भारत मे आश्रय संबंधी आँकड़ों की बात करें तो यहाँ वर्ष 2001 में 27.81 फीसदी जनसंख्या शहरों में निवास करती थी और वर्ष 2011 में यह आँकड़ा 31.16 फीसदी हो गया। वर्ष 2050 तक भारत के शहरी निवासियों की संख्या में 416 मिलियन की बढ़ोत्तरी होने का अनुमान है। लगातार बढ़ता शहरीकरण अपने साथ अनेक चुनौतियाँ भी लाता है।

इन चुनौतियों में सबसे प्रमुख चुनौती है शहरो में निवास निवास करने वाली एक बड़ी आबादी को सुरक्षित आश्रय उपलब्ध कराने की। सुरक्षित आश्रय के अभाव में ये लोग झोपड़पट्टी या अनाधिकृत बस्तियों में रहने लगते हैं। इन बस्तियों में बुनियादी सुविधाओं जैसे स्वच्छ पेयजल, स्वास्थ्य अवसंरचना, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा व्यवस्था, जल निकासी की उचित व्यवस्था, सीवेज ट्रीटमेंट और बिजली आदि का अभाव रहता है।

इन अभावों के कारण वहाँ रहने वाले लोगों के जीवन का सर्वांगीण विकास भी नहीं हो पाता है। मसलन इन बस्तियों में पलने वाले बच्चे कुपोषण के शिकार होते है। इस कारण यहाँ शिशु मृत्य दर और बाल मृत्यु दर का स्तर उच्च होता है। इसके अलावा यहाँ शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण बाल विवाह भी होते है। एक तय उम्र सीमा से कम उम्र में माँ बनने से किशोरियाँ जहाँ एनीमिया जैसे रोगों का शिकार होती हैं तो वहीं इनसे पैदा हुए बच्चे भी कुपोषित होते है और कई बार तो जच्चा-बच्चा यानी प्रसूता तथा शिशु की मौत भी हो जाती है।

इन सामाजिक समस्याओं के अतिरिक्त मलिन बस्तियों में बेरोज़गारी और गरीबी का भी उच्च स्तर देखने को मिलता है। इन जगहों पर रहने वाले लोग ज़्यादातर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कामगार होते हैं। इस कारण उन्हें श्रमिको को मिलने वाले विभिन्न सामाजिक लाभों की प्राप्ति भी नहीं हो पाती है। इसके अलावा अत्यधिक संकुल स्थान होने के कारण यहाँ प्रदूषण की समस्या के साथ ही श्वास संबंधी बीमारियों के होने का भी जोखिम होता है।

कोरोना महामारी के बाद तो इन बस्तियों में रहना और भी दूभर हो गया है। शहरी मानव बस्तियों में लगातार असमानताएँ बढ़ रही हैं जो व्यवस्था एवं मानवता के समक्ष लगातार नई चुनौतियाँ उत्पन्न कर रही हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इन चुनौतियों को 3C के रूप में वर्गीकृत किया है- Corona (कोरोना), Climate (जलवायु), Crisis (संकट)। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ का यह भी कहना है कि इन चुनौतियों के कारण गरीबी के खिलाफ की गई प्रगति लगातार बाधित हो रही है। इसीलिये गरीबी एवं असमानता से निपटने को तत्काल वैश्विक प्राथमिकता भी घोषित किया गया है।

इन्हीं उद्देश्यों के सुसंगत प्रतिवर्ष मनाए जाने वाले विश्व पर्यावास दिवस का मूल उद्देश्य सुरक्षित आश्रय की वकालत करना है। यदि इस दिवस के इतिहास पर बात करें तो वर्ष 1985 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अक्टूबर के प्रथम सोमवार को विश्व पर्यावास दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की गई थी। वर्ष 1986 में पहली बार इस दिवस को मनाया गया जिसका मेज़बान शहर था नैरोबी और इस दिवस की थीम थी- आश्रय मेरा अधिकार। तब से आज तक प्रतिवर्ष इस दिवस को 'आश्रय- मानव के लिये एक मूल अधिकार' की भावना के रूप में मनाया जा रहा है जो सामान्य मानव, सरकारों, नागरिक संगठनों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनो को सुरक्षित आश्रय के संबंध में ज़िम्मेदारियों की याद भी दिलाता है।

  संकर्षण शुक्ला  

संकर्षण शुक्ला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से हैं। इन्होने स्नातक की पढ़ाई अपने गृह जनपद से ही की है। इसके बाद बीबीएयू लखनऊ से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक किया है। आजकल वे सिविल सर्विसेज की तैयारी करने के साथ ही विभिन्न वेबसाइटों के लिए ब्लॉग और पत्र-पत्रिकाओं में किताब की समीक्षा लिखते हैं।

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